Mann Kasturi re - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

मन कस्तूरी रे - 7

मन कस्तूरी रे

(7)

बहुत मुश्किल थे वे दिन भी। इतने संघर्षमय जीवन में कहीं कोई अपना नहीं। तब बहुत अकेली थी दोनों माँ बेटी और उनका दिल्ली जैसे महानगर में बस जाना भी इतना आसान कहाँ था। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की परिकल्पना पुरुष के साथ के बगैर बेमानी है। एक स्त्री सामाजिक ढांचे में तभी फिट बैठती है जब उसके पिता, पति, भाई या पुत्र के रूप में एक पुरुष उसके जीवन में मौजूद रहे। पर वृंदा के साथ ले देकर एक बेटी ही थी।

हमारे समाज में औरत की स्थिति वैसे ही बहुत मुश्किल है और एक अकेली औरत वो भी अकेली माँ यानि सिंगल मदरका समाज में सम्मानजनक तरीके से जी पाना और भी मुश्किल है। पर वृंदा कुमार हार मानने वालों में से नहीं थीं। जीवन में उन्होंने तो नहीं पर संघर्षों ने सदा उन्हें चुना था और वे जूझने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकती थीं। तो कई मकान बदलती रहीं कि एक घर बना सकें जहाँ वे और उनकी बेटी सुरक्षित रह सकें, सुकून से अपनी जिन्दगी जी सकें और अपने सपनों की उड़ान भर सकें। ये सब आसान नहीं था।

ऐसे में उनकी मुलाकात उन्ही के स्कूल की एक टीचर से हुई। सदा रिजर्व रहने वाली वृंदा के जीवन में अनायास आनेवाली विपत्तियों की कभी कोई कमी नहीं थी। ऐसे कई मौके आये जब किसी न किसी परेशानी में उनका मन हुआ सुनंदा से बाँटने का जो उन्हें अपनी सी लगीं। कहते हैं सुख के मीत से कहीं अधिक स्थायी दुःख का साथी होता है। वृंदा के दुखों को बाँटने के लिए एक मित्रवत हाथ बढ़ा और जल्दी ही दोनों में घनिष्ठता बढने लगी।

मिसेस सुनंदा पारेख, जो अपने पति और बेटे के साथ एक छोटी सी सुखद गृहस्थी के साथ इस बड़े से शहर में एक छोटा सा आशियाँ बनाने में कामयाब हुईं थीं। उनसे दोस्ती के बाद वृंदा कुमार को जीवन में आशाओं की किरण नजर आने लगी। ये सुनंदा का साथ और दोस्ती ही थी कि उनकी उम्मीदों को भी किनारा दिखाई देने लगा। पर जीवन इतना भी सरल नहीं था और उम्मीदें एक छलावा भर थीं।

वे जितना तन मन से जूझती परेशानी उतने ही रूप बदलकर उनके समक्ष खड़ी हो जातीं। अकेली स्त्री के साथ समस्याएँ कई प्रकार की होती है और सबसे बड़ी समस्या उसके जेंडर को लेकर होती है। कभी-कभी उन्हें लगता वे केवल एक स्त्री देह भर हैं जिसे पाने का ख्वाब हर पुरुष देखता है, उनके साथी टीचर, उनके पडोस के वो भटनागर जी, बस-ऑटो में साथ की पुरुष सवारियां और रोड पर चलते तमाम लोग जो एक सुंदर, मदमस्त देह के पिंजरे में कैद एक अकेली, खूबसूरत और जवान विधवा को हासिल करने भर में अपनी मर्दानगी देखते थे। कब... कहाँ बच पाई वे उन कामलोलुप नजरों से जो स्त्री को केवल एक ही रूप में देखना चाहती हैं। एक वक़्त जिस खूबसूरती को आइने में देख वे शरमाकर भाग्य को सराहा करती थीं आज जीवनसाथी से बिछड़ने के बाद यह खूबसूरती अभिशाप बन गई थी। उनकी खूबसूरत देह ही उनकी दुश्मन बन गई थी जिसे हर कोई हासिल कर अपनी सेज सजाना चाहता था।

लाख चाहें भी तो वे कभी नहीं भूल पाती हैं वह हादसा। उनके पिछले मकान मालिक थे चौधरी साहब। उम्र में लगभग ड्योढ़े मकानमालिक की नजरों को पहले ही भांप गई होती तो एडवांस देकर कॉन्ट्रैक्ट में नही बंध जाती वृंदा। वे दिल से उनकी बड़े भाई की तरह इज्जत करती थी पर उन्होंने जब भी उन्हें देखा किरायेदार या एक बच्ची की माँ की तरह नहीं केवल एक औरत की तरह देखा और सिर्फ देखा भर होता था तो हमेशा की तरह इग्नोर कर आगे बढ़ गईं होती, आखिर वे यही तो करतीं आईं थीं आज तक। पर यहाँ मामला एक कदम आगे था। अकेली स्त्री पुरुष के लिए वह छुटी गाय है जिसे हर पुरुष अपने खूंटे से बांध लेना चाहता है। उस पर आधिपत्य स्थापित कर अपना दास बनाने की कामना क्यों नहीं त्याग पाता पुरुष?

चौधरी के लिए भी तो वह ऐसी ही एक बेनामी सम्पत्ति थी जिस पर मालिकाना हक स्थापित करने के लिए वह अधीर हो उठा था। वह उसे सम्मान देती रहीं और वह तो उन्हें हासिल करना चाहता था। उनकी देह पर अधिकार जताना चाहता था। स्त्री को कुदरत ने एक तीसरी आँख भी दी है जिससे न केवल वह व्यक्ति का मन पढ़ लेती है बल्कि उसके चेहरे और आँखों में छुपी वासना भी स्त्री से छुप नहीं पाती यदि स्त्री अपनी इस विशिष्ट शक्ति को जगाकर रखे। चौधरी से भी कुछ ऐसा ही नकारात्मक आभास मिलता था वृंदा को। उसका मन हमेशा कहता था यह व्यक्ति भला नहीं। उसकी कुत्सित कामनाओं का थोड़ा अंदाज़ा था वृंदा को इसलिए सदा दूरी बनाकर चलती थीं। किन्तु एक परिवार वाले व्यक्ति से डर को लेकर उसे लगता था कि वह किसी भी हद तक पहुँचे खुलकर उसके सामने नहीं आ सकता।

पर जो घटित होना होता है वह हमेशा आपकी सोच के मुताबिक़ हो ऐसा संभव नहीं। उस दिन रविवार था। वे घर में बेटी के साथ अकेली थीं वे क्योंकि मकानमालिक की पत्नी एक हफ्ते के लिए अपने बच्चों के साथ मायके में गईं थीं। उस दुष्ट ने इसे भी कुदरत का इशारा समझ उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा और रात को उनके कमरे का दरवाज़ा खटखटा दिया। वृंदा अपने अकेलेपन की वजह से हमेशा सतर्क रहती थीं पर उसने बीमारी का बहाना कर पेरासिटामोलके लिए पूछा। मरता क्या न करता वाली स्थिति थी, फिर इंसानियत का भी तकाजा था। कुछ सोचकर दवा देने के लिए उन्हें दरवाज़ा खोलना पड़ा।

उसकी बुरी नीयत तो उसकी लाल ऑंखें देखते ही पहचान गईं थीं वृंदा। उन्हें बाँहों में भरकर उनके होठों को चूमना चाहता था वह। जरा कमजोर पड़ जाती तो वह दरिंदा उन पर हावी हो जाता पर ऐन वक़्त पर जाने कहाँ से इतनी हिम्मत आई वृंदा में कि उस इंसान का रूप धरे भेड़िये के सिर पर फ्लावर वास से हमला कर स्वस्ति को लेकर वहां से भाग निकली। जब कुछ न सूझा तो सीधे सुनंदा के यहाँ जा पहुँची। उनकी बदहवासी और डर अपने चरम पर था। उस समय तो हिम्मत जुटा ली पर उस समय सुनंदा के सामने सूखे पत्ते सी काँप रही थीं वृंदा कुमार। सुनंदा ने गले लगाया तो जैसे टूट गया उनके सब्र का बांध।

अभी और कितना सहना बाकी है सुनंदा? क्या मेरे दुखों का कभी अंत नहीं होगा। आखिर और कितनी परीक्षा बाकी है। सब तो छीन लिया नियति ने...माँ....पापा... विनय... सब कुछ...अब ये जान बची है सुनंदा जिस पर मेरा नहीं स्वस्ति का हक़ है। इसे कैसे दे दूँ??”

हिचकियों में डूबे उस कातर स्वर से आसमान का भी सीना फट जाता फिर ये तो उनकी दोस्त सुनंदा थी...एक अन्य स्त्री। वृंदा के दुःख उसके अपने नहीं उन्हें बस बाँट सकती थीं सुनंदा और उन्होंने वही किया। सुनंदा ने कोरा ढाढस ही नहीं बंधाया सचमुच दिल से मदद की। उन्हें महिना भर कहीं नहीं जाने दिया, अपने ही घर में रखा। स्नेह, सांत्वना, सहयोग और साहस किसी में कमी नहीं की सब तो दिया सुनंदा ने। उनके पति ने चौधरी की रिपोर्ट कर उसे सलाखों के पीछे पहुँचाया और वृंदा को इंसाफ ही नहीं मिला अपना सब सामान भी वापिस मिला जिसे वे वहां चौधरी के घर में छोड़ आई थीं। जल्दी ही सुनंदा के घर के पास एक वन रूम सेट किराये पर मिल गया।

तन के घाव तो फिर भी ठीक हो जाते हैं समय के साथ पर मन पर पड़े घाव ठीक होने में कभी कभी जीवन बीता देते हैं। वे इस हादसे से तो हिम्मत कर सुरक्षित निकल आई पर उन्हें अब दिनरात अपने से ज्यादा नन्ही स्वस्ति की चिंता सताने लगी थी जिसे उनके पीछे से कई दफा घर में अकेले रहना पड़ता था। उन्हे समझ नहीं आता था ऐसे में कैसे अपनी टेंशन से मुक्ति पाएं और ऐसे वे सुनंदा का ही मददगार हाथ आगे बढ़ा। सुनंदा की पहल पर वे अक्सर सुनंदा की मदद लेने लगीं।

सुनंदा की मदद और उनकी दोस्ती बढ़ती गई और केवल यहीं तक सीमित न रही और उस रोज भी उस हादसे के बाद वे सुनंदा के घर में शिफ्ट हो गईं थीं। कुछ दिन में नया फ्लैट ढूँढ़ लिया दोनों ने मिलकर और इस घटना के दो साल बाद सुनंदा की मदद से वे भी अपने छोटे से फ्लैट में थीं। उन्होंने अपने फिक्स डिपाजिट, अपनी बचत और अपनी ज्वेलरी सब इकट्ठा कर एक रकम जुटाकर अपने भविष्य का सहारा ढूँढ़ लिया। उनके पास भी अब मकान नहीं उनका अपना घर था जिस पर एक छोटी सी नेमप्लेट पर लिखा था ‘वृंदा कुमार’। सुनंदा के बगल वाले इस टेरेस पर बने छोटे से घर को पसंद करने से लेकर इस सपने को मुमकिन बनाने तक के हर कदम पर सुनंदा उनकी हमकदम रहीं।

एक और बात हुई इन दिनों। स्वस्ति को एक साथी भी मिल गया। स्वस्ति का हमउम्र उनका एकलौता बेटा कार्तिक। दोनों अब एक ही स्कूल में थे। वृंदा एक के बाद सफलता की सीढियाँ चढ़ती हुईं जहाँ दिनोंदिन व्यस्त होती चली गईं, वहीँ कुछ हेल्थ प्रोब्लेम्स की वजह से सुनंदा अब नौकरी से त्यागपत्र दे अपना घर संभाल रही थीं। सच तो ये था कि वे अपना ही नहीं वृंदा का भी घर संभाल रही थीं। वृंदा की अनुपस्थिति में स्वस्ति को न तो खाने की कोई दिक्कत होती और न ही वह असुरक्षा महसूस करती, ये और बात है सुनंदा उनकी प्राइवेसी का भी पूरा ध्यान रखती।

इसके बावजूद उन्हें वृंदा और स्वस्ति की चिंता सताती रहती। वे वृंदा को अपनी पढाई, नौकरी और ट्यूशन्स की तिहरी जिम्मेदारी से दिन रात जूझते देखतीं तो परेशान हो उठतीं। उन्होंने कई बार वृंदा को मनाने की कोशिश की कि वह दोबारा अपना जीवन नये सिरे से शुरू करें पर वृंदा ने तो जैसे अपने करियर को ही साथी चुन लिया था। समय बीतता चला गया। कुछ ही वर्षों में वे प्रिंसिपल के पद पर पहुंच गईं। इधर स्वस्ति और कार्तिक भी साथ पढ़ते पढ़ते युवा हो गए थे।

वैसे बड़ी ही विचित्र थी स्वस्ति और कार्तिक की दोस्ती। दोनों एक दूसरे के विपरीत स्वभाव और रुचियों के साथ भी इस दोस्ती को निभा ले गए तो इसके लिए स्वस्ति से कहीं अधिक कार्तिक और स्वस्ति के लिए उसका प्रेम जिम्मेदार था। खैर आज दोनों केवल एक दूसरे के दोस्त ही नहीं एक दूसरे की जरूरत बन चुके थे बल्कि उससे भी एक कदम आगे एक दूसरे की आदत बन चुके थे। वही स्वस्ति जी उसकी शरारतों पर गुस्सा हो उठती, उकता जाती, खीज उठती वही कार्तिक न मिले तो परेशान हो जाती। धीरे धीरे कार्तिक के मन में ये दोस्ती कुछ और कदम आगे बढ़ी और प्रेम में बदल गई पर स्वस्ति कार्तिक को लेकर अपनी भावनाओं के मामले में कंफ्यूज थी। प्रेम के लिए उसकी कल्पना में कहीं तो कुछ था जो कार्तिक से मेल नहीं खाता था।

कभी जब वह लोगों की आँखों में उस रिश्ते का नाम देखती तो खुद को बारहा टटोलती। वह नहीं समझ पाती कि उसके और कार्तिक के बीच ये कैसा रिश्ता है। वह अकेले में खुद से पूछती,

उसका सबसे अच्छा दोस्त कौन - कार्तिक

सबसे प्यारा साथी कौन कार्तिक

कौन है जिसके बिना वह जीवन की कल्पना नहीं कर सकती ऑफ़ कोर्स कार्तिक

पर क्या वह कार्तिक से प्रेम करती है??

बस इसी एक सवाल पर उलझ जाती मासूम स्वस्ति। न हाँ कह पाती और न सिरे से नकार पाती थी। हाँ प्रेम तो यकीनन था दोनों के बीच पर यह प्रेम प्रिय और प्रियतमा वाला प्रेम था इसे लेकर स्वस्ति के मन में बहुत सी उलझनें थीं। ये इश्क़ वाला वाला था या नहीं पर कुछ तो जरूर था जो उसके जीवन में कोई भी कार्तिक का स्थान नहीं ले पाता था। विचित्र सी उलझन थी यह। मतलब दोस्ती से कुछ ज्यादा और प्यार से हमेशा कुछ कम। खीज उठती थी लोगों के सवालों पर स्वस्ति। किसी भी रिश्ते को ज्यों का त्यों छोड़ देने में क्या दिक्कत है दुनिया को। क्यों इसे कोई नाम देना है। क्यों इसे किसी मुकाम तक क्यों पहुँचाना है। दोस्ती केवल एक खूबसूरत सफर भर क्यों नहीं? क्यों इसे किसी मंजिल तक पहुँचना जरुरी है? क्यों इसे किसी रिश्ते का नाम देना है। दुनिया के सवाल थे कि कम नहीं होते थे। उलझन थी कि बढती चली जाती थीं। फिर इन्ही उलझनों के बीच उसकी मुलाकात एक दिन शेखर से हुई।

क्रमशः