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अंशकथा

कथा 01- मिथ्या की सच्चाई

आज कल के परिवेश में ये शब्द ही मिथ्या स्वरुप लगता है। सच्चाई नामक शब्द उसी प्रकार विलुप्त हो रहा है जैसे कि डायनासोर । हाँ और ये तो वैज्ञानिक रुप से प्रमाणित है कि हम जिस वस्तु का उपयोग करना कम कर देते है या उसको लम्बे समय तक उपयोग में न लाने पर वे विलुप्त हो जाती है।
वैसे भी जो चीज जीवन में कठिनाई का सबब हो , उसको उपयोग ही कौन करता हैं। आज के समय में हम हर चीज सरलता और सुगमता से प्राप्त करने की घनिष्ठ इच्छा रखते है । हम जीवन को पूर्ण मिथ्या और दिखावे की तरफ ले जा रहे हैं। मिथ्या नामक शब्द को अगर जानना है तो हमें राजनीति नामक शब्द का मंथन कर लेना चाहिए। क्योंकि राजनीति , मिथ्या की जननी है एवं राजनेता उसके पालनहार । कर्म , धर्म , न्याय एवं कानून आज राजनीति और नेताओं के इरध-गिरध घूमने वाले वे इलेक्टॉन है, जो कहने को तो अपनी -2 कक्षा में भम्रण करते है परन्तु स्वतन्त्र रुप से कार्य करने की इजाज़त किसी को नहीं। अन्तिम शब्दों में यही कहा जा सकता है कि यदि इसी तरह मिथ्या को प्राथमिकता प्रदान की गयी तो सच्चाई को विल्पुत होने में कोई दो राय नहीं और तब हम उसी प्रकार हो जायेगें जिस प्रकार बिना जल के मछली।।

कथा 02- जर्जर झोपड़ी

बरसात अपने चरम पर थी , और बारिश के बल पर गांव के आसपास की नदियां और तालाब गांव की तरफ इस प्रकार देख रहे थे जैसे कोई भूखा शेर अपने जबड़े को खोलकर शिकार की घात लगाए बैठा हुआ और उसको निगल जाने के लिए तड़प रहा हो ।नदियों और तालाबों का यह इतराता मिजाज़ ये बताने के लिए काफ़ी था कि उनको अपनी इस बढ़ती हुई लहरों पर घमंड सा हो चुका है । पर वो ये भूल रही थी कि ये बल उनका नहीं उस बरसात का है । जो बूंद-बूंद गिरने के बावजूद भी सबकुछ बड़ी ख़ामोशी से खत्म करने का बल रखती है ।
आसपास की जमीनों को लगातार अपने आगोश में लेती हुई नदियां यह स्पष्ट तो जरूर कर रही थी कि वह अब सब कुछ निगल जाने के लिए बेताब हैं और साथ ही साथ वह एक सीख भी दे रही थी कि जब किसी चीज़ में गहराई की कमी होती है , तो उसके पास धैर्य और संगठन की भी स्पष्ट कमी नज़र आती है। इसकी जगह अगर हम उस सागर को देखें जो खुद खारा तो होता है पर बहुतो को जीवन देता है क्योंकि उसके पास वो गहराई होती है जिसमें वह खुद को इकट्ठा रखता है ।
कई दिनों से हो रही बारिश के कारण पूरा गांव जलमग्न हो चुका था ।
बारिश की क्रूरता का हिसाब वो जर्ज़र झोपड़ियां बखूबी दे रही थी जो चंद दिनों पहले अपने अडिग हौसलों का दम भर्ती थी। उनकी भी वही हालत थी जो हालातों में टूटे हुए किसी इंसान की होती है । पर ये जरूर मानना पड़ेगा कि वो खुद तो खर-पतवार और मिट्टी से बनी एक इमारत मात्र है पर उनका वो अंत तक लड़ने और हार ना मानने का ज़ज्बा देखते बनता है । बारिश कि बूंदों से लड़ती हुई झोपड़ी की हर घास मानो चीख चीखकर यह बोल रही हो कि वह अडिग है और आखिरी सांस तक उनके लिए लड़ेगी , जिनको उसने अपनी छांव में पाला है ।
वह अंत तक बिना डरे लड़ती है । लाख हवाओं के थपेड़ों , बारिश की धमक सकती है। कभी-कभी वो मग़रूर हवा के झोंके झोपड़ी को ज़ार ज़ार करते हुए उस को उखाड़ फेंकते हैं । पर झोपड़ी अपने अंत समय में भी हंसते हुए ही समाप्त हो जाती है और बहुत बड़ी सीख छोड़ जाती है।
ताज़्जुब तो तब होता है जब हम इंसान एक मामूली सी दुख रूपी हवा के झोंकों को सहने में नाकाम साबित होते हैं। हल्की सी समस्या भी हमें तोड़ कर रख देती है , जबकि हम चाहें तो हंसते हुए हर समस्या का सरलता से समाधान निकाल सकते हैं ।पर इच्छाशक्ति की कमी हमें मजबूर और कमजोर करने में हमारा पूरा सहयोग करती हैं । मैं पूछना चाहता हूं कि अगर वो बेजान झोपड़ी अपने भीतर रहने वालों को अंत तक नहीं छोड़ती तो हम परिस्थितियों और हालातों के आगोश में आकर खुद को खत्म कर उन सभी को बीच में कैसे छोड़ कर चले जाते हैं ।
इसलिए खुद को नुकसान पहुंचाने से पहले एक बार अपनों के बारे में सोचें और हालातों से लड़ना सीखे , उन से डरकर दूर भागना नहीं।