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सैलाब - 7

सैलाब

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

अध्याय - 7

ग्यारह बज कर तीस मिनट हो चुके थे। सूरज मुंडेर पर आ खड़ा था। उस की प्रखर किरणें सिर पर वार करने लगी थीं। दोपहर होने को थी लेकिन शतायु वापस घर नहीं लौटा था। शतायु के अभी तक घर न पहुँचने से बेबे परेशान थी। उम्र का असर उनके शरीर पर साफ साफ नज़र आ रहा था। बेबे लकड़ी के सहारे चलती है। एक हाथ में लकड़ी पकड़ कर दूसरे हाथ को कमर पर रख कर हिलती-डुलती घर के दस बार चक्कर काट चुकी है। रसोई में खाने के व्यंजन आदि तैयार कर रखे हैं। सुबह से शतायु का कोई पता नहीं। बेबे परेशान हो कर बार बार अंदर बाहर चक्कर लगाने लगी।

उस दिन शतायु का जन्म दिन था। बेबे ने उसकी पसंद का सारा खाना बनाया था, वह जानती थी शतायु जन्म दिन पर मानसिक तौर पर बहुत परेशान रहता है। जन्म दिन पर लोग साथियों के संग खुशियां मनाते हैं लेकिन शतायु के लिए उस दिन कोई शोक से कम नहीं है। उसके परिवार को याद करते हुए वह गुमसुम सा हो जाता है। उसकी परेशानी सब से छिपी रहे इसलिए वह सबसे दूर जाकर कहीं अकेले में समय व्यतीत करता है। उसके जन्म दिन के कुछ ही दिनों बाद ही उसकी जिंदगी में वह सैलाब आया था। उसका अपने परिवार के साथ समय बिताने का और जिंदगी की खुशियों का आखिरी दिन था। उस के बाद उसकी खुशियां ऐसे बिखर गयीं कि जिंदगी में उन पलों को वह आज तक समेट नहीं पाया। जैसे कि उसकी जिंदगी वहीं रुक गयी।

वह भयंकर हादसा जब भी याद आता है, शरीर कांप उठता है। यह एक ऐसा वक्त था जो लाशों से हो कर गुज़रा था। ऐसे ही एक वक्त से उबर आने की दशा क्या होती है वही जानता है जो उस वक्त के हादसे से गुजरा हो। एक भरा पूरा गाँव एक साथ तबाह हो गया था। बच्चे, बूढ़े, माँ ,बाप सब एक ही रात मौत कि नींद सो गए। किसी ने अपनी माँ तो किसी ने अपने पिता और कईयों ने अपने परिवारों को भी खो दिया। उन्हीं में से एक परिवार शतायु का भी था। आँखों की नींद आँखों में ही रही और लोगों ने दम तोड़ दिया। वह दर्द नाक रात कोई भूल भी कैसे सकता है।

जहरीली हवा नाक कान में जाते ही असर करने लगी। लोग खून की उल्टियां करने लगे। साँस लेने में परेशानी के साथ-साथ कई आंखें नाक और गले कि जलन से लोग बेहोश होने लगे। कोई माँ को पुकार रहा था, तो कहीं माएँ अपने बच्चों को आगोश में लेकर तड़प रही थी। उस जहरीली हवा से कोई नहीं बच पाया। पूरा गाँव का गाँव एक पल में शमशान में तब्दील हो गया। लोग चीखते चिल्लाते रहे, मदद के लिए पुकारते रहे, कोई मदद करता तो कैसे? खुद को और अपने परिवार को संभालते रहे फिर वक्त मिले तब न दूसरों के बारे में सोचते, बस कुछ ही पल में पूरा गाँव …… शमशान में बदल गया।

कोई अपने बच्चों को लेकर चीखता रहा, कोई नींद में रहते ही खाँसी से तडपने लगा। कोई बूढे माँ बाप को अस्पताल ले जाने को बेकरार था, कोई परिवार अपने बच्चों की जान बचाने को भीख माँगता रह गया। शतायु की बेबे ने गहरी सांस लेकर छोड़ी। इस हादसे की वे चश्मदीद गवाह है जो वास्तव को जीर्ण कर भी जीवित रही।

वह अपने आप में ही बड़बड़ाने लगी – "न जाने कहाँ गया ये लड़का। कुछ बताया नहीं, न कुछ पता, न कोई खबर है। सूरज सिर पर चुभने लगा है। सुबह से न कुछ खाया न कुछ पिया, कब आएगा यह भी पता नहीं। कब से इंतज़ार कर रही हूँ।"

-" रामू ... रामू।"

रामू को आवाज दे कर बुलाया। रामू कहीं से दौड़ कर आया - “क्या है बेबे? क्या बात है?”

- "रामू देख तो बाबा अभी तक नहीं आया। क्या तुझे पता है कहाँ गया?"

- "नहीं बेबे मैंने भी नहीं देखा सुबह से घर में नहीं है क्या?"

- "घर में होता तो मैं तुझे क्यूँ पूछती भला?" बेबे ने कमर पर हाथ रख कर कहा।

- "हाँ सही बात है।" कह कर रामु ने सिर इधर उधर हिलाया।

- "जा तो, जा कर रमेश को बुला कर ले आ, उसे पता होगा शतायु कहाँ होगा।"

- "ठीक है बेबे अभी जा कर बुला कर लाता हूँ। वह बाहर निकल ही रहा था कि इतने में गेट से रमेश की आवाज़ सुनाई दी - शतायु … शतायु…"

बेबे ने घर के आंगन में आकर देखा तो रमेश था, शतायु का दोस्त। उसने बेबे को देखते ही पूछा - "बेबे शतायु कहाँ है?"

- "अरे बेटा मुझे लगा, तुझे पता होगा।"

- "नहीं बेबे, मुझे पता होता तो ढूंढ़ते हुए यहाँ क्यूँ आता? मैंने भी सुबह से नहीं देखा उसे। वह ऑफिस भी नहीं गया आज, इसलिए पूछने चला आया।"

- "अरे बेटा, बाबा तो भोर से ही कहीं चला गया है, अभी तक उसका कोई अता पता नहीं, जा न जरा देख कर आ, कहीं बैठा होगा … ।" अनुरोध करते हुए कहा। बेबे को शतायु का नाम कहना कठिन लगता है इसलिए वे शतायु को बाबा कह कर बुलाती है।

- "ठीक है बेबे, मैं देखता हूँ, आप चिंता मत कीजिए, कहीं भी होगा तो मैं पकड़ कर लाऊंगा।"

- "ठीक है बेटा, तू तो जानता है, आज का दिन तो उसका हाल ऐसे ही रहता है ...गुमसुम, किसी से बात भी नहीं करेगा। चुपचाप कहीं जा कर बैठा होगा। सुबह से एक भी दाना नहीं खाया। भूखा प्यासा कहीं भटक रहा है। तुझे पता होगा वो कहाँ होगा। सुबह शाम चिंता ही तो रहती है। उसके हम उम्र सभी बच्चों की शादी हो गयी मगर ये शादी के नाम से दूर भागता है । उसकी शादी होजाये तो मेरी जान छूटे। किसी तीरथ पर जाकर माथा टेकूँगी। लेकिन ये छोरा तो शादी करने से रहा.. । चल तू जा, जरा लेकर आ बेटा उसे।"

- "जी बेबे मैं जा रहा हूँ। देख कर आता हूँ, नहीं उसे साथ ले कर ही आऊंगा। ठीक है।"

- "जीता रहे बेटा। धन्यवाद।"

- "बेबे, बेटा भी कहती हो और धन्यवाद भी करती हो?" रमेश ने पीछे मुड़ कर बेबे को देखते हुए कहा।

- "बस यूँ ही जुबान से निकल गया। जा बेटा देख कर आ ....।" रमेश चला गया।

रमेश शतायु के पड़ोस में ही रहता है। रमेश और शतायु बचपन में एक ही स्कूल में पढ़ते थे दोनों की दोस्ती खूब जमती है। एक को बगैर बताए दूसरा कहीं नहीं जाता। एक को दूसरे की हर खबर पता होती है। वह अच्छी तरह जानता था, इस वक्त शतायु कहाँ हो सकता है। वो बेबे से इजाज़त लेकर उसे ढूँढने चल पड़ा। उसे यकीन था कि शतायु वहीं होगा जहाँ अक्सर वह दुखी होने पर चला जाता है। पुराने टूटे फूटे खंडहर के बीच एक रास्ता जिसके दोनों तरफ झोंपड़ियाँ थीं जो कि सदियों से धूप और बारिश में भीगती आयी है। रास्ते के एक तरफ अनाथालय है जिसके आंगन में कुछ बच्चे नंगे पैरों से मिट्टी में खेलते हुए आपस में झगड़ रहे थे। फटे कपड़े, बहती हुई नाक, गंदगी में पले हुए वे जैसे किसी अभिशाप की कीमत चुका रहे थे।

रमेश साइकिल हाथ में लिए उन्हें देखते हुए कुछ क्षण खड़ा रह गया। एक ही पल में उसके मन में न जाने क्या क्या भावनाएं उमड़ आयीं - अगर इनके माँ बाप आज जिन्दा होते तो शायद इन बच्चों की ये दुर्दशा नहीं होती। वे भी कहीं अच्छी जिंदगी जी रहे होते। किसी स्कूल या किसी आंगन में खेल रहे होते। बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं, न जाने किस जन्म की सजा भोग रहे हैं।

रमेश एक लंबी सांस छोड़ कर आगे निकल गया। कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी जलजला, प्रकृति की तांड़व लीलाएं तो बहुत देखी हैं, मगर शहर में जो मानवीय दुर्घटना घट गयी जिसने कई हज़ार जिंदगियों पर कहर ढा दिया। इनकी जिंदगियाँ रेगिस्तान में पानी के लिए तड़पते पथिक की भांति पिता माता के स्नेह के लिए तड़पते रह गई। वे अनाथ, लाचार, अपाहिज हो कर और अपनों को खो कर एक अच्छे जीवन के लिए तरस रहे हैं।

भारी मन से रमेश गली से निकल कर रास्ते पर पहुँच गया। कुछ दूर जाते ही दूर से यूनियन कार्बाइड कंपनी नज़र आने लगी, जो कि काल सर्प बन कर कई हज़ारों जिंदगियां निगल गयी थी। कुछ दूर जाकर वह साइकिल को एक पत्थर के सहारे छोड़ कर पैदल आगे बढ़ने लगा। वहीँ कुछ दूरी पर कोई निश्चल शांत बैठा नज़र आया। जैसे कि वह ध्यान मग्न था, रमेश ने उसकी ओर कदम बढ़ाये। उसे पूरा यकीन था कि वही शतायु है।

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