Dehati Samaj - 11 in Hindi Fiction Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | देहाती समाज - 11

देहाती समाज - 11

देहाती समाज

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

अध्याय 11

दो दिनों से बराबर पानी बरस रहा था, आज कहीं जा कर थोड़े बादल फटे। चंडी मंडप में गोपाल सरकार और रमेश दोनों बैठे जमींदारी का हिसाब-किताब देख रहे थे कि सहसा करीब बीस किसान रोते-बिलखते आ कर बोले - 'छोटे बाबू, हमारी जान बचा लो, नहीं तो गली-गली भीख माँगनी पड़ेगी! बाल-बच्चे दर-दर की ठोकरें खाएँगे।'

रमेश ने स्तब्ध हो कर पूछा - 'मामला क्या है?'

'हमारी सौ बीघे जमीन में पानी भर गया है। यदि पानी न निकला, तो सारा धान सड़ जाएगे और गाँव-का-गाँव भूखा मर जाएगा!'

रमेश की समझ में कुछ नहीं आया, तब सरकार जी ने किसानों से एक के बाद एक विस्तार से सारा मामला पूछ कर रमेश को समझा दिया। इन्हीं सौ बीघों पर सारे गाँव की आस लगी थी। गाँव के सभी किसानों की कुछ-न-कुछ जमीन इस हिस्से में पड़ती है। इस जमीन के पूरब में सरकारी बाँध है, और उत्तर-पश्‍चिम में ऊँचा बसा गाँव और दक्षिण की तरफ एक बाँध है, जिसके मालिक हैं मुकर्जी और घोषाल परिवार। इसी तरफ से खेतों का पानी बाहर निकाला जा सकता है। लेकिन उस बाँध के करीब, इन्हीं दोनों परिवारों का एक तालाब है, जिसमें से हर वर्ष लगभग दो सौ मछलियाँ निकाली जाती हैं। ये किसान आज सबेरे से ही बाँध पर धारना दिए बैठे थे। वेणी बाबू ने भी सवेरे से ही बाँध पर पहरा लगा रक्खा है। ये सब अभी-अभी वहीं से उठ कर रोते हुए आए हैं, रमेश भैया से अपनी फरियाद करने।'

रमेश को अब और कुछ सुनने की जरूरत न थी। वह सीधे उठा और वेणी के घर की तरफ चल दिए। जब वहाँ पहुँचा, जो शाम हो चुकी थी। वेणी बाबू मसनद के सहारे बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उनके पास ही हालदार बैठे, संभवतः इसी विषय की चर्चा कर रहे थे।

रमेश ने बिना कुछ भूमिका बाँधे कहा - 'अब बाँध बिना तोड़े काम नहीं चलने का। उसे तोड़ना ही होगा!'

वेणी ने हुक्का हालदार के हाथ में देते हुए पूछा - 'किस बाँध के बारे में कह रहे हो?'

रमेश आवेश में तो था ही, वेणी की इस अन्यमनस्कता ने उसे और भी तीखा कर दिया - 'ऐसे कितने बाँध हैं आपके तालाब के, तो आप समझ नहीं पा रहे हैं! वेणी भैया, अगर यह बाँध न काटा गया, तो सारा धान सड़ जाएगा। कृपया आप उसे काट देने की इजाजत दे दीजिए!'

'और बाँध टूटने के साथ ही हमारी दो-तीन सौ की मछलियाँ जो बह जाएँगी, उसका नुकसान कौन देगा - तुम या तुम्हारे किसान?'

'किसान तो बेचारे दे ही क्या सकेंगे; और मैं दूँ - यह मेरी समझ में नहीं आता!'

'तो फिर बाँध काट कर अपना नुकसान करूँ? यह बात मेरी भी समझ में नहीं आती! हालदार चाचा, अब तुम्हीं देख लो हमारे छोटे भाई साहब इसी तरह चलाएँगे जमींदारी! रमेश! वे ससुरे सब-के-सब यहाँ रो रहे थे; और जब यहाँ कुछ बस नहीं चला, तब तुम्हारे यहाँ जा पहुँचे। मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे यहाँ दरवाजे पर कोई चौकीदार नहीं या उसके पैर में जूता नहीं, जो वे इस तरह अंदर घुस गए! घर जा कर इसका प्रबंध करो। तुम पानी की फिकर मत करो, वह आप ही निकल जाएगा!'

वेणी बाबू अपनी बात पूरी कर, अपने आप ही ठहाका मार कर हँस दिए, और हालदार ने भी उनका साथ दिया। बात रमेश के सब्र के बाहर हुई जा रही थी, पर अपने को किसी कदर संयत करके विनीत स्वर में बोला - 'बड़े भैया, जरा सोचिए तो - हमारा दो सौ का ही नुकसान हो गया, पर इन गरीबों का तो सारा अनाज मारा जाएगा। करीब पाँच-सात हजार का नुकसान हो जाएगा बेचारों का!'

'हो तो उससे हमें क्या मतलब? चाहे पाँच हजार का हो, चाहे पचास हजार का, हमारी बला से! मैं क्यों उन सालों के लिए दो सौ का नुकसान सहूँ?'

'फिर ये लोग खाएँगे क्या, साल भर तक!'

रमेश की इस बात पर वेणी बाबू फिर एक बार खूब जोर से, अपने सारे बदन को हिलाते हुए हँसे, और फिर खाँस-खँखारकर सुस्थिर हो बोले - 'पूछते हो, खाएँगे क्या? देखना, साले अभी हमारे पास दौड़ कर आएँगे, जमीन गिरवी रख कर उधार लेने! रमेश, जरा ठण्डे दिमाग से काम लो! हमारे बुजुर्ग इसी तरह राई-राई कर हमारे लिए कुछ जुटा कर रख गए हैं, और हमें भी उन्हीं की तरह बहुत समझ-बूझ कर, खा-पी कर भी कुछ और जोड़ कर, अपने बच्चों के लिए छोड़ जाना है।'

रमेश का अंतर क्षोभ, लज्जा और घृणा से विदीर्ण हो उठा। फिर भी उसने संयत स्वर में कहा - 'जब आपने फैसला ही कर लिया है, तो और कुछ कहना ही बेकार है! जाता हूँ, रमा से कहूँगा! अगर वह मान गई, तो फिर आप मानें या न मानें, उससे क्या होता है?'

वेणी का चेहरा गंभीर हो उठा और उन्होंने कहा - 'जाओ, कह देखो - उससे भी! जो मेरी राय है, सो उसकी होगी, और फिर वह ऐसी-वैसी लड़की नहीं, जो तुम्हारे चरके में आ जाए! उसने तो तुम्हारे बाप की नाक में दम कर दिया था। फिर तुम तो लड़के हो!'

रमेश इस अपमान की बात को सुन कर वहाँ और न ठहर सका और बिना कुछ उत्तर दिए चला गया।

जब वह रमा के यहाँ पहुँचा, उस समय रमा तुलसी चौके के आगे दीपक जला कर, प्रणाम करके खड़ी थी। उसे आया देख कर वह दंग रह गई। उसका आँचल गले से लिपटा हुआ था, और उसकी मुद्रा ऐसी थी मानो रमेश को ही प्रणाम कर रही हो। रमेश को उस समय यह भी याद न रहा, कि कभी मौसी ने उसे यहाँ आने को मना कर दिया था। वह धड़धड़ाता हुआ सीधे अंदर घुसा चला गया था। जब रमा को उस अवस्था में देख कर चुपचाप खड़ा रहा। करीब एक महीने के बाद, उन दोनों की आज भेंट हुई थी।

'तुमने बातें तो सब सुन ही ली होंगी! मैं बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकालने के लिए तुमसे पूछने आया हूँ।'

रमा ने आँचल सिर पर सम्हालते हुए कहा -'बड़े भैया की तो इसमें राय नहीं है, फिर भला कैसे हो सकता है?'

'उनकी राय नहीं है, मुझे मालूम है! पर अकेले उनकी राय नहीं हो, तो उससे क्या?' थोड़ी देर चुप रह कर रमा ने कहा - 'माना कि आपका कहना ठीक है कि बाँध तोड़कर खेतों का पानी निकाल देना ही इस समय उचित है! पर ताल की मछलियाँ कैसे रोकी जा सकेंगी?'

'वे तो नहीं रोकी जा सकेंगी इतने पानी में! उनका नुकसान तो सहना ही होगा हम लोगों को नहीं सहेंगे, तो सारा गाँव भूखों मर जाएगा।'

रमा ने कोई उत्तर नहीं दिया। रमेश ने ही कहा - 'तो फिर तुम्हारी स्वीकृति है न?' रमा ने सुकोमल स्वर में कहा - 'नहीं, मैं नहीं सह सकती, इतने रुपयों का नुकसान!'

रमेश को न जाने कैसे यह विश्‍वास था, कि रमा उसके कहने को कभी नहीं टालेगी! पर आशा के विपरीत यह उत्तर सुन, वह अवाक खड़ा रहा। रमा ने भी उसकी इस मनोदशा का अनुभव किया और कहा - 'यह जायदाद मेरी तो है नहीं, मेरे छोटे भाई की है! मैं सिर्फ उसकी तरफ से देखभाल करती हूँ।'

'इसमें तुम्हारा भी तो हिस्सा है!'

'वह तो सिर्फ नाम के लिए! पिताजी अच्छी तरह जानते थे कि अंत में सारी जायदाद यतींद्र को ही मिलेगी।'

रमेश ने सानुग्रह कहा - 'रमा, हम सब में तुम्हारी अवस्था अच्छी मानी जाती है। थोड़े-से रुपयों की तो बात ही है! मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ, रमा! इन गरीब किसानों पर दया करो, वे भूखों मर जाएँगे! मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि तुम इतनी कठोर हो सकती हो!'

रमा ने सुकोमल किंतु दृढ़ स्वर में कहा - 'इतना नुकसान सहना मेरे काबू के बाहर है, और इसके लिए अगर आप मुझे कठोर कहते हैं तो कोई बात नहीं! मैं कठोर ही सही! और फिर आप ही क्यों नहीं सह लेते यह नुकसान?'

रमा के कोमल स्वर में भी कितना व्यंग्य छिपा था, इसका अनुभव कर, व्यथा की अग्नि से रमेश का अंतर जल उठा। वह बोला - 'आदमी की आदमियत तभी कसौटी पर कसी जाती है, जब वह रुपए के संपर्क में आता है! यहीं मनुष्य की असलियत खुल गई है! मेरी निगाहों में तो तुम - आज से पहले सदैव - बहुत ही ऊँची थीं; पर आज तुम मेरी नजर में वह न रहीं, जो पहले थीं! आज मैंने जाना कि तुम सिर्फ कठोर ही नहीं हो, बल्कि नीयत की भी ओछी हो!'

रमा का भी सारा हृदय व्यथा से विदीर्ण हो उठा। उसने रमेश की तरफ विस्फरित नेत्रों से देख कर कहा - 'क्या कहूँ अब मैं?'

'रमा, तुम्हारी कितनी ओछी नीयत है कि तुमने मुझे इस मामले में इतना व्यग्र देख कर, मुझसे पूरा नुकसान उठाने की बात कही! पुरुष होने पर भी, बड़े भैया के मुँह से ऐसी ओछी बात न निकल सकी, जो एक स्त्री होते हुए तुम्हारे मुँह से निकल सकी! नुकसान तो मैं इससे भी अधिक सह सकता हूँ। पर रमा, मेरी एक बात याद रखना कि दुनिया में किसी की दया से अपना स्वार्थ पूरा करने से बड़ा और कोई पाप नहीं! आज तुमने वही किया है!'

रमा स्तब्ध -विस्फरित नेत्रों से देखती की देखती रह गई, एक शब्द भी न निकला उसके मुँह से। रमेश ने शांत, संयत, दृढ़ स्वर में फिर कहा - 'रमा इस तरह तुम मुझसे नुकसान पूरा नहीं करा सकतीं और न बाँध तोड़ने से ही रोक सकती हो! मैं जाता हूँ अभी और जा कर बाँध तोड़ दूँगा! जो हो सके तुम लोगों से, वह कर लेना!' रमेश यह कह कर आगे बढ़ गया। रमा ने विह्नल हो कर पुकारा। वह लौट आया। रमा ने कहा - 'आपने मेरे घर में ही खड़े हो कर मेरा अपमान किया है - इसके संबंध में तो मैं आपसे कुछ नहीं कहती, पर आपको यह बताए देती हूँ कि आप बाँध तोड़ने की कोशिश किसी तरह भी न करें!'

'क्यों?'

'इसलिए कि मैं आपसे झगड़ा नहीं करना चाहती!'

रमेश ने अँधेरा होते हुए भी, इस वाक्य को कहते-कहते रमा के सफेद होते हुए चेहरे और काँपते हुए होंठों को देखा। पर उस समय उसके पास किसी का मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण करने का न तो समय ही था और न इच्छा। इसलिए बोला - 'मैं भी नहीं चाहता झगड़ा करना, लेकिन मेरे निकट तुम्हारे इस भाव की कोई कद्र नहीं, मैं जानता हूँ। व्यर्थ की बातों के लिए मेरे पास समय नहीं!' मौसी उस समय ठाकुर जी के कमरे में थीं, तभी उन्हें इन सब बातों का पता नहीं चला। जब वह नीचे आईं, तो उन्होंने देखा कि दासी के साथ रमा बाहर जा रही है। मौसी ने विस्मित हो पूछा - 'रमा! आँधी-मेह की रात में कहाँ चली?'

'बड़े भैया के यहाँ जा रही हूँ जरा?'

'मौसी, छोटे बाबू की कृपा से, रास्ता तो ऐसा बन गया है कि कहीं कीचड़ का नाम तक नहीं! अगर कहीं सिंदूर भी गिर जाए, तो उठा लो। भगवान, उनकी बड़ी उमर करे!' दासी बोली।

करीब ग्यारह बजे थे रात के। वेणी के चंडी मंडप में बहुत-से लोग आपस में बातें कर रहे थे। आकाश भी बादलों से साफ हो गया था और चंद्रमा की ज्योत्स्ना बरामदे में छिटक रही थी। वहीं एक खंबे के सहारे, एक अधेड़ मुसलमान आँखें बंद किए बैठा था। अजीब भीषण काया थी उसकी। उसके मुँह पर ताजा खून के छींटे थे और कपड़े भी खून से तर हो रहे थे। वह शांत-नि:शब्द बैठा था। वेणी उससे धीरे-धीरे विनीत स्वर में कह रहे थे -'अकबर, देखो बात मान लो मेरी, थाने चले चलो! सात बरस से कम को जेल न भेजा, तो घोषाल वंश का नहीं!' और पीछे रमा की तरफ मुड़ कर कहा - 'रमा, तुम समझाओ न इसे, चुप क्यों हो?'

रमा नि:शब्द रही। अकबर अली ने आँखें खोल कर सीधे बैठ कर कहा -'वाह, छोटे बाबू को मान गया, उन्होंने पिया है अपनी माँ का दूध! खूब चलाना जानते हैं लाठी!'

वेणी ने थोड़ा तेवर चढ़ा कर कहा - 'बस, यही कहने को तो मैं तुमसे कह रहा हूँ, अकबर! तुम उस लौंडे की लाठी से जख्मी हुए न, या उस पछइयाँ की लाठी से?'

अकबर के होंठों पर गर्व भरी मुस्कराहट खेल उठी। उसने कहा - 'वह साला ठिगना पछइयाँ लाठी चलाना क्या जाने! वह तो गौहर की पहली चोट से ही बैठ गया था। क्यों गौहर, ठीक है न!'

अकबर के दो लड़के थोड़ी दूर सहमे-सिकुड़े बैठे थे। वे भी आहत थे। गौहर ने सिर हिला कर अकबर की बात का समर्थन कर दिया, मुँह से कुछ नहीं बोला, अकबर फिर कहने लगा - 'मेरे हाथ की चोट खा कर तो साले की जान ही निकल जाती! उसका कचूमर तो गौहर की लाठी ने ही निकाल दिया!'

रमा भी उन लोगों के पास आ कर खड़ी हो गई। अकबर पीरपुर गाँव की उनकी जमींदार में बसता था। उसकी लाठी के जोर ने इन लोगों की बहुत -सी जायदाद पर कब्जा दिला दिया था। रमेश की बात के अपमानित हो कर, रमा ने उसे बुलावा दे कर बाँध पर पहरा देने को भेजा था। पर रमा की इच्छा थी, कि एक बार देखें कि रमेश उस पछइयाँ नौकर के बल पर क्या करते हैं; लेकिन उसे यह आशा न थी कि रमेश खुद भी जबरदस्त लठैत है।

रमा की तरफ देखते हुए अकबर ने कहा - 'रमा, जब वह साला गिर गया, तब छोटे बाबू ने उसकी लाठी उठा ली और फिर खुद जा कर बाँध रोक कर खड़े हो गए, और हम तीनों बाप-बेटों से हटाए भी न हटे। उस वक्त अँधेरे में भी उनकी आँखें चमक रही थीं। उन्होंने कहा था - अकबर, तुम बुङ्ढे ठहरे! अगर बाँध न काटा जाए, तो गाँव भर के आदमी भूखे मर जाएँगे, और उसमें तुम भी नहीं बचोगे! मैंने भी अदब से झुक कर सलाम करके कहा था -'बस, एक बार हट आओ छोटे बाबू -रास्ते से; फिर जरा देख लूँ इन लोगों को, जो तुम्हारे पीछे खड़े बाँध काट रहे हैं!'

वेणी आवेश में आ कर बीच में ही चिल्ला पड़े - 'बेईमान कहीं का! उसे ही सलाम झुका कर, यहाँ डींग मार रहा है?'

वेणी बाबू के इतना कहते ही तीनों बाप-बेटों के हाथ उठ गए। अबकर ने तीखे स्वर में कहा - 'होश में रहो बड़े बाबू, हम मुसलमान हैं। बेईमान मत कहना हमें! हम सब सह सकते हैं, बस यही नहीं सह सकते!' और माथे का खून पोंछ कर रमा की तरफ देखते हुए बोला - 'मालकिन, घर में बैठ कर बड़े बाबू मुझे बेईमान कहते हैं, वहाँ होते तो देखते - क्या हस्ती है छोटे बाबू की!'

मुँह बिचका कर वेणी ने कहा - 'तो फिर थाने ही चल कर बताओ न कि क्या है उसकी हस्ती! कहना कि हम बाँध कर खड़े पहरा दे रहे थे कि छोटे बाबू हम पर चढ़ आए और हमको उन्होंने मारा।'

अकबर ने जीभ दबा कर तोबा करते हुए कहा - 'आप तो रात को, दिन बताने के लिए मुझसे कहते हैं, बड़े बाबू! यह भला कैसे हो सकता है?'

'तो फिर और कुछ कह देना! पर जा कर घाव तो दिखला आओ अपने! कल ही वारंट निकलवा कर थाने में बंद करवा दूँगा उसे। जरा तुम भी समझाओ न इसे रमा! ऐसा अच्छा मौका फिर कभी हाथ न लगेगा!'

रमा से एक शब्द भी न बोला गया। उसने सिर्फ एक बार अकबर की तरह देख भर लिया।

'यह न होगा मुझसे, मालकिन!'

वेणी बाबू ने डपट कर कहा - 'क्यों नहीं होगा?'

अकबर ने भी तीव्र स्वर में कहा - 'क्या कहते हैं यह बाप बड़े बाबू! क्या मुझे जरा भी हया-शर्म नहीं है! मुझे चार गाँव के लोग सरदार कहते हैं। मालकिन, आप चाहें तो मैं जेल जा सकता हूँ, लेकिन फरियाद नहीं कर सकता!'

अब रमा ने कोमल स्वर में उससे पूछा -'अकबर, क्या एक बार भी थाने नहीं जा सकोगे?'

अकबर ने सिर हिलाते हुए, दृढ़ स्वर में कहा - 'नहीं! किसी तरह भी शहर जा कर अपने बदन के घाव नहीं दिखा सकता। चलो गौहर, चलें! फरियाद न बन सकेंगे हम लोग!'

और वे लोग जाने को उद्यत हो गए! वेणी क्रोध से आँखें लाल-पीली कर, मन-ही-मन बुरी-बुरी गालियाँ बकने लगे और रमा की इस असमर्थता की चुप्पी से जल कर खाक हुए जा रहे थे। जब उसकी कोई तरकीब अकबर और उनके लड़कों को न रोक सकी, तब रमा के अंतरतम से एक ठण्डी आह निकल पड़ी और आँखों में अनायास की आँसू छलछला आए। इतनी बड़ी पराजय, अपमान और नाकामयाबी मिलने पर भी, मानो उसके हृदय-पुट से एक बहुत पड़ा भार हट गया। इसका कारण वह अंत तक न जान सकी। उसकी सारी रात जागते ही कटी। रह -रह कर उसकी आँखों के सामने वही दृश्य घूमने लगा, जब उसने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया था। और जैसे-जैसे वह रमेश के कोमल स्वभाव, बल और क्षमता की कल्पना करती गई, त्यों-त्यों उसकी आँखों से और भी आँसू बहते गए।

***

Rate & Review

Rajkumar Gupta

Rajkumar Gupta 3 years ago

Deepti

Deepti 3 years ago

Nikita

Nikita 4 years ago

Gulshan

Gulshan 4 years ago

Girjesh Pal

Girjesh Pal 4 years ago