Dahleez Ke Paar - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

दहलीज़ के पार - 12

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(12)

गरिमा का परीक्षा—फॉर्म भरा जा चुका था। उसने परीक्षा मे अच्छे अक प्राप्त करने के लिए अध्ययन आरम्भ कर दिया था। गरिमा चाहती थी कि श्रुति के अध्ययन मे भी वह उसकी यथासम्भव सहायता करे, परन्तु, श्रुति को गरिमा की सहायता स्वीकार्य नही थी। वह अपनी पढ़ाई पुनः आरम्भ करने के विषय मे उससे किसी प्रकार की कोई बातचीत नही करना चाहती थी। न ही वह इस रहस्य को खोलना चाहती थी कि माँ का नकारात्मक उत्तर पाने के बाद भी उसने प्रभा के भाई अथर्व की सहायता से विद्यालय मे नामाकन कराया था और अब वह परीक्षा की तैयारी कर रही है। उसे भय था कि यदि गरिमा को उसकी शिक्षा पुनः आरम्भ करने तथा परीक्षा की तैयारी करने के विषय मे पता चला, तो वह अवश्य ही उसका रहस्य माँ के समक्ष खोल सकती है और ऐसा होने पर वह अपनी परीक्षा नही दे पाएगी। यद्यपि गरिमा को इस विषय मे प्रभा से जानकारी मिल चुकी थी, लेकिन श्रुति इस बात से पूर्णतः अनभिज्ञ थी। वह चाहती भी नही थी कि श्रुति को इस विषय मे पता चले। वह जानती थी कि यदि श्रुति को यह ज्ञात हुआ कि प्रभा ने उसकी शिक्षा के विषय मे गरिमा को सब कुछ बता दिया है, तो श्रुति न केवल प्रभा को विश्वासघाती समझने लगेगी, बल्कि वह उससे तथा उसके भाई अथर्व से अपनी पढ़ाई मे सहयोग लेना भी बन्द कर देगी।

समय अपनी गति से बीतता रहा। धीरे—धीरे गरिमा का बेटा तीन महीने का हो गया था और उसकी परीक्षा भी निकट आ गयी थी। गरिमा की माँ अब तक कई बार बेटी को अपने घर मँगाने का प्रयास कर चुकी थी कि वे अपने दौहित्र को देखना चाहती है किन्तु आशुतोष की माँ उसे एक क्षण के लिए भी अपनी आँखो से दूर नही करना चाहती थी। गरिमा की परीक्षा की तिथि निकट आते देख आशुतोष ने माँ से कहा कि गरिमा की माँ ने अनेक बार कहलवाकर भेजा है कि वह अपनी बेटी तथा दौहित्र को देखना चाहती है। अब चूँकि गरिमा की परीक्षा निकट है, इसलिए उसे मायके भेजने की तैयारी कर दे, वह स्वय उसे वहाँ छोड़ आयेगा और कुछ समयोपरात वह उसको स्वय जाकर वापिस ले आएगा। आशुतोष की माँ बेटे के आग्रह को अस्वीकार नही कर पाती थी। उन्होने तत्काल गरिमा को उसके मायके भेजने की स्वीकृति दे दी और उसको भेजने की तैयारियो मे जुट गयी, क्योकि गरिमा बेटे के साथ पहली बार मायके जा रही थी।

यह पता चलने पर कि गरिमा परीक्षा देने के लिए मायके जा रही है और माँ उसको भेजने की तैयारी बहुत उत्साह से कर रही है, श्रुति का असन्तोष चरम पर पहुँच गया। उसने अपना असन्तोष प्रत्यक्षतः प्रकट तो नही किया, परन्तु परोक्ष रूप से उसने अपने परिवार के प्रति विद्रोह आरम्भ कर दिया था। अब वह अक्सर दिन—भर घर से बाहर रहने लगी थी। माँ के डाँटने पर वह सदैव मौन धारण कर लेती थी और अगले ही क्षण माँ का उल्लघन करके घर से निकल जाती थी, बिना किसी से कुछ बताये कि वह कहाँ जा रही है ? और कब तक वापिस लौटेगी ? माँ उसके इस व्यवहार से खिन्न थी ; चिन्तित थी, लेकिन चुपचाप उसे सहन करने के अतिरिक्त उन्हे ऐसा कोई उपाय नही सूझ रहा था, जिससे श्रुति के अनियन्त्रित व्यवहार को सुधारा जा सके और उसे उचित राह पर लाया जा सके।

बेटी के अनपेक्षित व्यवहार के कारण माँ अत्यधिक उदास रहने लगी थी और उन्हे अकेलापन सताने लगा था। आशुतोष ने जब माँ की उदासी देखी, तो वह गरिमा को वापिस ले आया क्योकि गरिमा की परीक्षा आरम्भ होने मे अभी कुछ समय शेष था। गरिमा के वापिस आने पर माँ बहुत प्रसन्न हो गयी थी। उन्होने उसके आते ही घोषणा कर दी कि अब वे बहू को परीक्षा देने के लिए उसे उसके मायके नही भेजेगी। अपनी घोषणा के पक्ष मे उन्होने तर्क दिया कि उनकी बहू जितनी पढ़ी—लिखी है, घर चलाने के लिए उतनी पढ़ाई पर्याप्त है। बहू को अधिक पढ़ाने की इसलिए भी आवश्यकता नही है क्योकि उन्हे बहू से नौकरी नही करानी है। माँ की यह घोषणा एक ओर श्रुति को प्रसन्नता प्रदान कर रही थी, तो दूसरी ओर, गरिमा को अपनी परीक्षा छूटने का भय सताने लगा था कि माँ उसे परीक्षा देने की अनुमति प्रदान करेगी या नही ?

गरिमा के मायके से लौटने पर उससे भेट करने के लिए प्रभा आयी, तो उसने गरिमा से बताया— श्रुति परीक्षा की तैयारी के चलते अथर्व के बहुत निकट आ रही है। अथर्व और श्रुति के बीच बढ़ती घनिष्ठता की चर्चा समाज भी होने लगी है, जिससे माँ बहुत चिन्तित है ! गरिमा ने प्रभा द्वारा कही गयी सूचना की कोई प्रतिक्रिया नही की, परतु वह जानती थी कि उसकी माँ की चिन्ता व्यर्थ नही है। श्रुति और अथर्व के परस्पर घनिष्ठ सम्बन्धो की चर्चा एक बार बहुत महीने पहले वह पुष्पा से सुन चुकी थी। प्रभा से आज उसी बात को दोबारा सुनकर उसे विश्वास हो गया था कि पुष्पा का कथन मिथ्या नही था। अतः गरिमा अब इस विषय पर कोई बात नही करना चाहती थी। उसने सायास विषय को बदलते हुए अपने मायके मे व्यतीत किये गये अपने श्रेष्ठतम क्षणो पर बाते करना आरम्भ कर दिया, जबकि प्रभा विस्तार से श्रुति और अथर्व के विषय मे बाते करने का प्रयास कर रही थी, ताकि उस गभीर समस्या के गभीर परिणाम से अपने परिवार को बचा सके।

प्रभा के प्रयास के बावजूद गरिमा ने उस विषय पर बात नही की। वह अपने विषय मे ही बात करना चाहती थी, क्योकि अभी उसके पास इतनी शक्ति और अधिकार नही है कि वह उसकी समस्या का समाधान कर सके, उसने यह बात प्रभा के समक्ष शब्दो के बिना ही स्पष्ट कर दी। प्रभा ने गरिमा की मुख—मुद्रा देखकर उसकी विवशता का अनुमान करके अपना आग्रह टाल दिया और उसकी बाते ध्यानपूर्वक सुनने लगी। गरिमा ने प्रभा से बताया कि वह अपनी माँ से भेट करने के पश्चात्‌ अपनी मौसी के घर वजीराबाद गयी थी। वहाँ रहते हुए उसकी भेट महिलाओ के हितो की रक्षा करने वाली कुछ ऐसी समाज सेविकाओ से हुई थी, जो ‘महिला मच' नामक सस्था के अतर्गत सगठित होकर महिलाओ को उनके अधिकारो के प्रति जाग्रत करती है और आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता भी करती है। ‘महिला मच' नामक उस सस्था की अध्यक्षा ‘विजय लक्ष्मी' एक उदार, साहसी तथा कर्मठ महिला है, जो ‘महिला मच' का निरन्तर विस्तार करके नित्य नये प्रतिमान स्थपित कर रही है।

गरिमा कहती रही और प्रभा चुप बैठकर सुन रही थी। जब क्षण—भर के लिए गरिमा बोलते—बोलते रुकी, तब प्रभा ने मुस्कराकर उसकी ओर देखते हुए बताया—

विजय लक्ष्मी का एक बेटा है, जिसका नाम विनय है। विनय अथर्व का मित्र है और प्रायः उसके साथ घर पर आता रहता है। एक क्षण मौन होकर प्रभा ने अपनी बात आगे बढ़ायी— विनय और मै एक—दूसरे से प्रेम करते है। पहले वह कभी हमारे घर नही आया था। किन्तु पिछले वर्ष, जिस वर्ष मैने बी.ए. फाइनल की परीक्षा दी थी, तब मै आइ.ए.एस. की कोचिग के लिए अथर्व के साथ दिल्ली गयी थी। वही अथर्व को विनय मिल गया और वह हमे अपने घर ले गया। विनय की माँ मुझे अपने घर देखकर पहले तो मुझे आश्चर्य से घूरती रही, किन्तु अगले दिन जब हम वहाँ से विदा लेकर चले, तब उन्होने अथर्व से कहा कि वह मुझे अपने घर की बहू बनाना चाहती है, यदि मेरे परिवार वालो को कोई आपत्ति न हो और मै विनय के साथ विवाह करने के लिए तैयार हो जाऊँ ! बस, तभी से विनय हमारे घर आने—जाने लगा है और कई बार उसकी माँ विजय लक्ष्मी भी घर पर आ चुकी है।

प्रभा और विनय की कहानी गरिमा को रोचक लग रही थी। साथ ही उसको आश्चर्य हो रहा था कि जिस विजय लक्ष्मी के साथ मात्र एक—दो मिनट की भेट करके वह इतनी उत्साहित हो रही है, प्रभा उसकी पुत्रवधू बनने जा रही है ! प्रभा से गरिमा ने ‘महिला मच' के विषय मे अन्य बहुत—सी बाते की और अनेक प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त की, ताकि उनसे पुनः भेट करके वह भी उस मच की सदस्या बन सके। बाते करते—करते गरिमा को अचानक एक झटका—सा लगा, वह एक क्षण के लिए रुकी, जैसे उसे कुछ याद आ रहा था। धीरे—धीरे उसके स्मृति—पटल पर उसके महाविद्यालयी जीवन की एक घटना का चित्र उभर आया। उसने प्रभा से पूछा— विनय क्या कर रहा है ? मेरा आशय है उसकी शिक्षा कहाँ से हुई है ? गाजियाबाद से हुई है ?

हाँ, गाजियाबाद से ही हुई है ! पर तुम्हे कैसे पता है यह सब ?

क्योकि विनय नाम का एक लड़का मेरे कॉलिज मे भी पढ़ता था ! मेरा अनुमान है यह वही विनय हो सकता है ! इस बार जब वह तुम्हारे घर आएगा, तब उसे लेकर यहाँ आना, मै उसे पहचान लूँगी!

नही—नही ! यह सम्भव नही है ! आप नही जानती कि गाँव वालो ने मुझे उसके साथ इस प्रकार आते—जाते देख लिया, तो कितना बवण्डर मच जाएगा। अभी तो वह अथर्व के साथ रहता है। सबको यही पता है कि वह अथर्व का मित्र है। मेरे और विनय के सम्बन्ध मे किसी को कुछ ज्ञात नही है अभी, कि हमारा विवाह एक—दूसरे के साथ लगभग तय हो चुका है।

ठीक है, तुम मुझे विजय लक्ष्मी के घर का पता दे देना और फोन नम्बर भी। मै जब अपनी मौसी के घर जाऊँगी, तब उनके साथ जाकर विजय लक्ष्मी और विनय से भेट कर लूँगी।

गरिमा ने प्रभा से विनय के घर का पता तथा उनका फोन नम्बर ले लिया। उसने निश्चय कर लिया था कि वह उस ‘महिला मच' की सदस्या बनकर महिलाओ के हितो की रक्षा अवश्य करेगी। उसके मस्तिष्क मे अपने निश्चय के साथ—साथ एक प्रश्न और उठने लगा—

“जो महिला स्वय अपने हितो की रक्षा नही कर पा रही है ; अपने हितो की रक्षा के लिए कभी नही लड़ी है, बल्कि हर कदम पर समझौता करती रही है, वह दूसरी महिलाओ के हितो की रक्षा करने के लिए कैसे लड़ पाएगी ? क्या ‘महिला मच' कदम—कदम पर अपने जीवन मे दूसरो के निर्णयो और कार्य—व्यवहारो से समझौता करने वाली महिला को अपने मच की सदस्यता प्रदान करेगा ? गरिमा के मस्तिष्क मे यह प्रश्न प्रबल होता जा रहा था। अपने नकारात्मक उत्तर के साथ कि स्त्रियो के अधिकारो के लिए लड़ने वाली सस्था मे उस जैसी समझौतावादी—कायर लड़की को स्थान मिल सकता है ? नही, यह कठिन है ! बहुत कठिन है ! उसके प्रश्न के साथ ही उसका मस्तिष्क उत्तर भी प्रस्तुत कर रहा था, लेकिन उसे हतोत्सित और निराश करने वाला उत्तर।

तभी, उसकी चेतना से एक आशामय स्वर फूट पड़ा जैसे घने काले बादलो के बीच सूर्य की किरण फूट पड़ी हो— कठिन है, असम्भव तो नही ! अधिकारो के सघर्ष की नीव वही से शुरु होती है, जहा अधिकारो का हनन होता है। जो महिला इस यथार्थ को भोग चुकी है, उसे ही अधिकारो के सघ्ार्ष मे शामिल नही किया जाएगा, तो वह मच महिलाओ के अधिकारो की रक्षा करने के लिए नही हो सकता, बल्कि मिथ्या प्रदर्शन करके राजनीतिक—सामाजिक शक्ति बटोरने का फडा है, पाखण्ड है, इससे अधिक कुछ नही !

गरिमा के चित्‌ मे विचारो का द्वद्व चल रहा था। विचारो मे डूबती—उतराती हुई वह यह भी भूल गयी थी कि प्रभा उससे भेट करने के लिए आयी है और उसके निकट बैठकर कुछ कह रही है। प्रभा को वहाँ बैठकर बाते करते हुए पर्याप्त समय बीत चुका था। उसके घर मे उसकी माँ प्रतीक्षा कर रही होगी और विलम्ब होने पर उसकी चिन्ता करेगी, यह सोचकर प्रभा ने सोचा कि अब उसे घर जाना चाहिए। उसने गरिमा से जाने की औपचारिक अनुमति माँगी, किन्तु गरिमा अपने विचारो मे खोयी हुई थी। कुछ समय तक प्रभा प्रतीक्षा करती हुई मौन बैठी रही कि कब गरिमा अपनी वैचारिक यात्रा पूरी करके वापिस लौटे और वह विदा लेकर अपने घर जाए। वह अपने घर जाने मे अधिक विलम्ब नही करना चाहती थी। अब प्रतीक्षा करना उसे उचित नही लगा ,इसलिए गरिमा को विचारमग्न अवस्था मे ही छोड़कर वह वहाँ से चली गयी। गरिमा को तब भी यह सुध नही थी कि उसके पास कोई बैठा था, जो अब उठकर चला गया है।

प्रभा के जाने के पश्चात्‌ गरिमा अपने विचार द्वद्व से तब बाहर आयी, जब उसका बेटा बिट्‌टू अचानक उठकर रोने लगा। सामान्यतः बिट्‌टू पूरी नीद से जागने पर कभी नही रोता था। वह अपने घर मे ऊँचे स्वर मे हो रहे वार्तालाप को सुनकर शायद डर गया था और उसकी नीद पूरी होने से पहले ही टूट गयी थी, इसलिए उसने रोना आरम्भ कर दिया था। गरिमा ने शीघ्रतापूर्वक उठकर बिट्‌टू को चुप कर दिया, तत्पश्चात्‌ उसका ध्यान घर मे चल रहे वाद—विवाद की ओर गया। गरिमा ने देखा, श्रुति भी वही पर खड़ी थी, जहाँ वाद—विवाद चल रहा था। उसने अनुमान लगाया कि उस वाद—विवाद की केद्र बिन्दु श्रुति हो सकती है ! उसका अनुमान सत्य था। प्रशान्त ने डाँटकर श्रुति से पूछा था कि वह घर से बाहर बिना बताए इतने अधिक समय तक क्यो और कहाँ रहती है ? श्रुति ने अत्यन्त कटु शैली मे उसकी उपेक्षा करके माँ की ओर देखते हुए उत्तर दिया—

मै पेपर देणै गयी ई ! अर पेपर दो—चार मिनट मै पूरा ना होत्ता ऐ, पूरे तीन घटे लगै ऐ पेपर पूरा करणे मै !

पेपर ? कैसा पेपर देणै गयी ई तू ? अर कहाँ गई पेपर देणै? माँ ने आश्चर्यचकित होकर एक साथ कई प्रश्न कर डाले।

पढ़ाई के पेपर ! दसवी की पढ़ाई के पेपर ! श्रुति ने निर्भय होकर कहा।

तू किससे बूझ कै गई ई पेपर देणे कू ? मैन्नै नाय करी ई ना तुझे आग्गै पढ़ाणे कू ! अर तू फेर बी ...!

हाँ, फेर बी मै पढ़री ऊँ ! अर आग्गै बी पढूँगी ! जब भाब्बी पढ़ सकै, तो मै क्यूँ नी पढ़ सकती ? श्रुति का असन्तोष फूट निकला। उसका विद्रोह—दमन करने के लिए प्रशान्त ने मोर्चा सम्हालते हुए कहा—

तू अब घर सै बाहर लिकड़ कै दिखाइये, जिन्दी जमीन मै गाड़ द्‌यूँवा तुझै बी अर तेरे हिमायतियो कू बी, जो तुझै उकसारे—ऐ! बेटे का क्रोध देखकर माँ की चिन्ता बढ़ गयी। परिवार मे परस्पर सामजस्यपूर्ण वातावरण बनाये रखने केे लिए आज श्रुति के विद्रोह को शान्त करना नितान्त आवश्यक था, परन्तु प्रशान्त तथा श्रुति शान्तिपूर्वक एक—दूसरे से सवाद कर सके, यह बिल्कुल सभव नही था। घर का बेटा होने के नाते प्रशान्त को आज तक केवल पुरुषो की भाँति सोचना और परम्परा प्रदत्त अधिकारो के अनुरुप निर्णय लेना सिखाया गया था। माँ के रूप मे, बहन के रूप मे या बेटी के रूप मे स्त्री की भी कुछ आकाक्षाएँ होती है; कुछ अपेक्षाएँ होती है अथवा एक सामान्य पुरुष के समान एक सामान्य स्त्री की भी कुछ सामान्य इच्छाएँ होती है, इस विषय पर उसने कभी विचार नही किया था। उसे उसके परिवार, समाज तथा गाँव मे भी इस विषय मे कुछ नही सिखाया गया था। इसलिए श्रुति द्वारा किये जा रहे विद्रोह का न तो वह अनुमान कर सकता था, न वह उसके विद्रोह को शान्त करने का यथोचित सफल उपाय कर सकता था।

माँ श्रुति के विद्रोह का कारण भी जानती थी और उपाय भी जानती थी, क्योकि एक स्त्री होने के नाते वे परिवार और समाज के उस दृष्टिकोण की भुक्तभोगी थी, जिसने श्रुति को विद्रोही बनने के लिए विवश किया था। फिर भी, साठ वर्ष तक उस समाज—सस्कृति मे जीवनयापन करते हुए समाज की रूढ़ियाँ अब माँ के मनोमस्तिष्क मे पूर्णरूपेण रच—बस गयी थी। उस समाज के रूढ़—नियमो का अपने जन्म लेने से आज तक पालन करते हुए वे उनकी इस सीमा तक आदी हो चुकी थी कि उन्हे श्रुति का विद्राह अनुचित लगने लगा था। वे उसके विद्रोह का कारण जानती थी और यह भी जानती थी कि यदि उसकी माँग को माँ का समर्थन प्राप्त हो जाए, तो सभवतः उसके विद्रोही दृष्टिकोण मे कुछ परिवर्तन आ जाएगा। परन्तु अपनी मान—मर्यादा को बचाने की हठ मे उन्हे श्रुति की हठ न्यायोचित प्रतीत नही हो रही थी। वे किकर्तव्यविमूढ़ होकर कभी प्रशान्त की ओर देख रही थी, कभी श्रुति की ओर विवशता मिश्रित क्रोधपूर्ण दृष्टि से देखने लगती थी। वे निर्णय नही ले पा रही थी कि घर मे सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए क्या करे ? माँ अभी सोच ही रही थी, कोई निर्णय नही ले पायी थी तभी प्रशान्त पुनः चीखा—

उस ओच्छे पहलाद की लौडिया के अलावा आज तक इस गाँव की कोई लौडिया गई ऐ दूसरे गाँव मै पढ़नै ? इस गाँव की तो छोड़ उस गाँव की बी कोई ना जात्ती ऐ उस स्कूल मै ! अर यू बणेगी कलट्‌टरनी पढ़—लिखकै !

ओ परसान्त ! बस ! अब चुप्प हो जा तू, भोत बाल लिया अब तक तू ! अब से आग्गै तैन्नै एक बी बोल लिकाड़ा, तो तू ई जाणेगा! यू पढ़णे कू ई तो गई ई, कोई ऐब करणे तो गई ना ई दूसरे गाँव मै! तेरे पै चार साल मै दसवी पास ना हुई !, यू पढ़णा चाहवै, तो तेरे पै क्यूँ जोर पड़रा ऐ ? मै इस घर की बड़ी ऊँ, मुझै इस घर की मरजाद तेरे सै जादै पियारी ऐ, पर मै सुरति की माँ बी ऊँ ! मरजाद की साथ—साथ मुझै अपणी बेट्‌टी की फिकर बी ऐ !

माँ ने प्रशान्त को डाँटकर चुप करते हुए धीरे—धीरे समझाने का प्रयास किया। उनके प्रत्येक शब्द मे और मुद्रा मे श्रुति के लिए समर्थन स्पष्ट था, इसलिए उन्होने सोचा था कि श्रुति के विद्रोही दृष्टिकोण मे सकारात्मक परिवर्तन आरम्भ हानेे लगेगा ! अपने हृदय मे इसी आशा को धारण करके उन्होने श्रुति की ओर देखा, तो वे निराश हो गयी। श्रुति अब भी उनकी ओर उसी प्रकार विद्रोही दृष्टि से देख रही थी, मानो कह रही हो कि उसे इस समर्थन पर विश्वास नही, क्योकि यह समर्थन वास्तविक नही है। यह समर्थन मिथ्या है, प्रदर्शन मात्र है उसका विद्रोह का दमन करने के लिए। श्रुति के पक्ष मे प्रशान्त को डाँटने का श्रुति पर अनुकूल प्रभाव नही दिखाई दे रहा था, किन्तु, प्रशान्त पर उसका प्रतिकूल प्रभाव स्पष्ट था। अभी तक उसने जितनी भी बाते कही थी, वे सब श्रुति के कार्य—व्यवहारो की सूचना के रूप मे थी, जिनके विषय मे परिवार के किसी भी सदस्य को जानकारी नही थी। प्रशान्त को आशा थी कि श्रुति के कार्य—व्यवहारो से अवगत होने के पश्चात्‌ माँ उस पर नियत्रण रखेगी। लेकिन माँ ने श्रुति का पक्ष लेकर उसे निराश कर दिया था, इसलिए वह भी अब माँ के विरुद्ध हो गया और क्रोधित होकर चेतावनी देते हुए उसने माँ से कहा—

तैन्नै यू अभी ना रोक्की, तो देख लीजे, किसी दिन बाप—दाद्‌दा की नाक कटवावेगी यू ! यू तो जैसे कलट्‌टरनी बणेगी, हमै पता ऐ, पर तू इसकू बाहर लिकड़णे की छूट देकै इतणी बिगाड़ देगी अक किसी दिन यू खानदान का नाम मट्‌टी मै मिलाकै किसी की साथ भाग जावैगी !

तो, तू कहा चाहवै है, मै इसै सन्दूक मै बन्द करके राक्खूँ ? यू लौडिया पढ़ लेगी, तो भाग जावेगी ! तू मुझै बता, पढ़ी—लिक्खी सब भाग्गै ई ऐ का ? तेरी भाब्बी बी तो पढ़ी—लिक्खी ऐ, ऊ तो ना भाग्गी आज तक ! उस बेगैरत मरद कू— तेरे भैया आसू कू चुपचाप सहन कर री ऐ ! पढ़ी—लिक्खी ना होत्ती, तो घर की इज्जत का कबाड़ा बना देत्ती अब तक ! माँ ने अपने पक्ष पर दृढ़ रहते हुए अपनी शैली मे प्रशान्त को शिक्षा का सकारात्मक पक्ष समझाया। प्रशान्त को शिक्षा का वह पक्ष स्वीकार्य नही था जो घर की बहू—बेटी के लिए स्वतत्रता का मार्ग प्रशस्त करे। उसने माँ के तर्क को अस्वीकार करने की मुद्रा मे माँ की ओर देखा और उपेक्षा भाव से वहाँ से लौटकर चलते हुए बोला—

अपणी इस गलती पै एक दिन सिर पकडकै पछतावेगी तू ! यह कहते हुए प्रशान्त वहाँ से चला गया। जाते—जाते वह ऊँची आवाज मे प्रतिज्ञा करते हुए गया कि वह तब तक कुछ नही बोलेगा, जब तक पानी सिर से ऊपर नही जाएगा, परन्तु सिर से ऊपर पानी गया, तो वह सहन नही करेगा और श्रुति को क्षमा नही करेगा।

प्रशान्त तथा माँ के बीच होने वाले वाद—प्रतिवाद से श्रुति के विद्रोह—भाव मे तत्काल कोई परिवर्तन नही हुआ था, परन्तु गरिमा के हृदय मे आशा का सचार अवश्य हो गया था। अब उसे आशा हाने लगी थी कि माँ उसकी परीक्षा देने मे बाधा नही बनेगी। माँ नही चाहती थी कि श्रुति का विद्रोह इतना प्रबल हो जाए कि वह अपनी माँ की आज्ञा का उल्लघन करने की आदी हो जाए और उनसे अपने जीवन की कोई भी बात छिपाए, जैसे कि इस समय उसने अपनी शिक्षा पुनः आरम्भ करने की बात छिपायी थी। इसलिए वे चाहती थी कि बेटी का विश्वास जीतने के पश्चात्‌ ही उसे समझाया जाए। तब तक उसका चित्‌ पूर्णरूपेण शान्त हो जाएगा, जो वह अपनी माँ की आज्ञा को सुन भी सकती है और उसका प्रसन्नतापूर्वक पालन भी कर सकती है। माँ की इसी सोच का लाभ गरिमा को मिलने की सभावना थी। बेटी को पढने की अनुमति देने के बाद वे बहू की पढाई बद करवायेगी, यह सोचना तर्कसगत नही था, क्योकि एक ओर गरिमा को उनके बड़े बेटे और उसके पति का समर्थन प्राप्त था, तो दूसरी ओर उसकी शिक्षा मे उसके पिता का पूर्ण समर्थन और सहयोग मिल रहा था। इतना होने पर भी गरिमा को चिन्ता थी कि पाँचवे दिन उसकी परीक्षा है, यदि आशुतोष ने माँ द्वारा की गयी घोषणा का पालन करना स्वीकार कर लिया, तो उसकी परीक्षा छूट जाएगी। उसको यह चिन्ता इसलिए भी थी, क्योकि जिस दिन माँ ने उसकी परीक्षा न देने सम्बन्धी घोषणा की थी, आशुतोष ने माँ का किचित मात्र भी विरोध नही किया था।

अगले दिन गरिमा ने देखा, श्रुति हाथ मे पुस्तक लिये हुए खड़ी थी और माँ उसे समझाने का प्रयास कर रही थी। आज श्रुति की आँखो मे उतना विद्रोह नही था, जितना आज से पहले था। वह चुप रहकर ध्यानपूर्वक माँ की बाते सुन रही थी, प्रत्युत्तर मे किसी शब्द या सकेत द्वारा माँ की बातो से अपनी सहमति व्यक्त नही कर रही थी, फिर भी, उसकी भाव—भगिमा से अनुमान लगाया जा सकता था कि माँ का समर्थन पाकर उसका चित्‌ शान्त था। उसके चित्‌ की शान्ति माँ के हृदय को भी शान्ति प्रदान कर रही थी। उन्होने श्रुति के सिर पर हाथ रखकर पढ़ाई मे सफल होने का आशीर्वाद दिया और एक बार पुनः घर की मान—प्रतिष्ठा का ध्यान रखने के लिए कहकर भेज दिया। श्रुति के जाने के बाद माँ से पूछने पर गरिमा को ज्ञात हुआ कि श्रुति परीक्षा देने के लिए गयी थी। माँ से श्रुति के परीक्षा के विषय मे सुनकर और उस दृश्य को स्मरण करके जब माँ ने अपनी बेटी को परीक्षा देने के लिए आशीर्वाद देकर भेजा था, गरिमा को बड़ा सुकून मिला था। गरिमा ने उसी समय अवसर गँवाये बिना माँ से अपनी परीक्षा—सम्बन्धी घोषणा को रद्‌द करने का विनम्र निवेदन करते हुए माँ के समक्ष एक लम्बा व्याख्यान दे डाला। उसने माँ से कहा—

शिक्षा से ही स्त्रियो को उचित—अनुचित का तथा करणीय—अकरणीय का ज्ञान हो पाता है। ज्ञान प्राप्त करके स्त्रियाँ किसी भी अनुचित कार्य—व्यवहार का विरोध कर सकती है और अपने प्रति अत्याचार के विरुद्ध लड़ सकती है।

गरिमा का लम्बा व्यख्यान सुनकर माँ एक बार पुनः भ्रम की स्थिति मे आ गयी। जो बाते गरिमा ने शिक्षा के प्रति माँ का समर्थन दृढ़ करने के उद्‌देश्य से कही थी, उन्ही बातो से माँ भ्रमित हो गयी थी। माँ सोच रही थी कि जिस विद्रोह को शान्त करने के लिए उन्होने श्रुति को परीक्षा देने की अनुमति दी हैै, यह शिक्षा उसी विद्रोह की आग मे घी का काम न कर दे। यदि ऐसा हुआ, तो वे कही मुँह दिखाने लायक नही रहेगी और उनका परिवार उन्हे कभी क्षमा नही करेगा ! गरिमा ने माँ की मनोदशा को भाँप लिया था। उसने माँ को पुनः समझाने का प्रयास किया कि शिक्षित होकर लड़कियाँ अपने परिवार का विरोध नही करती है। उन्हे परिवार की सदैव आवश्यकता होती है। वे केवल उन रूढ़ियो के प्रति विद्रोह करती है, जिनका सहारा लेकर समाज उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगाता है और अत्याचार करता है। माँ को गरिमा की बातो से कुछ विश्वास हो गया, तो उन्होने गरिमा को आश्वासन दिया कि वे उसकी परीक्षा मे किसी प्रकार की बाधा नही बनेगी, बल्कि यथासभव सहयोग करने के लिए तैयार है।

गरिमा अपनी परीक्षा के लिए माँ की अनुमति तथा सहयोग का आश्वासन पाकर प्रसन्न थी, किन्तु आशुतोष माँ की घोषणा के बारे मे सोच—सोचकर तनावग्रस्त था कि वह इस समस्या का समाधान वह कैसे करे ? वह सोच रहा था कि गरिमा की परीक्षा न देने का सीधा आरोप उस पर आयेगा। ऐसी स्थिति मे गरिमा के पिता स्वय आकर उसे ले जाएँगे और उसकी परीक्षा दिलाएँगे। यदि ऐसा हुआ, तो न केवल उसके दाम्पत्य—सम्बन्धो पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, बल्कि दानो परिवारो मे दूरी बन जाएगी और परस्पर प्रेम—विश्वास समाप्त हो जाएगा। और यदि वह माँ का विरोध करके पत्नी की परीक्षा देने मे सहयोग करेगा, तो माँ असन्तुष्ट हो जाएगी ! अपनी इसी न्तिा मे डूबा हुआ आशुतोष गरिमा की परीक्षा के दिन से दो दिन पहले घर आया और अपनी सारी चिन्ता तथा द्वन्द्वात्मक मानसिक स्थिति उसके सामने प्रकट की। आशुतोष की चिन्ता और अन्तर्द्वन्द्व के विषय मे सुनकर गरिमा एक क्षण के लिए मौन हो गयी, तत्पश्चात्‌ कृत्रिम गम्भीरता का प्रदर्शन करते हुए आशुतोष से बोली—

पुरुषो की चतुराई मै भली—भाँति जानती हूँ ! सदियो से पुरुष अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए स्त्री को ही स्त्री के विरुद्ध करके उसका लाभ लेता रहा है। पुरुष सदैव से स्त्री को स्त्री के विरोध मे खड़ा करता है ; एक स्त्री को दूसरी स्त्री का प्रतिद्वन्द्वी बनाता है, जबकि वास्तविक शक्ति पर अपना अधिकार रखता है। परन्तु, इस परिवार मे अब ऐसा नही होगा ! यहाँ पर आपकी कपट—छल की नीति नही चलेगी ! जानते है क्यो ?

नही ! कुछ भी नही जानता मै! न ही मै समझ पा रहा हूँ, तुम क्या कह रही हो ?

आशुतोष की प्रश्न सूचक दृष्टि तथा कुछ न समझ पाने की भाव—भगिमा को देखकर गरिमा मुस्करा दी। उसने श्रुति की शिक्षा से सम्बन्धित तथा स्वय की परीक्षा के सम्बन्ध मे माँ के आश्वासन के विषय मे आशुतोष को विस्तारपूर्वक बता दिया। उसने आशुतोष के समक्ष अपनी आशा प्रकट करते हुए बताया कि माँ उसकी तथा श्रुति की शिक्षा मे अब भविष्य मे भी सहयोग करती रहेगी। गरिमा से यह जानकर कि माँ उसको परीक्षा देने के लिए भेजने को सहमत हो गयी है, आशुतोष ने चैन की साँस ली। उसने गरिमा द्वारा किये गए व्यग्य का उसी की शैली मे मुस्कुराकर उत्तर देते हुए कहा—

हम और हमारे पिताजी अपनी सत्ता पहले ही अपनी—अपनी पत्नियो को सौप चुके है, इसीलिए इतनी चिन्ता हो रही थी। आज पिताजी की या मेरी सत्ता होती, तो तुम्हे परीक्षा से वचित होने का भय नही सताता !

कुछ समय तक गरिमा तथा आशुतोष मे परस्पर हास—परिहास होता रहा। उसके बाद आशुतोष ने उससे कहा कि मायके चलने के लिए सारी तैयारी आज ही कर ले, ताकि प्रातः शीघ्र ही घर से निकलकर दोपहर से पहले अपने गतव्य—स्थान पर पहुँचा जा सके। आशुतोष का समर्थन मिलने के बाद गरिमा पूर्णतः निश्चित होकर अपना सामान तैयार करने लगी। मायके जाने के लिए सामान तैयार करते समय उसका उत्साह अपने चरम पर था— एक तो, मायके जाने की प्रसन्नता, दूसरा, परीक्षा देने के लिए सास तथा पति दोनो की सहमति मिलने की प्रसन्नता। प्रसन्नता के कारण उसकी काम करने की गति इतनी तेज हो गयी थी कि जिस काम को वह सामान्यवस्था मे एक घटे मे सपन्न नही कर पाती, वह काम आधे घटे मे पूरा हो चुका था।

अगले दिन प्रातः शीघ्र उठकर आशुतोष ने माँ से कहा कि गरिमा की परीक्षा दिलाने उसके पिता के घर छोड़कर आना आवश्यक है, इसलिए उसे भेजने की यथाशीघ्र तैयारी कर दे। माँ ने गरिमा को तैयार होने की आज्ञा दे दी और उसी दिन उसे उसके मायके भेज दिया।

मायके मे पहुँचकर गरिमा ने जाते ही परीक्षा की तैयारी आरम्भ कर दी थी, क्योकि अगले दिन से ही उसकी परीक्षा आरम्भ होने वाली थी। वह कठोर परिश्रम करके परीक्षाएँ दे रही थी, ताकि अच्छी श्रेणी के अक प्राप्त कर सके, परन्तु परीक्षाओ की तैयारी करते हुए भी उसके हृदय मे ‘महिला मच' की अध्यक्षा विजयलक्ष्मी तथा उनके बेटे से मिलने की इतनी तीव्र उत्कठा थी कि दिन मे कई बार अपनी माँ से मौसी के घर जाने की अनुमति माँग लेती थी। माँ उसे बार—बार एक ही उत्तर देती थी —

चली जाना, पहले तेरी परीक्षा तो हो जाएँ! परीक्षा समाप्त होने तक रुकने का उसमे धैर्य नही था। एक दिन उसने माँ से कहा कि परीक्षाओ के बीच मे उसका तीन दिन का अवकाश है। अवकाश के इन तीन दिनो मे वह मौसी के घर जाना चाहती है। माँ ने गरिमा की मौसी के घर जाने की इच्छा के विषय मे उसके पिता से कहा कि वह उसे उसकी मौसी के पास छोड़ आएँ या उनसे मिलाकर अपने साथ वापिस ले आएँ, परन्तु गरिमा के पिता ने सुझाव दिया—

गरिमा को वहाँ लेकर जायँगे, तो इसकी परीक्षा की तैयारी नही हो पायेगी और बिट्‌टू को भी व्यर्थ मे कष्ट होगा ! अब बिट्‌टू यहाँ के लोगो को थोड़ा—बहुत पहचानने लगा है, तो गरिमा पढ़ लेती है ! वहाँ जायेगी तो सारा दिन इसी को सम्हालने मे लगी रहेगी ! मेरी सलाह है, तुम कान्ता को फोन कर दो, वह स्वय यहाँ पर गरिमा से मिलने आ जायेगी।

पिता का परामर्श गरिमा तथा उसकी माँ के लिए आज्ञा के समान था। उनकी आज्ञा के बिना वह कान्ता मौसी के घर नही जा सकती थी, इसलिए माँ ने कान्ता मौसी को फोन करके अपने घर पर बुला लिया और गरिमा की विजयलक्ष्मी से मिलने की योजना टल गयी। किन्तु, गरिमा ने अपने मन—ही—मन निश्चय कर लिया था कि परीक्षाएँ सम्पन्न होने बाद वह कान्ता मौसी को साथ लेकर विजयलक्ष्मी के साथ भेट अवश्य करेगी। अपने इस निश्चय का थोड़ा—सा सकेत उसने मौसी को देते हुए उनसे आग्रह किया कि वह परीक्षा सम्पन्न होने के बाद अपने साथ अपने घर ले जाएँ, अन्यथा उसके पिता उसे कही भी जाने की अनुमति नही देगे। गरिमा ने अपनी मौसी से एक दिन हँसते हुए बताया था —

मौसी जी ! जब तक मेरा विवाह नही हुआ था, तब पिताजी कहते थे कि मै किसी दूसरे की धरोहर हूँ, मेरी सुरक्षा उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है ! अब, जबकि मेरा विवाह हो चुका है ; मै एक बेटे की माँ बन चुकी हूँ, तब भी ये मुझे कही पर आने—जाने नही देते है! अब कहते है कि बिट्‌टू पराया बच्चा है, इसे कुछ हो गया तो उत्तर देना भारी पड़ जायेगा ! आप ही बताइये, मौसी जी ! बिट्‌टू मेरा बेटा है, मै इसकी माँ हूँ, इस दुनिया मे मै इसके लिए जितना कष्ट उठाती हूँ और उठा सकती हूँ, कोई अन्य व्यक्ति मेरे अतिरिक्त इतना कष्ट बिट्‌टू के लिए उठा सकता है क्या ? फिर भी पिताजी इसे पराया कहते है, पर मै ऐसा नही मानती हूँ !

तू ठीक कहती है ! मौसी ने धीमे से हँसते हुए गरिमा का समर्थन किया।

मौसी जी, मै तो यह भी कहती हूँ कि विवाह करके ये लोग मुझे— परायी अमानत को, उसके मालिको को सौप चुके है और कहते है कि मुझ पर इनका कोई अधिकार नही है, तो अब मुझे कही पर जाने से क्यो रोकते है ? मेरी प्रत्येक बात के लिए कहते है कि पहले ससुराल वालो से, विशेषकर अपने पति से अनुमति लूँ, तभी ये मुझे सहयोग दे सकते है। ऐसा व्यवहार करते है ये मेरे साथ, जैसे कि मै एक जीती—जागती लड़की नही हूँ, कोई वस्तु हूँ, जिसका स्वय पर कोई अधिकार नही हो सकता है !

मौसी का समर्थन पाकर गरिमा ने अपने हृदय मे पिता के प्रति सचित सारी शिकायत कह डाली। गरिमा जब अपनी कान्ता मौसी से शिकायत कर रही थी, तब उसके पिता भी वही पर उपस्थित थे। बेटी की बातो को सुनकर वे धीरे—धीरे मुस्करा रहे थे, मानो वे कह रहे थे कि एक बेटे की माँ बन चुकी है, पर अभी तक बचपना नही गया है। यह सत्य भी था कि उनकी बेटी गम्भीर से गम्भीर विषय पर विचार कर सकती थी, किन्तु छल—कपट और चालाकी उसकी प्रकृति का अश नही थे।

गरिमा की इच्छानुसार कान्ता मौसी उसकी परीक्षा सम्पन्न होने तक उसके साथ अपनी बहन के घर पर ही रही। इन दिनो मे गरिमा का बेटा भी कान्ता मौसी से उसी तरह घुलमिल गया था, जैसे बचपन से अब तक गरिमा उनके साथ रहकर अपनी माँ को भूल जाती थी। धीरे—धीरे एक—एक करके गरिमा की सभी परीक्षाएँ समाप्त हो गयी, तो मौसी ने उसके पिता से आग्रह किया कि कुछ दिन के लिए गरिमा को वे अपने साथ अपने घर वजीराबाद ले जाना चाहती है। यह सुनकर गरिमा के पिता क्षण—भर के लिए मौन हो गये। वे नही चाहते थे कि गरिमा बिट्‌टू को लेकर अपनी ससुराल के अतिरिक्त कही भी जाए, इसलिए किकर्तव्यविमूढ—सी अवस्था मे आकर वे कान्ता मौसी के आग्रह को स्वीकार नही कर पा रहे थे। न ही उनके आग्रह को अस्वीकार ही कर पा रहे थे, क्योकि गरिमा को बचपन से आज तक कान्ता मौसी ने अपनी बेटी ही माना था और उसके प्रति स्वय माँ की भाँति दायित्व निर्वाह करती थी। गरिमा के पिता कोई निर्णय लेते, इससे पहले ही गरिमा हठ करने लगी कि वह कान्ता मौसी के साथ जाना चाहती है। बेटी की हठ से उसके पिता पिघल गये। उन्होने उसको मौसी के घर जाने की अनुमति दे दी, किन्तु दो दिन पश्चात्‌ ही उसे लौटने का भी निर्देश दे दिया। अपने पिता की अनुमति पाकर गरिमा ने माँ की अनुमति ली और उनका आशीर्वाद लेकर उसी दिन मौसी के घर के लिए प्रस्थान कर दिया।

अपनी मौसी के घर पहुँते ही गरिमा ने सर्वप्रथम विजयलक्ष्मी जी से टेलीफोन पर सम्पर्क करने का प्रयास किया। वह शाम तक बार—बार उनसे सम्पर्क करने का प्रयास करती रही, परन्तु सफलता नही मिली। टेलीफोन की घटी बजती रही, किन्तु फोन रिसीव नही हो सका और गरिमा का विजयलक्ष्मी से सम्पर्क सम्भव नही हो पाया। अपने प्रयास मे असफल होने के कारण गरिमा दिन—भर उदास रही। वह अनुमान नही कर पा रही थी कि विजयलक्ष्मी का फोन रिसीव क्यो नही हो रहा था। फिर भी उसने आशा का दामन नही छोड़ा। उसने निश्चय किया कि जब तक विजयलक्ष्मी का फोन रिसीव नही होगा, तब तक अपना प्रयास बन्द नही करेगी। एक बार उसने चाहा कि विनय के मोबाइल नम्बर पर सम्पर्क करके देखे। अगले ही क्षण उसकी चेतना का स्वर उभरा —

नही ! विनय से सम्पर्क करना उचित नही है। यह आवश्यक तो नही है कि यह वही विनय है, जो तुम्हारा सहपाठी था ! वह भी हो, तो भी, उससे सम्पर्क करने की आवश्यकता ही क्या है ? तुम्हे ‘महिला मच' की अध्यक्षा से भेट करके उस मच की सदस्यता प्राप्त करना है, कॉलिज की यादे ताजा करना तुम्हारा लक्ष्य नही है ! अपने अन्तःकरण की आवाज सुनकर गरिमा ने उस दिन विनय से सम्पर्क करने का प्रयास नही किया। उसने धैर्य धारण करके उस क्षण की प्रतीक्षा करना अपेक्षाकृत उचित माना, जब विजयलक्ष्मी जी उसका फोन रिसीव करेगी।

अगले दिन प्रातः लगभग नौ बजे गरिमा ने विजयलक्ष्मी जी से पुनः सम्पर्क करने का प्रयास किया। सयोगवश उस दिन वह अपने प्रथम प्रयास मे ही सफल हो गयी। गरिमा का फोन जैसे ही रिसीव हुआ, उधर से महिला स्वर सुनाई पड़ा — विजयलक्ष्मी स्पीकिग ! फोन पर विजयलक्ष्मी जी की आवाज सुनकर अपनी झिझक के कारण गरिमा तुरन्त कुछ नही बोल पायी। उधर से हैलो—हैलो, विजयलक्ष्मी स्पीकिग का स्वर आता रहा। गरिमा ने झिझकते हुए एक बार बोलने का प्रयास किया— ज्‌—जी—जी—जी ! तब तक सम्पर्क टूट चुका था। विजय लक्ष्मी जी ने कनेक्शन काट दिया था और गरिमा की उनके साथ कोई बात नही हो सकी। पाँच—सात मिनट तक गरिमा ने स्वय को सयत—सतुलित किया और प्रकृतिस्थ हो गयी। तत्पश्चात्‌ उसने पुनः विजय लक्ष्मी के साथ फोन पर सम्पर्क करने का प्रयास किया। इस बार भी उसका तुरन्त सम्पर्क हो गया।

सम्पर्क स्थापित होने पर गरिमा ने आत्मविश्वास के साथ अपना परिचय देकर उनसे भेट करने की इच्छा प्रकट की। विजय लक्ष्मी जी ने गरिमा को फोन करने के लिए धन्यवाद दिया और उसे बताया कि वह अभी घर से निकलने ही वाली है, क्योकि ‘गाधी भवन' मे ‘महिला मच' की पदाधिकारियो की एक बैठक है, जिसमे मच के भावी कार्यक्रमो के विषय मे चर्चा होगी। गरिमा के समक्ष उन्होने प्रस्ताव रखा कि यदि वह चाहे, तो गाधी—भवन मे आकर उनसे भेट कर सकती है। गरिमा ने तुरन्त ही उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसने काता मौसी से निवेदन किया कि वह भी उसके साथ गाध् ाी—भवन चले। मौसी ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार करते हुए तर्क दिया कि बिट्‌टू को साथ लेकर जाना उचित नही होगा, इसलिए गरिमा अकेली गाधी भवन चली जाए, वे घर मे रहकर उसके बेटे की देखभाल करेगी। गरिमा आज तक स्वतन्त्रतापूर्वक अकेली अपने भरोसे घर से बाहर निकली थी। आज कान्ता मौसी द्वारा अकेले जाने की छूट से वह उत्साहित थी, तो अपने दम पर लक्ष्य प्राप्त करने की चुनौती भी उसके समक्ष खड़ी थी, जिसके लिए वह साहस नही जुटा पा रही थी। गरिमा की मौसी ने उसकी इस मनोदशा को भाँप लिया। उन्होने उससे कहा कि यदि वह अकेली जाने का साहस नही कर पा रही है, तो पड़ोस मे ही रहने वाली ‘महिला मच' की सदस्या से सम्पर्क करके उसको अपने साथ लेकर जा सकती है। मौसी के इस परामर्श ने गरिमा की सारी समस्याओ का समाधान कर दिया था। उसने तुरन्त ही उस पड़ोसी महिला से सम्पर्क किया, जो महिला मच की सदस्या थी। उसको गाधी भवन मे हो रही बैठक की सूचना देकर गरिमा ने उससे निवेदन किया कि वह उनके साथ गाधी भवन जाना चाहती है, ताकि मच की अध्यक्षा से भेट कर सके और मच की सदस्यता प्राप्त कर सके। महिला ने गरिमा का निवेदन सहज स्वीकार करके निर्देश दिया क बैठक प्रायः दस बजे प्रातः प्रारम्भ हो जाती है, इसलिए तैयार होकर शीघ्र ही घर से निकलना उचित है, ताकि समय पर पहुँचकर बैठक मे सम्मिलित हो सके। उसके निर्देशानुसार गरिमा यथाशीघ्र घर से निकलकर तैयार हो गयी और ‘महिला मच' की उस सदस्या के साथ उचित समय पर गाधी भवन पहुँच गयी।

गाधी भवन मे पहुँचकर गरिमा के साथ जाने वाली मच की सदस्या ने उसका परिचय कराया। उस परिचय मे गरिमा के विचारो के, महिलाओ के हितो की रक्षा करने के लिए उसकी प्रतिबद्धता के और उसकी कर्मठता के विषय मे एक भी शब्द न कहे जाने से वह क्षुब्ध थी। उसके परिचय मे जिस बात पर विशेष बल दिया गया था, वह यह थी कि एक नयी कार्यकर्त्री को मच से जोड़ने का श्रेय उस महिला को मिलना चाहिए, जो गरिमा को वहाँ लायी थी। अपने साथ अपने वाली मौसी की पड़ोसन और ‘महिला मच' की सदस्या द्वारा मच पर इस प्रकार का परिचय गरिमा को अटपटा—सा लगा था, क्योकि वास्तव मे वह महिला उसको वहाँ नही लायी थी, बल्कि वह स्वय उस महिला को गाधी—भवन लेकर आयी थी। फिर भी, गरिमा को प्रसन्नता थी कि महिला गाधी भवन तक उसके साथ आयी थी, तो उसको अतिरिक्त साहस की आवश्यकता नही पड़ी थी, न ही मच की पदाधिकारियो महिलाओ के समक्ष प्रस्तुत होने मे उसका किसी प्रकार का आत्मविश्वास डगमगाया था। वह प्रसन्न थी, क्योकि महिला मच की अध्यक्षा विजयलक्ष्मी से भेट करने मे उसने सफलता प्राप्त कर ली थी और आज वह स्वय भी उस मच की सदस्या बनने जा रही थी। वह आज अत्यधिक उत्साह से परिपूर्ण थी, क्योकि न केवल अध्यक्षा, बल्कि मच की अन्य पदाधिकारियो के साथ भी आज उसकी भेट हुई थी और वह स्वय उन सबके साथ वहाँ पर बैठक मे सम्मिलित होने का आमन्त्रण प्राप्त कर चुकी थी।

औपचारिक परिचय के बाद गरिमा का अनौपचारिक साक्षात्कार हुआ था। तत्पश्चात्‌ महिला मच की सदस्यता के लिए निर्धारित अनिवार्य शुल्क प्रतिपूर्ति की रसीद गरिमा के हाथ मे थमाकर उसकी सदस्यता की औपचारिक घोषणा कर दी गई। औपचारिक घोषणा होते ही वहाँ पर उपस्थित महिला मच की पदाधिकारियो तथा सदस्यो ने गरिमा को बधाई दी और और उसको बताया कि मच के प्रति आस्था रखते हुए उसे समाज मे जाकर किस प्रकार स्त्रियो के हितो की रक्षा के दिशा मे अपना योगदान करना है। उत्साह से लबरेज गरिमा ने उनके एक—एक शब्द को ध्यानपूर्वक सुना और गर्दन हिलाकर अपनी सहमति प्रकट की। आज उसे अनुभव हो रहा था कि उसका जीवन निरर्थक नही है। वह समाज की उन महिलाओ के हितो के लिए सघर्ष मे सम्मिलित होकर अपने जीवन को सार्थक बनाएगी, जिनमे अपने अधिकारो के प्रति न जागरुकता है, न अपने अधिकारो के लिए सघर्ष करने की क्षमता है।

गरिमा को ‘महिला मच' की सदस्यता प्रदान करने के पश्चात्‌ मच की बैठक आरम्भ हो गयी। उस दिन बैठक मे चर्चा का मुख्य विषय था— ‘दहेज उत्पीडन' के विरुद्ध जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए रैली निकालने का कार्यक्रम तैयार करना। दहेज—उत्पीडन की शिकार महिलाओ को खोजकर चिहि्‌नत करना तथा उनसे सपर्क करना कार्यक्रम की मुख्य चुनौती थी। उससे भी बड़ी चुनौती थी, उन महिलाओ को अपनी रैली मे सम्मिलित करना और इस धारा से जोड़ना। गरिमा ने अपने समाज देखा था कि प्रायः सभी परिवारो मे दहेज लिया और दिया जाता है। दहेज मे दिया गया धन—सामान सामान्यतः लोगो की मान—प्रतिष्ठा का प्रश्न होने के साथ—साथ लड़का—लड़की के लिए योग्य और कुलीन जीवन साथी मिलने की भी गारटी प्रदान करता है। यही नही, लड़कियाँ स्वय चाहती है कि उन्हे दहेज मे पर्याप्त मात्रा मे कैश और बढ़िया क्वालिटी का ब्राडेड घरेलू उपयोग का सभी सामान दिया जाए। वैसे तो लड़कियो की ऐसी इच्छाओ के अनेक कारण हो सकते है, परन्तु मुख्यतः ससुराल मे दहेज के आधार पर मिलने वाले मान—अपमान से ही वह परिचालित रहती है। यदि उसके माता—पिता अधिक धन खर्च करने की स्थिति मे है, तो पहले उसे योग्य कुलीन घर—वर मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है और विवाह होने के पश्चात्‌ घर मे जो बहू अधिक मात्रा मे अच्छी क्वालिटी का सामान लाने के साथ सबसे अधिक धनराशि लाती है, उसे अपेक्षाकृत अधिक स्नेह तथा मान—सम्मान प्राप्त होता है।

दूसरे, लड़की को पिता के घर से दान—दहेज के अतिरिक्त मिलता ही क्या है ? कि वह दान—दहेज लेने मे भी पीछे हट जाए ! विवाह होने के पश्चात्‌ वह मायके वालो के लिए परायी हो जाती है और ससुराल वालो के लिए तो वो पहले से ही परायी होती है। अपनी छोटी—छोटी इच्छाओ—आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए उसे पिता पर या पति के परिवार वालो पर निर्भर रहना पड़ता है। गरिमा को यह अनुभव स्वय अपने वैवाहिक जीवन के बाद हुआ था कि उसे विवाह होने के पश्चात्‌ किस प्रकार अपने छोटे—छोटे हितो के लिए सघर्ष करना पड़ता है। अपनी छोटी—छोटी इच्छाओ का दमन करना पड़ता है। उसने अनुभव किया था कि गाँव मे इन अधिकारो का हनन शहरो की अपेक्षा इतना अधिक होता है कि शहर मे रहने वाली स्त्रियाँ उसकी कल्पना तक नही कर सकती है। उसके बचपन से विवाह होने तक का समय गाजियाबाद के अन्तर्गत आने वाले एक ऐसे गाँव— नासिरपुर मे बीता था, जो नगरीकरण के चलते शहर के अन्दर आ चुका था। इसलिए वहाँ शहर तथा गाँव की सक्रमित सस्कृति थी। किन्तु उसकी ससुराल बागपत जिले के एक ऐसे गाँव मे थी, जो शहर से बहुत दूर था। आजकल गरिमा स्वय ग्रामीण सस्कृति के उस प्रतिबधित वातावरण मे जीवन यापन कर रही थी, जहाँ पर स्त्रियो के लिए घर से बाहर निकलना वर्जित था।

दहेज—उत्पीड़न के विरुद्ध जागरूकता अभियान की रैली का दिन—समय—स्थान और रूपरेखा निश्चित होने के पश्चात्‌ अपने—अपने कार्य—क्षेत्र मे किये गये कार्य—विस्तार पर चर्चा चलने लगी। चर्चा चल ही रही थी, तभी मच की अध्यक्षा के पास सूचना आयी कि एक महिला का पति उसके साथ मारपीट करता है, उसे घर से निकालने की धमकी देता है और घर मे खर्च करने के लिए पर्याप्त रुपये नही देता है, अपने पति के अत्याचारो से मुक्ति पाने के लिए वह महिला—मच से सहायता चाहती है। ऐसी ही एक अन्य सूचना किसी दूसरे क्षेत्र से भी आयी हुई थी, जहाँ पर जाने का कार्यक्रम पहले से ही निश्चित हो चुका था। जो सूचना अध्यक्षा महोदया को अभी मिली थी, वहाँ पर जाना भी आवश्यक था, क्योकि सूचना देने वाली महिला मच से जुड़ी हुई थी, प्रभावशाली व्यक्तित्व की थी और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण यदा—कदा मच को आर्थिक सहायता भी प्रदान करती रहती थी। अतः यह निश्चित हुआ कि एक मामले मे कुछ महिला—कार्यकर्ताओ को लेकर अध्यक्षा महोदया जाएँगी तथा दूसरे मे शेष महिला—कार्यकताओ के साथ उपाध्यक्षा चली जाएँगी। उपाध्यक्षा जी के साथ जाने वाली कार्यकर्ताओ मे गरिमा का भी नाम सम्मिलित था। गरिमा की टीम को अभी कुछ देर पहले मिली हुई सूचना वाले मामले मे जाना था, क्योकि यह सूचना जिस क्षेत्र से सम्बधित थी, उपाध्यक्षा महोदया का निवास स्थान उसी क्षेत्र मे था।

जिस समय गरिमा की टीम पति प्रताड़ना की शिकायतकर्ता महिला के घर पर पहुँची, उस समय भी पति—पत्नी मे झगड़ा चल रहा था। महिला—मच की टीम को देखते ही उस महिला मे शक्ति का ऐसा सचार हुआ कि उसने अपने पति को जेल की चक्की पिसवाने तक की धमकी दे डाली। दूसरी ओर अनजानी—अपरिचित पूरी टीम को देखकर पति कि्रकर्तव्यविमूढ—सा शान्त होकर खड़ा था। शायद वह अनुमान नही कर पा रहा था कि एक साथ इतने अपरिचित चेहरे उसके घर मे क्यो और कहाँ से आये है ? पति को मौन देखकर पत्नी का मनोबल दोगुना हो गया। उसके साहस मे वृद्धि तो महिला—मच की टीम को देखते ही हो गयी थी, अब पति के मौन को उसका डर समझकर उसका साहस और शक्ति नितान्त ऊर्ध्वाधर बढ़कर स्त्री—शक्ति की घोषणा कर रहे थे। वह अपनी पूरी शक्ति से पति की शिकायत कर रही थी और उसे गालियाँ देकर अपने मन की भड़ास निकाल रही थी।

महिला की शिकायत का सार था कि उसका पति कहता था कि घर मे आय कम है और मँहगाई दिन—दूनी रात—चौगुनी बढ़ रही है। बच्चो की आगे की शिक्षा जो कि प्राइवेट होने के कारण और भी मँहगी हो गयी है तथा बच्चो के विवाह के लिए उन्हे अभी से ही बचत करनी पड़ेगी। इसलिए धन का अपव्यय बन्द करके बचत निश्चित करने के लिए घर मे झाड़ू—पोछा—बर्तन आदि का काम करने वाली नौकरानी को हटा दिया जाना चाहिए। उस महिला ने बताया कि जब भी उसके घर मे काम करने वाली बाई आती है, तभी पति उससे झगड़ा करना आरम्भ कर देता है और बाई के साथ भी अश्लील गालियाँ देता हुआ अभद्र व्यवहार करता है।

पत्नी के प्रति पति के व्यवहार के सम्बन्ध मे सारी शिकायत सुनने के पश्चात्‌ महिला—मच टीम ने उस पुरुष की भर्तस्ना करना आरम्भ कर दिया। हर एक महिला—कार्यकर्ता ने उसे उसकी भूल का अनुभव कराने का प्रयास किया। उन्होने ऐसी अनेक कहानियाँ उसको सुनायी, जिनमे अत्याचारी पति को उसके दुर्व्यवहार का दड उनका महिला—मच दिला चुका है। अन्त मे उन्होने उस पुरुष को अन्तिम चेतावनी के रूप मे कहा कि यदि आज के पश्चात्‌ उसकी शिकायत मिली, तो वे मानवाधिकार आयोग मे इस मुद्‌दे को ले जाएँगी। मच की टीम ने कहा कि एक स्त्री से बलपूर्वक घर के काम करने के लिए दबाव डालने और न करने पर घर से निकालने की धमकी देने के लिए ‘महिला—मच' उसके विरुद्ध घरेलू—हिसा का केस करेगा। पुरुष को यह अधिकार नही है कि वह स्वय दिन—भर घर से बाहर अपनी इच्छानुसार जीवन—यापन करे और पत्नी को अपने घर की चारदीवारी के अन्दर घुट—घुटकर मरने के लिए विवश कर दे।

‘महिला—मच की टीम के आरोपो और चेतावनी को सुनकर उस महिला के पति ने अपना पक्ष प्रस्तुत करना चाहा। उसने कहा कि वह एक प्राइवेट फैक्ट्री मे नौकरी करता है और उसका वेतन इतना नही है कि वह धन का अपव्यय कर सके। वह दिन—भर फैक्ट्री मे कठोर परिश्रम करता है, ओवर टाइम भी करता है। ऐसी स्थिति मे यदि वह पत्नी से कहता है कि घर का काम वह स्वय करे और नौकरानी को हटा दे, तो कौन—सा अत्याचार करता है ? क्या उसका कर्तव्य नही है कि वह अपने बच्चो के भविष्य की चिन्ता करे और अपनी सीमित आय का कुछ अश भविष्य की सुरक्षा के लिए बचाकर रखे ?

किन्तु ‘महिला—मच की टीम ने आरोपी पति का पक्ष सुनकर भी अनसुना कर दिया। उन्होने जो आरोप उस पर लगाये थे, उसी के सदर्भ मे अपनी दी हुई चेतावनी को पुनः दोहरा दिया। मच की उपाध्यक्षा महोदया ने चलते समय महिला को सान्त्वना देते हुए आश्वासन दिया, जिसमे उसके पति के लिए चेतावनी भी निहित थी

बहुत हो गया ! सदियो से महिलाएँ हर रूप मे पुरुषो के अत्याचार सहन करती आ रही है, पर अब बस ! अब और अत्याचार नही सहेगी औरत ! अब यदि तुम्हारा पति तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करे, तो हमे बताना ! हम इसका इलाज करेगे ! तुम चिन्ता मत करना! महिला को आश्वासन देकर टीम की मुखिया अपनी टीम को लेकर उस महिला के घर से निकली, तो वर्षा होने लगी थी। टीम की अधिकाश महिलाओ का निवास—स्थान उसी क्षेत्र मे था और बूँदे भी अभी धीमी गति से पड़ रही थी, इसलिए सभी ने एक—दूसरे से विदा ली और शीघ्रता से अपने घर की ओर चल पड़ी। गरिमा की मौसी का घर वहाँ से दूर था, वह शीघ्र अपने गन्तव्य स्थान तक नही जा सकती थी। इससे उपाध्यक्षा जी ने उससे निवेदन किया — धीरे—धीरे मूसलाधार वर्षा होनी आरम्भ हो जायेगी, तो तुम रास्ते मे ही फँस जाओगी! जब तक बारिश बन्द नही हो जाती, तब तक तुम मेरे घर पर ही रुक जाओ! बारिश बन्द हो जायेगी, तब चली जाना! उपाध्यक्षा महोदया का निवेदन स्वीकार करना उस समय गरिमा की आवश्यकता थी, अतः उसने स्वीकृति मे सहज ही गर्दन हिला दी और उनके साथ चल पड़ी। उनके घर पर जाकर गरिमा ने जो दृश्य देखा, वह एकदम अप्रत्याशित था। घर पर पहुचते ही उनके पति उन पर बरस पड़े कि सारा घर अस्त—व्यस्त पड़ा है और वे बाहर मस्ती करने के लिए निकल गयी। पति के क्रोध से उपाध्यक्षा जी स्वय को थोड़ा असहज महसूस कर रही थी। उपाध्यक्षा जी ने उस सारी स्थिति पर नियत्रण करने के उद्‌देश्य से पति को एक कोने मे ले जाकर प्रेमपूर्वक समझाना चाहा कि अतिथि की उपस्थिति मे ऐसा अभद्र व्यवहार न करे। किन्तु उनका पाँसा उल्टा पलट गया।

पति ने अपनी स्वर अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा करते हुए कहा— अतिथि का बहाना करके अपने निकम्मेपन और गैर जिम्मेदाराना व्यवहारो पर पर्दा डालने की कोशिश मत करो, तुम ! घर मे जूठे बर्तनो का ढेर लगा है, सारा घर अव्यवस्थित पड़ा है। न घर मे एक भी बर्तन ऐसा है, जिसमे पानी तो पिया जा सके, न बैठने—लेटने के लिए ऐसी कोई जगह है, जहाँ पर सामान फैला हुआ न पड़ा हो। तुम सुबह की घर से निकली हुई अब घर मे घुसी हो, जब शाम होने जा रही है। तुम्हे घर की और घर वालो की कुछ चिन्ता नही है, चली हो समाज सेवा करने के लिए। जब बच्चो की देखभाल नही कर सकती हो, तो इन्हे जन्म ही क्यो दिया था !

मै सुबह आपसे और बच्चो से कहकर तो गयी थी कि खाना होटल से मँगा लेना, मै आने मे लेट हो सकती हूँ !

होटल से मँगाने के बाद भी बच्चो को माँ की आवश्यकता पड़ती है, जो उन्हे खिला—पिलाकर घर को व्यवस्थित कर सके। मै घर सम्हालने लगा, तो मेरा नौकरी चली जाएगी ! और यह भी सुन लो, तुम्हारा यही हाल रहा, तो मै इस घर से चला जाऊँगा या तुम्हे इस घर से और मेरे जीवन से निकाल दूँगा। उसके बाद जीवन—भर तुम महिला मच चलाती रहना!

आप शान्त हो जाइये ! मै अभी सब कुछ व्यवस्थित कर दूँगी!

उपाध्यक्षा महोदया पति की धमकी भरी चेतावनी को सुनकर सहम—सी गयी थी। अन्य महिलाओ के घर मे जाकर पुरुषो के समक्ष स्त्री—शक्ति का प्रदर्शन करने वाली ‘महिला मच' की उपाध्यक्षा अपने घर मे अपने पति के समक्ष किस प्रकार भीगी बिल्ली बन गयी थी, यह देखकर गरिमा आश्चर्यचकित थी। उन्होने पति से अनेक बार सॉरी कहा। घर का कार्य यथोचित समय पर सम्पन्न नही करने और अपने दायित्वो का भली प्रकार निर्वाह नही करने के लिए बार—बार क्षमा याचना माँगते हुए तुरन्त बर्तन साफ करने लगी। बर्तन साफ करने के बाद उपाध्यक्षा महोदया ने धर मे इधर—उधर फैले सामान को व्यवस्थित किया। तत्पश्चात्‌ चाय बनायी और गरिमा को चाय देने के पश्चात्‌ अपनी तथा पति की चाय लेकर पति को मनाने के लिए कमरे मे चली गयी। गरिमा जब चाय पी चुकी, तब तक उपाध्यक्षा जी भी बाहर आ गयी। गरिमा ने उनसे उनके बच्चो के विषय मे पूछा तो उसे ज्ञात हुआ कि उनके दो बच्चे है। बेटी बारहवी कक्षा मे तथा बेटा दसवी कक्षा मे पढ़ता है। बातो ही बातो मे गरिमा को यह भी पता चला था कि उनके पति दिल्ली के किसी सरकारी दफ्तर मे नौकरी करते है।

गरिमा चाय पी चुकी थी। अब तक बूँद भी बन्द हो चुकी थी। अब वह शीघ्रतिशीघ्र अपने घर पहुँचना चाहती थी। उसे अपने नन्हे बिट्‌टू की याद सताने लगी थी और मौसी की डाँट का भय भी सता रहा था। वह उपाध्यक्षा महोदया से चलने के लिए अनुमति माँगने वाली थी, तभी उनके दरवाजे की घटी बजी। दरवाजा खोलने पर पता चला कि वह उनके घर पर काम करने वाली नौकरानी थी। नौकरानी की आयु लगभग बीस—इक्कीस वर्ष के आस—पास थी और देखने मे भोली—भली लगती थी। उस युवती के पीछे अधेड़ावस्था की एक और महिला खड़ी थी, जो शायद उस युवती की माँ थी। उन दोनो की आँखो मे क्रोध, भय और पीड़ा मिश्रित भाव झलक रहे थे। उन दोनो स्त्रियो के चेहरे पर उभरे भावो को देखकर गरिमा के हृदय मे अभी वही पर रुकने की इच्छा हुई ताकि वह उनके आने का कारण जान सके। अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वह वही पर खड़ी हो गई।

दोनो स्त्रियाे ने घर के अदर आकर चीखना—चिल्लाना आरम्भ कर दिया। उपाध्यक्षा जी के चुप करते हुए यह पूछने पर कि वह क्यो रो रही है और सुबह से काम करने के लिए क्यो नही आयी, वे और अधिक चिल्लाने लगी। चिल्लाते हुए अब उनकी आँखे लाल हो गयी थी। युवती की माँ पागलो की भाँति कभी जोर—जोर से रोने लगती थी, कभी गालियाँ देती थी। उसी समय लगभग अर्द्धविक्षिप्त—सी अवस्था मे युवती की माँ ने बताया— मेरी बेटी सुबह काम करने के लिए आयी थी। जब वह काम करने के लिए आयी थी, तब घर मे बाबू जी अकेले थे। घर मे मेहमान आये हुए थे, इसलिए थोड़ी देर से आयी, तब तक बच्चे स्कूल चले गए थे और आप भी कही बाहर गयी हुई थी। मेरी बेटी के घर मे प्रवेश करते ही बाबू जी ने बाहर का दरवाजा बन्द कर दिया। मैडम, आप खुद ही सोच सकती है कि दरवाजा बन्द करने के पीछे इस आदमी का क्या इरादा था। इस आदमी ने पहले मेरी बेटी को लालच दिया। जब मेरी बेटी लालच से नही मानी, तब इसने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया, पर मेरी बेटी बहादुर थी। मैने उसे अच्छे सस्कार दिये है। मैडम, हम गरीब जरूर है, पर हमे हमारी बेटी की इज्जत पैसो से और जान से ज्यादा प्यारी है, इसलिए आज यह अपनी जान की बाजी लगाकर अपनी इज्जत बचाने मे कामयाब हो गयी और यहाँ से भाग गयी। मै चाहती तो उसी समय थाने मे जाकर इसकी शिकायत करके इसके किये की सजा दिलवा देती, पर मैडम जी, हमारे ऊपर आपके बहुत एहसान है। आपकी मेहरबानी से मेरी बेटी पढ़—लिख गयी है, इसलिए हमने पुलिस से शिकायत नही की। पर, अब हम आपके घर मे काम नही कर सकते ! सारी घटना का वर्णन करके युवती की माँ युवती के शरीर से कपड़ा हटाकर जगह—जगह पड़े हुए चोट के घावो को दिखाने लगी, जिसमे कई जगह दाँतो के निशान भी थे। जिस समय युवती की माँ उसके घावो को दिख रही थी, युवती बार—बार कराहने लगती थी। उस समय उसकी रुलाई और भी हृदयविदारक हो जाती थी।

युवती के शारीरिक — मानसिक घावो को देखने के बाद उपाध्यक्षा जी ने अलमारी खोली और उसमे से एक पर्स निकालकर अलमारी पुनः बन्द कर दी। अलमारी बन्द करके उन्होने एक बार अपने पति की ओर घूरकर देखा, जो निश्िचत—अवस्था मे अपने बिस्तर पर लेटकर टी.वी. देख रहे थे। उन्हे देखकर ऐसा नही कहा जा सकता था कि उन्होने घर मे अपनी नौकरानी के साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया था। अर्थात्‌ अपने किये पर किसी प्रकार की ग्लानि के भाव उनके चेहरे पर दिखाई नही दे रहे थे। कुछ क्षणो तक उपाध्यक्षा महोदया ने अपने पति को घूरने के बाद उधर से अपनी दृष्टि हटाकर युवती नौकरानी को दया की दृष्टि से देखा और पुलिस तक इस घटना की सूचना न पहुँचाने के लिए धन्यवाद दिया। धन्यवाद देते हुए पचास—पचास के कुछ नोट उन्होने युवती की माँ के हाथो मे रखकर बेटी की ठीक प्रकार से देखभाल करने के लिए निर्देश दिया और एक बार पुनः उसका धन्यवाद किया कि उसने उनकी इज्जत को अपनी इज्जत समझकर उसकी रक्षा की।

युवती की माँ ने पचास—पचास के नोटो को वापिस मेज पर रख दिया। उसने उपाध्यक्षा जी को अपनी वेदना का अनुभव कराने के लिए उन्हे समझाने का प्रयास किया कि वह उनके पास दो—चार हजार रुपयो से अपनी बेटी की इज्जत का सौदा करने के लिए नही आयी थी। कागज के ऐसे टुकड़े तो उसको तब अधिक मिल जाते, जब वह थाने मे इस घटना की सूचना—भर दे देती। उसने समझाया कि वह एक स्त्री होने के नाते महिला मच की उपाध्यक्षा से उसके पति की करतूत बताने के लिए आयी थी। उस महिला से बताने के लिए आयी थी, जो महिलाओ के हितो की रक्षा के लिए कार्य करती है। युवती की माँ ने तड़पते हुए कहा—

एक बेटी की माँ की पीड़ा को समझने के लिए बेटी की माँ बनकर सोचना आवश्यक है, किसी मच की पदाधिकारी उनकी पीड़ा का अनुभव नही कर सकती, एक दरिदे की पत्नी तो कदापि अनुभव नही कर सकती। इस बात को अब हम भली—भाँति समझ चुके है और अब ऐसा लग रहा है कि यहाँ आकर आपसे उस घटना की शिकायत करना ही हमारी सबसे बड़ी भूल थी !

नौकरानी के शब्दो ने उपाध्यक्षा महोदया को विचलित कर दिया। उन शब्दो को सुनकर कुछ क्षणो के लिए वे मौन हो गयी। वे निर्णय नही कर पा रही थी, नौकरानी को सतुष्ट करने के लिए वे क्या कहे और क्या करे ? कुछ क्षणोपरान्त उन्होने विनम्रतापूर्वक दयनीय मुद्रा मे नौकरानी से कहा कि उसने रुपये देने का प्रस्ताव उसकी बेटी की इज्जत के मूल्य के रूप मे नही किया था, बल्कि उसकी बेटी के इलाज के लिए तथा दूसरा कोई काम मिलने तक घर—खर्च चलाने के लिए दिये थे। उन्होने नौकरानी के समक्ष अपनी विवशता प्रकट करते हुए प्रार्थना की कि यदि उसने इस घटना के विषय मे पुलिस या किसी अन्य को बताया, तो उनकी गृहस्थी उजड़ जाएगी, इसलिए वह इस घटना को सदैव के लिए भूल जाने की उन पर कृपा दे। आर्थिक दृष्टि से विपन्न होते हुए भी वह नौकरानी मानवीय गुणो से सपन्न थी। उसने उपाध्यक्षा महोदया की प्रार्थना स्वीकार करके उन्हे वचन दिया कि वह उस घटना की किसी से शिकायत नही करेगी। तत्पश्चात्‌ वह निराश कदमो से वहाँ से वापिस चल दी। उपाध्यक्षा जी का घर—खर्च देने का आग्रह ठुकराते हुए उसने पचास—पचास के नोटो को छुआ तक नही। उसने चलते समय केवल इतना ही कहा कि कागज के रग—बिरगे टुकड़े न तो उसकी बेटी के अपमान की भरपाई कर सकते है, न ही उसकी वेदना को कम कर सकते है। नौकरानी के जाने के पश्चात्‌ गरिमा ने भी अपने घर जाने की अनुमति ली और वहाँ से प्रस्थान किया। अपने जीवन मे आज उसको एक नया अनुभव प्राप्त किया था, जो सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक जीवन का अन्तर दर्शाता था।

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