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एक थी सीता - 3

एक थी सीता

(विश्वकथाएँ)

(3)

सागर-कन्याएँ

ख़लील जिब्रान

सूर्योदय (पूर्व) के समीपस्थ द्वीपों को सागर की गहनतम गहराई आवृत किये हैं। लम्बे सुनहले बालों वाली सागर-कन्याओं से घिरा एक युवक का मृत शरीर मोतियों पर पड़ा था। संगीतमय माधुर्य के साथ आपस में वार्तालाप करती हुई वे कन्याएँ अपनी नीलाभ पैनी दृष्टि से टकटकी लगाकर उस लाश को देख रही थीं। गहराइयों द्वारा सुने गये तथा लहरों द्वारा सागर-तट पर सम्प्रेषित यह वार्तालाप मन्द वायु द्वारा मुझ तक पहुँचा।

उन सागर-कन्याओं में से एक ने कहा, “यह वही मानव है जिसका प्रवेश उस दिन हमारे सागर-संसार में हुआ था और उसके प्रवेश-काल में हमारी जलधि ज्वारोद्वेलित थी।”

दूसरी बोली, “जलधि ज्वारोद्वेलित नहीं थी। दृढ़तापूर्वक अपने को सुर-सन्तान कहनेवाला मानव लौह-युद्ध कर रहा था और इस लौह-युद्ध के फलस्वरूप उसका लहू इस हद तक प्रवाहित हुआ कि सागर के जल का रंग लोहित हो गया। यह व्यक्ति मानव-युद्ध का शिकार है।”

पूर्ण साहस के साथ तीसरी ने कहा, “युद्ध के विषय में मुझे कुछ नहीं मालूम, परन्तु मुझे इतना मालूम है कि भूमि को विजित करने के बाद मानव की प्रवृत्ति आक्रामक हो गयी और अब वह सागर-विजय हेतु दृढ़प्रतिज्ञ है। अपने विलक्षण विषय-चिन्तन के कारण उसका सागर पर पहुँचना हुआ। उसकी इस लोलुपता से हमारे प्रचण्ड समुद्र-देवता वरुण कुपित हो गये। वरुण के क्रोध को शान्त करने के लिए (अर्थात् उन्हें प्रसन्न करने के लिए) मनुष्यों ने उन्हें उपहारों एवं वसिरानों का अहर्य देना प्रारम्भ कर दिया, और हमारे बीच आज जो यह मृत-शरीर है, हमारे महान तथा उग्र वरुण देवता को मानव द्वारा समर्पित सद्यः उपहार है।”

चौथी ने दृढ़तापूर्वक स्वीकारा, “हमारे वरुण देवता कितने महान हैं, परन्तु उनका हृदय कितना कठोर है। मगर मैं सागर-सम्राज्ञी होती तो ऐसे उपहार को अस्वीकार कर देती... अब आओ, हम लोगों को इस भुगतान (बन्दी का उद्धार मूल्य) का परीक्षण करना चाहिए। हम लोग भी सम्भवतः अपने को मानव-वंश के सदृश प्रकाशित कर सकती हैं।”

सागर-कन्याएँ मृतक युवक के निकट गयीं। उन्होंने उसकी जेबें तलाशीं और ऊपरी जेब में एक पत्र मिला। अपनी सहेलियों को सुनाती हुई एक सागर-कन्या ने पत्र को पढ़ा :

“मेरे प्रिय,

मध्य रात्रि का आगमन पुनः हुआ है, मेरे प्रवाहित आँसुओं के अतिरिक्त मुझ में धैर्य का सर्वथा अभाव है। युद्ध से रक्त-रंजित भूमि से तुम्हारी वापसी की जो मुझे आशा है, यही मेरी खुशी का कारण है। अपनी जुदाई के समय तुम्हारे व्यक्त शब्दोद्गार को मैं भूल नहीं सकता हूँ - प्रत्येक व्यक्ति को अपने आँसुओं का ही एक आलम्बन है जिसका प्रत्यर्पण किसी न किसी दिन अवश्य होता है।

“मेरे प्रिय, मुझे नहीं मालूम कि मुझे क्या कहना चाहिए, परन्तु मुझे इसका ज्ञान है कि मेरी आत्मा इस चर्म-चीरक (शरीर) में स्वतः निस्सरण करती है... मेरी आत्मा विघटन से पीड़ित होते हुए भी, प्रेम से आश्वासित हुई है जो प्रेम-पीड़ा को आनन्द और क्लेश को सुख प्रदान करता है और यही प्रेम हमारे दो हृदयों को एकीभूत करता है। जब हम लोगों ने उस दिन का चिन्तन किया, जिस दिन सर्वशक्तिमान सर्वेश्वर के सशक्त श्वास से हम दोनों के हृदय एकाकार हुए थे, तभी युद्ध की विकराल ज्वाला प्रज्वलित हुई और इस युद्ध-ज्वाला को और भी प्रज्वलित, नेताओं ने अपने वक्तव्य (भाषण) की आहुति देकर की और तुमने अपना कर्तव्य समझकर उस युद्ध का अनुगमन किया।

“यह कैसा कर्तव्य है कि दो प्रेमियों को पृथक् करता है, स्त्रियों के अहिवात को वैधव्य में परिवर्तित कर देता है तथा बच्चों को यतीम बनाता है? यह कैसी देशभक्ति है कि युद्धों को उत्तेजित करती है और तुच्छ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए राज्यों का विनाश करती है? यह कैसा कर्तव्य है कि आततायियों के यश हेतु निरीह व्यक्तियों को मरण-वरण हेतु आमन्त्रित करता है जिन निरीह व्यक्तियों पर न समर्थ और न वंशागत आभिजात्यों की कृपा-दृष्टि ही पड़ती है। अगर कर्तव्य राष्ट्रों की सन्धि को भंग करता है तथा देशभक्ति प्रजा को शान्तिमय जीवन में विघ्न डालती है, तब हम यह कहेंगे कि - ‘कर्तव्य और देशभक्ति को शान्ति मिले।’

“नहीं, नहीं, मेरे प्रिय! मेरे शब्दों का खयाल मत करो! अपने देश के प्रति बहादुर और वफादार बनो... प्रेम में अन्धा बनकर तथा जादुई और एकाकीपन से विकसित होकर मेरी (कुमारी) बातों पर ध्यान मत दो... अगर मेरे इस जीवन में तुम्हें प्राप्त करने में प्रेम असमर्थ रहेगा, तब पुनर्जन्म में हम लोगों को प्रेम निश्चित रूप से प्राप्त होगा।

तुम्हारा सदैव”

सागर-कन्याओं ने पत्र पढ़कर उसे उस मृतक युवक की जेबी में पुनः रख दिया। मौन-स्तब्ध होकर सव्यथा वे सभी कन्याएँ तैरती हुई उस स्थान से दूर चली गयीं और एकत्रित हुईं। उनमें से एक ने कहा, “वरुण देवता के संगदिल से कहीं अधिक प्रस्तर मानव का हृदय है।”

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