Zabaru in Hindi Magazine by Shesh Amit books and stories PDF | झबरू

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झबरू

झबरू
मेरा घर तीस घरों के समूह में एक है.चारों तरफ से घिरा,बंद-एक सिंहद्वार,जिसे रात में एक चौकीदार बंद कर देता है और एक दुर्गपाल की आत्मा उसमें प्रवेश कर जाती है.कैंपस एक विस्तीर्ण ऑंगन समझ लिया जाये जहाँ तीस परिवार एक संयुक्त परिवार से रहते हैं.गाय और कुत्तों के लिये आईडी की आवश्यकता नहीं. अंत:वासियों से दुर्गपाल का एक मौन, अमुखर अनुबंध.एक बंधनमुक्त काली गाय,सुबह होते ही,एक निश्चित समय पर द्वार-द्वार खड़ी हो जाती है-रोटी,पावरोटी का कलेवा.निष्काम कामधेनु का भाव झर रहा हो जैसे आभामंडल से.
एक अज्ञातकुला कुतिया ने डेरा डाल रखा है कैंपस में कई सालों से पर अब भी अनाम.नाम ही तो परिचय नहीं होता. चालीस फीट की चौड़ी सड़क के बीच लेटी रहती है दिन में.रात ऐसी बला कि,नींद हवा हो जाती है उसकी ऑंखों से.कैंपस में रह रहे अन्य जीवों के बीच जठरानल भी परेशान नहीं करता उसे. समूह में भी तो एक अकेला ज़िंदा रह ही लेता है.बीते सर्दी में,उसने तीन शावक जने.पिता होगा,लेकिन देखा नहीं कभी या हो सकता है,पहचान नहीं पाया.तीन शावक-एक सुंदर काला झबरू,बाकी दो ललछौंहे-पीत शावक.कैंपस का मौन अनुशासन और अभयदान इस परिवार को निश्चिंत कर गया था या सहअस्तित्व की हवा कोई अतिरिक्त विश्वास भर गया था.हँसी-खुशी में दिन गुज़र रहे थे.एक सुबह.एक शावक को किसी दुपहिये या वाहन से ठोकर लगी.इस योनि से मुक्ति. दो शावक और उनकी माँ मृत शरीर से एक मीटर की दूरी पर बैठे थे उदास. समझ नहीं पाया कि विलाप भी क्या ध्वनिहीन होता है. एक शावक बीच-बीच में मृत सहोदर को सूँघने का प्रयास करता.शायद उन्हें ईश्वर प्रदत्त सबसे बड़ी शक्ति -घ्राण शक्ति, सहोदर को पुनर्जीवित कर दे.या धन्वंतरि मंत्र के कोमल उच्चारण से माँ की मुस्कराहट को लौटा पाने की चेष्टा.दिन बीते,अब टू प्लस वन का एक एकल परिवार अब सिमटे,सहमे रहते.वही दु:ख और भय की रैखिक गति.
कुछ दिनों के बाद.दूसरे शावक की वही गति.अब माँ और नन्हा झबरू.माँ भी अब वैराग्य उन्मुख.झबरू चिपका रहता है माँ से दिन भर.पत्तियों के खड़कने से भी दु:ख-जर्जरा माँ, वैराग्य-पथ में भी सुरक्षा का अपना कमज़ोर छाता खोलने की कोशिश करती है.एक उदास माँ,झबरू को दूध पिलाती है और आँखें बंद कर लेट जाती है. दु:ख भी एक समय पहाड़ नहीं रह जाता.समतल भूमि,एक रेगिस्तान बन जाता है जहाँ कोई मरीचिका नहीं.झबरू अब बड़ा हो रहा है धीरे-धीरे.

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पथ निर्माण विभाग का एक संकेतक लगा है कहीं.लिखा है-
" इधर भी खुदा है उधर भी खुदा है,
जिधर नहीं खुदा है वहाँ काम चल रहा है".
आज यह संकेतक अपने पूरे अर्थ में प्रकाश पा रहा है.
पिछले साल नवम्बर में घर के आस-पास अच्छी-भली सड़के खुदने लगी.इन राहों के साथ निवासियों का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व था.यह खोदा जाना आशंकित कर गया.पता नहीं अब कौन सी अनहोनी होगी.मन को मनाया कि किसी के कर्तव्य-पालन के प्रति सम्मान और सहिष्णुता होनी चाहिये.नर्स भी तो रोगी को जगा कर नींद की गोलियाँ खिलाती हैं.
कौन हैं यह खुदाई वाले.जनता क़यास लगा रही थी-सड़क वाले,फोन वाले,पानी वाले,नाले वाले.बिजली वाले.जो भी हों सहअस्तित्व खतरे में था.ख़ैर.सात महीने मे सड़के तैयार हुईं.कहीं कुछ खटक रहा था.सतमासी संतान,कोई कमज़ोरी रह जायेगी.मई के मध्य में तैयार सड़क पर चलना कुछ खुशी कुछ भय, जैसे अपोलो-11 मिशन पर नील आर्मस्ट्रॉंग का दिल पहला पग चंद्रभूमि पर रखते हुआ धड़का होगा.यह क्या !! चलते समय चप्पल के साथ बजरी और कोलतार के छींटें पाजामे के पिछले हिस्सों मे चिपकने लगे.श्वेत चितकबरा होने लगा.ठेकेदार से पूछा,उसने कहा अभी ताज़ा है जबकि एक महीना बीत चुका था.मन को समझाया.कोई बात नहीं पलेथन की रोटियाँ भी तो मुलायम होती हैं,आग पर चढ़कर ही तो सिद्ध होता है.पर अफ़सोस यह कि सड़क का चाँद सा चेहरा दाग़दार होने लगा था.
अब तीन दिनों पहले की पचास मिनट की पहली बारिश हुयी रात में.सोते समय कालिदास जी का आह्वान किया कि सुबह नहाये वृक्ष-गुल्मों को हँसते देखने का सौभाग्य होगा.लेकिन सपने तो सपने ही होते हैं,उड़ते हुये.जमीन पर पैर थोड़े कम पड़ते है.नई बनी सड़कें हवा में झूल रही थीं.बच्चों के स्कूल बस सड़क के बीच में धँस गई,बच्चे चिल्ला रहे थे,नये बच्चों का जन्म हो रहा था इस भू-समाधि की प्रक्रिया में.कार,मोटर सायकिल सब धँसने लगी,कल्पनायें ऊपर उड़ रही थीं.मौत किसी की न हुयी क्यूँकि इसबार पाँच मंगलवार बजरंग बली की पूजा हुयी.दफ़्तरों के सामने,दुकानों के सामने,राह में कहीं भी ,भंडारे हुये.सब खाये-अघायों ने जमकर पूड़ी छका.इसलिये बच गये हमारे नौनिहाल.
हम देव-भूमि में हैं.बस 350 मील के फासले पर राम और कृष्ण दोनों जन्म लेते हैं.मौत इतनी जल्दी छू नहीं सकती.यम भी वीआईपी का ख़्याल तो रखते ही हैं नहीं तो कैसी देवभूमि ?
ठेकेदार भी कनफेशन मोड पर है.वह भी जनसाधारण में है.उसका कहना है ,35℅ कमीशन पर सड़कें नहीं बन सकती.6-11℅ तो सहन कर लेंगी सड़कें .काट-कुट कर 45℅ के व्यय पर कैसे बनेंगी सड़के ? ठेकेदार के प्रति संवेदना जग रही थी,ये करे तो क्या करे.फाईलें सुस्त हो रही हैं,एसयूवी के दाम बढ़ गये हैं,आईपीएल में भी लगाना है,रियल इस्टेट को भी छूँछा नहीं छोड़ सकते.

सब कष्ट में हैं,दु:खी हैं,हवा धीमी है,वर्षा की बूँद भी आधी दूर गिरकर फिर बादलों में जा मिलती हैं- नहीं जाना देवभूमि पर.
राम और कृष्ण अपनी जन्मभूमि को तो नहीं छोड़ सकते न !

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माउन्ट एवरेस्ट विजय करने के लिये लगता है सबसे अहम पग वह है जो शिखर से बस एक कदम नीचे है.इसको पार करते ही.विजेता सबसे ऊँची चोटी का.एक धाप रह गया तो कामना धरी की धरी रह गयी.वैसे ही लौटते वक्त अंतिम पग.जो समतल का था.अंत से ठीक पहले,लास्ट बट वन निर्धारित करता है-कामना की परिणति.यह पद मित्र हो तो शिखर,न हो तो ध्वस्त.
ब्रह्मगिरि पर्वत,त्र्यम्बकेश्वर, ऋषि गौतम अहल्या जी के साथ आश्रम में रहकर विद्यादान कर रहे हैं.अन्नदान के भी व्रती हैं.खेती भी करते हैं.धान और अन्य शस्य उगाते हैं नीलम भूमि पर. ऋषियों और मुनियों का पारस्परिक व्यवहार अहमियत रखता है.मुनि लास्ट बट वन हैं ,ऋषि से एक कदम नीचे.प्रधानमंत्री और उप-प्रधानमंत्री,प्रोफेसर और एसोशियट प्रोफेसर.यह पारस्परिकता ,सद्भाव कितना मधुर और तार्किक है यही निर्धारित करेगा ऋषि का जीवन और उनकी उपलब्धियों की स्वीकार्यता.इस संबंध में कहीं कोई चूक है.कानाफूसी चल रही है मुनि-वृंद में,उनकी पत्नियाँ भी बतकही में आनंद ले रही हैं.एक दु:रभिसंधि का उदय हो रहा है.
विनायक वंदना.देवता खुश.माया-धेनु तैयार,दिखती साधारण गऊ सी है.ऋषि के खेतों में जाकर उत्पात जैसे नीलगाय करती है. ऋषि का अन्नदान व्रत आहत हुआ. दूर्वा घास का एक मुठ्ठा डाल दिया माया-धेनु पर.धेनु चित्त,पखेरू उड़ गये. यही तो माया है.गॉसिप बढ़ता गया.तो ऐसे होते हैं ऋषि ! ही..ही..हा...हा. ऋषि स्तब्ध,पश्चाताप की अग्नि धू...धू..गोहत्या का पाप ! अफ़सोस-प्रार्थना-तपस्या.महादेव प्रसन्न ऋषि मुक्त.गो,दूर्वा और अरि-गोदावरी रूप धर मुक्तिदायिनी गंगा कलकल बहने लगती है.माया हटती है,धेनु भागती है.
लास्ट बट वन,उपांत्य का शमन हुआ.जरावस्था में दाँत भी छोड़ने को आतुर हैं अपना घर और बुढ़ापा भुने चने और मक्के के लिये आकुल है.एक ही आशा है कि ढाढ़ के दंत और थोड़ी देर रूक जायें.कृन्तक और रदनक आँखें मूँद भी लें कुछ पल तो ढाढ़ के दंत तो सद्गति कर ही देंगे भुनों की.उसके बाद उदरस्थ,आकुल जरा तृप्त होगा-उपांत्य का सहयोग.उपांत्य मित्र भी है.लक्ष्मण-रेखा खींची तो थी.यह अलग बात है कि वह सौन्दर्य से अभिभूत थीं.मायामृग ने उन्हें छल लिया.वाणप्रस्थ भी उपांत्य है.सही हो तो आवागमन से भी मुक्त.

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मुलाक़ात
वह उससे एक बार मिलना चाहता था.बस एक बार.वह उस भिखारी से मिल चुका था पहले भी कई बार.पर एक बार धर्म से बाहर.भिक्षा-धर्म से बाहर मिलना चाहता था.जब वह एक आदमी हो और कुछ नहीं.आदमी से मिलना मुश्किल है.चोर से मिला,पुरोहित से मिला,सिपाही से मिला,स्त्री से मिला,पुरूष से मिला बस आदमी से नहीं मिला.वैसे भी मुलाक़ात धर्म से बाहर ही होती है.कल्लू ज़ल्लाद सुना है एक अच्छा आदमी था ,धर्म से बाहर.
वह देखना चाहता था उस भिखारी को एक बार मुस्कराते.वह मुस्कराहट या दु:ख भी जो उसका अपना हो.आज बहुत तेज धूप है.४७ बरस रहा है.सुबह से ज़्यादा कुछ नहीं मिल पाया.भिखारी का ज़्यादा और कम,अंधे का सोया या जागा पता ही नहीं चलता. पर आज वह थोड़ा परेशान है,खाने की परेशानी हो सकती है.वस्त्र गंदे और सौ छिद्र.दोपहर का समय,किस घर जाये,खाने को कुछ माँगे.अंधेरे ठंडे कमरे में लोग आराम कर रहे होंगे और कुत्ते जाग रहे होंगे. मंदिर,स्टेशन,घाट,चौराहे पर अब कठिनाई है.वहॉं गिरोह है,नेता है,रंगदारी है,वह अब आम नहीं है.वह अनफिट् है.गिरोह त्याज्य या समाज च्युत.
उसकी जेब में छह रूपये हैं.वैसे हो तो सकता है,कि पेट में कुछ जाये.शाम तक थोड़ी और मेहनत कर मॉंग लेगा भीख.बिना मेहनत के आज तक क्या मिला है आजतक.
अपर्णा हुई उमा तो महेश मिले थे.नीम के पेड़ के नीचे बेंच पर बैठे-बैठे वह कुछ बदल रहा था आज.
उस कठोर धूप में नीम की छांह ने कोई आश्लस्ति भर दी थी.वह आज लुप्त होने को भी तैयार था.गर्म तवे पर गिरा पानी का एक बूँद, लुप्त होने की जल्दी में ऐसा नाचता है कि पता ही नहीं चलता कि हँस रहा है या रो रहा है.नीम की शीतलता में वह पिघल रहा था.
भिखारी के पैर में जूते थे.बहुत महँगे जूते,जो फटा था.फटे थे,लेकिन महँगा होना उसमें थोड़ा आत्मविश्वास भी जगा रहा था.कोहिनूर के टुकड़े हुये तो क्या वो कोहिनूर नहीं रह गया.रास्ते का पत्थर हो गया.यह जूता एक बड़े घर के लड़के ने दान में दिया था.वह कोई दान की भावना नहीं थी,जूते के शेल्फ़ में जगह नहीं था और उसे नये जूते लेने थे..कर दिया दान.
पॉलिश-पॉलिश कहता हुआ एक लड़का कोई बारह साल का, सामने से गुजरा भिखारी के.
भिखारी ने बुलाया लड़के को-इधर आ...इधर आ....
लड़का थकमकाया.
भिखारी और जूते और फिर पॉलिश-क्या अजीब है.तो क्या, वह धर्म से था.
उस लड़के ने कहा पूरे दो रूपये लगेंगे पॉलिश के ,कुछ कम नहीं,
हॉं-हॉं दूँगा,ले ये लो तुम पैसे पहले रख लो,भिखारी ने कहा.
लड़का पॉलिश करने लगा.भिखारी अपलक देखने लगा.
उसका बेटा अकलू पॉंच साल पहले घर से भाग गया था.उसने सुन रखा था कि वह लखनऊ में ही जूते पॉलिश करता है.पर यह लड़का बिसकुल अकलू सा नहीं था,दूर-दूर तक.
स्मित मुस्कान के साथ लड़का जूते को एकाग्र देखते पॉलिश कर रहा था.
भिखारी खुश हो रहा था.तवे पर गिरा पानी का एक बूँद ताप से ओझल हो रहा था.अकलू भी ऐसे ही मुस्कराता था.
आज मुलाकात हो गई थी उससे,जब वह भिखारी नहीं था,धर्म से बाहर था और एक आदमी था.

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आईना
यह दुनिया अपने हिसाब से चलती है.कोई जरूरी नहीं कि हर चीज वहीं हो जहॉं उसे होना चाहिये.मसलन ,डाल पर सद्य खिला एक लाल गुलाब.काँटेदार सीढ़ियों से चढ़ हिल रहा है.समझ में नहीं आता कि यह दुरूह यात्रा पुरी करने की खुशी है या लाल तमतमाया चेहरा उस यात्रा की व्यथा बयां कर रहा है.नवनीत बाबू आज रिटायर हो गये हैं.रेलवे की नौकरी.चालीस साल बीत गये,पता ही नहीं चला.तार बाबू से स्टेशन मास्टर.शकरकंद से आम हो गये लेकिन शकरकंद की एक गांठ अंदर पड़ी ही रही.
रिटायरमेंट के दूसरे दिन आईना देखा.देखते तो हर दिन थे कि टाई की फॉंस सही बैठी या नहीं.नौकरी भी तो फाँस ही है.नवनीत बाबू जानते थे कि यह फाँस उनके गर्दन पर है,हाथी-घोड़ा तो हैं नहीं कि कभी पैरों में खिसक जाये.पहले आईने में वह ख़ुद को देखते थे,आज आईना भी उन्हें देख रहा था.
आज आईना कुछ अलग था.जमाने का वह बेल्ज़ियन शीशा चित्तीदार दिख रहा था.चमकती कलई अब दब रही थी,राग ख़माज में लौटते में निषाद दब रहा था.शीशे पर छोटी-ठोटी काली बूँदें दिख रही थी.स्याही वाली कलम नहीं चलने पर लिखनेवाला झाड़ दिया हो हल्के से और कुछ छीटें बिखर गई हों.लिखनेवाला बेपरवाह.रिटायरमेंट के बाद यही छींटें मरने तक रह जाती है,समझते थे नवनीत बाबू.वे रेलवे के एक कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार कर्मचारी रहे.उनके यही गुण उनकी पत्नि मधु देवी के अतिरिक्त श्रृंगार भी थे.सफलता के हर मोड़ पर मधु देवी अपने माथे पर जो सिंदूर की बिंदी लगाती थी वह दूसरे दिन की अपेक्षा कुछ बड़ा होता था और वृत्त इतना संपूर्ण कि डूबता सूरज हड़बड़ी में आईना ढूँढें.
नवनीत बाबू नौकर कभी नहीं थे वे काँटेदार सीढ़ियों पर चढ़कर गुलाब नहीं बनना चाहे थे.छलछल नमी में हरे धानी पत्तों का सानिध्य ज़्यादा खुशी देता था.कंटक न हो.संगीत,कला,विज्ञान,गणित,ज्योतिष मानविकी सारे विषय उनके साथ सहज हो जाते थे.संगीत का कौन सा राग.आकाश के किस तारे को उद्वेलित करेगा इसकी संभावना भी तलाशते.
परिवार उनका कुछ बड़ा हो गया था.चार बेटियाँ और तीन बेटे.प्रकृति के साथ रहे और लाल तिकोन भी प्रचलन में नहीं था उन दिनों.सूरज से भी कुछ चॉंद रौशनी पा ही लेते हैं.सभी संतान मेधावी.मधु देवी का वात्सल्य और अनुशासन ने सभी बिरवों को वट बनने का अवसर दिया था.अभाव की गर्मी और प्रेम का माहौल बच्चों को फौलाद बना गया.
बस एक कसर रह गया था.नवनीत बाबू की प्रथम संतान सुनीता के साथ एक घटना,जो न्याय नहीं था.सुनीता अत्यंत सुंदरी,विदुषी,गुणी.सरस्वती और लक्ष्मी एक साथ-एक अनहोनी.पता नहीं संगीत में कौन सा सुर गलत लग गया और कोई तारा टूटा.सुनीता के चेहरे पर कुछ सफेद दाग उभर आये और पूरे शरीर पर छा गये.पूर्णग्रहण.तेज बारिश में पता नहीं चलता कि बादल कहाँ हैं.सुनीता ,नवनीत बाबू के जीवन का धूसर रंग था,बरसते आस्मां का रंग.कुछ औषधियाँ विलुप्त हो चुकी थी.न जाने सोम किस बात पर रूठ गया था.नवनीत-मधु उसे कभी जान नहीं पाये.सुनीता का विवाह वह नहीं कर पाये.
मधु देवी जानती थीं कि नवनीत बाब इस दु:ख से विधुर हो चुके हैं.
आईने का वह उतरा रंग,काले छींटों सा उनके जीवन में उतर आया था.सुनीता आर्थिक रूप से पराधीन नहीं थी.पर न जाने किस गुलामी को खटने के लिये मजबूर थी.सरकारी नौकरी मे थी.सुनीता के लिये थके माता-पिता बूढ़े हो गये थे,रिटायर नहीं.
सुनीता का उनके प्रति दायित्व और कोमल भावनायें नवनीत बाबू को थोड़ा और कमज़ोर कर जाता था.बेटी का विवाह नहीं कर पाने की व्यथा,नवनीत बाबू के मन में जाड़े में खेत में उठते धुँये की तरह उठती और निरूद्देश्य एक लीक पर लहराते हुये थोड़ी ऊँचाई पकड़ चलने लगती.यह चलना वैसा था जैसे कुलीन परिवार के लड़के आवारा होने पर भी अपनी मंथर गति छोड़ नहीं पाते.
इतने बड़े परिवार में अब तीन जन थे.तीन ताले.कई बार एक बड़े घर में सभी दरवाज़े अंदर से बंद करने के बाद बाहर से दो-तीन ताले लगाने पर पूरी तरह बंद हो जाते हैं.पूरा घर बंद.अब इन तीन तालों से ही पूरा घर बंद होता धा और खुलता था.धीरे-धीरे नवनीत बाबू -मधु देवी के समय घटने लगे और सुनीता के बढ़ने.
आईने पर और कुछ चकत्ते उभर आये.आईने में सुनीता भी अब अपना चेहरा ढूँढने लगी.कोई ऐसी जगह जहाँ ,सुनीता अपना प्रतिबिम्ब देख सके.आईने की कलई खुलने लगी थी और चेहरे भी अजनबी होने लगे.स्याही की पूरी बोतल लुढ़क कर आईने पर धीरे-धीरे फैलने लगी.

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स्वप्नसुंदरी
रामाधीन महतो यहीं सचिवालय में बाबू है.जिला बस्ती,तहसील नवादा,ग्राम पोस्ट एकरामऊ से लखनऊ आये आज उसे बारह साल हो गये थे.वह अपने गाँव से एक सपने की पालकी पर बैठकर आया था,जिसे चार कहार ढोकर लाये थे.उसके बी ए की डिग्री,वंचित वर्ग का होना,सौ ग्राम हौसला और एक अपरिचित शहर का अतिपरिचित नाम.रामाधीन आया तो था लेकिन उस पालकी से उतरने में उसका दम घुटने लगता था.बाहर की दुनिया पर्दा हटाकर देख लेता और फिर बंद.नाले के पीछे एक गॉंव में उसने एक कमरा किराये पर ले रखा था,जिसमें वह रात से लेकर सुबह तक अँट जाता था.इतने वर्षों में भी वह नि: संग था या यूँ कहें,पालकी से उतरा ही नहीं.जरूरत भी नहीं हुई,जीवन के लिये भोजन,वस्त्र और आवास तीन ही तो पढ़ा था उसने.पढ़ा भूले,वह रामाधीन नहीं है.
हॉं वह कुछ समय से बदला-बदला सा लग रहा है.ऑफ़िस से निकलते ही वह शहर के बाज़ार में थोड़ा टहल लेता है.चकमक करती रौशनी,पीछे से हॉर्न की आवाज़ उसे खुसुर-फुसुर जैसी होती हुई बिला जाती.ऐसे ही किसी दिन बाज़ार में टहलते हुये उसकी नज़र,पोशाक की किसी शो रूम के शीशे के पीछे खड़ी एक मैनेक्विन पर पड़ी.एक डमी एक पुतला.साड़ी में लिपटी.चॉंद की रौशनी में नहायी.रामाधीन पालकी से उतर आया था.यही तो है जिसे वह ढूँढ रहा था.ह्रदय के एक कोने में हल्का सा दर्द हुआ,जैसे लिफ़ाफ़े के कोने में एक डाक-टिकट चिपक गया था.अब वह बैरंग नहीं होगा.अब हर शाम उस मैनेक्विन को एक नज़र देखने के लिये छटपटाने लगा.अब रामाधीन नि:संग नहीं था.उसके जूते भी अब ज़्यादा साफ थे और तस्में भी कसे हुये.आख़िर जूते ही तो पहचान की चुग़लखोरी कर जाते हैं.
झिलमिल रंगीन साड़ियॉं,नथ,बिंदी,काजल और हल्के से घूँघट में रामाधीन को लगता कि वह उसका इंतज़ार कर रही है.जून महीने की एक तपती शाम को बाज़ार में टहलते हुये लगा ,आज सड़क को बुख़ार सा है,हवायें गर्म और थकी सी.अपशकुन का आभास हुआ रामाधीन को.ढूँढने लगा उस अपनी मैनेक्विन को.आज वह उस रूप में नहीं थी.साड़ी की जगह वह सलवार-कमीज़ में थी,कोई घूँघट भी नहीं.उसका प्रेम और पौरूष दोनों आहत हुआ.फिर समझाया अपने मन को -तो क्या हुआ,अरे दुपट्टा तो है और जमाना भी बदल रहा है,कोई बात नहीं.गुज़रते हुये एक वज़न लेने की मशीन दिखाई दी रामाधीन को.वह एक मरियल लंगड़ाते कुत्ते की तरह मशीन की तरफ बढ़ा.लाल-पीली-नीली रौशनी में भक्-भक् करती साफ सुथरी मशीन जिसमें भाग्य-चक्र की तरह एक छोटा पहिया शीशे के पीछे से स्थिर होकर उसे देख रहा था.
मशीन पर खड़े होते ही चक्र में हलचल हुई जैसे भाग्य हरक़त में आ गये हों.सिक्का डालते ही न जाने किन गलियों में खड़बड़ करता हुआ सिक्का ग़ुम हो रहा था.यह पूरी सृष्टि के ध्वनियों का सरगम गीत था.कुछ समय के बाद खट् से एक टिकट बाहर आया.एक लड़की का चित्र,उसके नीचे उसका वज़न-जो उसकी ऊँचाई के अनुपात में चार किलो कम था.रामाधीन उदास हो गया.ऊँचाई के साथ वज़न भी तो होना चाहिये.ऊँचाई,वज़न और अपने वज़ूद के तिर्यक में वह फँसकर रह गया.रामाधीन ने आज अपना चेहरा भी पहली बार किसी दुकान मे लटक रहे एक आईने में चोर निगाहों से देखा था.वज़न लेकर अपने को तौलने की कोशिश भी की.यह उस मैनेक्विन के साथ अपने निशब्द प्रेम को स्वर में बाँधने की चेष्टा थी.टिकट को पलटने पर उसका भाग्य लिखा था-समय अच्छा है पर कुछ टूटने वाला है.रामाधीन के पास कुछ भी तो नहीं था जो टूटता.वह निश्चिंत हुआ.वज़न मशीन अब सो गया था जैसे रात को नवजात रोये और माँ दूध पिला दे तो फिर निर्मल शांति.रामाधीन की दुनिया उस मैनेक्विन की धूप-छाँह में अच्छी गुज़र रही थी.
किसी शाम टहलते हुये वह शो-रूम जो उसके घर लौटने सा था,वहॉं आज हवा कुछ ज़्यादा दिख रही थी.नज़र में वह मैनेक्विन नहीं आई.वहाँ अब जूते का शो-रूम आ गया था.रामाधीन फिर से पालकी में बैठ गया था और वज॒न के टिकट को जेब से निकालकर देखने लगा.बाहर बारिश होने लगी थी.बूँदें सड़क पर ऐसे गिर रही थी जैसे हज़ारों थर्मामीटर सड़क पर गिरकर टूट रहे हों.

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चूहा

आज एक चूहा देखा.देख तो बहुत दिनों से रहा.घर में ,वन में, रेलवे स्टेशन पर,खेत में दुकानों पर जहाँ भी खाने की और दाँत की पहुँच है.विनायक की उपस्थिति मे तो ऐसे रहते है जैसे "क्यू" के साथ "यू".और दिन तो कोई बात नहीं कार्तिक अमावस्या को तो निश्चित रूप से वंदना गीत में अपना स्थान बना लेते है.विवाह-वार्षिकी के दिन खड़ूस भी सूर्योदय के साथ जैसे कुछ बदल जाता है.डेढ़ नहीं तो पौना इंच के मुस्कान को गुडनाईट तक ओढ़े ही रखता है.जिसे देखकर क्या सुनने पर भी शरीर में जुगुप्सा जगती हो वह एक वेदिका पा जाता है.
आज इस भाव को उतार कर एक किनारे डाल काले अंगोछे से ढँक दिया. इसकी काली चमकती काली आँखें,पूरे शरीर के बालों का समानुपातिक कटिंग जैसे हबीब ने इनसे सीखा हो.चारो पैर,दोनों कान,मूँछों के बाल,पूंछ की बनावट परफेक्ट.अब एक शब्द में इनके नख-शिख का वर्णन तो हमारे सौन्दर्य विधा में तो अटपटा लगेगा.आंग्ल सक्षम है.इपेक्केबल्.कहाँ हम पापातीत,अनिन्द्य,त्रुटिहीन,निर्दोष के चक्कर में फँसे रहेंगे.जितने शब्द उतने मत.असल तबतक ऊँघते हुये सो जाता है.जेंटल्मेन लुक.ऐनक लगा दिया जाये तो सम्मानित मंचासीन की पूरी संभावना.
चीनी राशिमण्डल में जिन बारह पशुओं को स्थान दिया गया है,मूषक भी एक है.कहते हैं चूहा-वर्ष में जन्मे लोग चूहे का गुण रखते हैं.सृजनात्मक,बौद्धिक,ईमानदार,उदार,महत्वाकांक्षी,क्रोधी,अपव्ययी इनके साधारण गुण हैं.इसी राशिमण्डल मे "बंदर" से तो बनती है "घोड़े" से नहीं.अब यह नहीं मालूम बौद्धिक और "बंदर" के अविरोध में कौन सा अनुबंध है.डारविन जरूर किसी झरोखे से झांक रहे होंगे.
मेरी धर्मपत्नि चूहों को देखते ही उसे अगली योनि का पथ खोल देती हैं,कितने योनि के बाद तो यह मानव जन्म होता है-इस अर्थ में मुक्तिदायिनी हैं हीं.निशाना ऐसा कि हवाई चप्पल हो या संहारिनी रूप कि ओलिम्पिक के एकाध दर्जन स्वर्ण तो बटोर ही लें.हिटलर के यहूदी घृणा के तह में जाने की कोशिश की.कहानी एक सी मिली.उनके कैशौर्य में पिता द्वारा दिये गये एक प्रिय ऊनी वस्त्र को कुतर दिया था इसी कुल के किसी नादान ने.यह वंश आजतक ढो रहा है उस द्वेष और प्रतिहिंसा के आघातों को.पंद्रह साल के हिटलर को उस जुल्मी यहूदी मालिक के शराब के ठेके पर मिली बेंतों की मार कोई बीज बो गया था.इन क्षणों मे में अपने को बेसहारा पाता हूँ,लगता है,दूर कहीं कोई दर्पण टूटे तड़प के मैं रह जाता हूँ.घृणा जुगुप्सा पर हावी रहती है.प्रेम और घृणा का कोई राजपथ,जनपथ नहीं होता है.अपनी-अपनी पगडंडियाँ होती हैं और कुछ चोर रास्ते.करणी माता के मंदिर में जो साधु बनने की तैयारी में हैं,उनके साथ कुछ भी हो सकता है.दुनिया कोई अभयारण्य तो है नहीं न ही हर कोई अभयमुद्रा में.
कहना सुनना कोई माने नहीं रखता.औरंगज़ेब ने वीर शिवाजी को पहाड़ी चूहा कहा था,उनके युद्ध-कौशल से आक्रांत होकर.पता नही यह अवमानना थी या कॉम्प्लिमेंट.चूहे अगर भय है,बीमारी है,अकाल है तो प्रयोगशालाओं का प्रथम मानव का करीबी भी.जीवविज्ञानी कहते हैं,कि स्तनपायीयों में होमो सैपियन्स अर्थात मानव जाति की संरचना का सबसे नज़दीकी आत्मीय भी.यह औषथियों के निर्माण का टेस्ट पायलट है.अपने लिये जिये तो क्या जिये....कहा तो जाता है कि बौद्धिक और जेंटल्मेन दूसरों के लिये जीते हैं.

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नेमप्लेट

घर के बाहर लगे नेमप्लेट एक साथ बहुत कुछ कहते हैं.सुना था जूते बड़े चुग़लख़ोर होते हैं.सामने वाले को कब बता दे आपकी,की कानों ख़बर न हो.एक पड़ोसी हैं होली के दिन ही बस दिखते हैं लेकिन रंग-अबीर पुते होने के कारण अभी तक चेहरा पहचान नहीं पाया.उनके घर के गेट के बाहर एक नेमप्लेट पर लिखा है,अलकत राव,एलएलबी.वैसे कोई पुर्तगाली कनेक्शन नहीं है उनका.बस यूँ ही.सुना है जब मोहल्ले का अंतिम चौराहा पार कर लेते हैं तभी मुस्कराते हैं.गुरू गंभीर.लोग कहते हैं बड़ वकील साहब हैं,जजी ठुकरा दी.बात तो सही लग रही है न तो ऐसे ही कोई ठुकराता है भला.अलकत राव साहब का नेमप्लेट लेकिन श्वेत मकराने पर है और खुदे में काले से लिखा है.पर गारंटी १००% की ,वह अलकतरा नहीं है.
एक और नेमप्लेट शुरूआत ही स्वर्गीय से.अरे जाने भी दीजिये,वहाँ की शांति क्यों भंग कर रहे है,मर्त्यलोक मे उनकी टाँग पकड़ कर न खींचा जाये.कैथोलिक बंधु तो वहीं निपटा देते हैं-आरआईपी.न हिल-डोल न कोई छेड़छाड़.इसी सूची में दूसरे नाम भी हैं वरिष्ठता क्रम में.परिणामी ज्येष्ठता पर भी कोई सवाल नहीं.पूरा सिंह परिवार यहाँ रहता है.प्राईड ऑव दी मुहल्ला.
कदम आगे बढ़े,एक और नेमपेलेट.साहब हिन्दी-प्रेमी.टीन के नीले पट्टी पर सफेद से बस लिखा है अपना नाम शॉर्ट में.सफेद अब वक्त के थपेड़ों और चिरकुटई की चिकौटियों से ऑफ़ व्हाईट हो गया है.उनसे पहचाान भी है.नाम है समीर कुशल.अब हिंदी से प्रेम या मजबूरी लिखा है-स०कुशल.बाक़ियों के क्षेम पूछने की कभी जुर्रत नहीं हुई.एक चीज बड़े मार्के की मिली.शुभ्र मकराने पर खुदे सुनहरे नाम लाट के बड़े क़रीब होते हैं.आना जाना बस ग्रहण की तरह होता है,हों भले ही,कब और कहाँ दिखाई देंगे जल्दी मालूम नहीं चलता.काले शीशे वाले काफ़िले से अंदर और वैसे ही बाहर.पता ही नहीं कब चले और उनका कारवाँ बनता चला गया.
नेमप्लेट झूठ न बोले..सच्चे गृहस्थ.गृहलक्ष्मी का नाम सबये ऊपर.साहब अली विमर्श में चिल्ल-पों करते कि नहीं,नहीं मालूम लेकिन अक्षय तृतीया के दिन तनिष्क उनका इंतज़ार जरूर करता है.खाँटी ही तो खाँटी का इंतज़ार करेगा न.एकाध-किलो ईंट बिस्कुट का मामला है. है भी तो लक्ष्मी वरना कब रूठ जायें.
कुछ नेमप्लेट बस प्लेट ही हैं.नाम हों न हों.ज्ञानी-विद्व जनों को क्या कहना.१० जनपथ और ७ रेसकोर्स.नाम कहीं और प्लेट कहीं.इस प्लेट पर न आप मड़ुवे-बाजरे की रोटी खा सकते हैं न शिरमाल.१० डाउनिंग स्ट्रीट और चेकर्स का मामला नहीं है यह. बस नाम के ही प्लेट.प्लेट न हो तो पता ही न चले यहाँ कोई नर रहता है या कुँजर.दोनों एक साथ झलक भी दिखला दे तो बाजी पलटते देर कहाँ ? कहीं नेमप्लेट तो होता है लेकिन नेम नहीं.साधारण डाक में तो कोई बात नहीं,पंजीकृत में ईश्वर को एक बार जरूर याद करेगा.छापे वाले,पुलिस वाले और भाई के लोगों को एक बार मेहनत तो करा ही डालेगा.
सोचता हूँ,चाणक्य जब पाटलिपुत्र और तक्षशिला के बीच शटल् कर रहे होंगे तो उनके दोनों निवास-झोंपड़ी या मड़ैया के बाहर कौई नाम-पट्टिका रही होगी या नहीं.वैसे शायद न ही हो.पट्टिका पहचान दे जाती है और फिर नंद आसान नहीं होता.बार्ड ऑव एवन भले ही कहते रहें कि नाम में क्या रखा है लेकिन व्यक्ति के पहले उसका नाम चलता है नहीं तो अभी जो देखी पट्टिका,प० रामदीन मिश्र,जहाँ उत्तरार्ध को अपने पर उतना भरोसा नही है,नहीं तो पूर्वार्ध का टेक क्यूँ लगाते.

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feyu

आज मिलन से मुलाक़ात हुयी.मिलन से मुलाक़ात ! दोनों ही संयोग हैं,लेकिन दूसरे में काल-निबद्ध होने के अवसर हैं,मिलन में नहीं.मिलन में प्रकृति का एक मौन अनुमोदन है,मुलाक़ात में प्रायोजन की भी संभावना है.जिस मिलन में उत्सुक हूँ वह शोर नहीं बाबा...सोर...सोर...सोर.. वाला मिलन नहीं है जो नूतन जी को नाव में गाना सिखा रहा था.
यह मिलन एक मोची है.निशातगंज में प्रेम-बाज़ार के पास फ्लाई ओवर के नीचे मंदिर की दीवार के पास का मिलन.सड़क किनारे दुकान.आसमान का रंग बदलनेवाला छत.मेरे लिये यह मिलन स्वार्थ का था.
एक जोड़ी फैशन की जूतियों के सोल बदलवाने थे.जूते ही सोल बदल सकते हैं.मुक्ति-पुनर्जन्म की आकांक्षा ही आवागमन बनाये रखती है.यह सोल हमारा नहीं.हम तो -
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: सुनते मानते आये हैं.फैशन में सोल बदले जाते हैं,घड़ा वही रहता है.फैशन हमारे शास्त्रों को नहीं मानता.एथनिक कहकर जैसे हम पोपली हँसी हँसते हैं.
मिलन प्रेम बाज़ार में बैठे और वहीं मिल भी जाये तो अचरज होता है.मुझे अचरज नहीं हुआ.मिलन अपनी दुकान पर नहीं था.फल-फूल के दुकानवालों ने आवाज़ लगायी-मिलन...मिलन...मिलन तो होता ही अप्रत्याशित है,नहीं तो प्रयाग के आगे-पीछे भी तो चौसर जमीन थी गंगा जमनी तहज़ीब के लिये.मिलन मेरे पास ही खड़ा था जैसे अभी-अभी जमीन से निकला हो.खुरपे जैसी तीन दॉंत बाहर निकाल मुस्करा रहा था.कमर का तहमद ऐसे लपेटे था,जैसे वह बिना पैरों का कोई प्राणी हो.
उसे प्रकरण से भिज्ञ कराया.उसने मौन सहमति दी.सहमति होती भी मौन है.कहा-लिखा पलट सकता है.
मिलन जुट गया.उमस भरी कड़क धूप में जमीन पर बैठे मिलन के सामने उँकड़ूं बैठकर उसके काम पर नज़र थी.मिलन ध्यान की अवस्था में जा रहा था.सामने ट्रैफिक की चिल्ल-पों और वह विपश्यना में धँस रहा था.सोल बदले जा रहै हैं कोई खेल तो नहीं.आदिगुरू शंकराचार्य तो बस निकालने वाले प्रकरण में ही थोड़ा चूक गये थे.
उसके ध्यानस्थ होने और पीछे भीड़ में शून्यता का बोध कोंचने लगा.मिलन से आलाप की कोशिश नाकामयाब हो रही थी.रॉबिनसन क्रूसो का मैन फ्राईडे.क्या कहा,क्या समझा पर था तो मिलन ही.
मिलन के सारे औज़ार,रंग -पॉलिश की डिब्बियाँ,ब्रश सभी साफ-सुथरे व्यवस्थित.वैसे भी व्यवस्थित होने के लिये कॉरपोरेट हाऊस होना जरूरी नहीं.विचार और कल्पना की धारा अंत:स्रावी होती हैं.दिखना सौभाग्य है.
मेरा जमीन पर उकड़ूँ बैठना उसे आत्मीयता का बोध करा रहा था.पर ईमानदारी की बात यह आत्मीयता का सेतु मेरा निरूपाय होना था.तभी अंगरक्षकों सहित एक युवा विधायक जी की गाड़ी रूकी.उन्होने अपने जूते मरम्मत के लिये मिलन को दिये थे.मिलन ने उन्हें तबतक के लिये एक पुराना चप्पल दिया था.विधायक जी ने अपने जूते ले लिये पुराना लौटा दिया.विधायक जी के जूते के अंदरूनी हिस्से में लिखा था-" मोची " .एक महँगा ब्रांड.बिना पैसे दिये चले गये.उनसे मेरी नज़र मिली.दृष्टि में एक बेहया की क्षमायाचना थी.
इसी बीच दो लड़कियॉं आईं.एक के चप्पल का अँगूठा निकल गया था.उनका अनुरोध,अनुनय कानों में आ रहा था.जल्दी करने के लिये.छोटा सा काम है.मेरा मौन विध्य पर्वत की तरह खड़ा था मिलन का क्रम नहीं तोड़ने के लिये.दिल पिघला.छोटी बच्चियाँ हैं-कॉलेज कोचिंग का समय होगा.क्रम तोड़ना मानवीय लगा.अनुमति दी.आधे मिनट में चप्पल दुरूस्त हो गया.मिलन को पॉंच का एक सिक्का मिला.ऐसे ही दो लड़के और आये,क्रम टूटा-पॉंच के सिक्के मिलते रहे.मिलन के आय की ईकाई पॉंच रुपये हैं ऐसा लगा.
बापू की वह तस्वीर याद आई जो सरकारी दफ़्तरों में अकसर दीवारों पर दिखाई देता था.एक हाथ में लाठी,दूसरा अभयमुद्रा में.उनकी ऊँगलियॉं कुछ लम्बी और बिखरी थीं.अभय पॉंच दिखता था.मुलाज़िमों ने अर्थ लगाये पॉंच से कम नहीं.अर्थ अनर्थ हो गया.अभय पेटी और खोखे बन गये.बापू भी दीवारों से थक गये,उतरने लगे.
मिलन अपने अरहन या निहाई,सुतारी,चमकटनी.गोंद,हथौड़ी से सोल बदल रहा था.यही अंतर है हमारे और उनके सोल में.हमारे यहॉं औज़ार के बिना भी हो सकता है.मिलन अब दोनों जूतियों के सोल बदल चुका था.जूतियॉं चमक रही थीं.प्राडा के म्यू-म्यू और मैक्विन की जूतियों से कोई कम नहीं.
मिलन एक संयोग है ] जो ध्यान की चरम अवस्था से गुज़रने पर ही मिल सकता है.

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१.नाम - शेष अमित
२.उपनाम - कुछ नही
३.राज्य - उत्तj प्रदेश
४. चित्र - संलग्न
५. जन्मस्थान - पश्चिमी चंपारण ( बिहार)
६.जन्मतिथि - १५.११.१९६३
७. प्रकाशित पुस्तक - कोई नहीं
८. पुरस्कार - कोई नहीं
९. विस्तृत जीवनी - कोई नहीं
१०. कहीं प्रकाशित नहीं है.रचनाओं को गद्यकोष में जोड़ने की पूर्ण अनुमति है.

संलग्न चित्र