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मुक्ति.

मुक्ति

“तुम जिंदा क्यों हो? मर क्यों नहीं जाते? मर जाओ...”

उसकी तरफ से यह सलाह अनायास नहीं आयी थी. कई दिनों से देख रहा था, वह मुझसे ऊब चली थी. मेरे साथ-साथ, कभी मुझसे आगे, कभी पीछे चलते रहने में उसे उलझन होने लगी थी. लेकिन यह तो उसकी नियति थी, मैं क्या कर सकता था?

“मैं क्यों मरुँ?” और क्या कहता उस बेवकूफ से?

वह चिहुंक उठी.

“क्यों न मरो तुम? तुम्हारा जन्म ही मरने के लिए हुआ है. देखो न. महावीर मरे, बुध्द मरे, गांधी मरे … फिर तुम क्यों न मरो?”

मैं भौंचक्का रह गया. कितनी दूर की कौड़ी लाई थी. तुलना भी की तो किनसे?

"मैं मर जाउंगा, जब मेरा वक़्त आएगा. लेकिन तुम्हें इससे क्या?” ज़ाहिर है मैं झुंझला उठा था.

“मुझे तुम्हारी क़ैद से घबराहट होती है.”

“कैसी घबराहट?” मुझे उसकी मूर्खता पर हंसी आने लगी थी.

“मैं हर वक़्त तुम्हारी मौजूदगी और तुम्हारी ग़ैर मौजूदगी के बीच कहीं अटकी रहती हूँ.”

“तो?”

“तो क्या? इससे मुझे हर वक़्त घबराहट बनी रहती है.”

“तो?” मैं अब भी उसके इस तर्क से बिना परेशान हुए अपनी एक नयी किताब लिखने में मशगूल था.

“छोड़ो, तुम नहीं समझोगे.” उसके स्वर में घोर हताशा आ गयी थी.

मुझे कुछ बुरा लगा उसकी इस दशा से. लेकिन साथ ही ताव भी आ गया. ‘ये कौन होती है मेरी ज़िन्दगी के फैसले करने वाली?’

फिर भी मैंने अपने स्वर को कुछ नरम करते हुए कहा, “कोशिश कर के तो देखो.”

वह सोच में पड़ गयी. मैं उसे देखता रहा. इस समय उसकी आकृति मुझसे कुछ आगे थी. शायद इसी से मुझ पर हावी होने का उसका मन हो आया था. पर यों तो वह दिन में कई बार मुझसे पीछे भी हो लेती है, कभी कभी बिलकुल साथ चला करती है, कंधे से कंधा मिला कर...

“तुम्हें कभी किसी ने क़ैद किया है?”

मैं उसके स्वर की बेबाकी और उसमें छाई मूर्खता भरी उत्सुकता पर ठठा कर हंस पडा.

“मैं? मुझे कोई क्यों क़ैद में डालेगा? मैंने कभी कोई जुर्म नहीं किया.” मेरा मन किया अपनी इस होशियारी पर फूला मैं हँसता रहूँ, हँसता ही चला जाऊं, पर उसने मुझे टोक दिया.

“अच्छी तरह सोच कर बताओ. तुमने क्या कभी कोई अपराध नहीं किया?”

बेवकूफी उसकी आवाज़ से झड चुकी थी. वहां अब एक शातिर जांचकर्ता बैठा था. प्रश्न के टेढ़े-पन से उसका घोर काइंयापन झांक रहा था. मैं सकपका गया.

“अब यार! छोटी मोटी बातें तो सब के साथ होती रहती हैं.”

“अच्छा, मान लिया कि बात छोटी ही थी. फिर भी बताओ तो सही.” उसकी आवाज़ में कुरेदने का उन्माद भरा हास्य भरपूर आलस के साथ पसरा हुआ था.

“मुझे कुछ याद नहीं. ज़िन्दगी में कितना कुछ होता रहता है. भला कौन याद रखता है वह सब?”

“मैं याद रखती हूँ. मैं भी तो तुम्हारे साथ थी सारे वक़्त...… "

“तो करती रहो न. कौन रोकता है तुम्हें?” उसकी ढिठाई ने मुझे भी ढीठ बना दिया था.

“नहीं रोक रहे हो न? मानते हो इस बात को?”

“हाँ भई, मानता हूँ. सौ बार मानता हूँ. मैं तुम्हें नहीं रोकता. करती रहो याद, जो भी करना चाहती हो.” मेरी झुंझलाहट आक्रोश में बदल गयी थी.

उसकी उन्मुक्त खिलखिलाहट सब तरफ फैल गयी. कुछ देर वैसे ही खाली हवा को भरती सी हिक हिक हंसी मेरे चारों ओर घूम घूम कर मुझे भेदने की कोशिश करती रही. फिर सिमट कर मेरे सामने ही तिरछी हो कर बैठ गयी. उसे मैंने आँख भर कर देखा तो मैं घबरा गया.

“तो फिर याद करो वह दिन जब तुमने उमेश की गोंद की शीशी तोड़ दी थी.”

सब कुछ याद आ गया. बिलकुल सिनेमा की तरह. एक एक सीन जैसे आँखों के सामने तैर गया.

याद आ गयी अपने आप में उलझी पर बेहद प्यार करने वाली माँ की. क्लास में उस दिन क्राफ्ट में कुछ बनवाया जाना था. शहर के मशहूर डॉक्टर का मोटा सा बेटा उमेश पैसा खर्च करने में जितना आगे रहता था, वसूलने में कैसा था, यह तभी समझ पाया था मैं. पैसे की कीमत भी पहली बार तभी

समझ में आयी थी. लेकिन कहाँ आयी समझ में? आज तक भी नहीं समझ पाया हूँ ….

खैर! उस दिन उमेश अपनी नई- नवेली गोंद की शीशी लिए इठलाता फिरता इधर-उधर फुदकने का प्रयास कर रहा था. मुझे भी ना जाने किस चीज़ का नशा चढ़ा और मैं भी कूदता फांदता उससे जा टकराया. मैं गिरा और साथ ही गिरी उसकी गोंद की शीशी. पूरी क्लास हमारे चारों ओर मजमा लगा कर खडी हो गयी. अपराधी बना मैं रचना के सुझाव पर उसे दस रुपये देने को राजी हो गया, गोंद की शीशी की कीमत. हालाँकि उसका और मेरा दोनों का उस दिन का काम मेरी गोंद की शीशी से बखूबी चल गया था. टीचर तक बात पहुँचने नहीं पायी थी.

वादा करते वक़्त ये नहीं सोचा था कि दस रुपये कहाँ से लाऊंगा. अब वह हर रोज़ तकाजा करने लगा. मैंने हार कर अपना जेब खर्च पांच रुपये पूरे के पूरे उसे दे डाले. कई बार सोचा कि पापा की जेब या माँ के पर्स से उड़ा लूँ, लेकिन हिम्मत ही नहीं हुयी. सिरे से डरपोक जो हूँ.

और वह गधा उमेश ….. एक हफ्ता भी सब्र नहीं कर पाया. मेरे घर आ पहुंचा. तफसील से माँ को सारा किस्सा सुनाया. मुझ तक जब तक सूचना पहुँची, तब तक माँ ने पांच रुपये दे कर उसे विदा कर दिया था.

बाद में मुझे बुला कर अपने पास बिठा कर, मेरे कंधे पर बांह रख कर माँ ने प्यार से दिलासा दी थी. मेरा डर दूर किया था और एक दस रुपये का नोट मेरी कांपती हथेली पर रख दिया था.

उस छोटी सी उमर में मैंने महसूस किया था, टूटी हुयी शीशी की गोंद से चिपकी अपराध बोध की क़ैद, और फिर माँ की गोद में रखे अपने सिर पर बरसती माँ के स्नेह की बरसाती क़ैद... कितना फर्क था दोनों में….

दोनों के मिलन पर मैं छूट आया था, अपने आप से. आज़ाद हो गया था. लगा था जैसे आसमान और धरती के मिलन तक घूम आया हूँ. उसे क्षितिज कहते हैं, ये नहीं जानता था तब. लेकिन क़ैद और रिहाई के मिले-जुले खट्टे एहसास से भीगा कई दिनों तक बौराया सा घूमता रहा था. उन दस रुपयों से जिन दोस्तों को आइस क्रीम खिलाई थी उनमें उमेश भी था.

“क्यों? क्या याद आ गया?” मेरे चेहरे की मुस्कुराहट की खुनक उस तक पहुँच गयी लगती थी. एक बार फिर उसी भीगे एहसास में लिपटा मैं थोड़ा और मुस्कुराया, चेहरे की मांसपेशियां खुल पड़ीं और मैं खिलखिला उठा. कुछ ही देर में मेरी हंसी में उसकी हंसी भी घुल रही थी.

हँसते-हँसते ही मैंने उसे छेड़ा, “ अरे यार! क्यों पीछे पडी हो? जाओ आराम करो, मुझे भी काम करने दो. काम तो बहुत ज़रूरी होता है, दोस्त.” अपनी हंसी पर मैं किसी तरह काबू पा चूका था. पर आज़ादी के उस पुराने पड़ चुके अनुभव को फिर से जी लेने का उल्लास मेरे स्वर में छलका पड़ रहा था.

“हँसना भी ज़रूरी होता है.” उसका आग्रह मूढ़ हो चला था. मैं अपने चेहरे को गंभीर बनाने की कोशिश में जुट गया.

तभी वह फिर बोली, “देखो, देखो, आ रही हैं न हंसी? हंसो. हंसो. मत रोको खुद को. यह जो उल्लास तुमने अपने अन्दर दबा कर रखा हुआ है, इसे छलकने दो, बिखरने दो. देखो, मैं तुम पर नहीं, तुम्हारे साथ हंसना चाहती हूँ.”

वह गंभीर होने लगी थी. लेकिन अनायास ही हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

“मैंने कहा था ना? कितना अच्छा लगता है, हँसने के बाद. ..”

उसकी प्रसन्नता या शायद मेरे अपने ही उल्लास ने मुझे गद्गद् कर दिया था. मैं भीतर तक भर उठा था. मन किया उसे आलिंगन में ले लूँ. मुझे खुशी देने के लिए उसे गले लगाए लगाए धीरे से उसके कानों में धन्यवाद कहूँ और मैं उठा भी. दो क़दम उसकी ओर चला भी… . पर तभी देखा वह भी उठ खडी हुयी थी और मुझसे दो क़दम की दूरी पर खडी थी. हाँ, अब उसकी भंगिमा में कोई तनाव नहीं था. खुले-खुले मन से हाथ-पाँव बिखराए सी अपने आप पर मुग्ध उस मायाविनी की पीठ मेरी तरफ थी.

“क्यों? छूना चाहते हो मुझे? भूल गए? मैं चाहे तुम्हारी हूँ, पर हमेशा तुम से दूर बनी रहूंगी. तुम कभी मुझ तक पहुँच नहीं पाओगे. कभी नहीं.”

कुछ पल पहले का आलस्य भरा उन्माद उसके स्वर में अब नहीं था. अकेलेपन की उदास खामोशी उसके वजूद पर छितर आयी थी.

मैं अनमना हो गया.

“कुछ कहो. कहती रहो. हम आपस में बातें तो कर ही सकते हैं.”

वह हंस पडी.

“क्यों बाबू? बातें करने का मन हो आया? और वो तुम्हारे काम का क्या हुआ जो मेरी वजह से हर्जा हो रहा था?” उसके स्वर में उलाहना तो था, उलाहने में छिपा मीठा सा दंभ भी था. फिर भी अजनबीपन छूट गया था, शायद इसलिए में आहत नहीं हुआ था.

मैंने उसे मनाना चाहा. पेन बंद करते हुए मैं बोला, “लो, आज काम बंद. आज सिर्फ तुमसे बातें करूँगा.”

अचानक अतीत के अथाह समंदर में डुबकी लगाने का मन हो आया. लगा जैसे आँखें मूँद कर मैंने अपना पूरा हाथ पानी में डाल दिया हो. पानी का दबाव इसे जब चाहे जहाँ चाहे धकिया रहा था, और यह बेडौल सा, पतंग की ढीली डोर सा जब चाहे जहाँ चाहे झूम उठता.

मन का समंदर भी कुछ ऐसा ही होता है. अपनी ही उलझनों में डूबा आदमी खुद को पहचानने को जब इसमें झांकता है तो मन के बेईमान पानी का आकर्षण उसे खींच लेता है. इस बात की परवाह किये बिना कि वह तैरना जानता है या नहीं, मूढ़ बना वह इसमें छलांग लगा देता है. और फिर जान बचाने की जद्दो-जहद में डूबते उतराते कभी हाथ में माणिक लग जाते हैं तो कभी मृत सीपिओं के ढेर …

“तुम क़ैद की बात कर रही थी ना?” मेरे स्वर में मुलामियत भरी थी.

“ तो तुम भूले नहीं. अच्छा लगा सुन कर.…”

मैंने उसकी परवाह की थी. इसे जान कर उसकी आँखों में चमक आयी होगी लेकिन मैं उनमें झाँक नहीं सकता था. अपनी आशाओं, आशंकाओं, आकांक्षाओं, सफलताओं, कुंठाओं, गहनतम अनुभूतिओं के प्रतिरूप को नज़र भर देखने के लिए ढेरों ढेर हिम्मत की दरकार होती है.

उसका विस्तार अपने ही भीतर के एक सिरे से निकलता मेरे आस-पास को समेटता दुसरे छोर में मिलता और फिर मुझी में समाता, में देख पा रहा था. एकाएक उसकी क़ैद की तीव्र अनुभूति मुझे हुयी. मैं समझ गया कि मुझ से निकलते इसी तार का बंधन इसे बांधे रख रहा है और उसकी वह पल पल की बेचैनी और मुझ पर होते कटाक्ष, मेरी अवशता पर उसका विषभरा अट्टहास…. . ये सब इसी कारण थे. और उसका बार-बार इस क़ैद से छूटने का हठी प्रयास..

क्यों नहीं जो है, उसी में गौरान्वित महसूस करती? मुझ पर हावी क्यों होना चाहती है? फिर लगा कि नहीं हावी नहीं होना चाहती, जकड से छूटने की नैसर्गिक इच्छा भर है, बस.

“मुझे लगता है तुम मेरी घुटन को महसूस कर पा रहे हो.” उसका स्वर बहुत मुलायम हो आया था.

“तुम्हें लगा ऐसा.” मैं हैरत में पड़ गया था. मेरी आवाज़ में प्रेमी की प्यार भरी अकुलाहट के साथ ही सब कुछ समझ आ जाने वाला ठहराव भी था.

“इस समय मैं तुम्हें देख पा रही हूँ. जी चाहता है तुमसे लिपट जाऊं. पर तुम्हारी ये क़ैद? उफ्फ ...” उसने लम्बी सी सांस ली.

मुझे झटका लगा. मेरी बिल्ली और मुझी से मियाऊँ? मेरा दंभ सांप के फन की तरह उठ खडा हुआ. काले डरावने एहसास से भरा...…

“यह क़ैद नहीं है. यह तो एक प्यारा सा एहसास है. मेरा एहसान मानो कि मैंने तुम्हें पनाह दे रखी है.” मेरा हठी अहम् मेरे क़द से भी ऊंची पाषाण प्रतिमा बना मुझे वहीं बैठा छोड़ कर उसके सामने जा बैठा तो उसने भी संघर्ष की ठान ली.

“अच्छा? तो इसे तुम पनाह देना कहते हो? तुम और पनाह? यह गीत कही और जा के गाना..” उसके स्वर का व्यंग्य मुझ पर तीखे छींटे मार गया.

“क्या मतलब है तुम्हारा?”

“मतलब तो तुम बताओ. मनोहर, रश्मि, और वो संजय. किसी को भी पनाह दी थी तुमने? अजय के साथ क्या किया था? याद है? और रोहिणी? कितना विशवास था उसको तुम पर? उसके साथ क्या किया तुमने?” उसके स्वर में वितृष्णा थी.

डिप्रेशन की मरीज़ रोहिणी मेरे न चाहते हुए भी ज़बरदस्ती मेरे जीवन में घुसती गयी थी. अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं 'इमोशनल फूल'. बस वही थी वो. अपनी ही गढ़ी हुयी रंगीन, मगर दम घोटूं तीसरे दर्जे की रूमानी अकल्पनीय अपेक्षाएं रखने लगी थी. मैं क्या करता?

मेरे ना चाहने पर भी अक्सर काफी वक़्त मेरे साथ गुज़ार देती. मैंने कई बार कोशिश की कि वह अपनी ज़िन्दगी सँवारे, कुछ आगे पढ़े-लिखे. और कुछ नहीं तो कोई नौकरी ही कर ले या फिर शादी ही कर डाले. पर जाने किस मिट्टी की बनी थी?

बेवजह आ कर बैठी रहती. मेरे निजी काम करने में उसकी खासी दिलचस्पी रहती. ऐसे कि मुझे खुद पर शर्म आने लगती. लगता जैसे मैं उसका इस्तेमाल कर रहा हूँ. बेहद धकेलने की कोशिश की उसे. पर वह मुग्धा की तरह शेर पढ़ती, अजीब अजीब हरकतें करती. कुल मिला कर मैं बेतरह उकता जाता. फिर जब मुझे वह शहर छोड़ने का मौका मिला तो दिल को राहत मिली कि अब इस शख्स से मुक्ति पा सकूँगा.

आते समय का उसका लाचार चेहरा, झुके हुए कंधे, मायूस, किनारों तक आंसुओं से भरी आँखें, सिसकियाँ और काजल की लकीरों से भरा मैला चेहरा, मुदे-तुड़े कपडे, कुछ भी तो मुझे उद्वेलित नहीं कर पाया था. कहीं भीतर करुणा नहीं जगी थी. उठा भी था तो उसके इस हीन भाव के प्रति ढेरों आक्रोश.

आते समय भी मैंने उसे लेक्चर पिलाया था. ताकि वह मेरी जकड से छूट सके, जिसमें वह मेरे ना चाहने पर भी खुद को लपेटे जा रही थी. पर वह मूढ़ नासमझ. ऐसा नहीं कि उसमें बुध्दि नहीं थी. पर उस बुध्दि के लिए एक ठोस आधार की कमी मैं साफ़ देख पा रहा था. वह उस ठोस आधार को मुझ में खोज कर मुझ पर स्थापित होना चाहती थी.

अब सोचता हूँ तो पाता हूँ कि उसकी इस स्थिति की कुछ कुछ ज़िम्मेदार यह भी थी, मेरी छवि. जो उस वक़्त अपना यह रूप धारण करने की प्रक्रिया में थी. एक छदम छवि, जो आस-पास वालों में ढेरों आशाओं और आकांक्षाओं को जन्म देने लगती हैं. एक झूठा सा भरोसा कि वह अपने आस-पास सुख और खुशियाँ बाँट सकती है.

रोहिणी को यह समझा पाने में मैं नाकाम रहा कि उसके सुख तो उसके ही भीतर रखे थे, वह सुख पा सकती थी ढेरों, अपने आप से. लेकिन उसके क़दम जिस राह पर चल पड़े थे, वहां भ्रम के सिवाय कुछ भी नहीं था.

उसने अपने-आप से मुख मोड़ रखा था. अपनी ही ओर पीठ कर रखी थी. और मेरी ओर आस भरी आँखों से देखती मुझसे झूठा वादा करवाती रही कि मैं उसे ख़त लिखूंगा. ऐसा नहीं कि मुझे उसका ख्याल ना आया हो. पर मेरे पास कुछ नहीं था उसे लिखने को. साथ ही मन में ये आस भी थी कि शायद इस तरह ही सही वह अपने-आप को पा सकेगी, मुझ से छूट जायेगी.

मेरा प्रयास सफल तो हुआ. वह छूटी तो, पर पूरी ही छूट गयी. तीन महीने बाद उडती सी खबर मुझ तक पहुँची कि उसने ट्रेन से कट कर जान दे दी.

आज इसने याद दिलाया तो न चाहते हुए भी मैं अपराध-बोध से भर गया. क्रोध से तिलमिला उठा. समझ आने लगा कि यह मुझे तबाह करने पर तुली है. मेरे सामने सिध्दांतों के अम्बार खड़े कर रही है. मुझे क़ैद करना चाहती है, इन सिध्दांतों से बनी दीवार के किले में. और आरोप भी मुझी पर लगा रही है कि मैं उसे क़ैद करने की कोशिश कर रहा हूँ.

“समझ गया हूँ, किस क़ैद की बात कर रही हो तुम. अच्छी तरह समझ गया हूँ.” मेरा दहकता स्वर मुझे खुद अजनबी लग रहा था.

“क्या समझ गए हो? ये अचानक तुम्हें क्या हो गया है? हम अच्छे भले एक दुसरे को समझ पा रहे थे. यह क्या?” उसके स्वर में आयी झिझक ने मेरा क्रोध भड़का दिया था.

“हाँ. समझ रहे थे और तुम्हें समझ गया हूँ मैं. जो तुम हो वही बनी रहो, उससे ज्यादा बनने की कोशिश मत करो. वर्ना … "

मुझे याद आया मेरे चाचा का स्वर जाने कब से चुपचाप कोने में दबा बैठा था जो इस वक़्त मौका देख कर बाहर निकल आया था. चाची को थप्पड़ मार कर धकियाता हुआ वह खालिस मर्द कि "औरत हो, औरत ही बन कर रहो. तीन-पांच की तो उधेड़ कर रख दूंगा.”

उस समय तो चाचा का चेहरा और आग उगलती आँखें देख कर कोने में दुबक जाया करता था, पर आज मेरी बारी थी आँखें दिखाने की. उस समय का सहेज कर रखा डर आज बाहर उलीचना था. मेरे स्वर की दहक उसे कंपा गयी.

“ऐसा मत कहो. मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती. विशवास करो मेरा ...”

“बहुत देर से सुन रहा हूँ तुम्हें. बहुत हो गया. अब दफा हो जाओं मेरी आँखों के सामने से.”

मेरी घृणा उसे झुलसा रही थी, उसके अंग सिमटने लगे थे. उसने अपनी टाँगे समेट कर घुटने छाती से सटा लिए थे. अपनी ही बाहों में खुद को भरे वह स्वयं-मुग्धा बनी रहना चाहती थी शायद. पर उसकी मायूस ठुडी उन्हीं सिमटे घुटनों पर टिकी दया का भाव जगाने को काफी थी. मगर मेरे अन्दर दया नहीं जागी. मेरा आक्रोश बह निकला.

मैं देख रहा था, छवि का पिघलना और फिर सामान्य सी छाया बन जाना.

उसका क्षीण सा डरा हुआ स्वर मुझे हलके से कहीं छू गया.

“मैं कैसे जा सकती हूँ तुम्हें छोड़ कर? मैं तुम्हारी कैदी हूँ.”

“हो कैदी तो बन कर रहो भी. छूटने का भ्रम क्यूँ पालती हो.”

“लेकिन... “

मैं फिर भड़क गया.

“तुमने फिर सवाल उठाया? देखो, एक बात साफ़-साफ़ कहे देता हूँ अपने स्तर से ऊंचा उठ कर कुछ और बनने की कोशिश छोड़ दो. मुझे बाँधने के भ्रम से छूट जाओगी तो सुखी रहोगी. वर्ना मैं हर रोज़ तुम्हारी हत्या करता रहूँगा...”

वह भय से सिहर उठी. खुद को अपनी ही बाहों की गिरफ्त में कसती, सांत्वना मांगती मूक सवालिया निगाह उसने मुझ पर डाली. पहली बार उसका चेहरा मेरी तरफ घूमा तो मैं स्तब्ध रह गया. कहीं कोई फर्क नहीं था. वही माथा, वही नाक, वही चेहरे का आकार..... मैं आईने के सामने खडा था. विस्मय से सहमा मैं उसे जानने को उत्सुक हुया तो उसकी आँखों में झाँक बैठा. और यहीं मुझसे भूल हो गयी.

सारा अंतर यहीं था. मेरी ढीठ, उद्दंड, तीव्र भेदती दृष्टि के सामने भी वे धीमी मदहोश आँखें डटी हुयी थीं. सारे मधुर भाव वहां थे ... पर संकोच नहीं था. हाँ. डर था. अपने मर-मिट जाने का...

मेरी उद्दंडता मुझे बहा ले गयी. उस डर के पीछे छिपी उसकी शांत आत्मविश्वास से भरी उद्विग्नता कब किनारे तोड़ कर बह निकले, यही सोच कर मैं दहशत जदा हो गया. हम दोनों आपस में टकराते तो यह तय था कि वह मुझे बहा ले जाती. अपना यूँ छला जाना मुझे किसी भी सूरत स्वीकार नहीं था.

मैं आज भी किसी भी छवि की घुटन में बलिदान जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य के लिए तैयार नहीं था. मैंने एक लम्बा सा क़दम उधर बढ़ाया और बांह उठा कर एक झटके में कमरे की बत्ती बंद कर दी. काम का क्या है कल देखा जाएगा. आज इस मुसीबत से छुटकारा पाना ज़रूरी हो गया था.

घनघोर अँधेरा छा गया. रोशनी थी तो अपनी पहचान खोने का डर था. अँधेरे ने यह दुविधा मिटा डाली.

कसमसाती, शिकायत करती, सूखे आंसू बहाती मेरी छाया मुझमें सिमट आयी. मैं कुछ और चौड़ा हो कर डबल बेड को लगभग पूरा भरता सो गया.

मेरी नींद मेरे अस्तित्व को भुला सके, मेरे अवचेतन को यह भी मंज़ूर नहीं था. थोड़ी ही देर में अन्धकार को चीरते मेरे खर्राटे न मुझे सुन रहे थे न मेरी छाया और न ही उसकी छवि को.

प्रितपाल कौर.