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सैलाब - 9

सैलाब

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

अध्याय - 9

कुछ साल बीत गये और पावनी की शादी रामू से हो गयी। पावनी एक संयुक्त परिवार की बहू बन गयी। जब तक नौकरी करती थी तब तक शतायु को पढ़ाने-लिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी मगर जैसे ही उसे नौकरी छोड़नी पड़ी शतायु की पढ़ाई के लिए उसे रामु के सामने हाथ फ़ैलाने पड़े यह बात शतायु को बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी। अपनी खुद्दारी के कारण शतायु को रामू से फीस भरवाना नागवार था। पावनी फिर भी अपनी थी जिसे वह माँ जैसा प्यार करता था। इसलिए पावनी का रामु से पैसा लेना शतायु को अच्छा नहीं लगता था।

शतायु जैसा होनहार बच्चा ग़म के साये में हारा हुआ अकेला पड़ने लगा। वैसे भी वह शापित जिंदगी जी रहा था अब पावनी के ऊपर उसका बोझ बढ़ते देख वह खुद पावनी से अलग होने की सोचने लगा। वह फिर से उन गलियों में लौट आया जिस गली में उसने जन्म लिया और माँ बाबा के साये बड़ा हुआ। उसी गैस हादसे में बेबे ने अपना परिवार खो चुकी थी। उसके जवान बेटे को खो कर अकेली जी रही थी। दुखी को दुखी ही सहारा दे सकता है और इस तरह उन दोनों ने एक दूसरे में अपना जीने का सहरा ढूंढ लिया।

पावनी शतायु को बेबे की सहारे छोड़ आश्वस्त हो कर ससुराल वापस लौट गयी। वह हर महीने कुछ रुपये भेज दिया करती थी और जब भी वक़्त मिले शतायु से मिलने चली आती थी।

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'हर स्त्री के अन्दर एक सैलाब छिपा होता है। जो कभी ज्वाला मुखी बन कर फट पड़ता है या तो अंदर ही अंदर स्त्री को सकुचा देता है। जिनके अंदर हिम्मत होती है वो किसी भी हालात में इस बवंडर से खुद को बाहर निकालने में सक्षम होते हैं लेकिन कुछ स्त्रियाँ संस्कार और कुटुंब की मर्यादा के बीच पिस कर रह जाती हैं और इस दावानल को अंदर ही दबा कर घुट- घुट कर जीती हैं। अक्सर ये ज्वालामुखी समय के दबाव में फटजाता है और स्त्री का जीवन इस दबाव में आकर झुलस कर रह जाता है। वे कभी परिवार की भलाई के लिए तो कभी सभ्यता और संस्कृति के नाम पर इस जहर को अपने अंदर छुपा कर रखती है। हमेशा स्त्रियों को ही क्यूँ संस्कृती और सभ्यता की नोक पर खड़ा कर दिया जाता है? क्या पुरुष के लिए ये सभ्यता संस्कृती लागू नहीं होती?' पावनी लिखते लिखते रुक गयी। कलम को दांतों के बीच दबाकर सोच में पड़ गयी।

'क्यों होता है ऐसा कि स्त्री जब भी खुद को एक मुकाम पर खड़ा करने के लिए आगे बढती है, तब-तब उसे कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। मेरी जीवन की भी ऐसी ही एक कहानी है जो हर पल खुद को साबित करने का प्रयास करते-करते आज ४५ सावन बीत चुके हैं। जब अपने जीवन को पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो क्या देखती हूँ, सिर्फ एक वीरान सी जिंदगी। जिस जीवन में ऐसे कई मोड़ आ कर गुजर चुके हैं जिन्हें मैं केवल एक दर्शक की तरह चुपचाप देखने के अलावा कुछ न कर सकी। पर अब कुछ करना है मैं जीवन में एक गुमनाम मौत मरना नहीं चाहती, जो सिर्फ एक अंधकार से प्रारंभ हो कर किसी अंधकार में खो जाए।'

पावनी भी उन लोगों की तरह है जो एक मध्यवर्गीय कुटुंब में जन्म लेती है और वहीँ दम तोड़ देती है। बिना किसी पहचान के एक बेनामी मौत जिसके जाने के बाद किसीको कोई फर्क ही नहीं पड़ता सिर्फ परिवार के कुछ सदस्यों के अलावा। मरना तो हर इंसान को है मगर ऐसी मौत मरने का फायदा क्या जब कोई उसकी कमी महसूस ही न करें? ऐसे मरना पावनी को बिल्कुल पसंद नहीं था।

'कुछ तो करना है जिससे मरने से पहले कुछ समाज को मिले ताकि मेरे जाने के बाद भी लोग याद करते रहे। इसके लिए अपनी एक अलग पहचान बनाना भी कोई आसान कार्य नहीं है।' पावनी अपने अंदर के दर्द और खोखलेपन को शब्दों से कागज पर लिख रही थी।

लेखिका का जीवन ऐसा है कि गुजरे पलों में वह खुदको ढूंढती रह जाती है, जिन पलों में वह खुद को महसूसती है खुद को तराशती भी है तो सिर्फ खुद को समझने के लिए। अंतर्मन भी कभी अपने सामने खड़े हो कर बात करने लगता है जैसे आईने में अपनी प्रतिछवि। मुझसा, ही एक और प्रतिबिम्ब।

पावनी एक साधारण कुटुम्ब की स्त्री, एक पत्नी और एक माँ बन कर जीवन जिया है। पावनी अपने कुटुंब, परिवार, पति और बच्चों में ही अपना अस्तित्व खोजती आई है। एक साधारण स्त्री साड़ी में लिपटी हुई, बच्चों को गले लगाकर उनकी परवरिश में स्नेह और सुख देने में ही उसने कई साल गुजार दिये। सिर्फ देने के अलावा कुछ नहीं चाहा उसने लेकिन कभी कभी अपनों की बाते भी दिल को इस तरह घायल कर देती है तब एहसास होती है कि एक बेटी पत्नी माँ होने के अलावा भी खुद की एक और पहचान होना जरूरी है।

संयुक्त परिवार में रहते सास माधवी, ससुर रघुनाथ, देवर सृजन इन सभी की जिम्मेदारी अपने काँधों पर लिए हर एक की ख्वाहिश को पूरी करती आई है। लेकिन बदले में क्या मिला उसे एक नौकरानी की हैसियत। सुबह से लेकर शाम तक घर संभालना सास की जलीकटी सुनना, हृदयरोग से ग्रसित ससुर जी की सेवा में दिन गुजर जाता। देवर सृजन की भी हर छोटी छोटी जरुरतों का ख्याल रखना और उसका हर तरह का नखरा बरदाश्त करना पावनी के जिम्मे था।

शादी से पहले एक अच्छी इज्जत भरी जिंदगी जीनेवाली पावनी, परिवार को खो चुके शतायु की देखभाल में कई साल गुजारने के बाद राम के प्यार भरे हाथ को थाम कर इस घर में गृहप्रवेश किया था। राम का बेशुमार प्यार उसे जन्नत का एहसास करवा देता था। उसी का प्यार ही था जिससे वह बहुत खुश थी, अनेक आशाओं के साथ उसने नई जिंदगी में कदम रखा था।

हृदय रोग से पीड़ित उसके ससुर रघुनाथ जी के काम से अवकाश प्राप्त होने के बाद सास माधवी और देवर सृजन जो इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा था, सभी बेटे राम के पास रहने आगये। राम का पूरा परिवार एक साथ रहना स्वाभाविक था। लेकिन उसके बाद जैसे पावनी के जीवन में तूफ़ान मच गया। एक तरफ रघुनाथ जी के दिल की बीमारी, साथ ही माधवी की जलीकटी बरदाश्त करना, उसके लिए मुश्किलें खड़ी हो गयी थी। घर में उनके प्रवेश करते ही घर की चाबी माधवी जी के हाथ चली गयी फिर घर में एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गयी।

सोहम और सेजल के बाद पावनी को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी। शतायु के लिए एक एक पैसा जोड़ना उसे बहुत मुश्किल होने लगा। राम पावनी का दुःख समझते हुए कुछ पैसे चुपके से उसे दे देता। लेकिन शतायु का पावनी के साथ रहना उसकी सास माधवी को चुभने लगा। तब शतायु ने मौसी के घर छोड़ भोपाल में अपने घर में जाने का फैसला कर लिया, जिससे उसे राहत मिली।

माधवी जी बहुत शकी स्वाभाव की औरत थी। राम का पावनी के प्रति प्यार को वे राम उनके बीच दूरी का कारण समझती थी। इसका इल्जाम भी पावनी पर ही था। इसलिए वह कभी पावनी को दिल से अपना न सकी। राम का प्रेम विवाह उन्हें फूटी आँख नहीं भाता था। उनके बेटे के घर कदम रखते ही घर का सारा बोझ अपने कंधों पर ले लिया था। राम घर में जो भी कुछ चीज़ें ले आता माधवी उन्हें अलमारी में बंद कर रखती थी। एक एक चीज़ के लिए सासुमाँ के सामने हाथ फैलाना पावनी के लिए दुर्भर हो गया था। यहां तक के बच्चों के लिए कुछ खरीदना हो तो भी अपने मरज़ी से कुछ नहीं कर सकती थी। सब्जी से लेकर फल फूल तक के लिए भी उनकी इज़ाजत लेनी पड़ती थी। स्वतः खुद्दारी के साथ जीने वाली पावनी शिक्षिका भी रह चुकी थी। लेकिन सास के रहते न उसे नौकरी की इज़ाजत मिली ना घर चलाने की स्वतंत्रता। एक एक पैसे के लिए मोहताज़ हो गयी।

माधवी जी अपने बच्चों से प्यार तो करती थी लेकिन बेटे की बहु के साथ नज़दीकी उन्हें बरदाश्त न होती थी। सब की नज़रें अपने ऊपर केंद्रित रखने के लिए वह हर छोटी-छोटी बात पर हंगामा मचा देती थी। बहु पावनी की स्वतंत्रता तो छिन ही गयी थी साथ ही पति का माँ को कुछ न कह पाना उसे तोड़ कर रख देता था। राम का अपने माँ की आदतों को समझते थे पर उनका दिल नहीं दुखा सकते थे। अतः हर बात पर पावनी को ही बुरा भला सुनना पड़ता और हर पल समझौता करना पड़ता था।

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