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और,, सिद्धार्थ बैरागी हो गया - 3

और,, सिद्धार्थ बैरागी हो गया

मीना पाठक

(3)

गद्बेरी का समय है सुन्दरी ढिबरी जला कर सभी कमरों में दिखाती हुई बाहर के चौखट के पास रख कर सूने आँखों से कोठरी की ओर देखती है | मन आज कुछ व्याकुल सा है | ना जने क्यों किसी भी कार्य में उनका जी नहीं लग रहा है | इस भरे-पुरे घर में भी वह नितांत अकेलापन महसूस करती है इसी लिए वह अपने को घर के कार्यों में झोंके रहती है ताकि उसे अकेला पा कर उसके भीतर का सूनापन उन पर हावी ना हो जाय पर वह आज हावी हो रहा है और वह उसे रोक नहीं पा रहीं |

अनायास ही उसकी आँखों से आँसू बह चले, अपनी आँखें पोछती हुई अपने कमरे में जा कर दीवार पर टंगी हुई एक चौदह-पन्द्रह वर्ष के बालक के चित्र के सम्मुख सिसक पड़ी |

मन अपनी तीव्र गति से अतीत के पन्ने पलटने लगा | पनीली आँखों के सामने कुछ धुँधले चित्र आकार ले कर धीरे-धीरे साफ होते गए |

हर गाँव की तरह यहाँ भी एक बगीचा था और बगीचे में ही खलिहान | धान के बड़े-बड़े गठ्ठर एक के ऊपर एक लदे पड़े थे | सुन्दर हृष्ट-पुष्ट बैलों के जोड़े एक लकड़ी के खम्भे से बंधे कोल्हू के बैल की तरह गोल-गोल घूम रहे थे | एक जन उन्हें हाँक रहे थे और दो-तीन जन धान के गठ्ठर खोल-खोल बैलों के आगे छितराते जा रहे थे | बैलों के खुर से दब-दब कर धान बालियों से अलग होता जा रहा था और तना पुआर का रूप लेता जा रहा था | स्थान-स्थान पर पुआर के टीले खड़े हो गए थे | जना-मजूर सब काम में लगे थे वहीं थोड़ी दूर पर एक वृक्ष के मोटे तने के सहारे अरहर के सूखे डंठलों के गठ्ठर खड़े थे | वृक्ष का तना चारों ओर से गठ्ठरों से ढक गया था | वहीं दो गठ्ठरों के बीच एक सुरंगनुमा स्थान बन गया था और उसी में छुपी बैठी दो सखियाँ बतिया रहीं थीं |

“का बात है, काहे इतनी उदास है, का हुआ बोल ना ?” पहली बोली |

“बाबू ने आम्मा को आज फिर मारा !”

“अरे ! काहे मारा ? तेरे बाबू तेरी अम्मा को मारते हैं का ?” पहली विस्मित हो पूछ बैठी |

“हाँ ..बहुत मारते हैं..आज तो बहुते घाव लगा है अम्मा को |”

“काहे ?”

“कोई पुतुरिया है ना..उसके लिए अम्मा लड़ती है..तो बाबू उसे मारते .. अम्मा कहती है कि बाबूजी के दो घर हैं..एक जहाँ हम रहते हैं और दूसरा उस पतुरिया का..जहाँ वह रोज जाते है और खूब रात को घर आते हैं..|”

“ ई पुतुरिया का होती रे ?” प्रश्न कर दिया पहली ने |

“का मालूम |”

दोनों उदास हो गयीं | बाल मन विषाद से भर गया | दोनों के मन में बस एक ही प्रश्न कि ये पुतुरिया क्या होती है ?

“आज तो झुनिया, किरनी, मुनिया कोई भी नहीं आईं खेलने..हम दुइये में कैसे खेला होगा |” अपनी सखी की उदासी देख कर पहली सखी ने बातों की दिशा ही बदल दी |

“चल आज हम यही खेला खेलते हैं |”

“कौन सा ?”

“अरे यही ..माई-बाबूजी वाला..तू बाबूजी बन और मैं माई |”

“चल ठीक है |”

वहीं अरहर की झाड़ पर रखे अंगौछे को उठा लिया दोनों ने | एक ने अपने सिर पर बाँध लिय और दूसरी ने अपने सिर से ओढ़ लिया | सिर पर पगड़ी बाँधे हुए एक बाहर कमाने चली गई और दूसरी अपनी घर गृहस्थी के कार्यों में लग गई | वहीं तीन ढेला बीन कर उसने चूल्हा बनाया, टूटे हुए मिट्टी के बर्तन के टुकड़ों को अपना बर्तन और अरहर की डंठल को ईंधन तथा पल्टा-कल्छुल बना लिया | उसकी गृहस्थी पूरी हो गई थी, अब वह बैठ कर कमाने गए अपने पति की प्रतीक्षा कर रही थी ताकि वह लौटते समय बाजार से सामान लेता हुआ आये और वह भोजन पकाए पर देर पर देर हो रही थी | वह सिर पर अंगौछा संभालती हुई बार-बार उस गुफा से झाँकती है और बड़बड़ाने का स्वांग करती है. “इत्ती देर हो गई..अभी तक नहीं आये..जरुर उस पतुरिया के घर गए होंगे..आने दो आज..अच्छी तरह से बताती हूँ |”

थोड़ी देर बाद ही दूसरी सखी कुछ पत्ते, अमरुद, बेर आदि अपनी फ्रॉक की घेर में भरे लिए आती है | उसे देखते ही पहली वाली चीख पड़ी –“इतनी देर कहाँ लगा दी ? पक्का उसी पतुरिया के घर गए होगे, तबही इत्ती देर हुई |” दोनों झगड़ गयीं और झगड़ते-झगड़ते मारा-मारी पर उतर आईं| आवाज सुन् कर खलिहान से रमाकांत दौड़े आये और दोनों को अलग किया |

“क्यों लड़ रही हो दोनों ?” डांटा उन्होंने |

“हम दोनों खेल रहे थे और इसने हमें जोर से लात मार दी |”

“क्यों सुन्दरी ? खेल में मारा-मारी क्यों की ?

“खेल ही ऐसा था बाबूजी कि हमे मारना पड़ा..|” उसने पूरी बात बतायी और ये भी कि ये पुतुरिया के घर गया था | रमाकांत हँस-हँस कर लोट-पोट हो गए | पूरा वाकया सुन् कर खलिहान ठहाकों से गूँज उठा थोड़ी देर बाद उन्होंने दोनों बच्चियों का माथा चूमा और घर भेज दिया | किसान थे रमाकांत | सुन्दरी उनकी बेटी थी | वह नौ वर्ष की हो गई थी अगले वर्ष उसका विवाह होने वाला था और वह यूँ खेल-खेल रही थी ! उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं|

समय आने पर धूम-धाम से उसका विवाह हुआ और वह डोली में बैठ कर अपनी ससुराल आ गई | रमाकांत तो गौना के बाद ही विदा करना चाहते थे बेटी को पर उसके ससुर नहीं माने बोले, “हमारे घर सहता नही है..आप एके दिन के लिए भेज दीजिये और चौथी करा कर ले आइये फिर दोंगा आपे की मर्जी से होगा |”

रमाकांत क्या करते ! उन्होंने एक दिन बाद का ही दिन रख दिया था चौथी करा कर उसे वापस लाने का पर विधि ने कुछ और ही सोच रखा था |

ब्याह के रश्मों की थकान तो थी पर उसे मालूम था कि उसका दूल्हा रात में उससे मिलने आयेगा और संतरे वाला लेमनचूस भी लाएगा | उसकी सखी शिवकुमारी ने उसे बताया था कि उसका दूल्हा रात में उसके लिए संतरे वाला लेमनचूस लाया था | वह खुश थी पर थकान के कारण उसे नींद आ रही थी और भारीभरकम गहने चुभ रहे थे | बैठे-बैठे पलंग पर बिछे मखमली चादर पर कढ़े बेलबूटों से धागे नोच रही थी | धीरे-धीरे नींद से उसकी पलकें भारी होने लगीं, कुछ ही देर में वह दरवाजे को देखते-देखते नींद की आगोश में समा गई | अचानक नाक दुखने से गहरी नींद से जाग गई वह | कोई उसकी बड़ी सी नथ हिला रहा था | वह चौंक कर उठ बैठी | देखते ही पहचान गई..इसी के साथ तो वह हवन के चारों ओर गोल-गोल घूमी थी..उसका दूल्हा..जिसकी राह तकते-तकते वह सो गई थी..पर वह इतनी देर से क्यूँ आया ?..और लेमनचूस..! वो भी तो नहीं है इसके हाथ में..वह घूरती है उसे.. तभी सालभर पहले ही उसके दिमाग में जन्मा एक कीड़ा आज पहली बार रेंगने लगता है..कहीं ये भी तो पुतुरिया के घर नहीं गया था ?..पुतुरिया तो अच्छी नहीं होती..सुन्दरी का बाल मन क्रोध से भर उठा..फिर वही हुआ जो उस दिन दोनों सखियों के बीच खलिहान में हुआ था पर इस बार प्रहार करने वाली वह अकेली थी, सामने वाला मौन-मूरत बना खड़ा रह गया था और अगले ही दिन वह अपने बाबूजी के साथ मायके चली आई |

*

भीतर का सूनापन आँखों से बरस रहा था | जी भर कर रो लेने के बाद उसने अपनी आँखे पोछीं और मन ही मन स्वामी जी का दर्शन करने का निश्चय किया | जब संसार से मन उचटता है तब वैराग्य उत्पन्न होता है और इस समय सुन्दरी की यही स्थिति थी | अनमने मन से जा कर चूल्हे के सामने बैठ कर चूल्हा जलाती है | रात में उसे नींद नहीं आती, आँगन में खटिया पर लेटी आकाश ताकती हैं, ना जाने कितने तारे टिमटिमा रहे थे पर उनकी किस्मत का सितारा ना जाने कब का डूब गया था और उनके जीवन में अन्धेरा भर गया था | उनकी आँखों के कोर भीग जाते हैं, मन फिर से मंदिर के पास चला जाता है | ये क्या हो रहा है उसे ? जैसे उसे कोई अदृश्य शक्ति उस मंदिर की ओर खींच रही हो | रात भर वह आकाश के तारे गिनती रही फिर अंधेरे में ही उठ कर मंदिर की ओर चल दी | ठण्डी-ठण्डी हवा भी उसके भीतर की उद्विग्नता को कम नहीं कर पाती, मन ही मन सोचती है कि वह खुद से भाग रही है..कब तक भागेगी खुद से..यही तो उसका जीवन है..काँटों की सेज..! उसने ही तो इसे चुना है अपने लिए..नहीं तो पिता ने कितना कहा कि चल बेटी मेरे साथ..पर वह नहीं गई..मुकेश ने भी तो..पर समाज के विरुद्ध जाना उसके वश की बात नहीं थी..फिर क्यूँ लड़ रही है स्वयं से..क्यों नहीं स्वीकार करती इसे..!

इसी तरह मन ही मन मंथन करती हुई मंदिर पहुँच गई | इतने भोर में मंदिर के पट खुले थे | गेरुए वस्त्र में स्वामी जी ध्यान में बैठे थे | उनकी पीठ सुन्दरी की तरफ थी और मुख मंदिर के खुले पट की ओर | सुन्दरी वहीं से भगवान को प्रणाम कर के बरामदे में बिछी चट्टाई पर हाथ जोड़ कर बैठ गई | उसकी बंद पलकों से झर-झर आँसू बहने लगे | अचानक खट-खट की आवाज से उसने चौक कर अपने नेत्र खोल लिए | साधू बाबा खड़ाऊँ पहने उसी के पास आ रहे थे | अपने सामने साधू बाबा को पा कर टूट कर बिखर गई | उनके पाँवो में सिर रख, फूट-फूट कर रो पड़ी | उसने कभी किसी को अपने अश्रु नहीं दिखाए थे, किसी के सामने अपना दुःख प्रकट नहीं किया था पर आज ना जाने क्या हुआ वह स्वयं को संभाल नहीं पायी और टूट कर बिखर गई | उसका रोना सुन् कर स्वामी जी की अंतरात्मा तक हिल गई | उन्होंने कहा, “बस देवी बस, उस ईश्वर के समक्ष रो लेने से मन को शान्ति मिलती है वो सब जानता है, आप धैर्य रखें |” कह कर स्वामी जी तख़्त पर बिछे अपने आसन पर बैठ गए | जैसे ही सामने बैठी स्त्री के ऊपर उनकी दृष्टि पड़ी वह चौंक पड़े | दिए की पीली रौशनी में मुखाकृति कुछ पहचानी हुई सी लगी | वह अपने बड़े-बड़े नेत्रों से बह रहे अश्रु आँचल से बार-बार पोंछ रही थी जैसे ही उसने अपनी भीगी पलकें उठायी स्वामी जी ने अपनी पलकें मूँद ली वह उसकी आँखों का खालीपन नहीं देख सके | उनका हृदय हाहाकार कर उठा | वह तो संसार से विरक्त हो गए थे फिर ये क्या हो रहा था उन्हें ? उनका मन अधीर क्यों हो रहा था ? आँखे बंद किये वह समाधि की मुद्रा में बैठे स्वयं से लड़ रहे थे | हृदय की अतल गहराइयों में उपजी हलचल से आँखें भर आईं परन्तु उन्होंने अपनी पलकों के मजबूत बाँध में खारे जल को समेट लिया | वह अब भी यहीं है ? क्यों ? किस लिए ? किसके लिए ? उस दिन तो...! मन फिसल गया अतीत के सागर की गहराइयों में |

*

जब से वह नई नवेली दुल्हन विदा करा कर आया था तब से उसके दोस्तों ने उसे घेर रखा था | कोई कुछ तो कोई कुछ सिखा रहा था | वह भी उत्साहित था उसे छूने के लिए, धीरे से चिकोटी काटने के लिए और गुदगुदाने के लिए और हाँ उसके गाल पर एक चुम्मा भी देना था, ये बात बिनोदा ने उसके कान में कह कर सिखाया था | पर जैसे ही रात हुई बाबा ने बुला कर अपने पास लिटा लिया, बोले-“थक गया होगा, चल सो जा |” पर उसे तो अपनी दुल्हन के पास जाना था | उसने तो उसे ठीक से देखा भी नहीं था | बाबा उसे अपने पास लिटाये बातें करते रहे | पूरा कमरा रिश्तेदारों से भरा था, वह साँस रोके पड़ा रहा | जब देखा कि सभी सो गए हैं, दबे पाँव उठ कर अपनी दूल्हन के कमरे की ओर बढ़ गया | धक्का देते ही दरवाजा खुल गया, देखा पलंग पर एक अनुपम सुन्दरी सो रही थी बिल्कुल वैसी ही जैसी ददिया की कहानी की सोन परी ! जो सब परियों में सबसे सुन्दर थी पर उसे धरती के एक राजकुमार से प्रेम हो गया था इसी कारण उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया था और वह धरती पर आ गई थी | वह वहीं बैठ कर उसे निहारने लगा, जगाने का मन नहीं हुआ तो उसकी चमचमाती, रंग-बिरंगी मोतियों की लटकन वाली नथ से खेलने लगा तभी दुल्हन की आँख खुल गई | दुल्हन ने घूरती नजरों से देखा तो उसे लगा कि अचानक नींद खुल जाने से वह घूर रही है, अभी मुस्कुरा देगी पर कुछ पल बाद ही जैसे भूचाल आ गया |

स्वामी जी का हृदय कराह उठा एक पीड़ा की लहर उठी और उनके नेत्रों के कोरो में सेंध लगाने लगी |

***