ishqiya in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | इश्क़िया कहानी

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इश्क़िया कहानी

इश्क़िया कहानी

मेरे मुतअल्लिक़ आम लोगों को ये शिकायत है कि मैं इश्क़िया कहानियां नहीं लिखता। मेरे अफ़सानों में चूँकि इश्क़ ओ मोहब्बत की चाश्नी नहीं होती, इस लिए वो बिल्कुल स्पाट होते हैं। मैं अब ये इश्क़िया कहानी लिख रहा हूँ ताकि लोगों की ये शिकायत किसी हद तक दूर हो जाए।

जमील का नाम अगर आप ने पहले नहीं सुना तो अब सनु लीजीए। इस का तआरुफ़ मुख़्तसर तौर पर कराए देता हूँ। वो मेरा लँगोटिया था। हम इकट्ठे स्कूल में पढ़े, फिर कॉलिज में एक साथ दाख़िल हुए। मैं एम ए में फ़ेल होगया और वो पास। मैंने पढ़ाई छोड़ दी मगर उस ने जारी रख्खी। डबल एम ए किया और मालूम नहीं कहाँ ग़ायब होगया। सिर्फ़ इतना सुनने में आया था कि उस ने एक पाँच बच्चों वाली माँ से शादी करली थी और आबादान चला गया था। वहां से वापस आया या वहीं रहा, इस के मुतअल्लिक़ मुझे कुछ मालूम नहीं।

जमील बड़ा आशिक़ मिज़ाज था। स्कूल के दिनों में उस का जी बे-क़रार रहता था कि वो किसी लड़की की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो जाए। मुझे ऐसी गिरफ़्तारी से कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी लेकिन उस की सरगर्मीयों जो इशक़ से मुतअल्लिक़ होतीं, बराबर हिस्सा लिया करता था।

जमील दराज़ क़द नहीं था मगर अच्छे ख़द्द-ओ-ख़ाल का मालिक था। मेरा मतलब है कि उसे ख़ूबसूरत न कहा जाए तो उस के क़ुबूल सूरत होने में शक ओ शाइबा नहीं था। रंग गोरा और सुर्ख़ी माइल, तेज़ तेज़ बातें करने वाला, बला का ज़हीन, इंसानी नफ़सियात का तालिब-ए-इल्म, बड़ा सेहत मंद।

उस के दिल-ओ-दिमाग़ में सिम्न-ए-बुलूग़त तक पहुंचने से कुछ अर्सा पहले ही इशक़ करने की ज़बरदस्त ख़ाहिश पैदा होगई थी। उस को ग़ालिब के इस शेअर का मफ़हूम अच्छी तरह मालूम था

इशक़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब

कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे

मगर इस के बर-अक्स वो ये आग ख़ुद अपनी माचिस से लगाना चाहता था।

उस ने इस कोशिश में कई माचिसें जलाएं। मेरा मतलब है कि कई लड़कीयों के इशक़ में गिरफ़्तार हो जाने के लिए नित नए सूट सिलवाए, बढ़िया से बढ़िया टाईयां खरीदीं, सेंट की सैंकड़ों क़ीम्ती शीशियां इस्तिमाल कीं मगर ये सूट, टाईयां और सेंट उस की कोई मदद न कर सके।

मैं और वो, दोनों शाम को कंपनी बाग़ का रुख़ करते। वो ख़ूब सजा बना होता। उस के कपड़ों से बेहतरीन ख़ुशबू निकल रही होती। बाग़ की रविशों पर मुतअद्दिद लड़कीयां बदसूरत, ख़ूबसूरत, क़ुबूल सूरत मह्व-ए-ख़िराम होती थीं। वो इन में से किसी एक को अपने इश्क़ के लिए मुंतख़ब करने की कोशिश करता मगर नाकाम रहता।

एक दिन उस ने मुझ से कहा। “सआदत! मैंने आख़िर कार एक लड़की चुन ही ली है। ख़ुदा की क़सम चंदे आफ़ताब, चंदे माहताब है। मैं कल सुबह सैर के लिए निकला। बहुत सी लड़कीयां माई के साथ स्कूल जा रही थीं। उन में एक बुर्क़ा पोश लड़की ने जो अपनी नक़ाब हटाई तो उस का चेहरा देख कर मेरी आँखें ख़ीरा होगईं। क्या हुस्न-ओ-जमाल था! बस मैंने वहीं फ़ैसला कर लिया कि जमील अब मज़ीद तग-ओ-दो छोड़ो, इस हसीना ही के इश्क़ में तुम्हें गिरफ़्तार होना चाहिए”। “होना क्या तुम हो चुके हो”।

उस ने फ़ैसला कर लिया कि वो हर रोज़ सुबह उठ कर उस मक़ाम पर जहां उस ने इस काफ़िर जमाल हसीना को देखा था, पहुंच जाया करेगा और उस को अपनी तरफ़ मुतवज्जा करने की कोशिश करेगा।

उस के लिए उस के ज़हीन दिमाग़ ने बहुत से प्लान सोचे थे। एक जो दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा क़ाबिल-ए-अम्ल और ज़ूद असर था, उस ने मुझे बता दिया था।

उस ने हिसाब लगा कर सोचा था कि दस दिन मुतवातिर उस लड़की को एक ही मक़ाम पर खड़े रह कर देखने और घूरने से इतना मालूम हो जाएगा कि उस का मतलब क्या है। यानी वो क्या चाहता है। इस मुद्दत के बाद वो इस का रद्द-ए-अमल मुलाहिज़ा करेगा और इस तज्ज़िए के बाद कोई फ़ैसला मुरत्तिब करेगा।

ये अग़्लब था कि वो लड़की उस का देखना घूरना पसंद न करे। माई से या अपने वालदैन से इस के ग़ैर अख़लाक़ी रवय्ये की शिकायत कर दे। ये भी मुम्किन था कि वो राज़ी हो जाती। उस की साबित क़दमी उस पर इतना असर करती कि उस के साथ भाग जाने को तय्यार हो जाती।

जमील ने तमाम पहलूओं पर अच्छी तरह ग़ौर कर लिया था। शायद ज़रूरत से ज़्यादा। इस लिए कि दूसरे रोज़ जब वो अलार्म बजने पर उठा तो उस ने उस मक़ाम पर जहां उस लड़की से उस की पहली मर्तबा मुडभेड़ हुई थी, जाने का ख़याल तर्क कर दिया।

उस ने मुझ से कहा। “सआदत! मैंने ये सोचा है कि हो सकता है स्कूल में छुट्टी हो क्यूँ कि जुमा है। मालूम नहीं इस्लामी स्कूल में पढ़ती है या किसी गर्वनमैंट स्कूल में। फिर ये भी मुम्किन था कि अगर मैं उसे ज़्यादा शिद्दत से घूरता तो वो भुन्ना जाती। इस के अलावा इस बात की क्या ज़मानत थी कि दस दिन के अंदर अंदर मुझे उस का रद्द-ए-अमल यक़ीनी तौर पर मालूम हो जाएगा। ब-फ़र्ज़-ए-मुहाल वो रज़ामंद हो जाती, मेरा मतलब है मुझे बिल-मुशाफ़ा गुफ़्तुगू का मौक़ा दे देती, तो मैं उस से क्या कहता!”

मैंने कहा। “यही कि तुम उस से मोहब्बत करते हो”।

जमील संजीदा होगया। यार, मुझ से कभी कहा न जाता.....तुम सोचो ना अगर ये सुन कर वो मेरे मुँह पर थप्पड़ दे मारती कि जनाब आप को इस का क्या हक़ हासिल है, तो मैं क्या जवाब देता। ज़्यादा से ज़्यादा मैं कह सकता कि हुज़ूर मोहब्बत करने का हक़ हर इंसान को हासिल है मगर वो एक और थप्पड़ मेरे मार सकती थी कि तुम बकवास करते हो, कौन कहता है कि तुम इंसान हो।

क़िस्सा मुख़्तसर ये कि जमील उस हसीन ओ जमील लड़की की मोहब्बत में ख़ुद को अपनी तज्ज़िया ख़ुदी के बाइस गिरफ़्तार न करा सका। मगर उस की ख़ाहिश बदस्तूर मौजूद थी। एक और ख़ूबरू लड़की उस की तलाश करने वाली निगाहों के सामने आई और उस ने फ़ौरन तहय्या कर लिया कि उस से इशक़ लड़ाना शुरू कर देगा।

जमील ने सोचा कि उस से ख़त-ओ-किताबत की जाए, चुनांचे उस ने पहले ख़त के कई मुसव्वदे फाड़ने के बाद एक आख़िरी, इश्क़ ओ मोहब्बत में शराबोर, तहरीर मुकम्मल की, जो मैं यहां मिन-ओ-अन नक़ल करता हूँ:

जान जमील!

अपने दिल की धड़कनें सलाम के तौर पर पेश करता हूँ। हैरान न होइएगा कि ये कौन है जो आप से यूं बेधड़क हम-कलाम है। मैं अर्ज़ किए देता हूँ। कल शाम को सवा छः बजे...... नहीं, छः बज कर ग्यारह मिनट पर जब आप अमृत सिनेमा के पास तांगे में से उतरें तो मैंने आप को देखा। बस एक ही नज़र में उस ने मुझे मस्हूर कर लिया।

आप अपनी सहेलीयों के साथ पिक्चर देखने चली गईं और मैं बाहर खड़ा आप को अपनी तसव्वुर की आँखों से मुख़्तलिफ़ रूपों में देखता रहा। दो घंटे के बाद आप बाहर निकलें। फिर ज़ियारत नसीब हुई और मैं हमेशा हमेशा के लिए आप का ग़ुलाम होगया।

मेरी समझ में नहीं आता मैं आप को और क्या लिखूं। बस इतना पूछना चाहता हूँ क्या आप मेरी मोहब्बत को अपने हुस्न ओ जमाल के शायान समझेंगी या नहीं।

अगर आप ने मुझे ठुकरा दिया तो मैं ख़ुदकुशी नहीं करूंगा, ज़िंदा रहूँगा ताकि आप के दीदार होते रहें।

आप के हुस्न ओ जमाल का परस्तार

जमील

ये ख़त उस ने मेरे घर में एक ख़ुशबूदार काग़ज़ पर अपनी तहरीर से मुंतक़िल किया था। लिफ़ाफ़ा फूलदार और ख़ुशबूदार था जिस को जमालियाती ज़ौक़ ने पसंद नहीं किया था।

चंद रोज़ के बाद जमील मुझ से मिला तो मालूम हुआ कि उस ने ये ख़त उस लड़की तक नहीं पहुंचाया।

अव्वलन इस लिए कि इश्क़ का आग़ाज़ ख़त से करना ना-मुनासिब है।

सानियन इस लिए कि इस ख़त की तहरीर बे-रब्त और बे-असर है। उस ने ख़ुद को लड़की मुतसव्वर करके ये ख़त पढ़ा और उस को बहुत मज़्हका-ख़ेज़ मालूम हुआ।

सालिसन इस लिए कि तफ़तीश करने के बाद उस को मालूम हुआ कि लड़की हिंदू है।

ये मरहला भी शुरू होने से पहले ही ख़त्म होगया।

उस के घर में मेरा आना जाना था। मुझ से कोई पर्दा वग़ैरा नहीं था। हम घंटों बैठे पढ़ाई या गप बाज़ियों में मश्ग़ूल रहते। उस की दो बहनें थीं। छोटी छोटी। उन से बड़ी बचकाना क़िस्म की पुर-लुत्फ़ बातें होतीं। उस की मौसी की एक इंतिहा दर्जे की सादा-लौह लड़की अज़्रा थी। उम्र यही कोई सतरह अठारह बरस होगी। उस का हम दोनों बहुत मज़ाक़ उड़ाया करते थे।

जमील की जब दूसरी कोशिश भी बार-आवर साबित न हुई तो वो दो महीने तक ख़ामोश रहा। इस दौरान में उस ने इश्क़ में गिरफ़्तार होने की कोई नई कोशिश न की। लेकिन इस के बाद उस को एक दम दौरा पड़ा और उस ने एक हफ़्ते के अंदर अंदर पाँच छः लड़कीयां अपनी इश्क़ की बंदूक़ के लिए निशाने के तौर पर मुंतख़ब कर लीं। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। सिर्फ़ चार लड़कीयों के मुतअल्लिक़ मुझे उस की इश्क़िया मुहिम के बारे में इल्म है।

पहली ने जो उस की दूर दराज़ की रिश्तेदार थी, अपनी माँ के ज़रीये उस की माँ तक ये अल्टीमेटम भिजवा दिया कि अगर जमील ने उस को फिर बुरी नज़र से देखा तो उस के हक़ में अच्छा न होगा।

दूसरी ग़ौर से देखने पर चेचक के दाग़ों वाली निकली।

तीसरी की छटे, सातवें रोज़ एक क़साई से मंगनी होगई।

चौथी को उस ने एक लंबा इश्क़िया ख़त लिखा जो उस की मौसी की बेटी अज़्रा के हाथ आगया। मालूम नहीं किस तरह। पहले जमील उस का मज़ाक़ उड़ाया करता था, अब उस ने उड़ाना शुरू कर दिया। इतना कि जमील का नाक में दम आगया।

जमील ने मुझे बताया। “सआदत! ये अज़्रा जिसे हम बेवक़ूफ़ी की हद तक सादा-लौह समझते हैं, सख़्त ज़ालिम है, सब समझती है। जिस लड़की को मैंने ख़त लिखा था और ग़लती से अपने मेज़ के दराज़ में रख कर ये सोचने में मशग़ूल था कि वो इस का क्या जवाब लिखेगी, ये कमबख़्त जाने कैसे ले उड़े। अब उस ने मेरा नात्क़ा बंद कर दिया। बअज़ औक़ात ऐसी तल्ख़ बातें करती है कि मुझे रुलाती है और ख़ुद भी रोती है। मैं तो तंग आगया हूँ”।

उस से बहुत ज़्यादा तंग आकर उस ने अपने इश्क़ की मुहिम और तेज़ कर दी। अब की उस ने चौदह लड़कीयां चुनीं मगर अच्छी तरह ग़ौर करने के बाद उन में से सिर्फ़ एक बाक़ी रह गई। दस उस के मकान से बहुत दूर रहती थीं, जिन को हर रोज़ हतमी तौर पर देखने के मुतअल्लिक़ उस का दिल गवाही नहीं देता था। दो ऐसी थीं, जिन का ख़ानदानी होने के बारे में उसे शुबा था। बारह हुईं। तेरहवीं ने एक दिन ऐसी बुरी तरह घूरा कि उस के औसान ख़ता होगए।

चौधवीं जो कि चौधवीं का चांद थी, मुल्तफ़ित हो जाती मगर वो कमबख़्त कमीयूनिस्ट थी। जमील ने सोचा कि इस का इल्तिफ़ात हासिल करने के लिए वो ज़रूर कमीयूनिस्ट बन जाता, खादी के कपड़े पहन कर मज़दूरों के हक़ में दस बारह तक़रीरें भी कर देता, मगर मुसीबत ये थी कि उस के वालिद साहब रिटायर्ड इंजीनियर थे, उन की पैंशन यक़ीनन बंद हो जाती। यहां से ना-उम्मीदी हुई तो उस ने सोचा कि इश्क़ बाज़ी फ़ुज़ूल है,शराफ़त यही है कि वो किसी से शादी कर ले। इस के बाद अगर तबीयत चाहे तो अपनी बीवी की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो जाए। चुनांचे उस ने मुझे इस फ़ैसले से आगाह कर दिया। तै ये हुआ कि वो अपनी अम्मी जान और अपने अब्बा जान से बात करे।

बहुत दिनों की सोच बिचार के बाद उस ने इस गुफ़्तुगू का मुसव्वदा तय्यार किया...... सब से पहले उस ने अपनी अम्मी से बात की। वो ख़ुश हुईं...... इधर उधर अपने अज़ीज़ों में उन्हों ने जमील के लिए मौज़ूं रिश्ता ढ़ूढ़ने की कोशिश की मगर नाकामी हुई...... पड़ोस में ख़ान बहादुर साहब की लड़की थी...... एम ए। बड़ी ज़हीन और तबीयत की बहुत अच्छी......मगर उस की नाक चिप्टी थी। ख़ाला की बेटी हुस्न आरा थी पर बेहद काली। सुग़रा थी मगर उस के वालदैन बड़े ख़सीस थे। जहेज़ में जितने जोड़े जमील की माँ चाहती थी, उस से वो आधे देने पर भी रज़ामंद नहीं थे। अज़्रा का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था।

जमील की माँ ने बड़ी कोशिशों के बाद रावलपिंडी के एक मुअज़्ज़ज़ और मुतमव्वल ख़ानदान की लड़की से बातचीत तय कर ली। जमील अपनी नाकाम इश्क़ बाज़ियों से इस क़दर तंग आगया था कि उस ने अपनी माँ से ये भी न पूछा कि शक्ल ओ सूरत कैसी है। वैसे उस ने अपने ज़िंदा तसव्वुर में इस का अंदाज़ा लगा लिया था और मुफ़स्सल तौर पर सोच लिया था कि वो उस की मोहब्बत में किस तरह गिरफ़्तार होगा।

ये सिलसिला काफ़ी देर तक जारी रहा। मैं ख़ुश था कि जमील की शादी हो रही है। जिस का नाम ग़ालिबन शरीफा था, उस की मंगनी होगई।

इस तक़रीब पर उसे ससुराल की तरफ़ से हीरे की अँगूठी मिली, जो वो हर वक़्त पहने रहता था। इस पर उस ने एक नज़्म भी लिखी जिस का कोई शेअर मुझे याद नहीं। एक बरस तक सोचता रहा कि उसे अपनी दुल्हन को कब अपने यहां लाना चाहिए। आदमी चूँकि आज़ाद और रौशन ख़याल क़िस्म का था इस लिए उस की ख़ाहिश थी कि माँ बाप से अलाहिदा अपना घर बनाए। ये कैसा होना चाहिए, उस में किस डिज़ाइन का फ़र्नीचर हो, नौकर कितने हों, माहवार ख़र्च कितना होगा, सास के साथ उस का क्या सुलूक होगा, इन तमाम उमूर के बारे में उस ने काफ़ी सोच बिचार की। नतीजा ये हुआ कि लड़की वाले तंग आगए। वो चाहते थे कि रुख़्सती का मरहला जल्द अज़ जल्द तय हो।

जमील इस बारे में कोई फ़ैसला न कर सका। लेकिन उस की अम्मी ने एक तारीख़ मुक़र्रर करदी। कार्ड वार्ड छप गए। वलीमे की दावत के लिए ज़रूरी सामान का बंद-ओ-बस्त कर लिया गया। उस के वालिद बुजुर्गवार शैख़ मुहम्मद इस्माईल साहब रिटायर्ड इंजीनियर बहुत मसरूर थे मगर जमील बहुत परेशान था। इस लिए कि वो अपने बनने वाले घर का आख़िरी नक़्शा तय्यार नहीं कर सका था।

रुख़्सती की तारीख़ 9 अक्तूबर की सुबह को...... मुँह अधेरे जमील मेरे पास सख़्त इज़्तिराब और कर्ब के आलम में आया और उस ने मुझे ये ख़बर सुनाई कि उस की मौसी की लड़की अज़्रा ने जो बेवक़ूफ़ी की हद तक सादा-लौह थी, ख़ुदकुशी कर ली है, इस लिए कि उस को जमील से वाल्हाना इश्क़ था। वो बर्दाश्त न कर सकी कि उस के महबूब ओ माबूद की शादी किसी और लड़की से हो। इस ज़िम्न में उस ने जमील के नाम ख़त लिखा। जिस की इबारत बहुत दर्दनाक थी। मेरा ख़याल है कि ये तहरीर यादगार के तौर पर उस के पास महफ़ूज़ होगी|