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एक था वेद

एक था वेद

Mamta Shukla

आज एक बार फिर बहुत तेज बारिश हो रही थी। बादल जोर जोर से गरज रहे थे | बिजली बार बार इतनी तेज चमकती कि अँधेरी रात में एकदम से पूरा कमरा चमक जाता।

मानो आसमान में, इंद्र की बारात जा रही हो, बादल और बिजली ढोल-नगाड़ों और आतिशबाजी के साथ साथ बारिश भी नागिन डांस करती, एक ही ताल से नाचे जा रही थी।

जब जब ऐसी बारिश होती थी तब तब वेद मोमबत्ती की लौ के सामने अपनी रॉकिंग चेयर डाल, एक ही गति से झूलता रहता और अतीत में पहुँच जाता।

सात साल पहले, ऐसी ही जोरदार बारिश में, जब चारु और वेद कॉलेज से लौट रहे थे। वेद को बड़ी जल्दी थी कि चारु को जल्द से जल्द उसके घर पे ड्राप कर दे। सड़क एकदम सूनसान थी, इतने में अचानक काले काले बादल घिर आये थे। शाम पाँच बजे ही ऐसा लग रहा था, जैसे रात के आठ बजे रहे हो, जैसे आसमान पे किसी ने काली चादर उढ़ा दी हो, और सूरज भी बादलों के गर्जन से डर, अपनी ड्यूटी छोड़, जल्दी घर जा दुबक के बैठ गया हो। बिजली की आड़ी तिरछी लकीरे शरीर पर ऐसे चमक के चली जाती थी जैसे बार बार फ़्लैश की रोशनी डाल फ़ोटो खीच रहा हो कोई। उसकी लाइट से आंखे मि्च जाती थी।

अमुमन लड़कियां ऐसी बारिश में डर जाती है। बादल गरजने और बिजली से घबरा कर, सुरक्षित अपने घर पहुँच जाना चाहती है।

पर चारु एकदम ऐसी नही थी। एकदम अलग, बिंदास।

उसे किसी बाद से कोई डर नही लगता था। वो बारिश और डरावने मौसम के भी मजे ले रही थी। उसे बड़ा मजा आ रहा था भीगने में। उसने रेनकोट अपने बैग में छुपा रखा था । जानबूझ के बाहर नही निकाला। जगह जगह सड़क पे पानी भर गया। जब बाइक के पहिये पानी फाड़ के आगे निकलते तो पहियों के दोनों ओर पानी के फव्वारे से निकलते जिसे देख, चारु जोर से ताली बजाती और चिल्लाती। उसे कोई परवाह नही थी कि कोई देख के क्या सोचता होगा, इतनी बड़ी लड़की कैसे बच्चो की तरह चिल्ला रही है। वो तो बस ऐसे खुश हो रही थी जैसे वाटरपार्क में किसी राइड पे बैठी हो।

हालांकि की वेद थोड़ा घबराया हुआ था मूसलाधार बारिश से, कही ज्यादा पानी भर गया, तो उसकी बाइक बंद न हो जाएऔर वो चारु कही रास्ते मे न फस जाए।

ऐसे में उसने ही वेद को कहा था, "अरे ऐसे मौसम में कोई घर जाता है क्या?" और रास्ते मे ही बाइक रुकवा ली थी, एक झोपड़ीनुमा होटल के पास, "देखो-देखो उधर वो, गरम गरम पकोड़े तल रहा है, और देखो चाय भी बन रही है, प्लीज....वहां चलते है न, चाय पीनी है"। जिद्दी थी बहुत, न मानी, चाय पी के ही मानी, वेद ने टोका भी कि "यहाँ खाओगी पियोगी? हाइजीनिक है भी?"

एकदम बिंदास होकर बोली, "कुछ नही होगा, सब तो खा पी रहे है, और अगर ऐसे मरते है तो कल मर जाए, मन मार मार के क्या जीना"। चुप रह गया था वो, कभी उसकी चली थी चारु के सामने, जो आज चलती।

अचानक सिगरेट की आग से वेद का ध्यान टूटा, अब तक एशट्रे भी भर चुकी थी।

वो ध्यान कहीं और लगाना चाहता था, एक दो, गाने लगाए मन बहलाने को, लेकिन आज ये गाने भी उसे अच्छे नही लग रहे थे।

बिस्तर पे आँख मूंद, नींद का इंतजार करने लगा।

बादलों की गड़गड़ाहट ने यादों का बवंडर जो मचा रखा था।

याद आया उसे वो दिन, जब चारु और वेद कैंटीन में बैठे थे, तभी कुमार आया, वो सीधा इनकी टेबल के पास ही आ के रुका और कहा"सॉरी, अगर इजाजत हो तो मैं यहाँ बैठ जाऊँ?दरअसल मैं यहाँ नया नया हूँ, और सारी टेबल्स भरी है।

वेद को पसंद तो नही आया था कि उनके बीच कोई आ के बैठे।

लेकिन चारु ने झट से उस से कहा, "ऑफकोर्स वाई नॉट, वेलकम"।

इस तरह तीनो में दोस्ती हो गई अब तीनो एक साथ कैंटीन आते और बैठते।

वेद "इंजीनियरिंग" कर रहा था, जबकि चारु "सी ए" दोनो एक ही स्कूल से थे, इसलिये इनकी दोस्ती सालों पुरानी थी। शायद ही कोई ऐसी बात हो जो चारु, वेद से न बताती हो। दूसरी लड़कियो के बेमेल कपड़े, बॉय फ्रेंड, झगड़े से ले लेकर अपने घर परिवार की बाते और खींचतान तक।

कुमार भी"सी ए" कर रहा था। इस वजह से धीरे धीरे चारु और कुमार का मिलना ज्यादा होता जा रहा था। ये बात वेद को कही न कही बड़ी खटकती थी। वो मुँह खोल के कुछ कह भी नही पा रहा था।

अब तो चारु कभी किसी काम से, कभी पढ़ाई का कुछ मटीरियल कलेक्ट करने, झट कुमार के साथ बाइक पे निकल जाती थी। वेद चुपचाप अकेला चल देता, उसे अक्सर अपने पीछे चारु को बैठाने की आदत सी थी, जब तक चारु पीछे बैठ उसके कंधे पे हाथ हाथ नही रख लेती तब तक उसकी बाइक में रेस नही आती।

धीरे धीरे वेद को लग रहा था कि वो इगनोर हो रहा है दोनो की बात चीत मे।

उन दोनोके विषय एक थे तो कभी किसी बात में डिस्कसन होने लगता, तो कभी किसी टॉपिक पे बहस। वेद बस कभी चारु का मुँह देखता तो अभी कुमार का। कई बार दोनो सीढ़िया चढ़ आगे निकल जाते और वेद नीचे ही रह जाता।

ऐसा नही की चारु जानबूझ के करती, बस जाने अनजाने ऐसी सिचुएशन हो जाती।

धीरे धीरे वेद उनसे कटने लगा। कभी उनके साथ आता तो कभी पढ़ाई का बहाना बना टाल जाता।

चारु को भी अब उसकी कमी उतनी नही लगती, उसे लगा वो अपने केरियर को ले के ज्यादा पजेसिव हो गया है।

सब भूल, वेद फाइनल ईयर के एग्जाम की तैयारी में जुट गया।

उसका सिलेकशन कैम्पस के थ्रू बैंगलोर की एक नामी कंपनी में पहले से हो चुका था।

देखते देखते एग्जाम खत्म हुए। वेद डिस्टिंग्सन से पास हुआ और बैंगलोर चला गया। उस दिन चारु उस से गले मिल बहुत रोई, उसकी आँखें लाल और सूज गई थी। वो वेद के बिना खुद को, नही सोच पा रही थी। हर छोटी बड़ी बात जब तक वेद से कह नही लेती उसे चैन नही आता।

आज अकेली रह गई थी वो।

कई दिनों तक कुमार के साथ भी शांत शांत रहती।

धीरे धीरे समय गुजरता गया।

वेद की कंपनी इतनी बड़ी थी कि काम का कोई पार नही था। वो काम मे पूरी तरह डूब गया। कभी कभार मोबाइल पर दोस्तो से बाते हो जाती। पहले दो तीन दिन में चारु से बात हो जाया करती फिर दिन सप्ताह और सप्ताह महीनों में बदलते गए। अब मेसेज में बात हो जाया करती कभी कभी।

उधर चारु और कुमार दोनो को भी अच्छी जगह जॉब मिल गई । दोनो मोटी तन्खाह में काम करने लगे।

एक दिन संडे की सुबह सुबह मोबाइल की घंटी बजी, दूसरी तरफ चारु की खनखनाती आवाज आई, "सुनो वेद छुट्टी एप्लाई कर दो अभी से, मैं शादी कर रही हूँ, जानते हो किस से? नही ना? तो सुनो, इस बुद्धू कुमार से।

देखो तुम्हे पहले से आना पड़ेगा नही तो मैं शादी नही करूँगी समझे?"

वेद को कोई आश्चर्य नही हुआ, वो जानता तो था, पर खुद को कहाँ मनवा पा रहा था। उसने भी खुशी का इजहार करते हुए प्रॉमिस कर दिया कि वो जरूर आएगा।

उस दिन उसे नींद नही आई, पूरी रात करवटों में निकल गई, स्कूल से कॉलेज तक रोज मिलना।

एक-एक बात फ़िल्म की तरह आंखों से गुजरती गई।

जिस दिन शादी थी, उस दिन वेद सिंगापोर में था। उसने जान के ऐसा प्रोग्राम सेट किया कि वो इंडिया में ही न रहे।

बात आई गई हो गई।

वेद अपने काम मे डूबता चला गया।

पहले माँ थी, तो जिद भी किया करती थी शादी के लिये, जब से माँ गईं तब से, उसे कोई फ़ोर्स करने वाला भी नही रहा, उसकी खुद की, कभी कोई इच्छा नही रही कि घर बसाए।

धीरे धीरे सामान्यतः मशीनी जिंदगी गुजर रही थी।

यहाँ चारु और कुमार से भी लिंक टूट सा गया।

आफिस से घर, घर से आफिस बस। हँसता मुस्कुराता पहले भी बहुत नही था, अब तो जैसे हँसे सालों हो गए हो।

भतीजे भतीजी कभी कभार आ जाते, तो दो चार दिन उनके साथ बिता लेना यही मनोरंजन था उसके लिये।

एक दिन वेद की तबियत कुछ नाजुक थी।

उसने वर्क फ्रॉम होम ले रखा था अचानक डोर बेल जोर से बजी, नोकर भी छुट्टी पर, गाँव गया था। उसने जा के दरवाजा खोला तो भौचक्का रह गया। उसे अपनी आंखों पर यकीन नही आ रहा था। धीरे से उसने अपने दूसरे हाथ मे चुटी काटी, तब उसे यकीन आया।

दरवाजे पे चारु खड़ी थी ग़ुलाबी सलवार कमीज में, थोड़ी बदहवास, थकी थकी, आनान फानन में बालों को ऊपर खीच के जुड़ा लगाया था, हाथ मे एक बड़ा बैग था, उसने वो बैग दरवाजे पर ही पटक दिया। वेद लगभग चीख पड़ा"तुम"? कैसे? उसने उसके पीछे झांकते हुए पूछा कुमार कहाँ है?

चारु ने परेशान लहजे में कहा "सारी बातें यहीं पूछ लोगे की अंदर भी आने दोगे"। वेद ने हड़बड़ा के कहा "आओ न", और एक ओर सरक गया।

चारु ने कहा, कुमार नही आया साथ। और सोफे पे धम्म से धँस गई।

वेद के दिमाग मे कई सवाल कौंध गए, वह और भी कई सवाल पूछना चाहता था, पर चुप ही रह गया।

वेद झट से पानी ले आया उसके लिये और कहा रिलैक्स, आराम से बात करना, पहले चाय पी लो। ये कह वेद किचन में चला गया। काफी दिनों बाद वेद ने अपने हाथ से चाय बनाई थी, उसे पता था चारु को अदरक वाली चाय पसंद है, फ्रिज में से ढूढ ढांड के अदरक भी डाल दी। उसका मन चाय बनाने में कम और चारु के अचानक आने के बारे में, सोच में लगा था।

चाय ले कर आया तो देखा, चारु आंख बंद कर के बैठी है? चारु को कभी इतना चुप शांत नही देखा था वेद ने।

चाय उसने चारु के हाथ मे थमा दी कहा सुनो" पी के नहा धो लो फिर आराम से बात करेंगे।

वेद ने खाना बाहर से आर्डर कर दिया था, चारु नहा धो के काफी बेहतर लग रही थी, उसने नीले रंग की कुर्ती पहन रखी थी, उसपर सफेद कढाई का काम था, गीले बालों को उसने खोल रखा था, वेद उस पर से नजरें हटा ही नही पा रहा था। एकदम पहले वाली चारु लग रही थी, लेकिन स्वभाव से वो, अब वो नही रही थी, उसकी आंखों में एक दर्द झलक रहा था, शांत, चुप गंभीर सी।

वेद का मन हुआ कि एक ही साँस में सब कुछ पूछ डाले, उस से पर वो कुछ न पूछ पाया। दोनो ने साथ लंच किया और वेद अपना लेपटॉप ले कर आफिस का काम निपटाने लगा, हालांकि उसका काम में मन कतई नही लग रहा था वो बस चारु के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था।

जल्दी जल्दी काम निपटा कर उसने चारु से पूछ ही लिया अब "बताओ अचानक ?"यहाँ?और कुमार कहाँ है?

चारु ने गहरी सांस भरी और कहना शुरू किया, " शादी के पहले पहले तो दिनो में तो सब बहुत बढ़िया था, बस स्वर्ग यही है ये ही लगा। कुमार और मैं एक महीने "ऊटी" में पड़े रहे, जब छुट्टियां खत्म होने लगी तब हम वापस डेल्ही गए, रोज कुमार कुछ न कुछ लाता और हम रोज बाहर घूमने जाते कब साल बीत गया पता ही नही चला, अब रोज रोज बाहर जाना भी उबाऊ लगने लगा। मैं बहुत थक जाती थी, इसलिये मैने जॉब छोड़ दी।

अब सारा दिन घर मे, काम के बाद भी समय काटे नही कटता था। दिन भर के इंतजार के बाद कुमार आता तो, थका थका सा होता। मेरे पास ढेरों बातें होती, उसका जवाब हां, हम्मऔर अच्छा तक सिमट के रह गया था। कितनी बाते करती, एकतरफा। कुछ ही दिन में मेरे पास भी बाते सिकुड़ के रह गई, दोनो के पास कोई बात नही होती एक दूसरे के लिये, बस रोज का खाना, खाना ऑफिस जाना फिर आ के डिनर, और फिर सो जाना। कभी कभी तो कुमार बाहर ही खा के आता, फिर मेरा भी अकेले मन न होता। कुमार बिस्तर पे गिरते ही सो जाता, मैं रात भर घुटती रहती। सोए हुए कुमार का मन पढ़ने की कोशिश करती। ऐसी जिंदगी मैंने नही चाही थी उसके साथ।

एक दिन मैंने बातों बातों में, माँ से सारी बात कह डाली। माँ ने समझाया कि कोई बात नही ऐसा होता है, अब नया सदस्य ही कुछ बदलाव ला सकता है।

मुझमे थोड़ी आस जगी, अब हमे किसी तीसरे की जरूरत थी, जो हमारी जिंदगी में नयापन लाता। लगा कि शायद नन्ही जान आ जाये तो फिर से हम जीवंत हो जाए।

तब जाके खयाल आया कि अब तक क्यो नही हुआ।

फिर हमने डॉक्टर के यहाँ चक्कर लगाना शुरू किया। कई डॉक्टर बदले, लगभग हर बड़े शहर में जा चुके थे, डॉक्टर, मुझे एकदम सही बताते, कुमार को इलाज की जरूरत थी शायद। इसके बाद न जाने कुमार एकदम गुम सुम रहने लगा । उसकी खामोशी मुझे काटने को दौड़ती थी, एक दिन मैंने कहा "मैं जा रही हूँ, मुझे थोड़ा ब्रेक चाहिए। लगा कि कुमार आगे बढ़ के मुझे रोक लेगा, हाथ पकड़ अंदर ले जाएगा मगर ऐसा कुछ नही हुआ। उसने कुछ नही कहा, हम्म के सिवाय। मैं बैग उठा के चल दी, वो पथराई आंखों से मुझे जाते देखता रहा। नही पता मुझे कि मैने गलत किया या सही, बस, अब तो निकल पड़ी थी।

माँ के घर जाती तो बीसियों सवाल किए जाते, क्या कहती?तब तुम याद आये और मैं आ गई कुछ दिन यहाँ रुकूँगी । जब कुमार तड़प कर मुझे ढूंढने लगेगा तब चली जाऊंगी। ”सुनो, तुम्हे मेरे यहाँ होने से कोई तकलीफ तो नही है न?"

मैंने कहा"नही पगली तुम कोई पराई थोड़ी हो जब तक चाहो, रहो, अच्छा है, मुझे थोड़े दिन तुम्हारा साथ मिल जाएगा, और हाँ देखो कुमार को ज्यादा परेशान मत करना जब मन ठीक हो तो कॉल करके उसे बात देना की तुम यहाँ हो। "

रात वो गेस्ट रूम में सोई, पता नही सोचते सोचते कब मेरी आँख लग गई सुबह जब चारु ने चाय बना के उठाया तो नींद खुली।

उसे ध्यान रखने को कह आफिस चला गया।

इसी तरह तीन दिन हो गए।

मुझे चारु का, मेरे घर होना, अच्छा लगने लगा था। घर, औरत के होने से, घर सा लगने लगा था। जी करता था उम्र भर के लिये रोक लूँ।

इस बीच कुमार का भी कोई मैसेज नही आया।

अब हर रोज सुबह चारु, वेद की पसंद का, गरमा गरम नाश्ता बनाती, दोनो साथ बैठ ब्रेकफास्ट करते, जबरदस्ती लंच पैक कर, उसे थमा देती।

लौट कर शाम को चाय, टी.वी, और ढेर सारी पुरानी स्कूल की बाते, कभी किसी टॉपिक पे चर्चा। चारु को यूँ हँसते देख, देव को बड़ा सुकून मिलता।

वेद बड़ा खुश रहता था। उसके दिन, एकदम से, बदल गए थे। चारु के रहने से, उसके घर मे जो जगह खाली थी, उसमें कई रंग भरने लगे थे। सच ही तो कहती थी माँ"औरत से मकान, "घर" बनता है" ।

अब देव की नजर घड़ी पर ही बनी रहती, कब छः बजे और वो घर के लिये निकल पड़े, चारु अकेली होगी, इंतजार करती होगी।

वो भूल गया था, कि चारु उसके घर मेहमान है।

एक-एक दिन पंख लगा उड़ते जा रहे थे।

एक शाम बड़ी तेज, बिन मौसम बरसात शुरू हो गई, बादल और बिजली जैसे घर के भीतर ही टूट टूट कर गिरने लगेंगे।

ऐसे में वेद की गाड़ी खराब हो गई। वो गाड़ी वही छोड़ ऑटो से घर भागा। वेद बुरी तरह भींग चुका था, चारु ने दरवाजा खोला तो, वेद को यूँ पानी से सराबोर देख, झट से टॉवल ले आई, वेद को लगातार दो तीन छींके आ गई। चारु ने उसका सिर पोछा और डांटने लगी "देखो भीग गए न, इतनी तो क्या जल्दी थी, कही खड़े हो जाते, जब बारिश कम हो जाती तब आते, लो, अब जुकाम हो गया न, जाओ फटाफट कपड़े बदलो, मैं चाय लाती हूँ तुम्हारे लिये" । चारु खूब अदरक और तुलसी वाली कड़क चाय बना लाई। चारु का यूँ डाँटना वेद को बहुत अच्छा लग रहा था, वो मुस्कुरा के नाटकीय अंदाज में कान पकड़ के बोला"सॉरी बाबा गलती हो गई आगे से ध्यान रखूँगा"। वेद ने चाय का घूँट भरते हुए कहा, "थोड़ी मिर्च भी डाल देती" चाय है या काढ़ा"?

चारु हँस पड़ी, और वेद को एक मुक्का जड़ दिया।

रात भर यूँ ही बादल, बिजली का तांडव चलता रहा। तेज बारिश की वजह से लाइट भी चली गई। कैंडल भी कब तक साथ देती, सारी रात लगातार तेज रफ्तार से बारिश होती रही, दोनो कब तक जागते, लाइट का इंतजार करते करते थक गए, तो अपने अपने कमरे में चले गए। रात को बिजली ऐसे कौंध रही थी जैसे जैसे चारु को छू के बिस्तर पे आ गिरेगी, चारु घबरा गेस्ट रूम से, वेद के रूम में आ, उसके बिस्तर पर ही किनारे लेट गई।

वेद को नींद में ही लगा चारु बहुत डरी हुई है उसने उसे सीने से चिपका लिया।

उसके बाद पता नही रात कहाँ खो गई। चारु, वेद का सीना चीर भीतर छुप जाना चाहती थी। वेद को भी होश कहाँ रहा। उसकी चारु जो उसकी बाहों में थी, वो दोनों कब एक हुए, पता ही न चला। चारु की आंखों से लगातार आँसू बहे जा रहे थे और ये वेद को कतई बर्दाश्त नही था। वेद तो बस चारु के जीवन के दुख दर्द, पी जाना चाहता था, जैसे "नीलकंठ"।

सुबह जब वेद की आंख खुली तो आसमान साफ था। सूरज की हल्की हल्की सी रोशनी की लकीर कमरे को चमका रही थी। लाइट भी आ गई थी। चारु बिस्तर पर नही थी।

वेद थोड़ा डर सा गया। रात की घटना उसे एकदम से याद आ गई। वो डर गया कहीं चारु नाराज हो चली न गई हो, वो भाग के कीचन की तरफ गया, देखा तो चारु रोज की तरह किचन में चाय बना रही थी। वेद की जान में जान आई।

आज दोनो एकदूसरे से नजरें नही मिला पा रहे थे। लंच लेकर वेद ऑफिस रवाना हो गया। आफिस से वेद ने चारु को कॉल किया, "आज डिनर बाहर करेंगे तुम घर पर नही बनाना, रेडी रहना"।

वेद अपनी नजरें चारू से हटा नही पा रहा था, काली साड़ी, लाल कड़ाई वाला बॉर्डर और वैसा ही आँचल, स्लीवलेस ब्लाउज, उसपर काली बिंदी, आंखों में मस्कारा। लाल लिपिस्टिक में कयामत लग रही थी। रेस्टुरेंट घर से वॉकिंग डिस्टेंन्स पर ही था। लिहाजा दोनो पैदल ही चल पड़े। सालों बाद वेद यूँ इत्मीनान से टहलते हुए पैदल चल रहा था। वेद को चारु के साथ यूँ पैदल चलना बहुत अच्छा लग रहा था, जब कोई रोड क्रॉस करनी होती तो चारु झट वेद की उंगली पकड़ लेती, वेद का बस चलता तो ताउम्र यूँ ही साथ चलता रहता।

दोनो ने रेस्टुरेंट मे कैंडल लाइट डिनर किया, वहाँ हल्की हल्की रोशनी थी, कभी गुलाबी, नीली, बैगनी, लाल रंग में बदल रही थी। जो चारु के चेहरे पर छन छन के उसे अलग अलग रंगों से इंद्रधनुषी बना रही थी।

मध्यम मध्यम संगीत जो बैकग्राउंड में बज रहा था वो माहौल को और मादक बना रहा था।

बड़ी मुश्किल से वेद उस से नजर हटा कर, प्लेट को देख पाता था। आज वो कोई और ही चारु लग रही थी। , उसके खुले बाल बार बार माथे पे आ जाते थे, वो खाते खाते जिस अंदाज से उन्हें हटाती थी, वो वेद को बड़ी पसंद आ रही थी।

कब प्लेट खाली हुई उसे पता ही नही चला। डिनर खत्म होने के बाद दोनो ने बाहर आइसक्रीम पार्लर में जा कर आइसक्रीम भी खाई। वेद, चारु की पसंद जनता था, उसे चोकोलेट आइसक्रीम पसंद है, वेद ने चारु से बिना पूछे ही आर्डर कर दी।

अब दोनों सहज थे।

अब चारु गेस्ट रूम छोड़ चुकी थी।

ये अब रोज का रूटीन बन गया था।

एक शाम, जब वेद आफिस से फ़िल्म की दो टिकटें ले कर आया, उसे पता था कि, टॉम क्रूज़ चारु का फेवरेट एक्टर है। उसने सोचा चारु को सरप्राइज़ दे दे, उसने बुक माई शो से आफिस में बैठे बैठे ही दो टिकट बुक की । वो खुशी खुशी घर आया, बेल बजाई, चारु दरवाजा खोलने नही आई तो उसने दरवाजे पर धक्का मारा। दरवाजा फटाक से खुल गया। वो भीतर तक कांप गया। उसने पाया कि चारु घर मे नही थी। हर कमरे में उसे खोजा। पागलो की तरह आवाजे लगाई, चारु ने, उसे उस से पहले, सरप्राइज दे दिया था। न कोई मेसेज, न कोई कॉल। वेद बहुत परेशान हो गया। बदहवास सा आस पास की दुकानों में भी पूछता फिरा। पास पड़ौस से भी पता किया कि चारु ने कोई मेसेज तो नही छोड़ा।

बड़े शहरों में किसी को, किसी से भी, कोई भी, मतलब नही होता, कौन किसके घर कब आता और जाता है, कोई नही देखता। ये बात आज वेद को बड़ी अखर रही थी।

यूँ अचानक उसके चले जाने से वो बहुत परेशान था इन पन्द्रह दिनों में वो भूल ही गया था कि चारु उसकी मेहमान है। जब कही भी पता नही चला तो मन मार के रह गया। दो दिन ऑफिस भी नही गया।

किसी के रहने या न रहने से कहाँ दुनिया रुकती है। फिर रोज की तरह जिंदगी चल पड़ी अपनी गति से।

वेद ने अपनी जिंदगी से एक बार फिर समझौता कर लिया था।

आठ महीने बादअचानक एक दिन, उसके एक स्कूल फ़्रेंड का कॉल आया। बातो बातो में उसने बताया कि चारु को उसने कल मंगलौर के एक हॉस्पिटल में देखा, जल्दी में था इसलिये बात नही कर पाया। ये सुनते ही वेद को जैसे करेंट लगा, उसने एक ही सांस में उससे उस हॉस्पिटल का नाम -पता सब पूछ डाला।

दूसरे ही पल वेद बिना समय गवाए कार में था, वह मंगलोर चल पड़ा था।

रास्ते भर न जाने कितनी बातें, सवाल तैयार करता रहा, ये पूछेगा, वो कहेगा।

इतना लंबा रास्ता पता ही नही चला, कब वो उस हॉस्पिटल के बाहर खड़ा था।

रिसेप्शन में उसने "चारु कुमार" का रूम न. पूछा और अगले ही पल उस रूम के बाहर था।

कुछ सिसकियों की आवाजें सुन इसके कदम बाहर ही जम गए। अंदर की बात चीत सुन, उसके होश उड़ गए ।

कुमार, चारु के दोनों ग़लों पर अपना हाथ रखे, उससे कह रहा था "चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा, तुम्हारा त्याग सफल होगा। चारु रो-रो कर, कह रही थी, "उन पन्द्रह दिनों में एक भी पल ऐसा नही था जिस दिन मैंने तुम्हें नही याद किया हो, मुझे डर था कि कहीं तुम्हारा प्यार मेरे लिये कम तो नही हो जाएगा"।

कुमार कहे जा रहा था"कैसी बाते करती हो, मेरे लिये भी कहाँ सहज थे, वो दिन। मैंने ही तो तुम्हे वेद के पास भेजा था, क्या करता डॉक्टरों ने हर तरफ से, जवाब जो दे दिया था। तुम्हे, ”उसके”साथ सोच के, मैं भी तो, हर रात मरता रहा। लेकिन ये भी सच है कि उसके अलावा कोई और नही था, जिसे मैं तुम्हे सौप पाता। आखिर मेरे अलावा वो ही एक है जो तुम्हे संभाल पाता। हम दोनों आजीवन उसके ऋणी रहेंगे। उसकी वजह से हमारे जीवन को जीने का सहारा मिला है। "और दोनों एक दूसरे से लिपट रोए जा रहे थे।

चारु वेद के लिये अफसोस भी कर रही थी, मैंने उसका दिल दुखाया है, कुछ पाने के लिये मैंने अपने सबसे अच्छे दोस्त को खो दिया।

कुमार समझाए जा रहा था, हर किसी से नही मांग जाता, मांगा उससे जाता है जो देने के योग्य हो। यकीन मानों, वो तुम्हे माफ कर देगा।

वेद को बात समझते देर न लगी कि क्यों चारु अचानक उसके घर आई थी।

एक दूसरे के लिये, उनका प्यार आज भी उतना ही था, दोनो ने एक दूसरे के लिये, इतना बड़ा त्याग किया था।

वेद रूम के बाहर ही दीवाल के सहारे जमीन पर धम्म से बैठ गया।

तभी एक नर्स रूम के अंदर गई और बोली शाम तक डिलेवरी संभव है चिंता की कोई बात नही है। वेद ने बड़ी मुश्किल से अपने आप को बटोरा और एक होटल में रात भर रुका रहा। सुबह हॉस्पिटल में फोन कर के पता किया, तो पता चला कि चारु को बेटा हुआ था।

वो वापस बैंगलोर के लिये रवाना हो गया था, उसे लगा महाभारत की कहानी फिर दुहराई गई। चारु अम्बालिका बन, वेद को वेदव्यास बना, अपने भविष्य की धरोहर ले गई। आज वो समझ पाया था, विवशता अम्बालिका की। छू पाया था वेदना, व्याकुलता व्यास की।

वो दुखी तो था ही, पर कही न कही उसे संतोष भी था कि उसकी चारु खुश थी और उसका अंश पाल रही थी।

वेद जानता था इस बार तो उसने खुद को रोक लिया, लेकिन हर बार...

उसके बाद न कभी चारु का फोन आया न कभी उसने चारु को ढूढने की कोशिश की ।

समाप्त