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अमर प्रेम - 1

अमर प्रेम

(1)

जीवन मरण के बारे में सोचते हुए हमेशा मन उलझ जाता है चारों ओर बस सवाल ही सवाल नज़र आते हैं मगर उत्तर कहीं नज़र नहीं आता। क्या है यह आत्मा, दिल दिमाग या फिर कुछ और क्या वाकई कुछ लोग मर कर भी इस मोह माया की ज़िंदगी से मुक्त नहीं हो पाते। क्या सच प्यार के बंधन में इतनी शक्ति होती है कि कोई एक दूजे के बिना मरकर भी खुद को उस बंधन से मुक्त महसूस नहीं कर पाता बस जीवन और मृत्यु के इसी ओह पोह से झूझते हुए बनी यह कहानी।

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परिचय

"अमर प्रेम" सुधा और नकुल के प्यार की एक कहानी। सुधा एक ऐसी लड़की है जिसने कभी गंभीर होना सीखा ही नहीं है। जिसे हिन्दी फिल्मों के गाने इतने पसंद है कि वह लोगों की बातों का, उनके प्रश्नों का उत्तर भी गानो के रूप में ही देना पसंद करती है। हमेशा हँसती मुस्कुराती, खिलखिलाती रहने वाली सुधा, कभी चंचल तितली सी लगती है, तो कभी बेपरवाह अलहढ़ नदी सी। जो भी व्यक्ति उसके साथ होता है, वह अपने आप को एक अलग ही दुनिया में पाता है। मगर नकुल का स्वभाव सुधा से बिलकुल विपरीत है। सपनों की दुनिया में जीना, हर बात को यूं हंसी में उड़ाते हुए गानो में जवाब देना नहीं आता उसे, मगर सुधा से इतना प्यार करता है वो कि ना चाहते हुए भी उसकी खुशी के लिए वह वही सब करता है जो उसे पसंद है। सुधा यह बात बहुत अच्छे से जानती है। लेकिनी फिर भी उसे नकुल को छेड़ने और परेशान करने में बहुत मज़ा आता है। मगर नकुल कभी उसकी बातों से ना चिढ़ता है और ना ही कभी परेशान होता है।

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एक दिन सुधा नकुल से कहती है, ज़िंदगी में ब्रेक बहुत ज़रूरी है बाबू मुशयर, एक सी ज़िंदगी जीते-जीते मेरा तो जी ही ऊब गया है।

आई नीड अ ब्रेक" चलो ना कहीं भाग चलें।

कहीं दूर....सुनसान लंबी सड़क पर खुली कार में सिर्फ मैं और तुम" तीसरा और कोई न हो।

न माँ, न राहुल, न यह दुनिया, न समाज, कोई भी नहीं...यह कहते हुए सुधा शरारत भरी हंसी हँसते हुए कहती है

"चलोगे न मेरे साथ, डर तो नहीं लगेगा न तुम्हें..."! "नकुल भी मुस्कुराते हुए कहता है, डर और तुम्हारे साथ...

" कैसी बात करती हो, एक तुम्हारे साथ ही तो ज़िंदगी, ज़िंदगी जैसी लगती है" वरना यूँ तो सिर्फ साँस ही लेता हूँ मैं,

तुम “ऐसे क्यूँ हो नकुल” मुझे तो हैरानी होती है कि तुम ऐसे गुमसुम से चुप–चुप कैसे जी लेते हो। अरे ज़िंदगी बहुत छोटी है “हमारी कोशिश तो इसके हर पल को जीने की होनी चाहिए” और एक तुम हो... कितना सोचते हो तुम देश दुनिया, समाज, घर परिवार, के बारे में, अरे इस सब के बारे में तो सभी सोचते हैं।

मेरी मानो कभी-कभी अपने बारे में भी सोच लेने में भी कोई बुराई नहीं है।

“याद रखना मेरी यह बात, ” देखना एक दिन जब मैं नहीं हूंगी ना तब तुम्हें मेरी यह बातें याद आयेंगी और तब तुम्हें लगेगा कितना सच कहा था मैंने...

इसके आगे सुधा कुछ और कहपाती नकुल ने अपना हाथ रख दिया उसके मुंह पर और सर को हिलाते हुए आँखों ही आँखों में कहा।

आज कह दिया फिर कभी ऐसा मत कहना। फिर ज़रा देर चुप रहकर सुधा फिर कहती है जानते हो नकुल मैं अगर इतना सोचने लगूँ ना तो पागल ही हो जाऊँ।

नकुल अब भी चुप ही खड़ा सुधा की बातें सुन रहा है। सुधा की देखा देखी मुसकुराते हुए “तुम भी न एक बच्चे की माँ होने के बाद भी बच्ची ही हो”।

“कौन कहेगा तुम्हें देखकर कि तुम बड़ी हो गयी हो” जब देखो बचपना, हर बात पर मज़ाक, तुम्हारी फ़ितरत बन गयी है।

लेकिन ज़िंदगी इतनी आसान और सरल भी नहीं है सुधा यह कहते-कहते नकुल गंभीर हो जाता है।

ज़िंदगी एक कड़वा सच है।

तुम्हारे सपनों की दुनिया नहीं, यहाँ हर कदम पर रोज़ एक नयी चुनौती है एक नयी जंग है। मगर साथ है चारों और फैली हुई असुरक्षा की भावना जो न इंसान को खुलकर जीने देती है और न मरने देती है।

जहां देखो वहाँ सिर्फ प्रतियोगिता का दौर है। भूख, गरीबी, लाचारी और भ्रष्टाचार के अलावा और कुछ नहीं है इस संसार में,

यह एक ऐसी दौड़ है जहां हर कोई बस भाग रहा है। किसी बाहरी समस्या से डर कर नहीं, बल्कि अपने आप से डरकर।

विद्रोह करने का साहस अब किसी में नहीं है “देश डूब रहा है सुधा” आज गरीब और गरीब होता जा रहा है और “अमीर और अमीर” मगर प्यार, सम्मान और सद्भावना जैसी बातें अब बिलकुल ख़त्म हो चुकी है। तुम्हें नहीं लगता यह एक गहन चिंता का विषय है....

ऐसा सोचकर भाविष्य कि चिंता में नकुल ने सुधा को बिना बताये विदेश जाने के लिए पासपोर्ट बनवा लिया था। उस समय तक नकुल ने केवल अपना पासपोर्ट बनवाया था सुधा और अपने बेटे राहुल का नहीं।

क्यूंकि उसके मन में अपनी माँ के प्रति भी चिंता थी कि यदि वह सुधा और राहुल विदेश जाकर बस गए तो माँ कि देखभाल यहाँ कौन करेगा।

इसलिए उसने उस वक़्त सुधा और राहुल का पासपोर्ट नहीं बनया था।

उसके साथ ही साथ नकुल को यह भी लगता था कि सुधा को दुनियादारी की कोई समझ नहीं है। जो कुछ देखना है उसे ही देखना है जबकि सुधा नौकरी वाली लड़की थी।

किन्तु उसके चुलबुले व्यवहार से सभी को ऐसा ही लगता था कि सुधा को दुनियादारी कि कोई समझ नहीं है।

उसे कोई भी बड़ी आसानी से गुमराहा कर सकता है।

इसी सब के चलते नकुल को अपनी कम आमदनि कि वजह से विदेश जाकर कमाने का विचार कई बार आया। लेकिन वह सुधा को कभी बता नहीं पाया, क्यूंकि उसके दूर जाने का विचार मात्र भी सुधा को उदास कर देगा, यह वह बहुत अच्छी तरह से जानता था।

इसलिए जाये नहीं जाये का निर्णय तो वह कभी कर ही नहीं पाया।

किन्तु तब भी भाविष्य को मध्यनजर रखते हुए उसने अपने पासपोर्ट के लिए ज़रूर एपलई कर रखा था।

मन ही मन इस राज़ को लिए नकुल सुधा से कह रहा है।

रही बात देश दुनिया समाज और घर परिवार की, तो यही तो असली दुनिया है इंसान की, यदि कोई इनके बारे में ही नहीं सोचेगा तो फिर और बचता ही क्या है जीवन में सोचने के लिए।

परंतु जाने दो तुम अभी मेरी बात नहीं समझोगी।

ग्रो अप सुधा, “सुधा के कंधों पर हाथ रखते हुए नकुल बोले जा रहा है और सुधा बिना पलकें झपकाए बस उसकी आँखों की गहराई को देख मोहित है”

तभी सुधा के चेहरे को देख नकुल खुश होने का झूठा प्रयास करता है और अपनी बात को बदलते हुए कहता है।

एक बात कहूँ तुमसे सुधा, तुम कभी बदलना मत, तुम जैसी भी हो, बहुत अच्छी हो बस ऐसी ही रहना हमेशा”

हाँ तो बदलने वाला भी कौन है मेरा तो उसूल ही यही है “मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में”

सुधा ने तपाक से उत्तर देते हुये कहा,

वैसे एक बात मैं भी कहूँ “बच्ची नहीं हूँ मैं”, तुम्हारी इस झूठी मुस्कान के पीछे छिपे हुये डर को बहुत अच्छे से समझती हूँ और उसे गंभीरता से भी लेती हूँ।

बस तुम पर यह बात ज़ाहिर करके मैं तुम्हें और परेशान नहीं करना चाहती।

क्योंकि मैं तुम को खुश देखना चाहती हूँ। प्यार करती हूँ मैं तुम से नकुल” मगर देखो न, “मैं तो यह कह भी नहीं सकती,

क्योंकि तुम्हारे हिसाब से तो जिस प्यार को ज़ाहिर कर दिया वह प्यार ही कहाँ रहा” यह सब बातें मन ही मन नकुल से कहते हुए सुधा फिर हँसकर एक गीत गुनगुनाती है।

यह कहाँ आ गए हम, यूं ही साथ –साथ चलते...

खैर छोड़ो, नेक काम में देर किस बात की चलो कल ही चलते हैं। अगले दिन कार में सामान रखते हुए नकुल कहता है

"वैसे अच्छा ही किया तुमने यह प्लान बनाकर, "बहुत दिन हो गए यूँ लॉन्ग ड्राइव पर तुम्हारे साथ गए हुए"

सच शादी के बाद कितनी बदल जाती है न ज़िंदगी ?

यक़ीन ही नहीं होता।

“हाँ यह बात तो है” इसलिए तो मैं कुछ दिनों के लिए इस ज़िंदगी से भाग जाना चाहती हूँ।

सच सब कुछ बदल जाता है

“जान” पहले सा कुछ नहीं रहता शादी के बाद, कितना कुछ सोचा था न हम ने शादी के बाद हम दोनों मिलकर अपनी एक छोटी सी नयी दुनिया बनायेंगे।

तुम घर जल्दी आया करोगे।

रोज़ एक नया सरप्राइज़ कभी तुम्हारे पास होगा, कभी मेरे पास।

देर रात तक चाँद को देखते हुए घंटों बातें किया करेंगे।

कुछ बीते हुए कल की, तो कुछ आने वाले पल की...फिर अगली सुबह एक साथ नाश्ता करके ज़िंदगी में कुछ अच्छा कर गुजरने की चाह में एक साथ शाम को जल्दी मिलने का वादा लिए निकलना।

कुछ “तुम कहो कुछ हम कहें जैसी बातें करना”

सब कुछ मिल बांटकर करना।

एक ही थाली में एक दूसरे को खिलाते हुए खाना,

ऐसी न जाने कितनी छोटी-छोटी सी बातें थी, सपने थे, ख्वाइशें थी।

मगर वक्त को जैसे यह सब कुछ भी मंजूर ही नहीं था।

अरे मैं तो भूल ही गयी थी सभी सपने भी भला कभी पूरे होते है किसी के, जो मेरे होते।

याद है शादी के बाद गृह प्रवेश की रस्म के वक्त ही मुझ से बिना पूछे, बिना मेरी इच्छा को जाने मेरे सभी अरमानों का गला घोंट दिया था तुम्हारी माँ ने,

जब उन्होंने यह कहा था कि बहू “आज से और अभी से तुम्हारी नौकरी बंद अब तुम्हें एक कुशल ग्रहणी बनकर ही अपना पूरा जीवन जीना होगा”

तब साथ-साथ तिनका -तिनका जोड़कर मेरा तुम्हारे साथ मिलकर घर बनाने का एक सपना तो तभी टूट कर बिखर गया था।

तभी सुधा ने ठंडी आह ली। यदि उस वक्त तुम्हारी सुशीला बुआ ने बात नहीं संभाल ली होती तो न जाने मेरा क्या होता नकुल याद है उन्होंने क्या कहा था। “तुम्हें कैसे याद होगा तुम तो वहाँ थे ही नहीं उस वक्त” उन्होंने माँ से कहा था “यह क्या कह रही है संतोष, पागल तो नहीं हो गयी है” एक तरफ तूने इतना बड़ा दिल करके इन दोनों के प्रेम विवाह की मंजूरी दे दी और अब चाँद सी सुंदर और सुशील बहू पाकर भी तू उसे नौकरी करने से रोकना चाहती हैं। “चिंता मत कर सुधा मैं हूँ ना, मैं तेरी सास को बहुत अच्छे से जानती हूँ। इसका तो स्वभाव ही ऐसा है अंदर से नरम और बाहर से सख़्त एकदम नारियल के जैसा” सुशीला बुआ के ऐसे विश्वास भरे शब्दों को सुनकर जब मैंने माँ का चेहरा देखा।

तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेहमानों की भीड़ की वजह से वह उस वक्त खून का घूँट पीकर रह गयी हों, लेकिन सुशीला बुआ घर की बड़ी थी उनकी बात को काटना भी माँ के लिए संभव नहीं था। इसलिए मन मारकर माँ ने मुझे नौकरी की इजाज़त तो दे दी थी। मगर उनका मन, उनकी आत्मा इस बात के लिए ज़रा भी राज़ी नहीं थे।

फिर तो कई बार मुझे यूं लगा जैसे माँ को मैं पसंद ही नहीं आयी कभी, सिर्फ तुम्हारा दिल रखने के लिए ही उन्होंने हमारी यह शादी हो जाने दी, फिर सुशीला बुआ ने मुझे बाद में बताया था कि कैसे तुम्हारे बाबू जी के जाने के बाद जब तुम्हारी माँ ने नौकरी करके तुम्हारी परवरिश करनी चाही। तब उन्हें घर की चारदीवारी के बाहर कैसे-कैसे कष्टों का सामना करना पड़ा और किन-किन हालातों से गुजरने के बाद खुद को इस बेरहम दुनिया से बचाते हुए उन्होने तुम्हें इस क़ाबिल बनाया कि तुम आगे चलकर उनका सहारा बन सको।

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