Sanvednao ke swar : ek drashti - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि - 8

संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि

(8)

पुरुषोत्तम

हमारे देश का

आम -आदमी

साठ वर्ष बाद

सठियाने लगता है,

तभी तो बेचारों को

सरकारी आफिसों से

रिटायर्ड कर दिया जाता है ।

पर नेताओं की प्रजाति

अन्य आदमियों से

हटकर मानी जाती है ।

अस्सी-नब्बे की

उम्र के बाद भी

वह सारे राष्ट्र का भार

अपने सिर पर उठा कर

घोड़े की तरह दौड़ता है ।

फिर इतना ही नहीं

वह देश के लिए

कानून भी बनाता है,

उसमें संशोधन भी करता है,

और तोपों की सलामी के साथ

अलविदा होता है

इसलिए आज के युग में

सर्वश्रेष्ठ पुरूषों में

नेता को ही

पुरुषोत्तम कहा जाता है ।

***

कलयुगी- रावण

गाँव की एक

भोली-भाली

युवती के मन में,

विजया – दशमी

मनाने की चाह उमड़ी।

रात में वह अपने घर से,

दशहरा मैदान को

अकेले ही निकली ।

रास्ते में ही उसे

कुछ सदेह रावण मिल गए ।

जो सतयुगी रावण से

बहुत भारी पड़ गये ।

रावण को जलते हुये

देखने की चाह में

आज वह स्वयं ही

जिंदा जल रही थी ।

और एक नहीं,

दस कलयुगी रावणों से

बुरी तरह घिर गयी थी ।

सदियों से चले आ रहे

इस पर्व के औचित्य पर

आज वह प्रश्न चिन्ह

लगा रही थी ।

और इस आधुनिक समाज से

न्याय की गुहार लगा रही थी ।

***

हे आतंकवादी

हे आतंकवादी

आपकी महिमा अपार है,

विश्व के हर कोनें में

आपका अधिकार है ।

भारत में तो आपको

अपना भविष्य

बड़ा उज्ज्वल नजर आया,

तभी तो स्वर्ग समान

कश्मीर पर ही

आपका मन भरमाया ।

अक्षर धाम से लेकर

संसद भवन और

होटल ताज का प्रवास तो

आपकी ख्याति में

चार –चाँद लगा गया है।

आपकी आने वाली पीढ़ी को

नया रास्ता सुझा गया है।

हजरत बल की दरगाह में तो

आपने गजब कर दिखाया था,

जब सरकार ने ही आपको

बिरयानी चिकिन

और कवाब खिलाया था ।

मुंबई बम कांड, रूबियाकांड,

कंधार विमान हाई जैक

और अजमल कसाब जैसे

न जाने कितनों ने

हिन्दुस्तान की जमीं में

काले अध्याय

लिख डाले हैं ।

मेरे प्यारे देश को

न जाने कितनी बार

खून के घूँट

पिला डाले हैं ।

इसलिए

हे आतंकवादी

आपकी महिमा अपार है ।

***

नेता जी का भ्रष्ट्राचार

सत्ता में रहकर

नेता सुखराम ने

ढेरों सुखों के अम्बार

जुटा लिए थे ।

और अपनी

सात पुश्तों के लिए

तहखानों में

खजाने भरवा लिए थे ।

पकड़े जाने पर भी

उन पर कोई फर्क

नहीं पड़ा था ।

कोर्ट में दोषी हैं या निर्दोषी,

पूरे पन्द्रह साल तक

रिसर्च चला था।

वे इस व्यवस्था से

भली- भाँति परिचित थे,

इसीलिये तो भ्रष्टाचार में

पूर्णरूप से संलिप्त थे

जब छियासी वर्षीय नेता को

पाँच साल कैद की

सजा सुनाई,

तो उनके चेहरे पर

मुस्कान थिरक आई ।

कारण पूछने पर, बोले -

इस फैसले से

मैं संतुष्ट हूँ

और अपने भविष्य के प्रति

पूर्ण रूप से आस्वस्त हूँ ।

अब मेरे स्वास्थ्य की चिंता

मेरे परिवार को नहीं सरकार को करना पड़ेगी ।

और जरूरत पड़ने पर

सुरक्षा भी देनी पड़ेगी ।

उनकी इस सजा पर

एक ओर

हमारे देश के समाचार-पत्र

‘‘देर है, पर अंधेर नहीं’’

के कालम सजा रहे थे ।

तो दूसरी ओर

टी -वी मीडिया वाले भी

‘सत्यमेव जयते का नारा’

गुनगुना रहे थे।

वहीं हमारे नेता जी मुस्करा रहे थे ।

और अपना विजय पर्व

मना रहे थे ।

***

अप संस्कृति

रास्ते में मुझे कल एक

सहपाठी नेता जी

टकराए ।

बोले गुरू - तुम कहाँ,

अच्छे तो हो ।

मैंने कहा -जी हाँ,

किन्तु जरा जल्दी में हूँ,

कल मिलूँगा ।

-यार,तुम हमेशा

जल्दी में रहते हो,

जब भी समय माँगता हूँ,

टाल देते हो ।

मैं समाज में बढ़ रही

अपसंस्कृति को

रोकना चाहता हूँ

और अपने संग

तुम जैसे साहित्यकारों को

जोड़ना चाहता हूँ ।

इस बात पर मैं रूक गया,

उनके सामने झुक गया ।

वे बोले,- हर साल की तरह

हम सब मिलकर

कल होलिका दहन करायेंगे ।

हॅंसी खुशी के साथ

फिर पैमाना भी छलकाएँगे ।

मुझे उनकी बुद्धि पर

तरस आया,

मैंने भी तुरंत

नहले पर दहला जमाया ।

आप इस तरह

होलिका दहन करवा के

कैसे संस्कृति की

रक्षा कर पाएंगे ।

यह सुन नेता अकचकाया,

मुझे घूरा और बड़बड़ाया ।

लगता है,जैसे

कोई स्क्रू ढीला है

या कल अवश्य पी होगी?

मैंने कहा यार,

क्या कहते हो ?

नशे में डूबकर

वर्तमान को भुलाना

मुझे नहीं आता ।

इसीलिए आप लोगों की तरह

त्यौहार मनाना,

मुझे नहीं भाता ।

मेरे भाई,-यदि हमने

सही मायने में

होलिका दहन कराया होता,

देश का नजारा ही

कुछ और होता ।

भाई-चारे की भावना

के साथ होती,

देश की प्रगतिशीलता

और सम्पन्नता ।

तब धर्म-भाषा के नाम पर

हम कभी न लड़ते,

न कभी अकड़ते ।

हमने उनके गले में

हाथ डालकर समझाया

यार, होलिका-

हमारे दिलों में घुसी

काम, क्रोध, लोभ, मोह

द्वेश और अहंकार

जैसी बुराईयों का

दूसरा नाम ही तो है ।

जिस दिन हम उन्हें

दहन कर पायेंगे,

उसी दिन हम सही मायने में

होलिका दहन कर पाएँगे

और तभी हम अपने

देश और समाज को

इस अपसंस्कृति से

बचा पाएँगे ।

***

संवेदनाओं का स्पर्श

ट्रेन के अन्दर

भारी भीड़ थी ।

किन्तु भीड़ शांत,

निस्तब्ध-क्षुब्ध थी ।

कोई अपनों से,

कोई परायों से,

कोई समाज से,

तो कोई सरकार से ।

फिर भी अपनी

मंजिल तक पहुँचने,

सभी बेचैन – परेशान ।

कहीं कोई शून्य में खोया-

अपने अतीत में डूबा था ।

तो कोई अपलक

निहारे जा रहा था,

लगता है सभी

भूत,भविष्य

और वर्तमान का

लेखा -जोखा

करने में व्यस्त थे ।

तभी इस

बोझिल वातावरण

के बीच एक सूरदास की

आवाज गॅूंजी

पिंजड़े के पंछी रे...

तेरा दर्द न जाने कोय ....

तेरा दर्द न जाने कोय..

बाहर से तू खामोश रहे..

अंदर -अंदर रोए... रे .....

उसके गाने के बोल

सभी के दिलों में

समा रहे थे ।

सबकी संवेदनाओं को मानो स्पर्श कर

दुलार रहे थे ।

उनके दर्द को

मल्हम लगाकर

सहला रहे थे ।

***

मेरे प्रियवर तुम मुझको.....

मेरे प्रियवर तुम मुझको, इतना तो बतला दो ।

कब तक समझौतों के आगे, झुकना है बतला दो ।

जीवन की आपाधापी में, नादानी तो हो जाती है ।

छोटी - छोटी बातों से क्या, दूरी इतनी बढ़ जाती है ।

कितने देवालय में जाकर, ममता ने आँचल फैलाया ।

दरस-परस की आशाओं सँग, मानव तन दुर्लभ पाया ।

उनके पुण्य प्रतापों से ही, अपनी बगिया हरियाई ।

बड़े भाग्य से तब जीवन में, अपनी खुशियाँ लहराईं ।

बंधी हुई गाँठों को खोलें, मुख से मीठे बोल दो बोलें ।

ढाई आखर प्रेम का पढ़ कर, सभी प्रेम के सॅंग में होलें ।

झगड़ों के इस भॅंवर जाल से, चलो चलें सब निकलें ।

आशाओं की झोली भर कर, अब नई राह पर बढ़ लें ।

मिल- जुल कर सब प्रेम डगर में, जीवन स्वर्ग बनाएँ ।

जीवन के सारे सपनों को, हम साकार बनाएँ ।

***

माँ की ममता

माँ

अपने कमरे की खिड़की से

निहारती रहती है,

अपने स्वजनों को -

और सड़क से गुजरते हुए

राहगीरों को ।

कभी वह देखती है,

दूर छत पर

कपड़े बगराती-सुखाती

अपनी नातिन बहू को,

जो अपने लाड़ले को

गोदी में लिये

दुलारती,बहलाती

लोरियाँ सुनाती,

यहाँ से वहाँ

घूमती दिखाई पड़ती है।

तब उसके अंदर

माँ की ममता जाग उठती है ।

उसे गोद में खिलाने

ललक उठती है ।

उसे याद आता है,

अपने बेटों का बचपन,

जब उन्हें

ऐसे ही गोद में लिए

वह लोरियाँ सुनाया करती थी ।

पीठ थपथपा कर

उन्हें सुलाया करती थी ।

बिस्तर पर लिटाते ही

वे कितनी जोर से

मचलने लगते थे ।

फिर भी वह थकी-हारी,

उसे गोद में उठाती

दुलारती,पुचकारती

और सीने से लगाकर

उनके गालों को चुम्बन की सौगातों से

भर देती थी ।

वे माँ की ममता पाकर

खिलखिला कर

हॅंस पड़ते थे ।

आज वही संवेदनशील माँ

पक्षाघात से पीड़ित

अपने कमरे में अकेली पड़ी

दिल मसोस

कर रह जाती है ।

अपने अतीत में

झाँकती माँ

अपनी आँखों से वेदना के

झर- झर आँसू बहाती है ।

और संवेदनाओं के द्वार पर

सिर्फ अपने को

अकेला खड़ा पाती है ।

***