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हड़बड़ी में उगा सूरज

हड़बड़ी में उगा सूरज
क्रिस्टीना से मेरी पहचान कब से है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बहुत सारे उत्तर हो जाएंगे, और ताज़्जुब मुझे बहुत सारे उत्तर हो जाने का नहीं होगा,बल्कि इस बात का होगा कि उन सारे उत्तरों में से कोई भी ग़लत नहीं होगा।
इस यूनिवर्सिटी में,इस शहर में मैं कई साल पहले तब आ गया था,जब पढ़ाई खत्म करके ताज़ा ताज़ा कॉलेज से निकला था। इसके बाद मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि अपनी ज़िंदगी का अधिकांश भाग मैंने यहीं निकाला है। हां,बीच के वो पौने चार साल बेशक छोड़े जा सकते हैं जो नॉर्वे में कटे थे मेरे। क्रिस्टीना से मेरी मुलाक़ात वहीं,फेज़रो में हुई थी। लेकिन ये बताने का मेरा यह मकसद कतई नहीं है कि उससे होने वाली मुलाकातें कोई कोई बहुत अहम या याद रह जाने वाले मसले थे। फ़िर भी बता इसीलिए रहा हूं कि वो बातें मैं अभी तक भूला नहीं हूं।
यदि ज़िक्र क्रिस्टीना के बारे में बताने का चले, तो मैं ये बताना ज़्यादा ज़रूरी समझूंगा कि क्रिस्टीना को जन्म ज़रूर नॉर्वे में मिला था,पर अपनी मानसिकता से वह एक भारतीय लड़की ही थी। और ये भारतीयता उसे विरासत में मिल गई थी या कि साहित्य और संस्कृति के अध्ययन में उसकी गहरी दिलचस्पी का उत्पाद थी, ये भी मेरे लिए एक विवादास्पद सोच ही बना रहा। कभी खोदकर खोजने की कोशिश मैंने नहीं की, और स्वतः सहजता से उसने नहीं पता लगने दिया।
फेज़रो छोटा सा कस्बा था, एक तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ। समीपवर्ती शहर से उसका संबंध सिर्फ एक सड़क के माध्यम से था। सप्ताहांत में फेज़रो में रहने वाले लोग सप्ताह भर की थकान उतारने के लिए शहर का रुख किया करते थे।
अधिकांश मस्तमौला नवयुवकों के लॉन्ग ड्राइव से आबाद रहती थी ये सड़क।
पर मैं सप्ताहांत में ओस्लो से फेज़रो आया करता था। मेरी गंगा उल्टी बहती थी। इसकी वजह ये थी कि मेरे एक परिचित मित्र जो उन दिनों विश्वविद्यालय में मेरे साथ ही काम कर रहे थे, मूल रूप से फेज़रो के ही रहने वाले थे। उनसे प्रगाढ़ मैत्री, जो वहीं पल्लवित हुई, मुझे पहली बार अपनी साप्ताहिक छुट्टी व्यतीत करने के लिए फेज़रो खींच ले गई। कुछ बदलाव की अनुभूति और कुछ उस स्थल की ताजगीदेह छटा ऐसी मन भाई कि एक ही बार में प्रत्येक वीकेंड में उनके साथ वहां चलने का आमंत्रण मेरे द्वारा मान लिया गया।
क्रिस्टीना जेन की मित्र थी। जेन, यानी कि मेरे मित्र की अनुजा। और क्रिस्टीना से पहली ही बार मिल कर मैंने पाया कि उस लड़की में भारत के लिए एक विशेष लगाव है। वह भारत के बारे में गहरी दिलचस्पी रखती है। वहां की बातें रस लेकर सुनती ही नहीं है,बल्कि बेहद उत्सुकता से पूछती भी है। उस अनुभूति को तो महसूस करने वाला ही जान सकता है जो उस दिन क्रिस्टीना के घर पर मुझे हुई। क्रिस्टीना के घर में भारत से संबंधित ढेरों किताबें करीने से सजी देख कर मैं दंग रह गया। उसके संग्रह भारत की विभिन्न थातियों से सजे संवरे थे। विभिन्न पोशाकें व रहन सहन की अन्य वस्तुओं की दिलचस्प झलकी। अपने देश से हज़ारों मील दूर बैठे हुए होने वाले उस अनुभव ने मुझे क्रिस्टीना के करीब ला दिया। एक सहज अपनेपन की लकीर हमारे आपसी संबंधों में उग आई। फिर एक दिन बातों- बातों में मुझे चौंकाने वाली वह बात सुनने को मिली कि क्रिस्टीना बचपन में सात साल तक भारत में रह चुकी है।
क्रिस्टीना बाल सुलभ सरलता से मुझ में रुचि लेती थी। फेज़रो पहुंचते ही शाम को घूमने की योजनाएं बनती। क्रिस्टीना जब मुझे फेजरो के मनमोहक स्थलों की सैर करवाती तो जो एक बात मेरे जेहन में बार बार आती थी वो ये, कि यदि कभी मेरे और क्रिस्टीना के परिचय को लेकर कोई फ़िल्म बनाई जाए तो ये फ़िल्म अपने अन्य पक्षों में चाहे कैसी भी रहे, हां, छायांकन की दृष्टि से नितांत सादगीपूर्ण रहेगी। क्योंकि उसका रुझान ऐसे स्थानों की ओर होता था, जिनमें किसी भी दृष्टि से कोई विशेषता न हो। वो जगहें, जहां हम जाते, न तो नैसर्गिक सौंदर्य की उत्तम मिसाल होती और न ही कृत्रिम कलात्मकता की प्रतीक। न जनशून्य एकांत, और न ही कोलाहल भरे सार्वजनिक स्थल। उनकी सबसे बड़ी विशेषता बस उनकी साधारणता ही होती थी। मैं देखता, वह कई मनोहारी जगहों को बेपरवाही से छोड़ती सामान्य स्थलों पर घूमना पसंद करती थी।
क्रिस्टीना को हिंदी आती थी। मात्र आती ही नहीं थी,बल्कि बहुत अच्छी तरह से आती थी। वह मेरे साथ तो अधिकांश बातचीत हिंदी में ही करती थी और उसका भाषा ज्ञान देख कर मुझे दांतों तले उंगली दबा कर रह जाना पड़ता था। उसका संग्रह भी मेरे लिए अच्छी खासी लाइब्रेरी बन गया था। प्रति सप्ताह मैं वहां से पढ़ने के लिए कोई न कोई पुस्तक ले जाता था।
क्रिस्टीना हर तरह से समझदार थी। वह मानसिकता के फैलाव की दृष्टि से अपनी आयु से कहीं अधिक थी। हर विषय पर बोलती थी और निश्चित मत रखती थी।
यहां एक विशेष बात जिसका मैं ज़िक्र करना चाहूंगा,वो ये कि भारतीयता से गहरे आकर्षण से बंधा हुआ व्यक्तित्व था उसका। भारतीय नारी के बारे में उसकी छवि को लेकर बहुत पढ़ा था उसने।
जिस एक बात से वो अत्यधिक प्रभावित थी वो ये, कि भारतीय परिवेश की "कौमार्य" की अवधारणा को वह विलक्षण मानती थी। उसका ह्रदय ये सोचकर ही आंदोलित - पुलकित हो उठता था कि भारत में स्त्री विवाह के समय पहली बार पर - पुरुष के द्वारा स्पर्श की जाती है। भारत में आमतौर पर स्वछंद यौन संबंध पश्चिमी देशों की तरह नहीं होते। यह बात उसकी दृष्टि में भारत की एक अद्भुत छवि बना देती थी।
"सती" आदि के प्रकरणों को तो वह नितांत अविश्वसनीय मानती थी। मगर ऐसे प्रकरण जब उसे सत्यता के प्रमाण के साथ मिलते तो चकित रह जाती थी वह। और जैसा वह बताती थी, उसने भारत की इन तथाकथित विशेषताओं को पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया था। वह दृढ़ता से इसी जीवन दर्शन को जीना चाहती थी। वह हमउम्र लड़कों और पुरुषों से भारतीय लड़कियों की तरह एक अदृश्य दूरी रख कर पेश आती थी। मैंने पश्चिमी व्यवहार का खुलापन क्रिस्टीना में कभी खोजने पर भी नहीं पाया।
विवाह को वह एक पवित्र बंधन समझती थी और इसे जीवन के प्रभात काल के रूप में देखती थी। उसका मानना था कि सम्पूर्ण जीवन में नारी को केवल एक ही पुरुष के प्रति समर्पित होना चाहिए, वह भी भारतीय पद्धति के विवाहोत्सव के पवित्र रस्मो रिवाज द्वारा।
भारतीय रिवाजों के प्रति एक खास आकर्षण था उसमें। वह अपने जहन में कहीं यह आकांक्षा अवश्य संजोए बैठी थी कि उसका शेष जीवन भारत में ही व्यतीत हो। और अपनी विवाह रूपी भोर की लालिमा को वह भारतीय क्षितिज पर देखने का सपना मन ही मन पाल रही थी।
मैं कुछ ही दिनों में आश्वस्त हो गया कि क्रिस्टीना निश्चित ही किसी पाश्चात्य शरीर में आ बसी भारतीय रूह है जिसके व्यवहार को पश्चिमी आधुनिकता छू भी नहीं गई है।
पौने चार साल बाद मुझे नॉर्वे छोड़ देना पड़ा था। मैं भारत आ गया अपनी धरती पर। जहां तक मेरे और क्रिस्टीना के परिचय का ताल्लुक़ है, वो इसके साथ ही स्थिर हो गया।
वहां से विदा होते समय ऐसा कुछ नहीं था, जिसने मुझे बांधने का दुस्साहस किया हो, या जिसे मैं ले आने की कृतघ्नता कर बैठा होऊं।
पर मेरे पास आने वाला क्रिस्टीना का पहला पत्र मैं आपको अवश्य पढ़वाना चाहूंगा।
इसकी दो वजह हैं।
पहली तो ये कि इस पत्र के साथ ही मेरी वहां होने की अनुभूतियों ने पहली बार मुझे छेड़ा था स्मृतियों के रूप में, और दूसरी यह कि ये पत्र क्रिस्टीना के हिंदी ज्ञान की भी एक मिसाल था।
मैं तो समझता हूं कि मेरे कथन के साक्ष्य के रूप में क्रिस्टीना का ये प्यारा सा पत्र एक दस्तावेज़ है जो उसने पहली बार फेज़रो से मुझे लिखा -
मेरे भारतीय मित्र, फेज़रो
सप्रेम वन्दे!
आज मेरे पत्र को पढ़ कर शायद तुम जान जाओगे कि तुम्हारा आना, हमारा परिचित हो जाना और परिचय मित्रता में तब्दील हो जाना उतना सहज, उतना सपाट नहीं है जितना वह बाहर से दिखाई देता है। समझती मैं भी ऐसा ही थी, मगर ये अहसास मुझे अब हुआ है जब तुम मुझसे हज़ारों मील दूर जा चुके हो।
मैं देलजेनियां की उस झील के किनारे अब भी जाती हूं, मगर वहां पश्चिमी तट वाले पीली घास के मैदान में पड़ा वो पत्थर मुझे उदास कर देता है जो एक दिन तुम उठाकर झील में फेंकने लगे थे और मैंने तुम्हें रोका था। जिस पत्थर को मैंने बचाया वही आज दुश्मन बन कर आज मुझे सता रहा है। लेकिन ये पत्थर है। पत्थर ही तो है।
तुम कहते थे कि भारत में ऐसे तालाबों के किनारे, ऐसे ही घास के मैदानों में, टिटहरी नाम के एक पक्षी की मादा अंडे दे देती है। और सरे शाम ज़ोर से चीख चीख कर उनकी रक्षा करती है। आने जाने वालों की आहट पर चौकन्नी होकर चिल्लाती है...सुनो, तुम्हें ऐतराज़ तो नहीं होगा यदि मैं ये बात यहीं खत्म कर दूं तो? वजह मत पूछना, ठीक से बता नहीं सकूंगी। दरअसल तुम्हारे साथ सैर की बात करते करते मेरे गले में कुछ अटकने सा लगा है।
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या और कैसे लिख कर सिलसिला बनाए रखा जाए।
हां, मैंने नर्सरी से वो फूल तलाश करके मंगवा लिए हैं, जो उस दिन चर्च जाते समय मैं तुम्हें देने के लिए ले आई थी, पर तुम्हें ये पसंद नहीं आए थे। मुझे मालूम है कि तुम्हें वो फूल अच्छे नहीं लगते, पर मेरे उन्हें लाने की वजह भी तो यही थी। वो फूल मुझे तुम्हारे उस चेहरे का ध्यान दिलाते हैं जो तुम खासकर असहमति की दशा में, नापसंदगी ज़ाहिर करने के लिए ही बनाया करते हो।
तुम्हें सुबह का समय पसंद था न? तुम कहा करते थे कि वक़्त के आठों पहरों में यही सबसे सुहानी घड़ी होती है।
तुम्हारी वो सुहानी घड़ी ही आ जाएगी, यदि मैंने अब लिखना बंद न किया तो।
क्या अब हम फ़िर कभी मिलेंगे? मिल सकेंगे! तुम क्या समझते हो,
क्या बातें पूरी होती हैं? छोड़ो, जाने दो।
और फिर "अलविदा" के साथ क्रिस्टीना के हस्ताक्षर थे।
वही छोटी छोटी खूबसूरत लिखाई। जैसे किसी ने डरते डरते अपना नाम लिख दिया हो और अपने हाथों को कंपकंपाने से बेतहाशा रोका हो।
क्रिस्टीना का यह पत्र बिल्कुल भारतीय कन्याओं की तरह था जो सामने पड़ते समय अपने हाल की हवा भी नहीं लगने देती और दूर होते ही पत्र में एकदम करीब आ जाती हैं।
पत्रों का ये सिलसिला तीन साल तक बराबर चलता रहा।
क्रिस्टीना का पत्र मेरे पत्र के जवाब में नियमित रूप से आता था, मगर उसमें ऐसा कुछ नहीं होता था कि उसे मेरे पत्र का जवाब कहा जा सके। वह अपनी विशिष्ट शैली में अपने तरीक़े से लिखती थी। उसके पत्रों में तेज़ी से परिवर्तित होती हुई कोई चीज़ मुझे जता देती थी कि क्रिस्टीना का हिंदी ज्ञान दिनों दिन और भी प्रखर होता जा रहा है। वास्तव में उसने एक बार ये जाहिर भी किया था कि उसकी दिली ख्वाहिश भारत आकर रहने की है। भीतर कहीं महत्वाकांक्षा बन कर उसके अंतस में दबी यही बात शायद उसके भारत के प्रति बढ़ते सम्मान के लिए ज़िम्मेदार थी।
मैंने अपनी उम्र के बत्तीस साल पार कर लिए थे पर अभी तक विवाह नहीं किया था। कारण कई एक रहे होंगे मिलकर, पर मुख्य कारण शायद यही था कि अभी तक कोई सुपात्र मेरी ज़िन्दगी में नहीं आया था।
अपनी ज़िंदगी के एक निहायत अहम राज को आज ज़ाहिर करता हूं - अब मैं यदा कदा अकेले में क्रिस्टीना के पत्रों को अपने काल्पनिक पात्र की परिधि में कसकर देखने लगा था। लेकिन ये ख्याल जैसे आया वैसे ही चला भी गया था।
तभी एकाएक मुझे क्रिस्टीना का वह चौंकाने वाला पत्र मिला था। ऑस्लो से लिखा था क्रिस्टीना ने। उस पत्र की विशेषता ये थी कि वह बेहद संक्षिप्त था। उसके अन्य पत्रों के सर्वथा विपरीत और चौंकाने वाली बात ये थी कि उन चार लाइनों में मेरी ज़िन्दगी को झकझोर देने वाला तूफ़ान क़ैद था।
क्रिस्टीना ने विवाह कर लिया था, बस।
किन परिस्थितियों में, कैसे,किस विवशता से, यह सब वो चार लाइन का पत्र कहां बता पाया था!
मुझे न जाने क्यों रह रह कर महसूस होता था कि ये पत्र किसी असीम विवशता में लिखा गया है और इसके तुरंत बाद ही मुझे उसका विस्तृत पत्र मुझे मिलेगा।
लगता था जैसे अवश्य कहीं कोई अनहोनी घट गई है।
पर नहीं, क्रिस्टीना का मेरे पास आने वाला वो आख़िरी पत्र ही रहा।
फ़िर दो तीन बार मैंने उसे पत्र लिखा भी, पर शायद वो वहां से कहीं चली गई हो या और कोई हादसा हो गया हो।
बहरहाल उसकी कोई खोज खबर मुझे नहीं मिली।
***
मेरी ज़िन्दगी के बाक़ी सालों ने जंगली बेल की तरह फ़ैल कर उन चार सालों की छोटी सी अवधि को पूरी तरह ढाप लिया।
क्रिस्टीना मेरी ज़िन्दगी से निकल गई।
फेज़रो की वो स्मृतियां धुंधला गईं और ऑस्लो को भी मैं पूरी तरह भूल ही गया।
सत्ताइस साल गुज़र गए। इस बीच मेरा विवाह भी हो गया। बीस सावन मेरी संतान के ऊपर से भी गुज़र गए।
और इस सब के दौरान कभी क्रिस्टीना का सोच गाहे बगाहे आया भी तो मेरी यही मान्यता रही कि उस जैसी प्रखर बुद्धि वाली विलक्षण लड़की जहां भी होगी, जिसके साथ भी होगी, सुखी और संतुष्ट होगी।
युगों की अवधि बीत जाने के बाद फ़िर एक दिन सुबह सुबह अनहोनी हो गई।
और अनहोनी तो जाने कैसे और कब हो गई, हां उसका पता अलबत्ता मुझे अब लगा।
कमरे में बैठा अपनी कोई पुरानी किताब देख रहा था कि एक लिफाफा उसमें से निकल कर गिरा।
बंद लिफाफा। वज़नी सा। कौतूहल हुआ। डाकखाने की मोहर देखी। सहसा यकीन नहीं आया आंखों पर। एक झुरझुरी सी तन में दौड़ गई।
सत्ताइस साल पहले की मोहर !
सब कुछ मस्तिष्क में कौंध गया।
तो...क्रिस्टीना का पत्र आया था! जाने किसने इसे उठा कर मेरी किताब में रख दिया और मुझे बताना भूल गया। और मेरी अलमारी में रखी वो पुरानी किताब बेचारी अपने गूंगेपन के हाथों मज़बूर थी, कह नहीं सकी कुछ।
खोल डाला पत्र। एक लंबा उदास पत्र। सत्ताइस साल तक लिफ़ाफे में क़ैद रह कर उसकी ताज़ा उदासी बरकरार थी।
क्रिस्टीना का मेरे नाम आख़िरी पत्र।
शायद इसके बाद वो मेरे पत्र का इंतजार करती रही हो, या कौन जाने इस पत्र के साथ उसने भी धो पौंछ कर अपनी ज़िंदगी से वो चार साल निकाल फेंके हों!
तो क्रिस्टीना के बारे में मैंने जैसा समझा वैसा हुआ नहीं?
उससे कहीं ज़्यादा बेस्वाद, कहीं ज़्यादा बेमेल, कहीं ज़्यादा बेरंग...
उसकी ज़िंदगी का वह शुभ सवेरा, जिसका वह बेकली से सपने संजोकर इंतजार किया करती थी,बड़ा बदरंग हो गया।
क्या हुआ,कैसे हुआ, कौन सा दुर्भाग्य क्रिस्टीना के जीवन की खुशनुमा हरियालियों के बीच घट गया, ये जानने का जरिया यही पत्र था, जो उसने संभवतः अपने विवाह के समय लिखा होगा। वह पत्र जिसका एक एक शब्द लिफ़ाफे ने संभाल कर रखा। सत्ताइस साल पुरानी समय की धार अपने शरीर पर झेल कर पीला पड़ गया लिफ़ाफा, पर इसने मजमून को महफूज़ रखा।
क्रिस्टीना का वह विवाह! जाने कैसे सब हुआ होगा। कैसे सह पाई होगी भोली क्रिस्टीना वह सब, जिसे बाद में विवाह का पवित्र नाम देने को मजबूर हुई।
क्रिस्टीना लिखती है -
फेज़रो
11 जुलाई 1953
मेरे भारतीय मित्र,
तुम्हें सुबह बहुत पसंद थी। तुम कहा करते थे कि यही वह समय होता है जब दुनिया की हर चीज़ पर गुलाबी नज़रें डालने को जी चाहता है। उपन्यासों में मैं भी पढ़ा करती थी, सुबह वास्तव में भली लगा करती थी। सुनते थे कि जब सुबह होती है तो सूर्य किरण आकर धरती को जगाती है, कोकिल कंठ से प्रातः संगीत गूंजता है, पक्षी चहचहाते हुए नील गगन की ऊंचाइयों में खोने लगते हैं। सारा जहां रात भर की मौन नींद से जाग कर एक और दिन जीने के लिए चल पड़ता है। सब कुछ सार्थक हो जाता है।
तुम झूठे पड़ गए हो।
आज सवेरा हो गया है, मैंने अपनी आंखों से देखा है। सूर्य किरण आई है धरती को जगाने, रंगों ने रात के घुंघरू खोल कर उसे आज़ाद कर दिया है। वह लौटना चाहती है। परिंदे भी अपना धर्म निभाने के लिए चहचहाने लगे हैं, पर मेरा मन डूब गया है।
ऐसे में डूब क्यों गया मेरा मन? सब कुछ भूल जाने की इस बेला में मैं क्यों याद कर रही हूं तुम्हें? जानते हो, तुम्हारी सुबह की रंगत दिखाने के लिए। एक नजर देखो तो, क्या मेरी ही तरह तुम्हें भी बुझा सा दिखता है ये? कितना खौफ़नाक सवेरा है ये।
अंधेरा सोकर नहीं उठा और सुबह हो गई। धरती के सीने से काली बोझल रात ने अपना आंचल नहीं समेटा कि सूर्य किरण आ गई है। बीती रात की निस्तब्धता दो घड़ी चैन की बंसी बजाने नहीं पाई कि पक्षियों का कर्णभेदी कलरव गूंजने लगा है।
अधूरी सुबह!
सच में, सुबह भी जल्दी हो जाए तो कहां सुखद रह जाती है? संगीन रात का सवेरा रंगीन तो हो सकता है, पर जो सुबह रात का हिस्सा छीन कर उसे मुंह अंधेरे ही रुखसत कर दे वह किसको क्या दे सकती है?
वह सुबह जो चंदा को अपनी चांदनी से चार घड़ी मिलने भी न दे, जो सुबह सितारों की चमक छीन लेने को आतुर हो,जिस सुबह की बेपर्दगी अपनी मांग में उषा की लालिमा बिखरा लेने को इतनी उतावली हो जाए कि उसे रात की अर्थी पर गिरे ताज़ा आंसू भी दिखाई न दें, उस सुबह से कोई क्या अपेक्षा रखे। मेरी सुबह जल्दी हो गई है।
मेरी सुबह ने चांद को धक्का दे दिया क्षितिज से। सुर्ख लाल जोड़ा पहनने को बेताब थी मेरी सुबह। मेरी सुबह के पांव बिना महावर के अब तड़पने लगे थे। मेरी सुबह सुहागन होना चाहती थी। इसलिए मेरी सुबह ने अपनी रात की मजार पर पड़े गुलाब मसल कर अपने हाथ रचा लिए। मेरी सुबह को शुबहा था कि उसके गोरे हाथ कहीं मेहंदी के लिए कसमसाते ही न रह जाएं।
मेरी सुबह ने पक्षियों को शोर मचाने के लिए कच्ची नींद जगाया।
मेरी सुबह ने अम्बर की कालिमा छूटने से पहले ही उस पर सिंदूर पोतना चाहा।
मेरी सुबह ने सूर्य किरण की टांग पकड़ कर घसीट डाली। मेरी सुबह ने रात के महाप्रयाण को ही उषा के शुभागमन में बदलने का शर्मनाक पाप किया।
मुझे कच्चा सवेरा नहीं चाहिए था दोस्त !
मेरी रात की चिता की लपटों से ही इस सुबह के सूरज को रंगा गया है। झूठी बोली मैं नहीं सुनना चाहती। सुबह को जबरन मनोहारी बनाने का बेबस पक्षियों का ख़्वाब पूरा नहीं हो सकेगा। अभी इनके पर नहीं आए हैं, कैसे उड़ेंगे ये? इनका रूप अधूरा है, इनका रंग अधूरा है,ये शोर ही करेंगे बस, मेरा जीना हराम करेंगे।
दर्द भरा विरह गीत क्यों तोड़ मरोड़ कर स्वागत गान में ढाला गया है। कौन से जतन से ये कमल समय से पूर्व खिलाए गए हैं। किस धातु के बने हैं ये भ्रमर? किस वाद्य यंत्र का पार्श्व संगीत सुना रहे हैं ये काग़ज़ के फूलों को?
बेजान परिंदों के चीखते रहने के लिए किसने चाबी भरी है। कैसा प्रकाशपुंज फेंक कर सूरज का आभास कराया गया है। किस रोशनी से अंधेरों का गला घोंटा गया है। आकाश रंगने को किस मासूम का लहू इस्तेमाल किया गया है। किसने हिप्नोटाइज़ करके ये नींद में डूबे चेहरे सुबह की भ्रांति उपजाने के लिए सड़कों पे बुलाए हैं। किस विधाता का पैशाचिक प्रयोग है ये?
इससे पहले कि मेरा विश्वास उठ जाए शाम सुबह पर से, काश मेरे सामने से हटा ले कोई ये नकली सवेरा। मैं अपने असली सवेरे के लिए क़यामत तक इंतजार कर लूंगी।
ऐसे हज़ार बनावटी सवेरे मैं अपनी एक रात की सियाही पर न्यौछावर कर दूंगी।
कोई ले ले पक्षियों का ये कलरव, उजाड़ डाले मेरी इस सुबह का सुहाग, तोड़ डाले इसकी चूड़ियां, पौंछ डाले इसके माथे से बिंदिया!
तुम्हारी दिल दहलाने वाली खामोशी के बाद हुई ये शादी, मेरी शादी नहीं थी। अपने खूबसूरत और जवान पति के साथ सारी रात नर्म मुलायम बिस्तर पर कटी खुशबूदार ये रात, मेरी गोल्डन नाइट नहीं थी ... मुझसे सारी रात दुष्कर्म हुआ है दोस्त! ज़िन्दगी ने बलात्कार कर दिया मुझसे।
मुझे जिससे प्यार था, मैं उसी की होना चाहती थी मित्र...!
तुम्हारी - क्रिस्टीना
समझ गए न आप सारी बात? मुझसे कुछ पूछिए मत। मैं अब कुछ समझा नहीं सकूंगा...मेरी आंखों में समंदर उतर आया है।
(समाप्त)