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शुरूआत

शुरूआत

नेहा ज्यों ही लाइब्रेरी में दाखिल हुई, कोई आंधी की तरह उस से टकराते-टकराते बचा, ’’ सुनिए आप ने ’’ ’मैडम बावेरी’ इष्यू करवाई है क्या? आप शायद हफ्ते भर से ...........’’ कहते - कहते प्रभात रूका शायद उसे इस तरह एक अपरिचत लड़की से बात करने पर अटपटा लगा. पर अपनी उस झेंप को जाहिर करने से ज्यादा महत्वपूर्ण उसे ’मैडम बावेरी ’ को हासिल करना लग रहा था, जिसे लाइब्रेरियन के अनुसार ’ इन मोहतरमा ने पिछले एकडेढ़ हफ्ते से इष्यू करा रखा था।

प्रभात एक अरसे से इस किताब को पढ़ना चाहता था। अब जा कर इस लाइब्रेरी में इसकी एकमात्र प्रति उपलब्ध हुई भी तो यह साहिबा इसे लेकर गायब थीं।

’’देखिए, अगर आप ने पढ़ ली हो तो प्लीज .....’’ प्रभात ने भरसक अपनी आवाज को संयत रखने की कोषिष की । लेकिन उसके लहजे से उसकी खीज प्रकट हो ही गई।

’’ जी, मैं ला दूंगी’’, नेहा किसी तरह बोल पाई थी।

’उफ कितना लंबा है। उसे देखने के लिए अपनी पूरी गरदन उठानी पड़ रही है,’ नेहा के बदन में सनसनाहट सी पैदा होने लगी। जाने क्यों दिल धकधक करने लगा और माथे पर पसान आ गया। इस बीच प्रभात जा कर अपनी कुरसी पर बैठ गया था और काफी ध्यान से कोई पत्रिका देख रहा था। नेहा ने लंबी लंबी सांसे ली और कनखियों से फिर उसे देखा। ’सच एक बार इस ताड़ जैसे आदमी को देखने के बाद उसे आसानी से भुला पाना कठिन है। अभी कुछ ही दिन पहले तो देखा था इसे ’, नेहा को याद आ गया।

उस दिन नेहा भैयाभाभी के साथ सिविल लांइस जा रही थी। एकाएक उसकी नजर आनंद भवन के पास पटरी पर पोस्टर वाली दुकान पर गई।

’’भैया, जरा गाड़ी रोकिए। ’’

’’क्या है? ’’ कहते हुए भैया ने गाड़ी रोक दी।

’’अरे शाहरूख खान का पोस्टर ’’, कहते हुए वह कार से बाहर हो ली।

’’यह लड़की भी....’’ भैया भुनभुनाते हुए उसे सड़क पार करते देखते रहे।

पोस्टर काफी ऊचाई पर टंगा था’, ’’मुझे वह चाहिए ...’’ नेहा हांफ रही थी । सड़क पार करने की वजह से नहीं बल्कि रोमांच और खुषी की वजह से । उसने पोस्टर की लगभग हर दुकान पर पूछा था, पर सभी कहते कि अभी तो वह हिट हुआ है, इतनी जल्दी पोस्टर कैसे आ जाएगा। कोई कहता आर्डर दिया है.... बस कुछ ही दिन में आ जाएगा। नेहा ही नही, उसकी सभी सहेलियां भी शाहरूख की दिवानी थी । पर यह क्या, पास खड़े लड़कों के झुंड में से भी एक ने उसी पोस्टर की तरफ हाथ बढ़ा दिया नेहा का दिल डूबने लगा कि लो गया हांथ से ।

’’ इसे मैं ले रही हूं......’’ उसने आजिजी से कहा और पोस्टर की ओर हांथ बढ़ाया .....पर हाथ उस तक पहुंचा नहीं...

’’ इन्हें ही ले जाने दो,’’ कहते हुए किसी ने बड़े आराम से पेस्टर उतारा और लपेटते हुए उसे बड़ी गहरी नजर से देखा। वह झेंपक र पर्स से पैसे निकालने लगी।

’’मुझे बहन को गिफ्ट देना था,’’ वह लड़का झुंझला पड़ा।

’’ किसी और दुकान पर देख लेंगे.....उस लड़के ने पोस्टर नेहा को थमाते हुए अपने दोस्त को दिलासा दिया। पोस्टर लेते हुए नेहा को उसे ध्न्यवाद देने के लिए अपनी गरदन बहुत ऊपर उठानी पड़ी थी । शायद बड़ी लड़की का यों टीनएज लड़कियों की तरह पोस्टर खरीदने पर उसे ताज्जुब हो रहा होगा। ’हुह हुआ करें,’ नेहा ने सोंचा ।

नेहा के इस तरह फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियों के पोस्टर खरीदते फिरने को सभी सनकीपन कहते थे। पर नेहा क्या करे, वह क्रेजी है तो है। इसी क्रेज के चलते तो उसने, मैडम बावेरी भी इष्यू कराई थी वरना उसकी साहित्यिक समझ तो सिर्फ कोर्स की कितबों तक ही सीमित थी । अब उसने कहीं पढ़ लिया था कि ’मैडम बावेरी’पर फिल्म बन रही है और फिल्म में शाहरूख खान भी है, तो बस उसे धुन लग गई, ’मैडम बावेरी ’ पढ़ने की। पर लाख चाह कर भी उस किताब को पूरा नहीं पढ़ पाई।

नेहा ने अपने आप को फालतू खयालों से जुदा किया और ’सिडनी शेल्डन’ के उपन्यासें के रेक की ओर बढ़ ली पर किताबें चुनने में भी मन न लगा। उसने कुछ पत्रिकाएं उठा लीं और एक खाली कोने में बैठ े गई। पत्रिका पर नजर गड़ाए वह आषीष की चिट्ठी को याद करने लगी जो कल ही आई थी और अब भी उसके पर्स में पड़ी थी । उसे निकाल कर फिर से पढ़ने का उसका मन नही किया। और तो और उसे इस बात पर भी चिढ़ हो आई ि कवह चिट्ठी उसके पर्स में क्या कर रही है। उसे वह घर पर ही किसी मेज य किसी दराज में क्यों नही छोड़ आई । अनजाने ही उसकी आंखे फिर कोने वाली में की ओर उठ गई और एक पल को तो वह सकपका ही गई उधर भी सकपका कर नजर झुका लेना हुआ।

नेहा से फिर और बैठ। न गया। वह तुरंत लाइब्रेरी से बाहर आ गई। सड़क पर आ कर उसने रिक्षा लिया और प्रभा के घर चल दी। प्रभा के घर उतरी तो उसे पता चला वह तमाम रास्ते उस गैंडे जैसे लड़के के बारे में ही सोंचती चली आई है। यह आषीष की जगह कैसे ले सकता है।

आषीष उस का मंगेतर है। उसकी ट्रेनिंग पूरी होते ही उन की शादी हो जाएगी । वह उस की पसंद का वर है। वह सिर्फ उसे ही प्यार करती है। लेकिन आज उसे अपनेआप को इन बातों का विष्वास दिलाने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है। उसने सिर झटक कर इन विचारों से खुद को मुक्त किया और प्रभा के घर में घुस गई।

नेहा सोच कर गई थी कि प्रभा से खूब बातें करेगी। कोई नई फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाएगी, पर वहां जा कर प्रभा की उदासी ने उसे भी अंदर तक उदास कर दिया। प्रभा का अफेयर एक गैर जाति के लड़के से चल रहा था। पर दोनो तरफ के लोग इस शादी के खिलाफ थे।

’’तु अच्छी है यार, जिसे प्यार किया, उसी से शादी भी हो रही है। ’’

प्रभा की बात सुनकर न जाने क्यों नेहा भी उदास हो गई उसने उसे सांत्वना दी कि सबकुछ ठीक हो जाएगा, पर उसे खुद पता न था कि सबकुछ कैसे ठीक हो जाएगा?

घर आई, तो सभी को टीवी के पास पाया। ’वी.सी.आर. ’ पर कोई हॉरर फिल्म लगी थी। ’’बस अभी शुरू की है ’’ भैया ने फिल्म पर निगाह जमाए ही उसे बताया। केई और दिन होता तो वह फटाफट से कुषन ले कर बेड पर अपनी पसंद की जगह खाली करने को मचलती, भैया से फिल्म रिवर्स कर के लगाने को कहती। पर उस दिन उसे भैया की पुकार को अनसुना कर लॅान में बैठ कर मैगजीन पढ़ने के बहाने खोए रहना ज्यादा अच्छा लगा। वह सोचने लगी की कोई जरूरी है कि जितनी भी उलटीसीधी फिल्में रिलीज हों उन्हे देख ही लिया जाए। इसलिए कि घर में वी.सी.आर. है। यह भैया भी आफिस से लौटते समय 2-3 कैसेट जरूर लाएंगे नई फिल्म नहीं होगी तो पुरानी अैर वह भी न होगी तो अंगरेजी ही ले आंएगे । हमेषा बिस्तर में धंसे एक के बाद एक फिल्म देखे जाओ, जैसे कोई रूटीन हो। पर आजकल उसे सबकुछ बेतुका क्यों नजर आने लगा है?

उस रात नेहा को खूब मीठी नींद आई थी न जाने क्यों ? वैसे सोती तो रोज ही वह घोड़े बेच कर थी, पर उस रात जैसी नींद .......आंखे एकदम सुबह खुलीं कोई भी नही जगा था। यों भी इस घर में सुबह 9 बजे से पहले कभी होती ही नही थी। उसे प्रभा की बातों पर आष्चर्य होता था, ज बवह कहती थी कि उस के घर 10 बजे तक सोना और सुबह 5 बजे तक उठ जाना एक नियम की तरह है। कभी इसमें फेरबदल की गुंजाइस नहीं होती।

उस दिन नेहा का बिस्तर में यों ही लेटी रहने और चाय का इंतजार करते रहने का मन नहीं हुआ। उठ कर लान में चली आई धुंधलाई हुई सुबह प्यारी ठंडी हवा और क्यारियों में खिले पीले गुलाब ......उस दिन से पहले उसे न तो अपने घर के लान का इतना सुदंर होना पता था और न ही यह कि सुबह इतनी रोमानी भी होती है।

लाइब्रेरी ज्वाइन करने के पीछे नेहा का सिर्फ एक ही मकसद था, टाइम पास करना । ब्यूटी, कुकरी, बेकरी,जापानी, फूलसज्जा शैली आदि तमाम तरह के कोर्स वह पहले ही कर चुकी थी। प्रभा से अभी नई नई दोस्ती हुई थी प्रभा जिसकी दुनिया इंदर था, दोनों या तो भविष्य की योजनाएं बनाते या फिर दुनिया भर की साहित्यिक किताबें लेदे कर पढ़ते पढ़ाते और उन पर सभी आष्चर्य करते कहां बड़े अफसर की लाडली फैषनपरस्त नेहा और कहां मध्यमवर्गीय दुबलीपतली,सपनीली आंखो वाली प्रभा पर दोनो में दोस्ती थी और खूब थी। इसी दोस्ती के चलते उस ने भी लाइब्रेरी की सदस्यता ले ली, जहां प्रभा यषपाल,गोर्की, आलस्टाय आदि को खोजती थी और थी और नेहा सिडनी शेल्डन, अगाथा और शरलोक होम्स को।

हां, नेहा ने हिन्दी के उन उपन्यासों को भी पढ़ डाला था, जिन पर फिल्म बन चुकी य बनने वाली थी। जैसे गुनाहों का देवता,’’ मैला, आंचल, चित्रलेखा, सारा आकाष और यही सच है वगैरह अन्ना कैरनिना, इडियट और मादाम बुआरी भी उस ने इष्यू कराई,पर इन भारीभरकम किताबें को पढ़ पाने का धैर्य उसमें न था सो इसकी कहानी उसे प्रभा से सुन कर ही संतोष कर लेना पड़ा।

उन दिनों प्रभा पर पहरे लगे थे, इसलिए नेहा को अकेले ही लाइब्रेरी जाना पड़ता था उसने रिक्षे पर से ही देख लिया कि वह लंबेलंबे डग भरते हुए लाइब्रेरी में दाखिल हुआ। वह इतनी हड़बडा़ गई थी कि रिक्षे वाले को बिना पैसे दिए ही जाने लगी । उसने याद दिलाया तो वह शर्म से गड़ गई कि यह आजकल उसे क्या हो रहा है? अंदर जाकर देखा तो वह किसी लड़की से फुससुसा कर बतिया रहा था। उसे आते देख क्षणभर को बात करते बीच में रूका उस पर उचटती दृष्टि फेरी और फिर अपनी डेस्क की तरफ बढ़ गया।

उस दिन नेहा ने भैया से कह रखा था कि ऑफिस से लौटते वक्त उसे ेले लेना । घड़ी में समय देखा तो भेया के आने का समय हो चला था जैसे ही उठने को हुई हड़बड़ाहट में उसका पैर मेज में उलझ गया वह औधे मुह गिर जाती पर संभल गई ’भाड़ में जाएं सब, क्या जरूरत थी लाइब्रेरी ज्वाइन करने की,’ मन ही मन वह भुनभुनाई

’’यह रूमाल आप का है शायद ’’वही लड़का था .....नेहा सोच में पड़ गई ’उफ यह लुक्स और यह उंचाई कौन सी फिल्म है वह... हां ’प्रहार’ मन हुआ कहे,आप कुछकुछ नाना पाटेकर जैसे लगते हैं।

’’ओह....हां रूमाल,’’ नेहा ने रूमाल ले लिया पर वह खड़ा रहा, आसंजस में नेहा सोचने लगी, इंदर से मना किया था यह काम उस से नहीं होगा पर पीछे ही पड़ गया प्रेमस्प्रेम ये लोग करें, मैसेंजर बने कोई और, अरे घर वाले नही तैयार तो भाड़ में झोंको सब को प्यार करने गए थे तो क्या उनसे पूछ कर गए थे कि अम्मा, बाबूजी प्रभा नाम की लड़की है, अच्छी है गैर जाति कि है ..... उससे प्यार करना चाहता हूं करूं कि न करूं प्यार करने तो चल देंगे सीना तान कर और बाद में घर वाले मना कर रहे हैं। जाति आड़े आ रही है.....और भी तमाम टंटे अरे हिम्मत है तो जाकर कोर्ट में शादी कर लो । लेकिन नहीं .....कोर्ट में शादी करेंगे तो लोग क्या कहेंगे.....घर, समाज,सभी से बहिष्कृत उस पर और भी कई मुसीबतें लब मैरिज भी चाहेंगे तो अरेंज मैरिज क ेमजे के सांथ....उसने सोंचना छोंड़ कर..... सामने खड़ी टिपटाप मोहतरमा को देखा इन्हे देख कर तो नही लगता यह इंदर के इस प्रयास को सहजता से लेंगी। खैर उसे क्या... कोई उस का काम तो नहीं। ’

’’देखिए,’’ प्रभात ने बड़े प्रयत्न से कहा

’’ आप की सहेली प्रभा के लिये यह पत्र....’’

’’पत्र,’’ नेहा चकित थी। पर उस के हाथ ने बढ़ कर पत्र को थाम लिया प्रभात क्षणभर खड़ा रहा। फिर तुरंत उसे समझ में आ गया यों खड़े रहने की कोई तुक नहीं। नेहा हांथ में पत्र थामे उसे लंबेलंबे डग भरकर सड़क पार करते देखती रही। फिर बड़बडा़ने लगी कि उफ यह महाषय तो उसे डाकिया बना कर छोड़ेगें।

वह आगे चौराहे से दांए मुड़ा तो नेहा चौंकी ’अरे, वह तो अभी तक उसे ही देखे जा रही थी। नानसेंस यह भैया भी जाने कहां रह गए। झल्ला कर उसने सोंचा पर सोंचना ज्यादा देर नहीं हुआ तुरंत ही भैया की कार आते दिख गई । वह लड़ने का मूड़ बना कर ही कार में बैठी पर अगले ही पल जाने किन खयालों में खो गई।

’’भैया...आप की लंबाई कितनी होगी? ’’ पूछ नेहा ने भैया की ओर देखा तो उनके चेहरे पर आए आष्चर्य ने उसे बता दिया ि कवह बड़ी बेतुकी बात पूछ चुकी है।

अगले दिन नेहा प्रभा को इंदर का पत्र पंहुचाने गई। प्रभा ने खुषी में भर कर पहले पत्र को चूमा, फिर खोल कर पढ़ने बैठ गई। वह पढ़ रही थी और नेहा आष्चर्य से उस की डबडबाई आंखो थरथराते होंठो और कंपकंपाते चेहरे से छलक पड़ी खुषी को देख रही थी पत्र तो उसे आषीष भी लिखता था पर उसे कभी ऐसी फीलिंग नहीं हुई यह प्रभा कितनी पागल हो जाती है । इंदर के जन्मदिन,नए साल,दिवाली,होली,इन सब अवसरों पर..... वह देरदेर तक उसको कार्ड्स की दुकानां पर लिए दौड़ती, चुनचुन के कार्ड खरीदती । नेहा को उस पर खीज हो आती कि अरे बधाई ही तो देनी है । कोई भी कार्ड दे दो इसमें इतनी भागदौड़, ढूंढ़ढांढ़ कैसी? वह भी तो आषीष को सभी मौकों पर विष करती है। दुकान पर गई एक नजर में जो कार्ड पसंद आ गया उस ेले लिया। अकसर उसने 20 से 25 रूपए तक का कार्ड भेजा है, पर प्रभा लेगी 5 रूपल्ली का कार्ड और उसके लिए दुनियाभर की मषक्कत।

नेहा ने सोंचा, आज प्रभा से उस लंबे सांवले लड़के के बारे में पूछेगी। पर प्रभा इंदर के पत्र में इतनी मगन हो गई थी कि वह बिना कुछ पूछे ही चली आई।

आषीष की ट्रेनिंग पूरी होने वाली थी घर में शादी का दिन तय करने की बातें चल रही थी। लेकिन नेहा को सबकुछ बड़ा अटपटा सा लग रहा था। इस अटपटेपन की कोई कैफियत वह अपने को नही दे पाती । एकाएक एक दिन आषीष और उसके मातापिता धमक पड़े दो दिन नेहा को घर में रहना पड़ा । वे दो दिन उसके जेल से भी बदतर गुजरे। उसे आषीष को खुष रखना है। उसकी पंसद का खाना बनवाने में मम्मी और भाभी की मदद करनी है । अंकल अांटी के साथ अच्छा व्यवहार करना है। उसने मुह लटका कर सबकुछ किया। आषीष की मम्मी उसे सगाई की अंगूठी पहना गई। जाते समय आषीष का मूड आफ हो गया था। कितने एकांत जुटे थे। पर वह हमेषा कतरा कर निकल गई। क्या हो गया है उसे इतनी उखड़ी उखड़ी सी क्यां है।

उन लोगों के जाते ही नेहा ने चैन की सांस ली और बेचैनी से शाम होने की प्रतीक्षा करने लगी। मम्मी ने मना किया आज मत जा उमस है बारिष होंगी लेकिन उस ने भैया को आफिस फोन कर दिया कि लौटते में उसे ले लेना और चल दी। लाइब्रेरी में दाखिल होते ही उस ने नजर उठा कर इधरउधर देखा वह न था वह बुझ सी गई।

’’प्लीज रास्ता दीजिए,’’ आवाज सुनकर नेहा पलटी पीछे वह खड़ा था । हमेषा की तरह खीजा हुआ। खिसिया कर वह अंदर आ गई वह तेजतेज चलता किताबें की अलमारियां के बीच कहीं गुम हो गया वह अपने को लताड़ने लगी। ’क्यों पगलाई सी वह भागी आती है। यहां कौन सी कषिष खींच रही है। उसे ..... आखिर इस सब का अंजाम क्या है ? फिर बिना उसके निकलने का इंतजार किए ही नेहा लाइब्रेरी से बाहर आ गई।

साढ़े 05 बजे ही अंधेरा छा गया था।

कालेकाले बादल पूरे आसमान को घेरे थे हवा भी तेज थी उमस की जगह भीगीभीगी ठंडक थी। नेहा ने सोचा यहां खड़े होकर भैया का इंतजार करना बेवकूफी होगी। मैसम खराब हो रहा है रिक्षा लेकर निकल लेना चाहिए अतः रिक्षे की तलाष में वह सड़क पर पैदल ही चलने लगी पर तभी एकाएक तेजी से पानी की बौछारे पड़ने लगीं और पलभर में ही वह भीग गई। कुछ न सूझा तो जल्दी से सड़क पार कर चाय की एक झुग्गीनुमा दुकान में दाखिल हो गई। शुक्र है, कोई आदमी नही है। बस बूढ़ा चाय वाला और उस की बुढ़िया दोनों ने चौंक कर उस को देखा वह संकोच से एक किनारे खड़ी हो गई।

’’काका, जरा चाय तो पिलाना,’’ तभी भारी आवाज उभरी।

नेहा ने देखा वही लड़का झुक कर झुग्गी के अंदर दाखिल हो रहा था, पूरा भीगा हुआ अन्दर भी वह सीधा खड़ा नहीं हो पा रहा था लंबाई आड़े आ रही थी। नेहा के दिल की धड़कने बढ़ने लगी हाथपैर ढीले पड़ने लगे।

’’बिटिया तुम्हें भी दें चाय ?’’ बूढ़ा दुकानदार पूछ रहा था।

नेहा ने देखा वह उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ सा खड़ा बाहर होती बारिष को देख रहा था। उसने बुढ़िया को मना कर दिया।

बौछारें अब धीमी पड़ गई थी सड़क पर अंधेरा उतरने लगा था। उसने एक बार सुनसान पड़ी सड़क को देखा और झुग्गी से बाहर निकल आई उसकी पीठ तक सिहरन दौड़ गई। सड़क पर चलते हुए वह अपने में इतनी मगन और परेषान थी कि हर पल निकट आते ट्रक की आवाज उसे सुनाई ही नहीं पड़ी उसे सिर्फ यही महसूस हुआ कि चिंघाड़ता हुआ एक ट्रक उसके केषों को छूता हुआ निकल गया है और अगले ही पल वह किसी की मजबूत बाहों मे थी। डर के मारे उसकी आंखे मुद सी गई, खुली तो उसकी होंठ किसी की भीगी शर्ट के बटन पर थे।

’’आप हमेषा बेहोष रहती हैं क्या?’’ उसके चेहरे पर खिन्नता के लक्षण थे और उस की बाहें अब तक उस के शरीर के इर्दगिर्द लिपटी थीं।

’’अरे,हद है बहनजी शुक्र है आप सलामत हैं। आज जाने किस का मुह देख कर निकला था। मैं,’’ यह ट्रक वाला था जिसने अपना ट्रक आगे रोक दिया था और उसे सहीसलामत देख उसकी जान में जान आई थी।

ट्रक वाले की आवाज सुन कर नेहा चौंकी और अपने को अटपटे ढंग से उस आदमी से लिपटे देख कर उसे अपनी स्थिति का भान हुआ । अब तक वह भी झेंपक र परे हट चुका था। ट्रक वाला बड़बड़ाते हुए चला गया। नेहा ने एक बार लंबे आदमी को देखा और फिर आगे चल पड़ी।

’’सुनिए आप अकेली ..’’ कहता हुआ वह उसके करीब आ गया।

एक तो खराब मौसम,सुनसान सड़क और उस पर अभीअभी घटी दहषतनाक घटना सोचा घबराहट और हताषा के मारे नेहा सुबकने लगी।

’’आप डरिए नहीं,मैं हू न,’’वह आदमी बोला नेहा को यह समझ नहीं आया कि वह रो क्यों रही है और उस व्यक्ति को यह कि वह उसे किस तरह सांत्वना दे । दोनों चुपचाप साथ चलते रहे तभी एक कार आ कर उनके पास रूकी।

’’भैया,’’ नेहा खुषी से चहक उठी भैया कार से बाहर आ गए।

’’सॉरी, मैं सोच रहा था तू बारिष में फंस गई होगी। ’’

’’भैया यह.....’’उसने अपने साथ खड़े आदमी का परिचय देना चाहा, पर वह खुद ही आगे बढ़ आया।

’’मेरा नाम प्रभात है.....रास्ता सुनसान था ...मैंने सोंचा इन्हें रिकषा दिला दूं। ’’

’’क्या करते हैं आप?’’ भैया ने पूंछा

’’जी, कंपीटिषन की तैयारी ’’

’’हु’’ भैया ने लंबी हुकांर भरी कि यहां के तमाम होस्टलों में ठुंसे पड़े सभी लड़को का यही तो काम है।

’’कहां जाना है आपको.....चलिए, छोड़ दूं’’

’’नहीकृमेरा होस्टल पास ही है बहुत-बहुत धन्यवाद आपका ’’ कह कर उसने एक बार नेहा को देखा और चला गया।

वह पूरी रात नेहा ने जाग कर काटी,अंधेरे कमरे में उस के गाल अंगारे की तरह दहक उठते .....उस आदमी का स्पर्ष याद कर उसका पूरा जिस्म थरथरा उठता आखिरकार वह अपने को रोक नहीं पाई और तकिए मे मुंह छिपा कर रो पड़ी।

अगले दिन नेहा को बुखार आ गया । दो दिन वह बुखार में पड़ी रही। तीसरे दिन सुबह-सुबह ही उसने घर वालों को बता दिया कि उसे आषीष से शादी नही करनी सुन कर मम्मी ने तो जोरजोर से रोना शुरू कर दिया। पापा चुप लगा गए और भैया ज्यादा दुलार करने और सिर पर चढ़ाने का दोष घर पर मढ़ने लगे । हालांकि सब से ज्यादा सिर उन्होने ही उसे चढ़ा रखा था।

नेहा ने सगाई की अंगूठी निकाल कर मम्मी को दे दी उसे बहुत हलकापन महसूस हुआ । शाम को नेहा नियत समय पर तैयार होकर लाइब्रेरी के लिए चल दीं। वह रोजाना की तरह कोने वाली मेज पर बैठा था उसने उस चमक को महसूस किया और हमेषा की तरह यह जताती हुई ि कवह तो कहीं और देख रही थी उस पर नजर यों ही पड़ गई अपनी करसी पर जाकर बैठ गई।

कुछ देर बाद नेहा को फिर लगा, उसे कोई देख रहा है। इस बार उसने नजरें फिर इस तरह उठाई, मानो उसे नहीं, उसके पास बैठे व्यक्ति को देख रही हो। थोड़ी देर बाद एक निगाह फिर उठी शुक्र था इस बा रवह उसे नहीं बल्कि अपनी किताब को देख रहा था। वह देखती रही उसे एकाएक उसने अपनी किताब से नजरें उठाई पर इस बार उसने हड़बड़ा कर उन नजरों से कतरा जाना नहीं चाहा। देखती रही उस चेहरे पर उभरे आष्चर्य को और फिर वह आष्चर्य को और फिर वह आष्चर्य एक अपनेपन से भरे चहरे में परिवर्तन हो गया।

वह एकाएक नेहा को ही देख रहा था। नेहा के दिल की धड़कने बढ़ने लगी थीं और पलकें भारी होती लग रही थी। उसे महसूस हुआ,उन दोनो के बीच कुछ कोमल सी चीज शुरू हो चुकी है...हां कोमल सी चीज प्रेम ही है। उसे एक अनजानी घबराहट महसूस हुई! फिर सोचा कि इसमें घबराने की क्या बात है। सबकुछ ठीक ही होगा।

अतः उमंग में भर कर नेहा पर्स उठा चल दी लाइब्रेरी के दरवाजे पर आकर उसने मुड़ कर देखा वह भी उठ रहा था। वह पलभर ठिठकी फिर आगे बढ़ गई, पर अपेक्षाकृत धीमी चाल से उसे पता था कोई उसके पीछे आ रहा है और उसे तब तक धीमा चलना ही था, जब तक वह उसके बराबर न आ जाए।

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सपना सिंह

द्वारा प्रो. संजय सिंह परिहार

म.नं. 10/1456 अरूण नगर

रीवा (म.प्र.)

मोबाइल नं.9425833407

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