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अब पछताए होत क्या

अब पछताए होत क्या ....? II

पछताने के अलग –अलग सीजन, अलग मूड, अलग फील्ड, अलग माहौल और ऊपर बाले ने पता नहीं कितने अलग-अलग, आचार-विचार, रंग–ढंग बनाए हैं |

किसान खेतों में बीज डाल के, चिड़िया के चुग जाने पर जो पछतावा करता है, उसी को बतौर नजीर- नसीहत किसानों को बतलाया जाता है, कि हे किसान तूने जमीन में बीज डाल कर नेक काम किया था मगर तेरी नेकी के ‘पर’ भी निकले होंगे ऐसा तुझे कभी गुमान न रहा होगा | उसी ‘पर’ वाले या वाली, तेरे खेत में फुदक के बड़ा नुकसान कर देंगे, ऐसा अंदेशा भी तुझे नहीं रहा होगा | अगर सपने में भी तुझे अंदेशा होता तो ‘बिजूके’ की जगह स्वयं खडा न हो जाता ......?

इंसान का क्या है .....? कई जगह उम्मीदों के बीज डाले रहता है ..| बदकिस्मती, जब होती है या बेड-लक के खराब होने के दिन आते हैं तो, .मासूम सी दिखने वाली चिड़ियाये न जाने कहाँ से टपक जाती हैं | वे आपकी उपजाऊ जमीन पर फसल को उगने से पहले ही चट कर जाती हैं |

किसी भी किसान को आज तक कोई ऐसी तकनीक या पद्यति विकसित हो के नहीं मिली कि वो खेतों में बीज डाले और आराम से, सौ प्रतिशत फसल के उगने की प्रतीक्षा करे|

चुगे हुए दानों से जो फसल नहीं उगती, इसका मलाल करने का उसके पास कोई प्रमाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं होता| कभी वो अपने नौकर को बीज मार लेने का अपराधी समझ लेता है, कभी मौसम पर दोष मढ़ता है तो कभी बीज के खराब होने का गुमान लगा लेता है | उसके अफसोस करने के देशी-तरीकों में कोई कमी, कभी नही आ पाती |

जमीदार भूल से कभी, इन बातों का जिक्र अपने बिगडैल बच्चों से कर देते हैं तो वे ‘चिडिमार;, बन्दूक ले के निकल जाते है | उन्हें लगता है कि स्टेनगन चलाने का सरकारी परमीशन मिल गया है | वे समूचे खेतों का मुआयना करते हैं | अपने-पराये का भेद किये, किसी भी खेत की चिड़िया को निशाना बनाने लग जाते हैं | उड़ने में माहिर चिड़िया तो उड़ जाती हैं, मगर गाँव की किशोरी- चिड़िया नाहक निशाना बन के, अपनी जवानी को जख्मी होने की चौखट तक ले जाती है | अपने प्रजातंत्र में हुबहूँ यही चल रहा है |

गाँव के सरपंच का मानना है कि इससे गांव का माहौल बिगड रहा है | लौंडे पोज मारें दे रहे हैं , दबंगई हो रही है | भोली –भाली गाव की कन्याओं के साथ ...... बंदूक-बन्दूक खेलने का दुश्परिणाम आने वाले दिनों में, दंगों के रूप में साफ भांपा जा सकता है | वे गाव की भलाई की सोचते हुए, भविष्य में कभी बन्दूक के लाइसेंस की सिफरिश नहीं करने की ठानते हैं |

गाँव वाले मीटिंग में कुछ दूसरे उपायों की चर्चा होती है | जिसकी भनक जब एक झक्की किस्म के एग्रिकल्चर-प्रोफेसर को हुई तो वह गाव का एक चक्कर मार लेने में बुराई न सोचते हुए, आन टपकता है | पी एच डी, थीसिस होल्डर ने अनाप-शनाप सुझाव देने की शुरुआत की | उसने कहा है कि, बीज के साथ सस्ते किस्म के डमी- बीज भी डालो, जिसे खाकर चिड़िया का पेट भर जाए | डमी-बीजों को दवाओं से यूँ उपचारित करो कि चिडियाओ का हाजमा बिगड़े | वे आपकी खेतों को देखना पसंद न करे | देखे, तो दूर से भाग जाएगे | प्रोफेसर किसी कम्पनी की हाजमा बिगाडू दवा की कई शीशियाँ बेच के निकल गया | अपने प्रजातंत्र में ये भी हो रहा है ?

पछतावे के महाकुम्भ की भीड़ में कहीं आप या आपका कोई चहेता तो गुम नहीं हैं ज़रा तलाशे ....?

अब तक हम काम चलाऊ सरकारें, जो हमारे वोट झासे में ले लेती थी, बनवाये जा रहे थे | उनको उपरी तौर पर गरीबी का या ग़रीबों का हितैषी दिखना अनिवार्य तत्व था | ये सरकारें गरीबी- उन्मूलन के बीज यूँ ही फेक दिए रहती थी| उग जाए तो ठीक, वरना अपने बाप का क्या जाता है स्टाइल में .....| सस्ते अनाजों को चारे की तरह बांटना इनका अगले इलेक्शन जीतने का गुरु मन्त्र है | जनता को बिना काम के अन्न बांट कर अलाल -आलसी बनाना, उन्हें रोगग्रस्त, करार देके सहानुभूति का मुफ्त ईलाज वास्ते स्मार्ट- कार्ड पकड़ा देना सोची समझी चालाकी के अलावा कुछ कहाँ है ?

खेलकूद में पछताने का सीजन देखिये | वैसे छोटे-मोटे इवेंट्स सालों चलते हैं, मगर पिछले पांच –छह सालों से ‘आई पी एल’ की वजह से पछतावे का दायरा बढ़ गया है |

‘वेटरन्स’ ये सोच के दुखी रहते हैं कि उनके जमाने में ये क्यों नहीं चला, वे भी मजे से बिकते |

करोडो में बिकने वाले और, -खरीदने वालों की, अपने-अपने तरीकों की सोच होती है |

इतने गेम जिताए, किसी दुसरे बेनर में बिक जाता तो ज्यादा ही मिलते ....?

--स्साला, खा-खा के मोटा –भदभदा हो गया है| गधा, दौडता ही नहीं जब देखो, रन आउट होते रहता है...इसके लिए इतना महंगा खरीदा था ..क्या ?किक आउट करने लायक है...पाजी ....|

कोई सट्टे में हार के दम फुलाए बैठा है या छाती पीट रहा होता है |

स्टूडेंट लाइन का नजारा ये रहता है कि दो-चार नम्बर की चूक के लिए अपने आप को जिंदगी भर कोसते रहने का दागी बन जाता है, काश थोडा मन और लगा लेता, ये क्लर्की, और ये ‘घोड़ी’ तो पल्ले न बंधती |

चुनाव वाले दिनों के अफसोस में हम सबों की हिस्सेदारी रहती है | हर शहर-गांव गली, मोहल्ले में उम्मीदवार, मतदाता, किसान, व्यापारी, लेखक, पत्रकार,... जिनके अपने चहेतो का हाथ छूटा, साथ छूटा या असफल हुए, गमगीन नजर आते हैं | अफसोस की सुनामी आ जाती है | पछताने का सैलाब उमडा..पड़ता है ...|

एक भाई जी के धाराशाई होने से, उन्हें लगा, उनका अपना निपट गया.... |

वे जवाब देने के काबिल नहीं बचे ....| कैसे इतना बड़ा संकट पैदा हो गया ....? बिना सत्ता के पांच दुरूह साल......? न मौसम-बेमौसम मिठाई फल के टोकरे आयेंगे न कोई ठेकेदार इधर झांकेगा ....?

इधर, अपने तिकडमी भईया जी का खेल राजनीती में हमेशा से चौकाने वाला रहता है | तभी न उनको दबी जुबान से ‘काइंया –चाणक्य’ कहा जाने लगा है | विपक्ष में रह कर सत्ता वालीं से नजदीकी उनकी देखते बनती है | वे सत्ता पक्ष की मदद में अपनी पार्टी के आला कमान अधिकृत उम्मीदवार तक को ऍन वक्त में नाम वापसी करवा देते हैं | आलाकमान के बाँटे किसी भी टिकट से संतुष्ट नहीं होते | उनकी ख्वाहिश होती है कि पार्टी उनकी खुशामद में रहे | पार्टी, एक-एक कार्यकर्ता जी हुजूरी में लगे रहें| उनके कुनबे के किसी ख़ास शख्श पर लगे संगीन आरोपों की हर कोई अनदेखी करे|

अब उनहोंने एलान कर दिया है नई पार्टी बनायंगे शायद इस बहाने उनको दाल-आटे का सही भाव पता लग जाए भले ही देर से सही ?

सुशील यादव