Dahleez Ke Paar - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

दहलीज़ के पार - 8

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(8)

अपने बचपन से ही गरिमा की प्रकृति कृत्रिमता के विरुद्ध थी। अपने सौन्दर्य मे वृद्धि करने के लिए आभूषणो अथवा कृत्रिम सौन्दर्य—प्रसाधनो की आवश्यकता का अनुभव उसने कभी नही किया। वह बहुत छोटी थी, जब उसके पिता ने उसे समझाया था कि हाथो मे चूड़ी और पैरो मे पायल लड़कियो मानसिक विकास की स्वतन्त्र गति को उसी प्रकार अवरुद्ध कर देती है, जिस प्रकार हाथो मे हथकड़ी और पैरो मे पड़ी बेड़िया शरीर की स्वतन्त्र गति मे बाधा उत्पन्न कर देती है। उस दिन के पश्चात्‌ गरिमा के चित्त मे सौन्दर्य—प्रसाधन उपेक्षा भाव उत्पन्न करने लगे थे। आभूषणो तथा कृत्रिम सौन्दर्य—प्रसाधनो के प्रति यह उपेक्षा—भाव उस समय से और दृढ़ हो गया, जब से गरिमा ने मैरी वोल्टसन क्राफ्ट के विचारो का अध्ययन किया था। परन्तु, परिस्थितयो के समक्ष गरिमा की विवशता कहे अथवा अपनी परम्पराओ और परम्परागत विचारो को धारण करने वाली अपनी माता तथा सास के प्रति श्रृद्धा या उनके पम्परागत विचारो को महत्व प्रदान करने की विवशता, विवाह सम्पन्न होने के समय से ही भारी—भरकम साड़ी तथा कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन उसकी जीवन—शैली का अग बन गये थे। अपने विवाह के पश्चात्‌ जब वह अपने मायके गयी थी, उसने अपने पिता से प्रश्न किया था— विवाहित स्त्रियो के लिए चूड़ियाँ पहनना क्यो आवश्यक है ? ससुराल मे महिलाएँ कहती है कि मुझे कलाई भर—भरकर चूड़ियाँ पहननी चाहिए ! चूड़ियाँ पहन कर मुझसे काम नही हो पाता, चूड़ियाँ टूट जाती है। चूड़ियाँ पहने की विवशता तथा काम करने से चूड़ियाँ टूटने के अपराध—बोध की मुद्रा बनाते हुए गरिमा ने अपने पिता से कहा। कुछ क्षण रुककर, जैसे उसको अचानक ही कोई बात याद आ गयी थी, वह बोली—

एक बात और ! पिताजी, यदि मै चूड़ी के लिए टूटना शब्द प्रयोग करती हूँ, तो मुझे बहुत डाँट पड़ती है। माँ कहती है कि टूटना शब्द अशुभ होता है, चूड़ी के लिए टूटना नही , मोलना शब्द बोलना चाहिए ! माँ यह भी कहती है कि सुहागनो के लिए चूड़ियो की सख्या निश्चित होती है। यदि कोई सुहागन स्त्री ईश्वर द्वारा निश्चित की गयी चूड़ियो की सख्या को अपनी लापरवारही के चलते निश्चित समय से पहले तोड़ने की भूल करती है, तो उसके पति की मृत्यु भी अपने निश्चित समय से पूर्व हो जाती है। आप बताइये, पिताजी, क्या इस बात मे कुछ तथ्य हो सकता है ? गरिमा ने असमजस—भाव से पूछा।

बेटी, ये सब रूढ़िवादी धारणाएँ है। चूड़ियाँ सुहाग का प्रतीक है, रक्षक नही ! यदि चूड़ी पहन कर सुहाग की रक्षा की जा सकती, तो सौन्दर्य—प्रसाधनो मे रुचि रखने वाली स्त्रियाँ, जो कलाई भर—भरकर चूड़ियाँ पहनती है, उनके पति तो अमर हो जाते ! पर ऐसा होता नही है। मेरे विचार से वैवाहिक जीवन को लम्बी आयु प्रदान करने के लिए चूड़ियो से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि पति—पत्नी एक—दूसरे की भावनाओ का सम्मान करे, एक—दूसरे की समस्याओ को समझे ओर उन्हे सुलझाने मे परस्पर सहयोग करे ! गरिमा के पिता ने उसके असमजस को दूर करते हुए कहा। गरिमा अनुकूल उत्तर पाकर प्रसन्न हो गयी— हाँ, यही तो, बिलकुल यही सोच रही थी मै भी !

अपने पिता से अपनी अपेक्षा के अनुरूप उत्तर पाकर भी गरिमा ने चूड़ियाँ पहनना बन्द नही किया था। ससुराल मे आकर वह अपनी सास के निर्देशानुसार चूड़ियाँ—गहने पहनना, क्रीम—पाउडर—लिपिस्टक लगाना आदि सभी शृगार—प्रसाधनो को अपनी जीवन शैली मे सम्मिलित करती रही थी। वह कभी नही चाहती थी कि सास के रूप मे मिली हुई माँ की अवज्ञा करे। परन्तु अब गरिमा को अनुभव हो रहा था कि अपने मनोमस्तिष्क तथा शरीर पर अतिरिक्त बोझ डालना किसी प्रकार कल्याणकारी नही है। उसने एक ही झटके मे निश्चय किया कि इस अतिरिक्त बोझ को अब वह नही ढोयेगी। अपने निश्चय के साथ ही गरिमा के मस्तिश्क मे प्रश्न उठने लगे— साज—शृगार और आभूषणो से रहित बहू को मेरी सास सहज स्वीकार करेगी ? जब वे देखेगी कि उनके निर्देशानुसार बहू भारी साड़ी और आभूषणो से नही लदी है, तब उन्हे अपनी अवज्ञा सहन हो सकेगी ? वे मेरी स्वतन्त्रता ओर स्वतन्त्र विचारो को अपने मान—अपमान से जोड़ कर देखने लगेगी, तो क्या होगा ? और तब आशुतोष की क्या प्रतिक्रिया होगी ? वे तो पहले ही कह चुके है कि कुछ भी सहन कर सकते है, परन्तु माँ की अवज्ञा सहन नही करेगे ! पर इन सबमे मेरा क्या? मेरा अपमान होता है, उपेक्षा होती है, उसकी किसको चिन्ता है ? मेरा स्वय का पति— मेरा जीवन—साथी मेरा अपमान करता है, तो किसी अन्य की शिकायत किससे करूँ ?

अपने विचारो के अनुसार जीवन यापन करना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है और अधिकार सहज नही मिलते है, गरिमा। उनके लिए सघर्ष करना पड़ता है। उस सीमा तक स्वतन्त्रता का उपयोग अहितकारी नही होता है, जहाँ तक किसी अन्य की स्वतन्त्रता को आघात न पहुँचे, इसलिए रूढ़ियो की जजीर तोड़ दे और अपनी स्वतन्त्रता के लिए सघर्ष कर। जब तू जाग्रत होकर सघर्ष करेगी, तो ईश्वर भी तेरे सहायक बनकर खड़े हो जाएँगे ! गरिमा ने मन—ही—मन अपने निश्चय को और अधिक दृढ़ता प्रदान की। तभी अचानक उसको याद आया कि आशुतोष के विचार भी साज—शृगार मे समय और धन का अपव्यय करने के पक्ष मे नही है इसलिए सभव है कि वह उचित—अनुचित का निर्णय तर्क का आधार लेकर करे। अपनी आशावादी विचार—दृष्टि के साथ ही गरिमा की स्मृति मे उस घटना के चित्र एक—एक करके आने लगे।

उस दिन पड़ोस मे एक लड़की के विवाह समारोह से एक दिन पूर्व सगीत का कार्यक्रम था। गरिमा की सास ने अपनी नयी—नवेली पुत्र—वधू को वस्त्रो—आभूषणो से सजाया था और सगीत की रस्म के लिए लेकर गयी थी। वहाँ से लौटने पर आशुतोष ने गरिमा से कहा था— नैसर्गिक सौन्दर्य को इन बाहरी साधनो की आवश्यकता नही होती है। तुम्हे तन—मन से ईश्वर ने सुन्दरतम बनाया है और मुझे यही प्राकृतिक सौन्दर्य रूचता है, तो फिर यह बाहरी आडम्बर क्यो ? आशुतोष के प्रश्न का उस समय गरिमा ने कोई उत्तर नही दिया था, क्योकि उसको लगता था कि वह समय अपने विचारो को साकार करने का नही, अपनी आज्ञाकारिता और कर्मठता से ससुराल मे रहकर प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मे स्थान बनाना था। अभी तक वह पर्याप्त प्रयास के पश्चात्‌ भी अपना स्थान सुनिश्चित नही कर पायी थी। अपने प्रयास मे विफलता के कारण ही वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दूसरा मार्ग अपनाना चाहती थी। उस दूसरे मार्ग पर चलने के लिए उसने एक मात्र यह सिद्धान्त बनाया था कि परिवार के सभी व्यक्तियो को सम्मान और सेवा देने के साथ—साथ स्वय को भी सम्मान देना आवश्यक है। किसी भी व्यक्ति को दूसरो का सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है ; तभी दूसरे व्यक्ति के मनोमस्तिष्क मे उसका महत्व सम्भव है, जब वह स्वय को सम्मान प्रदान करे।

अपने निश्चय के अनुरूप अगले दिन से अपनी जीवन शैली मे परिवर्तन करके गरिमा ने विद्रोह की घोषणा कर दी। यद्यपि यह घोषणा मूक थी ; शब्दहीन थी, किन्तु इसका प्रभाव तीव्र था, हाथो मे मात्र दो—दो चूड़ियाँ, आभूषण विहीन शरीर पर हल्की आरामदायक साड़ी पहनकर पैरो से पाजेब, होठो से लाली तथा चेहरे से क्रीम—पावडर इस प्रकार उतार कर रख दिये थे, मानो वे सौन्दर्य के विभिन्न उपादान न होकर तन—मन को विकृत करने वाले कारक थे। गरिमा के इस नये रूप को देखकर उसकी सास का माथा ठनका था। उसकी ननद श्रुति भी आश्चर्यपूर्ण नकारात्मक भाव से कुछ क्षणो तक मूक—सी बनी हुई उसको घूरती रही। गरिमा जानती थी कि उसके इस रूप मे रहने के निर्णय को सहज स्वीकृति नही मिलेगी, इसलिए एक बार अपनी सास की ओर तथा एक बार अपनी ननद श्रुति की ओर दृष्टिपात करने के पश्चात्‌ तटस्थ—भाव—प्रदर्शन की मुद्रा मे वह काम मे व्यस्त हो गयी। गरिमा का यह व्यवहार सास—ननद के लिए और भी कष्टकारक था कि बहू गलती करके भी ग्लानि का अनुभव नही कर रही थी। कुछ ही क्षणो मे उनकी सहनशीलता गरिमा के तटस्थ—भाव—प्रदर्शन से धराशायी हो गयी और क्रोध मैदान मे उतर आया। सास ने अपने क्रोध को नियन्त्रित करने का प्रयास करते हुए अपनी बेटी श्रुति से कहा—

आज कौण—सा नया तमास्सा करणे कू जारी है यू ? इस भेस कू भरकै यू हमै कहा दिखाणा चाहवै है ? म्होल्ले—पड़ौस की लुगाइयो कू न्यू दिखाणा चाहवै, कै यू इस घर मे भोत तग है अर इसकी साथ भोत अन्याय होरा है ?

माँ की बात सुनकर श्रुति भी क्रोध की मुद्रा मे आ गयी। उसने नाक—भौ सिकोड़ते हुए आँखे तरेर कर गरिमा से कहा— भाब्बी ! यू कौण—सा रूप भरा है तमणे ? थारे पै ढग के लत्ते—गहणे ना है, जो अपने कोट्‌ठे मे सै लिकड़के आँगण मे ऐसे भेस सै घूमरी हो ! भूखे—नगे घर मे ब्याही हो तम ?

ऐसी बात नही है ! मुझे भारी—भारी कपड़े—गहने...!

कैसी बात ना है ? थारी सास्सु नै थारे लियो इतने जेवर घड़वाये है, बढ़िया—बढ़िया लत्तो मे रकम फुँक्की है, क्यूँ ? इसलिए कै आँगण मे सजी—धजी बऊ घुम्मै है, तो घर की सोभा बढ़ै है ; मोहोल्ले वालो कू बी दिक्खै कै बऊ कू कैसी अच्छी राक्खै ! श्रुति ने गरिमा की बात को बीच मे ही काटते हुए फटकार लगायी। परन्तु गरिमा पर उस फटकार का कोई विशेष प्रभाव नही पड़ा। उसने स्पष्टीकरण देते हुए कहा— मोतियो व सितारो की भारी—भारी साड़ियाँ सम्हालने मे मुझे अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ता है। मेरे ऊपर घर के काम का इतना बोझ है कि भारी—भारी गहनो—कपड़ो तथा सौन्दर्य—प्रसाध् ानो का भार वहन करना आवश्यक नही है।

गरिमा का उत्तर सुनकर उसकी सास का क्रोध बढ़ गया— तू अपणे काणूण अपणे धोरै राख। तेरा साज—सिगार और मेहदी—चूड़ी मेरे बेट्‌टे की लम्बी उमर की लियो है। तुझै म्हारी बेइज्जती करणी है, करले, पर अपणे मालक की लियो तो असोग्गण मत करै। जा, भित्तर जाके लत्ते बदल ले अर चूड़ी पहर ले !

सास के क्रोध को देखकर गरिमा ने चुप रहना ही अधिक उचित समझा। वह चुपचाप अपने कमरे मे जाकर आराम करने लगी। कुछ मिनट पश्चात्‌ उसका चित्‌ अशान्त होने लगा, तो उसने एक पुस्तक ली और पढ़ने के लिए बैठ गयी। अध्ययन करते—करते उसे याद आया कि अभी घर के अनेक कार्य अधूरे पड़े है। वह उठी और काम मे व्यस्त हो गयी। उसी वेश—भूषा मे पुनः बाहर आकर काम करते हुए देखकर उसकी सास उस पर भड़की, किन्तु गरिमा अपना काम शान्त मुद्रा मे करती रही। थोड़ी देर तक भड़क कर बहू को खरी—खोटी कड़वी—बाते कहकर वे अपना क्रोध अभिव्यक्त करती रही, तत्पश्चात्‌ घृणापूर्वक पलटी और घर से बाहर की ओर चल दी। ऐसा लगता था जैसे कि उनके आदेश के बावजूद चूड़ियाँ, गहने और भरी—भरकम साड़ी न पहनकर गरिमा ने ऐसा अपराध कर दिया था, जिसे क्षमा नही किया जा सकता। गरिमा द्वारा अपनी सास की बातो की प्रतिक्रिया न देकर चुपचाप काम मे व्यस्तता को उन्होने उसकी धृष्टता तथा अपना अपमान मान लिया था। बाहर की ओर जाते—जाते गरिमा की ढीठता के अपमान से घायल उनका चित्‌ अत्यन्त अशान्त था, इसलिए वे अनायास ही बड़बड़ाने लगी—

एक तो चोरी, उप्पर सै सीणा जोरी ! ऐसी पढ़ी—लिक्खी बऊ सै तो अनपढ़ भली !

गरिमा की सास दरवाजे पर पहुँची ही थी, तभी दूसरी ओर से श्रुति की चाची आकर बोली—

का हो गया जिज्जी ? क्यूँ गरम होरी हो ?

अपणे पीहर मे तो कुछ देक्खा नी ! पीहर मै पहरणे—ओढ़णे कू मिलता, तो इसै बाँण पड़ जात्ती, अर यहाँ बी अराम सै पहर—ओढ़ लेत्ती ! अब भुक्खे—नगे पीहर सै आकै तौ यू ई हाल होवेगा। चीज—बस्तर सब बोझ इ लगेगे। उस वाला हाल है— नगी—बुच्ची सबसै उँच्ची ! म्हारे तो कर्म फूटगे इस पढ़ी—लिक्खी सै अपणे बेट्‌टे कू ब्याहकै ! घर के अन्दर आँगन मे खड़ी हुई गरिमा सारी बाते सुन रही थी, परन्तु उसने कोई प्रतिक्रिया नही की। वह व्यर्थ की बातो मे उलझना नही चाहती थी, विचार—स्वातत्र्य और कर्म—स्वातत्र्य चाहती थी। अतः अपने निर्णय पर अडिग रहने का निश्चय करके वह पुनः काम मे व्यस्त हो गयी।

दो दिन मे पूरे गाँव मे यह बात आग की तरह फैल गयी कि आशुतोष की पत्नी सास की अवज्ञा करती है। वह न तो सुहाग के प्रतीक—चिह्न मगल—सूत्र, गहने, चूड़ियाँ आदि धारण करती है, न ही लम्बा घूँघट करती है। गरिमा को यह बात तब ज्ञात हुई, जब श्रुति की एक सहेली— प्रभा ने घर पर आकर उसको उपदेश देना आरम्भ किया कि नयी—नवेली बहू सज—सँवर कर ही सुन्दर लगती है। सजी—सँवरी दुल्हन तभी घर की लक्ष्मी होती है, जब वह सबका मन मोहती है। पति भी अपनी पत्नी की तरफ तभी आकर्षित होता है जब उसकी पत्नी बहुमूल्य वस्त्राभूषणो से सुसज्जित रहती है। प्रभा ने यह भी बताया कि सारे गाँव मे गरिमा के इस प्रकार से शृगार न करने की तथा बड़ो के साथ अशिष्ट व्यवहार करने की चर्चा हो रही है। प्रभा के साथ गरिमा की भेट एक—दो बार अब से पहले भी हो चुकी थी। वह जानती थी कि प्रभा एक सुशिक्षित—सस्कारी लड़की है, किन्तु अपने परिवेश का प्रभाव उसकी तर्क—क्षमता को विकसित नही होने देता है। उसको यह भी आशा थी कि यदि प्रभा का यथोचित मार्गदर्शन किया जाए, तो वह एक जाग्रत लड़की बन सकती है। साथ ही अपने गाँव की अनेक अन्य स्त्रियो को भी जागरूक कर सकती है।

अपनी आशा को आकार प्रदान करने की दिशा मे बढ़ती हुई गरिमा कुछ मिनट तक प्रभा के वक्तव्य को ध्यानपूर्वक शान्त मुद्रा मे बैठी सुनती रही। बीच—बीच मे वह एक—दो बार प्रभा की तरफ देखकर मुस्करा देती थी। प्रभा का उपदेश समाप्त होने के पश्चात्‌ गरिमा ने खड़ी होकर मुस्कराते हुए कहा—

आइये, कुछ समय के लिए कमरे मे बैठकर बाते करेगे। यहाँ पर क्या परेशानी है ? आप यही पर बता दो क्या बात

है? प्रभा ने किकर्तव्यविमूढ—सी होकर कहा, जैसे कि वह धर्म सकट मे फँस गयी थी— श्रुति के साथ बैठे अथवा उसकी भाभी के साथ ? क्योकि वास्तव मे वह श्रुति की मित्र थी। गरिमा के साथ तो उसका नया—नया परिचय था, वह भी अपनी सहेली के माध्यम से। इसी सकोच के कारण वह गरिमा का आग्रह स्वीकार करके तुरन्त खड़ी होकर उसके साथ अन्दर जाने के लिए तैयार नही हुई और प्रश्नात्मक दृष्टि से श्रुति की ओर देखने लगी। उस समय प्रभा की भाव—भगिमा से स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता था कि वह गरिमा के साथ कमरे मे जाकर बाते करना चाहती है। श्रुति ने प्रभा के भावो को पढ़कर एक बार कनखियो से गरिमा की ओर देखा, फिर मुँह विकृत करके भौ सिकोड़ती हुई उपेक्षा—भाव से बोली—

यहाँ तो परेसान्नी—इ—परेसान्नी है ! य्‌हाँ सारी बात हम सुण लेगे ! जा, सुण ले कहा राज की बात बताणी चाहवै ऐ तुझै यू !

श्रुति की अनुमति पाकर भी प्रभा मे यह साहस नही हुआ कि उठकर गरिमा के साथ चल दे। अतः एक बार पुनः गरिमा ने प्रभा का हाथ पकड़कर उसको उठने का सकेत करके कमरे मे चलने का आग्रह किया। इस बार प्रभा ने गरिमा का आग्रह स्वीकार कर लिया और वह उठकर उसके साथ चल दी।

कमरे मे जाकर गरिमा ने प्रभा को सस्नेह बिठाया और मधुर शब्दो मे उसे गहने न पहनने तथा साज—शृगार करके पुरुषो को आकर्षित न करने का औचित्य अत्यन्त सरल तथा अत्यन्त रोचक शैली मे समझाया। अपने विचारो को प्रभा के समक्ष व्यक्त करते समय गरिमा ने अनुभव किया था कि उसकी आशा के अनुरूप प्रभा पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। अपनी सफलता पर उत्साहित होकर अन्त मे गरिमा ने प्रभा से कहा—

एक स्त्री का अधिकाश समय घरेलू कामो मे व्यतीत हो जाता है। अपना शेष बहुमूल्य समय देह को सजाने मे नष्ट करना बुद्धिमानी नही है। मात्र दैहिक आकर्षण से दाम्पत्य—सूत्र दृढ़ नही किया जा सकता। दाम्पत्य—सूत्र को दृढ़ करने के लिए अथवा किसी भी सामाजिक सम्बन्ध को स्थायित्व प्रदान करने के लिए व्यक्ति का स्वतत्र विकास होना आवश्यक है। स्वतत्र विकास तभी सभव है, जब सद्‌गुणो को आत्मसात किया जाए तथा बौद्धिक—तर्क का सहारा लिया जाए। विरोध के समय ही नही, स्नेह के क्षणो मे भी स्त्रियो को पुरुष के समान अधिकारो मे भागीदारी करनी चाहिए और पुरुष—गुणो मे होड़ करनी चाहिए। तभी स्त्रियाँ समाज की सार्थक सदस्य बन सकती है। तभी वे देश—समाज की स्थिति को समझ सकती है और उसको सुधारने मे अपना योगदान दे सकती है। प्रभा तुमने देखा होगा कि जब दो पुरुष परस्पर मे मिलते है, तो वे राजनीति, दर्शन, कला, साहित्य तथा विभिन्न सामाजिक सदर्भो पर बाते करते है, किन्तु जब दो स्त्रियाँ आपस मे बाते करती है, तो उनकी बातो का विषय वस्त्रो, आभूषणो तक सिमटकर जाता है। ऐसे मे वे समाज के विकास मे सार्थक सहयोग कैसे कर सकती है ? ऐसी स्थिति मे उसके मस्तिष्क का पूर्ण विकास नही हो सकता है, तो विभिन्न प्रकार के जटिल और जटिलतर सामाजिक सन्दर्भो तथा सामाजिक सम्बन्धो के लिए वह सार्थक योगदान कर सकती है ? तुम शिक्षित हो, इसलिए मुझे विश्वास है कि तुम मेरी बात समझ सकती हो ! अपनी बात पूरी करके गरिमा वहाँ से उठी और अपनी अलमारी मे से एक पुस्तक निकालकर प्रभा की ओर बढ़ाते हुए पुनः बोली—

लो, इस पुस्तक को पढ़ना, तब तुम्हे भली—भाँति समझ मे आ जायेगा कि मेरी बात मे कितना सत्य है !

प्रभा ने हाथ बढ़ाकर गरिमा के हाथ से पुस्तक ले ली और खड़ी होकर बोली— अब मै चलती हूँ ! श्रुति को बहुत बुरा लग रहा होगा कि मै इतने समय तक आपके साथ बाते कर रही हूँ !

प्रभा, हमारे विचारो और कर्मो के विषय मे दूसरे क्या सोचते है,

इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हमारे विचार विवेक से अनुप्राणित और सचालित हो तथा तर्कसम्मत हो। इसके साथ ही हमारे कर्म हमारे विचारो के अनुरूप होने चाहिए, ताकि हमारा प्रत्येक कदम समाज के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सके। यह तभी सम्भव है जब रूढ़ियो को त्यागकर हम समय के अनुरूप सोचे और काम करे।

ठीक है, भाभी! मै इस पुस्तक को पढ़कर शीघ्र ही लौटा दूँगी, अब मुझे जाना चाहिए!यह कहकर प्रभा वहाँ से चली गयी।

प्रभा पुस्तक को शीघ्र ही लौटाने तथा पुनः मिलने का वचन देकर गयी थी, परन्तु वह कई दिन तक लौटकर नही आयी। गरिमा उसकी प्रतीक्षा करती रही। वह यह जानने के लिए व्याकुल होती रही कि अन्ततः प्रभा पर उसके वक्तव्य का क्या प्रभाव पड़ा है ? उसने अनेक बार श्रुति से यह जानने का प्रयास किया था कि प्रभा उसकी पुस्तक लौटाने का वचन देकर भी उसे लौटाने के लिए क्यो नही आयी ? उसका स्वास्थ्य तो ठीक है ? उसके परिवार मे सब कुशल—मगल है ? गरिमा के प्रश्नो का उत्तर देना श्रुति आवश्यक नही समझती थी, इसलिए वह प्रत्येक प्रश्न के उत्तर मे नाक सिकोड़कर गरिमा की ओर मुँह बिचकाकर अपना आशय व्यक्त कर देती थी। वह गरिमा को परोक्षतः यह बताने—समझाने का भी प्रयास करती थी कि प्रभा का उस घर मे न आने का कारण गरिमा का परम्परा—विरोधी होना है। चूँकि प्रभा एक समझदार—बुद्धिमान लड़की है ; अपने समाज—सस्कृति को जानती भी है, मानती भी है, इसलिए अशिष्ट और विद्राही—प्रवृति की स्त्री से मिलना—बतियाना वह उचित नही मानती है।

लगभग एक माह पश्चात्‌ एक दिन श्रुति ने गरिमा को वह पुस्तक लाकर दी, जिसको प्रभा लेकर गयी थी। पुस्तक को लेते हुए गरिमा ने श्रुति से पूछा था—

प्रभा क्यो नही आयी ? वह तो कहकर गयी थी, दोबारा मिलने आयेगी !

मुझै नी पता क्यूँ नी आयी, अपणे आप जाकै बूझ लीजो ! श्रुति ने अपनी चिर—परिचित शैली मे उत्तर दिया, तो गरिमा चुप गयी और पुस्तक को लेकर अपने कमरे मे चली गयी। उस दिन के पश्चात्‌ गरिमा ने यह आशा छोड़ दी थी कि प्रभा उससे भेट करने के लिए कभी आयेगी। परन्तु उस दिन के पश्चात्‌ गरिमा को एक बात ने अपनी ओर विशेषतः आकर्षित किया था। श्रुति, जिसने प्रभा को अपने घर पर बुलाना और स्वय उसके घर पर जाना लगभग बन्द कर दिया था, अब प्रतिदिन प्रभा के घर जाने लगी थी। प्रभा के घर के लिए प्रस्थान करने से ठीक पहले वह गरिमा का ध्यान आकर्षित करने के लिए ऊँचे स्वर मे कहती थी—

माँ मै पिरभा के घर जा री ऊँ ! और फिर गरिमा की ओर मुँह बिचकाकर पुनः कहती— बिचारी पिरभा तो म्हारे घर आ नी सकती, मैन्नै उससै कई बेर कही बी, पर उसका जी नी करता य्‌हाँ आनै कू ! म्हारे घर मे नयी किस्म के आदमी रहन लगे ना अब !

श्रुति की बातो मे गरिमा को सत्य का अल्पाश भी प्रतीत नही होता था, परन्तु सत्य क्या है ? यह ज्ञात करने का कोई उपाय नही था, क्योकि घर की बहू होने के कारण गरिमा को बाहर जाने की तथा समाज मे घुलने—मिलने की अनुमति नही थी। न ही उस समाज का कोई सदस्य गरिमा से मिलने—जुलने मे रुचि रखता था। नयी—नयी अथवा कम उम्र की बहुओ, जो उस समाज मे पर्याप्त अनुभव अर्जित नही कर पायी थी, उनके लिए पुरुषो से घूँघट करने का प्रावधान था। परन्तु गरिमा ने अनुभव किया था कि प्रायः स्त्रियाँ और बच्चे भी उसके साथ निकटता स्थापित करने से बचते थे। उसने स्वय अनेक बार यह प्रयास किया था कि पास—पड़ोस की लड़कियो से तथा स्त्रियो से वह घनिष्ट सम्बन्ध बनाकर रखे, किन्तु कोई लड़की या स्त्री इसके लिए तैयार नही थी। प्रभा ही एकमात्र ऐसी लड़की थी, जिसमे गरिमा को आशा की किरण दिखायी दी थी, परन्तु अब वह भी ईद का चाँद हो गयी।

उसी दौरान एक दिन उनके घर पर एक ऐसी महिला आयी, जो भिन्न—भिन्न कोणो से देखने पर भिन्न—भिन्न रूपो मे दिखयी देती थी। उसकी दोनो कलाईयाँ रग—बिरगी चूड़ियो से भरी हुई थी। अपनी बातो से वह पूर्ण परिपक्व प्रतीत होती थी, परन्तु देखने मे उसकी आयु तीस वर्ष से कम लगती थी। अपनी बातो से वह नितान्त रूढ़िवादी प्रतीत थी, परन्तु बीच—बीच मे उसकी चेतना रूढ़ियो को बेधने के लिए छटपटाती—सी प्रतीत होती थी, जैसे प्रकाश की कोई किरण अँधेरे को चीरकर अपने अस्तित्व की घोषणा कर रही हो। गरिमा घर के कार्य मे व्यस्त थी और वह महिला गरिमा की सास—ननद से बाते कर रही थी। काम करती हुई गरिमा का ध्यान कभी—कभी उस महिला की ओर जाता था, तो उसको वह चेहरा कुछ—कुछ जाना—पहचाना—सा लगता था। वह याद करने का प्रयास करती— कौन है यह महिला ? शायद मैने इसे अब से पहले भी कही देखा है, पर कहाँ ? पर्याप्त प्रयास करने के बाद भी गरिमा की स्मरण शक्ति उसका साथ छोड़ देती, तो वह अपना सिर झटककर पुनः काम मे व्यस्त हो जाती, परन्तु मन था कि उस महिला पर अटका पड़ा था और दृष्टि बार—बार उसी से जाकर टकराती थी। गरिमा की इच्छा हो रही थी कि वह उस महिला से बात करे ओर उसके विषय मे जानकारी करे कि वह कौन है ? और क्या वास्तव मे गरिमा उससे पहले भी कभी मिल चुकी है। सयोगवश उसी समय गरिमा की सास ने किसी काम के बहाने उसको अपने पास बुलाया। सभवतः वे चाहती थी कि वह महिला गरिमा के रहन—सहन तथा सोच—विचार की आलोचना उसके ही सामने करे। गरिमा इसकी परवाह किये बिना सास की आज्ञा का पालन कर रही थी, तभी उस महिला के तरकश से तीर निकला—

सन—सोबण, हात्थो मे चूड़ी तौ पहर लेत्ती, बऊ ! मेरे ब्याह कू आठ—दस बरस होगे, फेर बी हात्त भर—भरकै चूड़ी पहर राक्खी ऐ देख ! अर तू चार दिन की ब्याही, तैन्ने हात नगे कर रक्खे ऐ ! तैन्नै तौ हद कर दी !

गरिमा ने महिला की बात का शब्दो मे कोई उत्तर नही दिया, धीरे—से मुस्करा दी। जिस काम के लिए गरिमा को वहाँ पर बुलाया गया था, वह काम कुछ मिनटो मे ही सम्पन्न हो गया था। काम सम्पन्न करके गरिमा वहाँ से प्रस्थान करती, इससे पहले ही वह महिला बोल उठी— म्हारे धोरै बी बैठ ले बऊ दो—चार मिनट ! भाई साब के अलावा और किसी के धोरै बैठने कू जी नी करता तेरा ? महिला ने परिहास की मुद्रा मे कहा, तो गरिमा उनके पास चौकी डालकर बैठ गयी। उसकी सास—ननद अप्रसन्नता के भाव से उसको घूरती रही, परन्तु उस समय वे गरिमा को वहाँ पर बैठने के लिए मना नही कर सकी। शायद उन्हे इस बात का सतोष था कि उनके वहाँ रहते हुए वह महिला गरिमा के लिए नकारात्मक टिप्पणी करने के अतिरिक्त कुछ और नही कहेगी। थोड़ी देर तक गरिमा को यह समझाने के पश्चात्‌ कि नयी—नवेली दुल्हन को किस प्रकार सज—सँवरकर रहना चाहिए ? तथा घर—परिवार के सभी लोगो सहित बाहर से आने वालो के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ? महिला अपने उस मुख्य बिन्दु पर आयी, जिसके लिए उसने गरिमा को अपने पास बैठने का आग्रह किया था। उसने गरिमा को बताया कि बचपन मे वह उसी गाँव मे रहती थी, जिसमे गरिमा रहती थी। महिला को अभी तक गरिमा का नाम ज्ञात नही था, न ही वह निश्चयपूर्वक यह कह सकती थी कि आशुतोष की पत्नी ही वह लड़की है, जो बचपन मे उसकी सखी—गरिमा थी। अतः उसने गरिमा से कहा—

जादै तो याद नी है, पर इतनी बात अब बी याद है ऐ, चौधरियो के घर मेरी माँ काम करनै जावे इ, व्‌हाँ मेरी एक सहेल्ली ही, गरिमा ! बस इतनी याद ऐ ! फेर हमनै गाँव छोड़ दिया हा, तो सैज—सैज गाँव कू बी भूलगे, पर गरिमा ? उसै हम अब तक नी भुल्ले!

गरिमा मे ऐसा क्या था ? कि तुम उस गाँव को भूल गयी, पर गरिमा को नही भूली ! गरिमा ने व्यग्यात्मक मुद्रा मे महिला से पूछा। यू बी कुछ बूझनै की बात ऐ ? म्हारी सहेली ही गरिमा। सहेली भूलने की चीज नी होत्ती ! अर गरिमा जैसी सहेल्ली तौ बिलकुल बी नी ! महिला ने भी गरिमा की भाँति व्यग्यात्मक शैली मे उत्तर दिया। आपका नाम क्या है ? गरिमा ने अपने अनुमान की सत्यता को परखने के लिए उस महिला से पूछा। उसको थोड़ा—थोड़ा अनुमान हो गया था कि वह ही उसकी बचपन की सहेली है।

पुष्पा ! मेरा नाम पुष्पा है !

और मेरा नाम गरिमा है ! मै ही गरिमा हूँ, तुम्हारी बचपन की सहेली ! पर तुम्हारी भाषा कैसी हो गयी, बिल्कुल इसी गाँव की ! बस, जैसा देस वैसा भेस ! यहाँ रहत्ते—रहत्ते आठ—दस साल होगे आज, तो बोल्ली यही की बोल्लन लगी। गरिमा तू तो एकदम बेपिछान होरी है।

तू भी तो बदल गयी है। मै तुझे पहचान ही न सकी। बता अब तू कैसी है।

मै ठीक हूँ। अपनी कुशल—क्षेम बताते हुए पुष्पा उदास हो गयी।

गरिमा ने पुष्पा के करुण स्वर को भाँप लिया और उसे अन्दर चलकर बैठने के लिए कहा। पुष्पा ने गरिमा का आग्रह अस्वीकार करते हुए उसे सकेत से बता दिया कि उसका कमरे के अन्दर जाना वर्जित है क्योकि वह दलित जाति की स्त्री है। पुष्पा का सकेत समझने के पश्चात्‌ भी गरिमा ने उसके साथ समानता का व्यवहार करते हुए उसे चाय—नाश्ता कराया तथा स्वय भी उसके साथ बैठकर नाश्ता किया। चाय पीते समय पुष्पा की दृष्टि गरिमा की सास की ओर उठती थी और अनायास ही भयभीत होकर नीचे झुक जाती थी। चाय पीकर पुष्पा ने गरिमा से जाने की अनुमति माँगी, किन्तु गरिमा ने आग्रह करके उसको अपने कमरे मे बुला लिया। पुष्पा ने गरिमा को इस बात की चेतावनी भी दी कि उसके घर के अन्दर प्रवेश करने से बवडर खड़ा हो सकता है, जिसका परिणाम यह होगा कि वह भविष्य मे कभी वहाँ नही आ सकेगी और स्वय गरिमा को भी अपने परिवार—समाज की अवहेलना करने का भी दड भुगतना पड़ सकता है, पर गरिमा ने उसकी एक न सुनी। उसने पुष्पा को निश्चिन्त होकर बैठने और बाते करने का आग्रह किया। उसने पुष्पा से यह भी कहा कि वह आज भी छूआछूत मे विश्वास नही करती है तथा उसका पति भी इस विषय मे उसके विचारो से साम्य रखता है।

गरिमा से आश्वासन पाकर पुष्पा उसके कमरे मे बैठकर घटो तक बाते करती रही। पुष्पा ने गरिमा को बताया कि गाँव छोड़ने के चार—पाँच वर्ष बाद ही उसके पिता ने उसका विवाह सम्पन्न करा दिया था। विवाह के पश्चात्‌ कुछ वर्षो तक उसका दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता रहा था, परन्तु कई वर्ष बाद भी माँ न बन पाने के कारण उसके दाम्पत्य—जीवन मे कड़वाहट आने लगी। धीरे—धीरे उनकी कड़वाहट इतनी बढ़ गयी कि उसके पति ने उससे बोलना ही बन्द दिया। पति—पत्नी की ़बढ़ती हुई दूरी को और अधिक बढ़ाने मे उसकी सास ने आग मे घी का काम किया। सास ने बेटे को आदेश दिया कि वह अपनी पहली पत्नी को छोड़कर दूसरा विवाह कर ले। बेटे ने अपनी माँ का आज्ञा मानकर पुष्पा से सम्बन्ध तोड़कर उसे उसके पिता के घर छोड़ दिया और अपना दूसरा विवाह कर लिया। गरिमा के यह प्रश्न पूछने पर कि पुष्पा के पिता ने उसका साथ देते हुए उसके पति के निर्णय का विरोध क्यो नही किया, पुष्पा ने बताया कि उसके पिता को उसके पति के निर्णय मे कोई दोष नही दिखता था। उसके पिता ने उसके पति का समर्थन करते हुए कहा था कि पुष्पा कभी अपने पति का वश आगे नही बढा पायेगी। ऐसी स्थिति मे यदि उसका पति दूसरा विवाह करना चाहता है, तो इसमे अनुचित क्या है ? अपने जीवन की लम्बी कहानी का अल्पाश गरिमा को सुनाकर पुष्पा एक क्षण के लिए अपनी व्यथा मे डूब गयी। एक क्षणोपरान्त वह बोली—

अब तू ही बता, गरिमा, जब मेरे बाप—भाईयो ने मेरा साथ छोड़ दिया, तब मै अकेली अपने अधिकारो के लिए कैसे लड़ती ? और अब पति ने मुझे छोड़ दिया ; मै माँ नही बन सकती ; तो मेरे जीवन मे किसका सहारा है ? अब तो बस, यहाँ—वहाँ रहकर अपनी सासे पूरी करनी है, रोकर कर लूँ या हँसकर !

तुझे तेरे पति ने छोड़ दिया है, तो यहाँ पर तू किसके साथ रह रही है ?

मै यहाँ पर नही रहती हूँ। मेरी मौसी की बेटी भी उसी घर मे ब्याही है, जिसमे मै ब्याही थी। चार दिन पहले उसके बेटे का विवाह था, मै उसी मे शामिल होने के लिए आयी थी। वैसे मै कभी अपने भाई के घर चली जाती हूँ, कभी यहाँ आ जाती हूँ!

जब तू यहाँ पर रहती है, तेरा पति तुझे मान—सम्मान देता है? मेरा आशय है कि तू उस घर मे अधिकारपूर्वक रहती है ?

मेरा पति मुझे मान—सम्मान देता, तो दूसरा विवाह ही ना करता ! अब तो घर मे सारे अधिकार उसकी दूसरी पत्नी के है, जिसने उसके बच्चे पैदा किये है ! पुश्पा ने निराशा और कुठा से ग्रसित स्वर मे उत्तर दिया, तो गरिमा भी व्यथित हो गयी—

यदि पति के घर मे सारे अधिकार, प्यार तथा मान—सम्मान दूसरी पत्नी के लिए है, जिसने उसने बच्चो को जन्म दिया है, तो तू उसके नाम की चूड़ियो का, मगलसूत्र और शृगार की अन्य चीजो का बोझ क्यो ढो रही है ? स्वतन्त्रतापूर्वक जीवन—यापन क्यो नही करती है ? गरिमा ने आवेश मे पुष्पा को फटकारते हुए कहा।

ये चूड़ियाँ, मगलसूत्र और मेरी माँग मे भरा हुआ सिदूर ही मुझे समाज बैठने की इजाजत देते है, मेरी बहन ! जिस दिन मै इस शृगार को उतारकर रख दूँगी, उस दिन इतनी भी इज्जत नही रहेगी, जितनी आज है। इस सिदूर मे और मगलसूत्र मे ही इतनी शक्ति है कि ऐरे—गैरे मर्दो की मुझे कुछ गलत कहने की हिम्मत नही पड़ती है, वरना इस दुनिया मे वासना के भूखे भेड़िये गली—गली मे सफेद कपड़े पहनकर घूमते फिरते है। मुझ—जैसी गरीब को तो...! पुष्पा अपना वाक्य पूरा नही कर पायी, उसकी आँखो से आँसू की बूँदे टपकने लगी और गला रुँध गया। अपने विषय मे बाते करने के पश्चात्‌ पुष्पा ने कुछ देर तक चुपचाप गरिमा की बाते सुनी, तत्पश्चात्‌ पुष्पा ने प्रभा और श्रुति के विषय मे बाते करना आरम्भ किया।

उसने बताया कि शिक्षित तथा सुशील होने के साथ—साथ प्रभा एक ऐसी लड़की है, जो किसी भी सामाजिक मान्यता को आँखे बन्द करके स्वीकार नही करती है। वह निर्भय होकर अन्धविश्वासो का विरोध करती है तथा नयी चेतना से युक्त विचारो को धारण करती है। अपनी इसी प्रवृत्ति से प्रेरित होकर वह गरिमा के कार्यो तथा व्यवहारो का प्रबल समर्थन करती है। वह न केवल गरिमा के कार्य—व्यवहारो का समर्थन करती है, बल्कि गरिमा के रहन—सहन के ढग का तथा विचारो का प्रचार करके मोहल्ले—भर की महिलाओ को जागरुक करने मे प्रयत्नशील है। अपने मोहल्ले की स्त्रियो को जागरुक करने के लिए वह इतनी लगनशील है कि हाथ मे पुस्तक लेकर घर—घर घूमती—फिरती है और बहुओ को उस पुस्तक मे लिखी हुई बाते समझाती है। अपने इस कार्य—व्यवहार से वह अपने मोहल्ले के अधिकाश स्त्री—पुरुषो की आलोचना का केन्द्र बन गयी है, क्योकि जिन बहुओ के साथ वह बाते करती है, जिन्हे पुस्तक मे लिखी विदूषी महिलाओ के विचार पढ़कर सुनाती है, उनमे से अधिकाश अपनी रूढ़ तथा निरर्थक मान्यताओ का विरोध करने लगी है। वे बहुएँ रूढ़ियो की जजीरे तोड़कर पुरानी दुनिया से बाहर आना चाहती है और नयी दुनिया के दर्शन करना चाहती है। नयी दुनिया से साक्षात्कार करने वाली बहुओ ने आभूषणो का मोह छोड़कर पुस्तक पढ़ने मे अपने समय का सदुपयोग करना आरम्भ कर दिया है। तथा जिसको पढ़ना नही आता है, वह चाहती है कि कोई उसको पढ़ना सिखा दे। बहुओ का यह व्यवहार—परिवर्तन परिवार वालो को रास नही आ रहा है। जिन बहू—बेटियो को परिवार वाले टेलीविजन देखने की अनुमति नही देते थे, बाहरी दुनिया से पूर्णतः अपरिचित रखना चाहते थे, वे बहू—बेटियाँ उनके बनाये हुए घेरे को तोड़कर बाहर निकलने का मार्ग ढूँढ ले, यह उन्हे स्वीकार्य कैसे हो सकता है ? उनके परिवार वाले जानते है कि उनकी बहू—बेटियो मे यह व्यवहार—परिवर्तन प्रभा की प्रेरणा से हुआ है इसलिए सारा मोहल्ला उसका विरोधी हो गया है।

पुष्पा, यदि यह सब सच है, जो तूने मुझसे कहा है, तो प्रभा ने मुझसे मिलना—जुलना क्यो बन्द कर दिया है ? वह मेरी पुस्तक लेकर गयी थी और कहकर गयी थी कि वह पढ़कर उसे पढ़ने के बाद दूसरी पुस्तक लेने के लिए आयेगी, परन्तु वह आज तक नही लौटी! गरिमा ने पूछा।

तुम्हारा सवाल बिलकुल सही है, पर तुम्हे नही पता, तुमसे ना मिलने आना उसकी मजबूरी है ! पुष्पा ने रहस्यमय ढग से गरिमा के प्रश्न का उत्तर देते हुए पुनः कहा — बात इतनी सीधी नही है, जितनी तू सोच रही है!

सीधी नही है, तो टेढ़ी ही सही, पर आखिर बात क्या है ? ऐसी क्या मजबूरी है, जो उसे मुझसे मिलने से रोकती है ? श्रुति तो प्रभा से मिलने के लिए अक्सर जाती रहती है ! गरिमा ने प्रभा के न आने की विवशता का कारण जानने के लिए पुष्पा से आग्रहपूर्वक पूछा।

बहुत लम्बी बात है गरिमा ! मै बताने लग गयी, तो शाम हो जायेगी और तेरी सास को पता चल गया, तो आगे से मेरा भी आना छूट जायेगा !

गरिमा ने अनुभव किया कि पुष्पा के नकारात्मक शब्दो मे भी सकारात्मक भाव छिपे है। वह उसको बताना चाहती है कि प्रभा ने गरिमा से मिलना—जुलना क्यो छोड़ दिया है। गरिमा स्वय यह जानने की इच्छुक थी ही। अतः गरिमा ने पुष्पा को आश्वासन दिया कि जैसा वह सोच रही है, वैसा कुछ नही होगा, इसलिए प्रभा की विवशता के बारे मे विस्तार से बताए। गरिमा की जिज्ञासा देखकर तथा उसका आश्वासन पाकर पुष्पा ने उसे सारी घटना का यथावत वर्णन कर दिया, जिससे प्रभा का गरिमा से मिलना—जुलना प्रतिबन्धित हो गया था।

पुष्पा ने बताया कि जिस दिन प्रभा पुस्तक लेकर गयी थी, उससे अगले दिन ही श्रुति तथा उसकी माँ प्रभा के घर गयी थी। उन्होने वहाँ पर जाकर प्रभा तथा उसकी माँ के साथ दुर्व्यवहार किया; उन्हे बहुत भला—बुरा कहा और अन्त मे वहाँ से वापिस चलते हुए उन्हे चेतावनी दी कि यदि प्रभा ने कभी उनकी बहू से मिलने का प्रयास किया, तो परिणाम अच्छा नही होगा। पुष्पा की बात सुनकर गरिमा आश्चर्यचकित होकर कुछ क्षणो तक उसकी ओर देखती रही। कुछ क्षणोपरान्त वह आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोली—

किन्तु श्रुति ने और माँ ने प्रभा को भला—बुरा क्यो कहा ? वह तो मेरे साथ बैठकर बाते करना ही नही चाहती थी ! श्रुति भी इस बात को भली—भाँति जानती है कि मै ही आग्रह करके उसे अपने साथ कमरे मे लेकर गयी थी ! फिर भी !

इनका कहना था कि प्रभा के साथ मिलने—जुलने से उनकी बहू भी मान—मर्यादा छोड़कर अपनी मन—मुहार हो जायेगी। प्रभा के खानदान मे तो सदा ऐसा ही होता आया है, ये अपने घर मे प्रभा को बुलाकर अपने खानदान की नाक नही कटवा सकते !

प्रभा मुझसे मिलने आएगी तो खानदान की नाक कट जाएग !और जब श्रुति उससे मिलने के लिए उसके घर जाती है ? मैने कई बार अपने कानो से सुना है, श्रुति माँ को बताकर जाती है कि वह प्रभा से मिलने के लिए जा रही है ! गरिमा ने आवेशपूर्ण मुद्रा मे कहा। तेरी सास प्रभा पर आरोप लगाकर कह रही थी कि वह तुझे उल्टी—सीधी पट्‌टी पढ़ाती है। जिस दिन से प्रभा ने तुझसे मिलना—जुलना शुरू किया था, उस दिन से तूने गहने पहनना बन्द कर दिया है और बड़ो का मान—सम्मान करना तथा मर्यादा का पालन करना छोड़ दिया है। ये कह रही थी कि गरीबी के कारण उसकी पहनने—ओढ़ने की औकात नही है, इसलिए सबकी बहू—बेटियो को गुमराह करती—फिरती है— साज—सिगार मत करो, गहने—कपड़े मत पहनो !

और श्रुति ? श्रुति को गुमराह नही करेगी ? प्रभा मुझसे बात करेगी, तो खानदान की मान—मर्यादा भग हो जाएगी ! श्रुति उससे मिलेगी, तो कुछ नही होगा ! पुष्पा की बाते सुनकर गरिमा मे असन्तोष की भावना का विस्तार होना आरम्भ हो गया। आज तक वह यही सोचती थी कि उसके अपने व्यवहारो के कारण पास—पड़ोस की कोई लड़की उससे मिलना—बाते करना नही चाहती है। आज उसको ज्ञात हुआ था कि पूरे समाज मे वह अकेली क्यो है। आज तक वह इस वास्तविकता से अनभिज्ञ थी कि अप्रत्यक्ष रूप से उसके साथ समाज की स्त्रियो का मिलना प्रतिबन्धित है। अभी तक वह अनुभव करती थी कि उसके तर्कपूर्ण कार्य—व्यवहार समाज की रूढ़ अवधारणाओ का खण्ड़न करते है, इसलिए समाज उसकी उपेक्षा करता है। परन्तु अब उसे अनुभव हो रहा था कि वह उपेक्षा कृत्रिम है। अथवा वहाँ उपेक्षा है ही नही ! एक प्रकार का डर है, जो उस समाज की स्त्रियो को किसी भी परिवार की बहू से भेट करने से रोकता है, क्योकि यह समाज बहूओ के स्वतत्र अस्तित्व को नकारकर उन्हे उनके परिवार की सम्पत्ति मानता है !

गरिमा की भाव—भगिमा को देखकर पुष्पा उसके हृदयस्थ भावो का अध्ययन करने का प्रयास कर रही थी। धीरे—धीरे उसको विश्वास हो रहा था कि गरिमा से वह अपनी अभिव्यक्ति निःसकोच कर सकती है। अतः उसने विषय को पुनः श्रुति तथा प्रभा की ओर मोड़ते हुए कहा—

श्रुति को तुम कुछ न पूछो, तो ही ठीक है ! इस खानदान की नाक कोई कटवाएगी, तो श्रुति कटवाएगी। रहस्यमय शैली मे पुष्पा ने कहा।

यह क्या कह रही है तू ? गरिमा की जिज्ञासा बढ़ गयी थी। तुझसे प्रभा का मिलना बन्द करवा दिया, पर श्रुति तो रोजाना कई—कई घटे तक उसके घर मे बैठकर गुजार देती है ? अब नाक बच जाएगी ?

पुष्पा का कहने का ढ़ग इतना विचित्र था कि गरिमा की जिज्ञासा बढ़ने लगी। उसने पुष्पा से आग्रह किया कि वह अपनी बात का आशय उसको विस्तार से समझाए। गरिमा के आग्रह पर पुष्पा ने बताया कि जिस दिन श्रुति ने और उसकी माँ ने प्रभा के घर जाकर खरी—खोटी सुनायी थी, उसके सप्ताह—भर बाद ही श्रुति ने उसके घर जाना आरम्भ कर दिया था। उससे पहले भी वह वहाँ जाकर अपना पर्याप्त समय व्यतीत करती थी। गरिमा द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर कि श्रुति अपनी सहेली के साथ उसके घर मे समय व्यतीत करती है, तो इस विषय को वह इतनी तूल क्यो दे रही है ? पुष्पा ने अपनी ही रोचक शैली मे एक कहानी सुनायी। पुष्पा की कहानी सुनकर गरिमा के अन्तःकरण मे विभिन्न प्रकार के भाव उठने लगे। कभी उसको पुष्पा पर क्रोध आ रहा था कि वह श्रुति के विषय मे ऐसी बाते क्यो कर रही है, तो कभी आश्चर्य का भाव आ रहा था कि क्या श्रुति सचमुच ऐसा कर सकती है ? गरिमा के मस्तिष्क मे अनेकानेक प्रश्न उठ रहे थे—

क्या श्रुति का इस प्रकार का व्यवहार एक समस्या है ? या यह समाज एक सामान्य व्यवहार को समस्या बनाकर प्रस्तुत कर रहा है ? और यदि यह व्यवहार असामान्य—अस्वाभाविक है ; मनुष्य—प्रकृति के प्रतिकूल है, तो इस प्रकार अप्राकृतिक व्यवहार करने का क्या कारण है ? गरिमा अपने मनोभावो मे डूबती—उतराती, समस्याओ और प्रश्नो से उलझती—सुलझाती हुई पुष्पा की कहानी सुन रही थी तथा पुष्पा तन—मन से कहानी सुना रही थी, जो कभी घटनाप्रधान बन जाती थी, कभी चरित्रप्रधान बन जाती थी। कहानी का सार था कि प्रभा के घर पर श्रुुति केवल प्रभा से भेट के लिए नही जाती है। पूरे समाज मे चर्चा है कि वह प्रभा के भाई अथर्व के प्रति आकर्षित है, इसलिए प्रभा से मिलने के बहाने अथर्व से मिलने के लिए जाती है। समाज मे यह भी चर्चा है कि जिस दिन इसके भाईयो को इसके प्रेम—प्रसग के बारे मे ज्ञात हो जायेगा, वह दिन इसके जीवन का अन्तिम दिन होगा। उस प्रेम कहानी के बीच—बीच मे पुष्पा ने गरिमा से कई बार वचन लिया कि वह इस बात को अपने तक ही सीमित रखेगी, किसी को नही बतायेगी कि पुष्पा ने श्रुति के विषय मे कोई चर्चा की थी। गरिमा ने पुष्पा का यह निवेदन सहज स्वीकार कर लिया था और उसे विश्वास दिलाया था कि वह इस विषय मे किसी से कुछ नही कहेगी, किन्तु उसको स्वय पर सदेह था कि वह अपने वचन का पालन कर सकेगी! अपनी कहानी के अन्त मे पुष्पा ने बड़े विश्वास के साथ कहा—

प्रभा तो पढ़ी—लिखी समझदार है। वह ऐसा कुछ काम नही कर सकती, जिससे उसका या उसके परिवार का अहित हो। इसलिए उसने तुम्हारे घर पर आना छोड़ दिया, पर तेरी ननद ? उसे ना अपनी चिन्ता ना अपने परिवार की मान—मर्यादा की फिकर !... यह ठहरी बड़े बाप की बेटी ओर प्रभा बेचारी बिना बाप की बेटी है। उसको तो एक—एक कदम फूँक—फूँक कर रखना पड़ता है !

बिना बाप की ? यह क्या ? प्रभा के पिताजी नही है ? गरिमा को पुष्पा से यह जानकर एक झटका—सा लगा कि प्रभा बिना बाप की लड़की है। वह सम्मोहित—सी होकर प्रभा के सघर्षशील व्यक्तित्व के विषय मे सोचने लगी। उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ा— यथा नाम तथा काम ! दुनिया जिस लड़की को बेचारी और बिना बाप की कहकर दया की पात्रा घोषित करने का प्रयास करती है, वह एक ओर सूर्य की किरणो के समान अज्ञानता के अँधेरे को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील है, तो दूसरी ओर चन्द्रमा की शीतल किरणो के समान अपने परिवार और समाज को अपने सौम्य व्यवहार से शीतलता प्रदान करती रहती है। उसमे रूढ़ियो को तोडने का साहस है, साथ ही नारीत्व को धारण करके सृष्टि को सद्‌मार्ग पर ले चलने की क्षमता भी है। गरिमा को सोच मे डूबी हुई देखकर पुष्पा असमजस—भाव से युक्त होकर बोली— तुझे नही पता, प्रभा बिना बाप की है ?

पुष्पा का प्रश्न सुनकर जैसे गरिमा का सम्मोहन टूटा था, वह कुछ भी उत्तर नही दे पायी, केवल चौककर पुष्पा की ओर देखने लगी। गरिमा को चुपचाप अपनी ओर घूरते हुए देखकर उसने पुनः कहना आरम्भ किया—

प्रभा को चाहे छोटे खानदान की कहो, चाहे खरे खानदान की कहो, पर सारा कुनबा पढ़ा—लिखा है। ना किसी से लड़ाई—झगड़ा, ना किसी से बैर—भाव ! अपने कुनबे की मिलती—जुलती प्रभा है। इसके बाप के नानके का असर है ये भलाई, नही तो इस गाँव मे तो कोई पढ़ाई—लिखायी की कदर नही करता। पर, सारी भलाई बेकार गयी! उसकी भलाई ही ले मरी उसको ! बेचारा रघुवीर... ! खानदान भले ही खोटा है, पर रघुवीर का सारा परिवार खरा है !

क्या हो गया था प्रभा के पिता को ? बीमार थे ? और तू खानदान को खरा—खोटा क्यो कह रही है ? खानदान परिवार के लोगो से बनता है, जब परिवार खरा है, तो खानदान खोटा क्यो है? गरिमा ने एक ऐसा प्रश्न किया, जो उसके मस्तिष्क मे आज पहली बार उठा था। अपने पिता के घर उसने अनेक बार खानदान के विषय मे चर्चा सुनी थी, पर इस विषय मे गम्भीरतापूर्वक कभी नही सोचा था। उसके प्रश्न को सुनकर पुष्पा ने कहा—

बड़ी लम्बी कहानी है इस खानदान की, पर मै तुझे इतना बता रही हूँ कि प्रभा दसो के खानदान से है और तू बिसो के खानदान से है।

दसो और बिसो से क्या आशय है तेरा ? गरिमा ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।

बहुत ज्यादा तो मुझे नही पता है, पर इतना सुना है कि इस खानदान मे बहुत बरस पहले इनके बाबा—पड़बाबा (दादा—परदादा) ने गैर—बिरादरी की औरत घर मे बिठा ली थी। बस, तभी बिरादरी ने उसका हुक्का—पानी बन्द कर दिया और ये दसे हो गये।

इतनी—सी बात से कोई आदमी बिरादरी से बाहर कैसे किया जा सकता है ? कोई आदमी किसको अपना जीवन—साथी बनाना चाहता है, यह उसका अपना अधिकार है। बिरादरी का हस्तक्षेप किसी के व्यक्तिगत जीवन मे उचित है क्या ?

सुना तो ऐसा भी है कि इस खानदान मे कोई डिप्टी सहाब हुए थे, कई बार उन्होने अपनी बिरादरी के आस—पास के सभी गाँवो की दावत करके अपना हुक्का—पानी बिरादरी मे मिलाने की गुहार लगायी थी, पर बिरादरी की पचायत मे उसकी बात मानी नही गयी थी। डिप्टी सहाब ने दावत की थी, तो बिरादरी के सभी लोगो ने खायी होगी ?

हाँ, सभी ने खाया—पीया होगा दावत मे, क्योकि वहाँ तो पक्का खाना परोसा जाता है ना !

पक्का और कच्चा कुछ नही होता, पुष्पा ! किसी व्यक्ति को बिरादरी से बाहर कर दिया, केवल इस बात का दड देने के लिए कि उसने अन्तर्जातीय विवाह किया था। और जब वह इसी आशय के लिए भोज का आयोजन करता है, तब सारा बिरादरी समाज उसका भोज निमत्रण स्वीकार करके भिन्न—भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यजन ग्रहण करता है। पेट—भर भोजन करने के बाद अब बिरादरी तृप्त हो गयी, तब पचायत को सुध आती है कि भोज—निमन्त्रण का आशय स्वीकार करने योग्य नही है ! कितना अस्पष्ट नियम है !

इसमे तो मै कुछ नही कह सकती ! ‘छोटा मुँह और बडी बात' मै कैसे कहूँ ! पुष्पा ने कहा।

हाँ, पुष्पा ! प्रभा के पूर्वजो की कहानी तो बड़ी रोचक प्रतीत होती है। इसके बारे मे उन्ही से पूछना पड़ेगा ! अपने समाज की परम्परा का ज्ञान भी हो जायेगा और प्रभा के पारिवारिक इतिहास के विषय मे भी !

गरिमा से बाते करते—करते पुष्पा को समय का बोध ही न रहा था। उसने देखा, सूर्य ढल चुका है। गरिमा को भी शाम के भोजन आदि की तैयारी करनी थी, इसलिए पुष्पा ने उससे विदा ली और चली गयी। परन्तु गरिमा ने मन मे प्रभा के परिवार का इतिहास जानने की उत्सुकता थी, घर के काम मे भी आज उसका मन नही लग रहा था। अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वह पति आशुतोष के लौटने का इन्तजार नही करना चाहती थी। उसमे आज इतना धैर्य नही था कि समाज—बिरादरी के प्रतिबन्धो पर तथा बिरादरी के दसे—बिसे नामक विभाजन पर अपने मस्तिष्क मे उठने वाले प्रश्नो के लिए स्थगित कर दे। अपनी उत्सुकता के वशीभूत होकर उसने निश्चय किया कि आज ही अपनी सास से इस विषय चर्चा करेगी। अपने निश्चय के अनुरूप वह अपनी सास के पास गयी और अत्यन्त विनर्मतापूर्वक मधुर शब्दो मे आत्मीय भाव से बोली—

माँ जी, पुष्पा कह रही थी कि प्रभा का परिवार—खानदान अच्छा नही है, वे लोग दसे है ! प्रभा वैसे तो पढी—लिखी सुशील लड़की है, पर मै आपसे जानना चाहती हूँ कि उसका परिवार कैसा है ? गरिमा की आत्मीयता देखकर उसकी सास आत्मविभोर हो गयी। बहू को अच्छे—बुरे खानदान के विषय मे बाते करते हुए देखकर सास को प्रसन्नता भी हो रही थी और आश्चर्य भी हो रहा था। उन्हे आश्चर्य हो रहा था कि सदैव जाति—व्यवस्था, छूआछूत का विरोध करने वाली उनकी बहू अचानक दसे—बिसे के प्रश्न मे कैसे उलझ गयी है ? जो भी कारण रहा हो, यह प्रसन्नता का विषय था कि देर से ही सही, बहू सही रास्ते पर चल पड़ी थी। अर्थात्‌ गरिमा की सास को इस बात की प्रसन्नता थी कि उनकी बहू छोटे—बडे, खरे—खोटे खानदान के अन्तर को समझने लगी है और समझने का प्रयास कर रही है।

गरिमा के निवेदन को प्रसन्नचित्‌ से स्वीकार करके उसकी सास ने कहा—

पिरभा का घर—खानदान पहले सै इ गिरा हुया है, न्यु इ तो मैन्नै उस लौडिया का तेरे धोरै आणा छुडवाया हा ! पिरभा के बाबा हर पाँच भैया हे। इसका बाप उण पाँच्चो मै सब सै छोट्‌टे की औलाद हा इसका जो सबसे बड़ा बाब्बा हा, ऊ ऐसा भाड़ खाणे वाला हा, अपणी जमीन—जायदात सारी बेच खायी, अब बालक कहाँ सै पालै। ऐसी हालत देखकै आसू के बाब्बा नै उनकू सरन दी। आसू की दाद्‌दी आसू कू जन्म देकै रामजी कू प्यारी होगी ई, तो पिरभा के बाप की ताई उण की रोट्‌टी सेक देवैई अर घर का और सारा काम बी करै ई, बदले मे ऊ अपणे घर का सारा खर्चा य्‌ही से चलावै ई। अब मरद जात की तू जाणै है, कोई बालक तो तू है नी ! आज तक किसी मरद का रोट्‌टी—रोट्‌टी मै गुजारा हुया है ? अर ऊ बी जब, जब घर मै एैसी औरत हो, जिसके घर का सारा खर्चा ऊ अपणी जेब सै कर रा हो !

हाँ, माँजी आप बिल्कुल सही कह रही हो ! प्रभा की दादी खाना कहाँ बनाती थी, अपने घर मे या यहाँ आकर ? गरिमा ने सहजता से प्रश्न उठाया।

अपणे घर काँहे कू बणावै ई ! सारा कुणबा यही पड़ा रहवै आ, अर यही खावै आ ! मेरे भिया पिच्छे तक यू ई हाल रह्‌या उनका ! कई साल मै जाकै छुटकारा मिला हा मुझै !

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