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चालीस साल पहले

चालीस साल पहले:

मुझे उसका चालीस साल पहले का पहनावा याद है। क्यों ऐसा है पता नहीं! हल्के पीले रंग की स्वेटर। खोजी सी आँखें और गम्भीर चेहरा। मुस्कान अछूत सी।

अपने अन्य दोस्तों का पहनावे का कोई आभास नहीं हो रह है। यहाँ तक की अपने कपड़ों का भी रंग याद नहीं है।

दोस्त अजनबी बन जाते और अजनबी दोस्त।

एक दोस्त को फोन किया। बातें होती रहीं जैसे कोई नदी बह रही हो, कलकल की आवाज आ रही थी पुरानी बातों की। वह डीएसबी, नैनीताल पर आ पहुँचा। बीएससी प्रथम वर्ष की यादें उसे झकझोर रही थीं। गणित वर्ग में हम साथ-साथ थे पर दोस्ती के समूह तब अलग-अलग थे। उस साल बीएससी गणित वर्ग का परिणाम तेरह प्रतिशत रहा था। वह बोला, " आप तो अपनी मन की बात कह देते थे लेकिन मैं तो किसी को कह नहीं पाया। दीक्षा थी ना। " मैंने कहा , " हाँ, एक मोटी-मोटी लड़की तो थी, गोरी सी। " वह बोला, " यार, मोटी कहाँ थी!" मैं जोर से हँसा। फिर वह बोला, " उसने बीएससी पूरा नहीं किया। वह अमेरिका चली गयी थी। " मैंने कहा, " मुझे इतना तो याद नहीं है और मैं ध्यान भी नहीं रखता था तब। " मेरे भुलक्कड़पन से वह थोड़ा असहज हुआ। मैंने किसी और का संदर्भ उठाया, बीएससी का ही। वह विस्तृत बातें बताने लगा जो मुझे पता नहीं थीं। फिर उसने कहा कभी मिलने का कार्यक्रम बनाओ। दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर ही मिल लेंगे एक-दो घंटे। मैंने कहा तब तो मुझे एअरपोर्ट से रेलवे स्टेशन आना पड़ेगा या फिर रेलगाड़ी से आना पड़ेगा। उसने कहा, " एअरपोर्ट पर ही मिल लेंगे। " मैं सोचने लगा मेरा दोस्त ऐसा क्यों बोल रहा है? अक्सर, हम किसी परिचित को घर पर मिलने को कहते हैं। नैनीताल में तो कई बार एक ही बिस्तर पर सोये थे।

सोचते-सोचते सो गया। रात सपने में यमराज आये। बोले, मुझे एक सूची बना कर दो। मैं उन्हें देखकर पहले तो बिहोश होने वाला था पर फिर संभला और पूछा कैसी लिस्ट। वे बोले उसमें केवल नाम होने चाहिए, स्वर्ग में कुछ जगह रिक्त हैं। मैंने उन्हें चाय के लिये पूछा। वे कुछ दोस्ताना दिखाने लगे। मैंने उन्हें चाय दी। चाय पीकर वे चले गये। मैं तैयार हुआ और जो मिलता उससे पूछता, " स्वर्ग जाना है क्या?" जिससे भी पूछता वह मुझ पर नाराज हो जाता। जब थक गया तो अपने मन से सूची में नाम डालने लगा। नाम इस प्रकार थे-गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नन्दा देवी, हिमालय, आदि। नींद टूटी तो सोचने लगा-

"सपना देखना चाहिए

मनुष्य बनने का,

यदि मनुष्य ही न बन पाये

तो राष्ट्र कैसे बनेगा?

राम बने थे

तभी राम राज्य आया था। "

एक बार महाविद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रम में नाटक होना था। लोकेश उस नाटक को निर्देशित कर रहा था। मल्लीताल में उसका घर था। नाटक के सिलसिले में एक-दो बार मैं उसके घर भी गया था। उसे नाटकों का बहुत शौक था। उन दिनों लड़की का अभिनय लड़के भी कर लेते थे। लड़कियाँ कम होती थीं और अभिनय के प्रति कम उत्सुक रहती थीं। उस नाटक में एक लड़की का भी किरदार था। उस समय तक मैंने दिनकर जी की उर्वशी नहीं पढ़ी थी और न नोबेल पुरस्कार प्राप्त लोलिता का जिक्र सुना था। नोबेल कमेटी को उपन्यास इतना अच्छा कैसे लगा होगा, पता नहीं। बहरहाल, लोकेश ने मुझे एक सूची दी और कहा लड़कियों से ये सामान लेना है। मैं लिस्ट लेकर लड़कियों के पास गया। लिस्ट एक -एक कर वे देखने लगीं और आँखें नीचे करती गयीं। मुझे बाद में पता चला की उसमें "ब्रा" भी लिखी हुई थी तब तक मैं उससे अनभिज्ञ था, क्योंकि उस जमाने में गांवों में महिलाएं उसका उपयोग नहीं करती थीं। मैं बिना उनकी सहमति के लौट आया। बाद में मेरे एक दोस्त को उनमें से एक लड़की ने सभी परिधान देने की सहमति जतायी, लेकिन बोली थी कि किसी को नहीं बताना। उसने यह भी बताया कि एक लड़की बोल रही थी, " मैं तो नहीं दूँगी। " हम लोग शाम को छात्रावास गये और उससे सामान लिया और नाटक का सफल मंचन किया।

कार्यक्रम देखते-देखते बहुत देर हो गयी थी। लगभग रात का एक बज गया था। मैं हाँल से निकला और तेज कदमों से अपने आवास की ओर चलने लगा। मन में डर घर कर रहा था, अंधेरे का, भूतों का। बचपन के भूत ऐसे समय ही याद आते हैं। और हर ऊँचा पत्थर व झाड़ियां भूत जैसे दिखते हैं। नैनीताल की ठंड बदन को कंपकंपा रही थी। आधे रास्ता तय हो चुका था। एक कोठी मुझे दिखायी दी, उसमें एक लालटेन जल रही थी। मुझे आगे जाने का साहस नहीं हुआ। मैं उस कोठी की ओर बढ़ा और दरवाजा खटखटाया। एक बुढ़िया अम्मा ने दरवाजा खोला। मैंने उनसे पूछा, " रात बीताने के लिए जगह मिल सकती है, अम्मा। " बुढ़िया खुश होकर बोली क्यों नहीं बेटा। अपना ही घर समझो। मैं अन्दर गया। उसने मेरे सोने के लिए मखमली बिस्तर तैयार कर दिया। और स्वंय बगल के कमरे में बिना बिस्तर के लेट गयी। मैं बिस्तर में करवटें बदल रहा था। बुढ़िया बीच-बीच में पूछती, " बेटा सो गया?" मैं कहता नहीं, नींद नहीं आ रही है। एक घंटे बाद वह फिर बोली, "बेटा सो गया?" मैं चुप रहा। तो मैंने देखा वह मेरी ओर आ रही है। जैसे ही नजदीक पहुंची मैंने कहा नहीं अभी नहीं आयी है। यह सुनते ही वह झट से लौट गयी। मेरे अन्दर डर बैठने लगा। लगभग सुबह पाँच बजे वह फिर बोली, "बेटा सो गया?" मैंने कहा नहीं। सबेरा होने वाला है अतः चलता हूँ। वह मेरे पास आयी और अपने हाथ से मेरे हाथ को पकड़ने लगी। मुझे लगा जैसै हड्डियां ही हड्डियां मेरे हाथ को जकड़ रही हैं। मैंने हाथ खींचा और घर की ओर तेज कदमों से निकल पड़ा। दूसरे दिन रात की बात मैंने अपने पड़ोसियों को बतायी तो वे बोले वह भूतुआ कोठी है। कहते हैं वहाँ एक बुढ़िया रहती है जो नींद में लोगों को मार देती है। मैं उनकी बातें सुन पसीना-पसीना हो गया। दूसरे दिन दो घंटे ही कार्यक्रम देखा। एक नाटक देखा जिसमें महिला का पति युद्ध में शहीद हो जाता है और महिला को सरकार से बहुत रुपये मिलते हैं और वह अपने सास-ससुर को छोड़ दूसरी शादी कर लेती है। दूसरी शादी के बाद भी वह पेंशन लेती रहती है। नाटक चल रहा होता है लेकिन मेरे मन में गत रात की घटना घूम रही है कि कोई बोल रहा है, " बेटा, नींद आ गयी?"

हनुमानगढ़ी(नैनीताल)

हनुमानगढ़ी जाते ही तुलसीदास की रचना याद आ गयी-

"पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरत रूप, राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप"

आगे बढ़ा , मंदिर परिसर में अपने को खोजने लगा। मंदिर के आहते में कुछ इस तरह विचार आये-

"ईश्वर का हाथ उठा है

आशीर्वाद के लिए,

लेकिन भ्रष्टाचार, बेमानी, चोरी

आलस्य, कामचोरी, धोखा

राजनैतिक अपरिपक्वता, संवैधानिक अपूर्णता,

अस्वस्थता, सार्वजनिक गंदगी

मन की गुलामी, दिल की अपंगता

सोच की निर्धनता, अति स्वार्थपरता देख,

वह ठिठका है।

फिर भी देखो, आकाश से कौन जा रहा है

तारों में कौन चमक रहा है,

शरीर में कौन बैठा है

पहाड़ों से धीरे-धीरे कौन उतर रहा है,

वृक्षों में कौन मिठास रख रहा है

नदियों में कौन प्राण बहा रहा है?

प्यार को कौन हवा दे रहा है

ब्राह्मांड को कौन नचा रहा है

जीवन में लिए कौन आग्रह कर रहा है

प्राणों में कौन मिठास भर रहा है?"

कुछ आशा जगी। आगे बढ़ा। किसी विद्यालय की छात्राओं का एक समूह दिखा। वे वहीं पर बैठी थीं जहाँ मैं १९७७ में खड़ा था। मैं आकाश को देखता , पहाड़ियों के सौंदर्य को छूता , उनकी ओर बढ़ रहा था। आकाश और पहाड़ों की हमारी तरह आँखें तो नहीं होती हैं कि आँखों, आँखों में प्यार हो जाय। लेकिन मन में एक मिठास अवश्य आने लगता है। मुझे देख लड़कियों के बीच खुसुर -पुसुर होने लगी। उनके पास पहुंचते ही एक लड़की ने प्रश्न किया, " अंकल, आप फलाने तो नहीं हैं? नैनीताल लवर्स और उत्तराखंड लवर्स में आपकी रचनाएं आती हैं। " मैंने कहा, " हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। और मैं मुस्कुरा दिया। " उसने इंटरनेट खोला और एक रचना मुझे दिखायी और पढ़ने लगी -

पहाड़ का विद्यालय:

"यह पहाड़ की बात है

पहाड़ का विद्यालय

अलग गूंज लिये होता है।

ठंड के दिन, धूप की ललक

पहाड़ी पर धूप का छिड़काव

धूप के बीच लड़के-लड़कियां

केवल धूप के लिये नहीं

प्यार के लिये भी बैठे हैं।

बड़े-बड़े आँखों वाली लड़की

देखती है गहरे बादलों को

बगल में सुदृढ़ पेड़ों को

आकाश के चारों कोनों को

एक लम्बी दृष्टि आँखों की

एक जगह नहीं बैठती है,

चिड़ियों की तरह उड़

आकाश को तिरछा कर देती है।

वहाँ बैठा लड़का

अब अपलक हो चुका है,

उसकी हँसी छिपते सूरज की तरह

मद्धिम हो चुकी है,

उड़ती दृष्टियां मिल कर

अलग बैठ चुकी हैं।

ये लड़कों के समूह

ये लड़कियों के समूह

झील में तैरते पक्षियों की तरह

सरल हो चुके हैं।

अगले महीने चुनाव होंगे

और सभी तितर-वितर हो

कलात्मक होने लगेंगे।

पृष्ठ बदलते हैं

प्यार का तापमान

धूप के तापमान की तरह गुनगुना होने लगता है,

पढ़े-लिखे ऐसे ही होते हैं।

एक घंटे का समय है

पर, समय पर

परंपरा की दीवार है, अभेद्य हिचकिचाहट,

दस-बीस बार दृष्टि टक्कराती

वापस आती है।

दो बरस गुजरने को हैं

हर दिन दोनो आते हैं

कंकड़ उठा

आकाश में उछाल देते हैं,

हल्की सी धूप तापकर

बंद पुस्तकों के पृष्ठों को दबा

कुछ आगे, कुछ पीछे देख

हैरान से, पहाड़ के विद्यालय में

अलग गूंज लिये होते हैं।

बर्फ गिर चुकी है

बर्षा झील को भर चुकी है

परिवर्तन की बयार अभी दूर है

देवी-देवताओं से विभेद हैं,

क्षण जो जिये धूप में

ठिठके से, जीवन के अंदर

अलग गूंज लिये होते हैं। "

नीचे प्रसिद्ध लेखक के बेटे जो जानेमाने रंगकर्मी हैं ने टिप्पणी लिखी है, " बेहद सुंदर। " फिर उनमें से कोई बोला, " अंकल, आपने कभी प्यार किया है?" मैं थोड़ा असहज हुआ फिर बोला, " नहीं। " वे सब बोले, " आप झूठ बोल रहे हैं। " और हँसने लगे। मैंने विषय बदलना चाहा। मैंने पूछा इस वेधशाला के बारे में आप लोग कुछ जानते हैं? वे बोले यहाँ खगोलीय जैसे आकाशीय पिंडों, नक्षत्रों आदि का अध्ययन किया जाता है।

फिर वे बोले कोई कहानी सुनाईये। मैंने कहानी आरम्भ की। , " देखो, उस सामने की पहाड़ी पर रूमाल बिछा कर मैं बैठा करता था उन दिनों। एक दिन यहाँ आया तो देखा कि वहाँ पर इधर को पीठ कर कोई बैठा था। उत्सुकतावश वहां पहुंचा तो वहां कोई नहीं था और कोई दूर पीठ किये खड़ा था। और रूमाल वहां छूटा था जिसमें कुछ लिखा था जिसे पढ़ना आसान नहीं था। मैं फिर आगे बढ़ा और वहां पहुंचा तो केवल फूल वहां पर मुझे मिला, वह वहां से आगे जा चुका था, हमेशा उसकी पीठ मेरे तरफ रहती थी। जब थक गया तो एक जगह पर बैठा और लेट गया। थोड़ी देर में नींद आ गयी। नींद में मुझे महसूस हुआ वह मेरे से कह रहा है, " मेरा पीछे मत आओ मैं अजर -अमर हूँ। जो तुम्हें छुयेगा...। " झट से मेरी नींद खुली और वह पीठ किये मेरे बगल में बैठा था।

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