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विद्रोहिणी - 4

विद्रोहिणी

(4)

कच्छपावतार

अगले दिन नाटक ‘ कच्छपावतार ’ का मंचन होना था।

( मंच पर समुद्र मंथन का दृष्य बनाया गया था। एक पर्वतनुमा गत्ते पर काली मोटी रस्सी लपेटकर मंदिराचल पर्वत पर वासुकी नाग लिपटे होने का इफेक्ट पैदा किया गया।

नाग के मुंह को दैत्य व पूंछ को देवता पकड़कर समुद्र मंथन कर रहे थे। नाग के मुंह से आग निकल रही थी।

समुद्र मंथन से अमृत कलश प्रकट होता है जिसे विष्णु भगवान झपट लेते हैं। वे देवताओं को एक कतार में बिठाकर अमृत बांट रहे होते हें तभी एक दैत्य छलपूर्वक उस पंक्ति में प्रवेश कर जाता है। वह भी अमृत चख लेता हे। )

सूर्य: हे भगवन ! देखिये उस दैत्य ने छलपूर्वक हमारी पंक्ति में घुसकर अमृत पान कर लिया है।

( चंद्र भी यही शिकायत करता है। विष्णु क्रोधित होकर उस दैत्य के अपने चक्र से दो टुकड़े कर देते हैं।

विष्णु ; क्रोधित होते हुऐ: यह दैत्य अमर हो गया है । मैंने इस दैत्य के दो टुकड़े कर दिऐ हैं । ऊपर का धड़ राहू व नीचे का धड़ केतु कहलाऐगा ।

(तब से सूर्य व चंद्र से बदला लेने के लिए वर्ष में एक बार राहू व केतु उन्हें निगल कर ग्रहण लगा देते हैं।)

***

वामनावतार

अगले दिन ‘ वामनावतार ’ का मंचन होता हेै।

( राजा बलि अपने गुरू शुक्राचार्य के निर्देशन में एक यज्ञ करता है जिसके सम्पन्न होने पर वह तीनों लोकों का स्वामी हो जाएगा। )

(स्वर्गलोक मे इंद्रसभा का दृष्य: सभी देवता गहरी चिंता में पड़े हुए हैं। )

इंद्र: हे देवताओं ! हम पर भारी संकट मंडरा रहा है। यदि पृथ्वी पर राजा बलि का यज्ञ सम्पन्न हो गया तो हमसे स्वर्ग का साम्राज्य छिनकर दैत्यों के पास चला जाएगा।

देवता: इस संकट से केवल विष्णु भगवान ही हमें बचा सकते हैं।

इंद्र: चलो सब मिलकर भगवान से हमें बचाने की प्रार्थना करते हैं।

( विष्णुलोक का दृष्य: भगवान शेष शय्या पर सोए हैं। लक्ष्मी चरण दबा रही है। )

विष्णु: आइऐ देवतागण ! आपका स्वागत है ।

इंद्र: भगवन् ! हमें बचाइये। यदि दैत्यराज बलि ने अपना यज्ञ सम्पन्न कर लिया तो उसका स्वर्ग पर आधिपत्य हो जाएगा।

विष्णु: देवतागण आप निष्चिंत रहें । हम अभी जाकर उसके यज्ञ को नष्ट कर देंगे।

***

अगला दृष्य:

(विष्णु एक वामन ब्राम्हण का वेष धारण करते हें। उनके एक हाथ में छाता है व दूसरे हाथ में कमंडल है। वे यज्ञस्थल पर पहुंचते हें। )

वामन: भवति भिक्षां देहि।

राजा: प्रणाम ब्राम्हण देवता ! कहिये मैं आपकी क्या सेवा करूं ?

शुक्राचार्य ( राजा के कान में): राजन यह ब्राम्हण विष्णु है जो तुम्हारा यज्ञ नष्ट करने आए है। इनके द्वारा मांगी गई किसी वस्तु को मत देना।

राजा: भगवन् ! मेरे अहो भाग्य कि आप मेरे द्वार पर स्वयं उपस्थित हो। आपका यह दास आज आप जो मांगोगे सब कुछ आप पर निछावर कर देगा।

( गुरू शुक्र राजा को बहुत समझाते हैं किन्तु राजा उनकी एक न सुनकर भगवान की भक्ति में पागल हो जाता है व अपना सर्वस्व प्रभु पर लुटाने को तैयार हो जाता है। वह उनसे बार बार “जो चाहो सो मांग लो” कहता हे । तब गुरू विष्णु के कमंडल में बैठ जाते हैं ताकि किसी तरह राजा को विष्णु की चाल से बचाया जा सके। वामन कमंडल से पानी न निकलने पर एक तिनके से छेद कर देते हैं। कमंडल में बैठे गुरू की आंख से खून की धार बह निकलती है। )

वामन: राजन्! मुझे अपनी छोटी सी कुटिया बनाने के लिए सिर्फ तीन पैर प्रथ्वी का टुकड़ा चाहिए।

राजा: भगवन्! तीन पैर तो क्या मैं आपको अपना पूरा साम्राज्य समर्पित करने को तैयार हूं।

वामन: राजन् सावधान ! मैं तीन पैर प्रथ्वी नापता हूं।

( देखते ही देखते वामन आकाश जितने लम्बे हो जाते है। वे अनंत स्वरूप को धारण कर लेते हैं। )

वामन: सावधान राजा ! लो इस एक पैर से मैंने पूरी प्रथ्वि नाप ली। दूसरे पैर से मैंने पूरा स्वर्ग नाप लिया। अब से प्रथ्वि व स्वर्ग मेरे हुए। अब बता में तीसरा पैर कहां रखूं ?

राजा ( हाथ जोड़कर ): भगवन ! मैं आपका दास हूं। मेरा सर्वस्व आपका है । आप अपने चरण कमल अपने दास पर रखिए।

वामन: राजन ! मैं तुमसे अति प्रसन्न हूं। दैत्य होते हुए भी तुम मेरे अनन्य भक्त हो। मैं प्रथ्वि का साम्राज्य तुम्हें लौटाता हूं । तुम सुखपूर्वक इसका उपभोग करो । स्वर्ग का साम्राज्य मैं अपने पास रखता हूं।

ऐसा कहकर भगवान अंतर्धन हो जाते हैं। ( नाटक पूरा होने पर प्रसाद वितरण होता हे। भक्तगण भजन गाते हैं। )

***

नरसिंहावतार

इस तरह अनेक नाटकों का मंचन हुआ। इन सबमें नाटक नरसिंहावतार सबसे रोमांचक था। पिछले वर्ष नरसिंह पात्र खेलने वाले व्यक्ति ने हिरण्यकश्यप पात्र को वास्तव में मार ही दिया होता क्योंकि दोनों पात्र अभिनय में इतने डूब गए कि उन्हें कुछ होंश ही नहीं रहा। नाटक के दौरान द्रश्य को रोककर हिरण्य का बचाव करना पड़ा। उस पात्र को अनेक दिन तक अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती रहना पड़ा। तब जाकर कहीं उसकी प्राण रक्षा हुई।

(स्टेज पर हिरण्यकष्यप नामक दैत्य बड़े बड़े डग भरते हुए बताया जाता है। उसने एक काला चोगा पहन रखा है, उसके सिर पर दो सींग हैं। वह अपने हाथ में गदा लिए हुए उसे घुमा रहा है।)

हिरण्य: मै भगवान हूं। मैने तपस्या करके ब्रम्हाजी से वर मांग लिया है कि मैं सदैव अजर अमर रहूंगा । मैं न दिन में मर सकता हूं, न रात में; मुझे न पशु मार सकता हे, न मनुष्य ; न मैं महल के अंदर मर सकता हूं न बाहर। हा! हा! हा! ....

सैनिकों ! जाओ पूरी प्रजा से कह दो कि सब लोग भगवान मानकर मेरी पूजा करें।

सैनिक: जो आज्ञा महाराज !

अगला दृष्य

( हिरण्य का दरबार : वह ऐक सिंहासन पर बेठा हुआ है। उसके दोनों ओर दो स्त्रियां चंवर हिला रही है। बीच बीच में दरबारी ‘ हिरण्य भगवान की जय ’ के नारे लगा रहे हैं। दो सैनिक एक स्त्री व पुरूष को पीटते हुए लाते हैं। )

सैनिक: हिरण्य भगवान की जय हो । महाराज सभी लोग आपकी आज्ञा के अनुसार आपको भगवान मानकर आपकी पूजा कर रहे हैं। किन्तु ये स्त्री व पुरूष विष्णु की पूजा कर रहे हैं। पीटने पर भी ये आपकी आज्ञा नहीं मान रहे हैं।

हिरण्य: ऐ मूर्ख लोगों ! क्यों अपने प्राण संकट में डाल रहा हो। हम ही तो भगवान है। विष्णु तो हमारे डर से कहीं जाकर छुप गया है।

व्यक्ति: महाराज ! हमारे भगवान विष्णु हैं। हमें अपने भगवान की पूजा करने दी जाए।

हिरण्य ( क्रोध से लम्बे लम्बे डग भरते हुए) सैनिकों इन मूर्खो को प्राण दंड दिया जाए।

( सैनिक उन दोनों पर तलवार से काट कर मार देते हैं। स्टेज पर खून ही खून फ़ैल जाता है I)

***

तृतीय दृष्य

( हिरण्य का पुत्र प्रहलाद खेलता हुआ भरे दरबार में अपने पिता की गोद में आकर बैठ जाता हे। पिता स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे दुलारता है। )

हिरण्य: कहां से आ रहे हो बेटा ?

प्रहलाद: मैं आश्रम से पढ़ाई करके आ रहा हूं, पिताजी।

हिरण्य: तुमने क्या पढ़ाई की बेटा ?

प्रहलाद: ‘ हरि बोल! हरि बोल!हरि हरि बोल । ’

हि ( क्रोध में भरकर) तुम्हारे भगवान कौन है?

: पिताजी भगवान विष्णु इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। वे इस सृष्टि का सृजन, पालन व विनाश करते हैं। हम सबको उनकी ही पूजा करनी चाहिए।

हिरण्य: नहीं, नहीं बेटा ! हम भगवान हैं। हम अजर अमर हैं । ब्रम्हाजी ने हमें अमरता का वरदान दिया है। प्रत्येक व्यक्ति को हमारी पूजा करनी चाहिए।

प्रहलाद : अरे पिताजी आप तो साधरण दैत्य हो। आप अमर नहीं मर्त्य हो I आप कदापि भगवान नहीं हो सकते।

विष्णु ही इस सम्पूर्ण जगत के भगवान हैं।

हिरण्य: अरे दुष्ट ! तू मेरा पुत्र नहीं है वरन तू मेरा शत्रु है। सैनिकों ! इसके गुरू को पकड़कर लाया जाए।

प्र: पिताजी मेरे गुरू ने मुझे विष्णु को भगवान मानने को नहीं कहा था।

हिरण्य: तो दुष्ट फिर तुझे यह झूठी शिक्षा किसने दी ?

प्र: पिताजी विष्णु ही इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं, वे ही चर अचर केस्वामी हैं . यह शिक्षा मुझे वर्षों पूर्व महर्षि नारद ने दी थी ।

हि: सैनिकों इस दुष्ट को पकड़कर पहाड़ की चोटी से नीचे फेंक दिया जाए।

प्र: पिताजी ! मेरे सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी भगवान, मेरी रक्षा करेंगे।

अगला दृष्य

( हिरण्यकष्यप के दरबार का दृष्य: दो सिपाही प्रल्हाद को दोनों ओर से पकड़कर प्रवेश करते हैं। )

सैनिक: हिरण्य भगवान की जय हो !

हि: यह दुष्ट अभी तक जीवित कैसे है ?

सैनिक: महाराज ! हमने प्रल्हाद को तीन बार उंचे पर्वत से नीचे गहरी खाई में फेंका, किन्तु हर बार यह जीवित बच गया।

हि: क्यों रे दुष्ट ! बता तुझे कौन बचा रहा है ?

प्र: कण कण में व्याप्त मेरे प्रिय भगवान सदैव भक्तों की रक्षा करते हैं।

हि ( अत्यंत क्रोध से ) दरबार में एक सपेरा बुलाया जाऐ व जहरीले नाग से प्रल्हाद को कटवाया जाऐ।

अगला दृष्य

( दरबार मे ऐक सपेरा प्रवेश करता है। )

सपेरा: हिरण्य भगवान की जय हो।

हिरण्य: ( प्रहलाद को बताकर ): सपेरे ! हमारी आज्ञा है अपने नाग से इस दुष्ट को डसवाया जाए।

( सपेरा कुछ देर तक हिचकता है व कांपता हुआ खड़ा रहता है।

हि: हमारी आज्ञा का पालन हो अन्यथा इस सपेरे की गर्दन धड़ से अलग कर दी जाए।

( सपेरा प्रल्हाद के पास जाकर दो तीन बार नाग से उसे कटवाने की कोशिश करता है किन्तु नाग छूटकर हिरण्य की और दौड़ पड़ता है । राजा डर के मारे सिंहासन पर चढ़कर चिल्लाता है ‘ बचाओ बचाओ ’ )

हि: अरे दुष्ट सपेरे शीघ्र यहां से भाग अन्यथा तेरे प्राण ले लूंगा।

सपेरा टोकरी उठाकर वहां से भाग जाता है।

अगला दृष्य

हि: हमारी बहिन होलिका को बुलाया जाए।

(होलिका का दरबार में प्रवेश)

हि: बहिन होलिका तुम्हे हमारा ऐक महत्वपूर्ण कार्य करना होगा।

होलिका: बोलो मेरे भाई। मैं सदैव आपकी सेवा मे तैयार हूं।

हि: तुम्हे प्रल्हाद को लेकर जलती हुई होली में प्रवेश करना होगा। ब्रम्हाजी के वरदान के कारण तुम तो आग से सुरक्षित बच जाओगी और दुष्ट प्रल्हाद जलकर राख हो जाएगा।

होलिका: तुम्हारी मति मारी गई है, भैया । तुम अपने ही पुत्र का वध मुझसे करवाना चाहते हो । मैं ऐसा पाप कदापि नही करूंगी।

( हिरण्य उसे मारने के लिए तलवार लेकर दौड़ता है। होलिका घबराकर प्रल्हाद का वध करने के लिए तैयार हो जाती है। )

अगला दृष्य

( ऐक मैदान में होली जलाई जा रही है । होलिका उसमें प्रल्हाद को लेकर प्रवेश करती है। होलिका स्वयं जल जाती है। प्रल्हाद सकुशल जलती होली से बाहर निकल आता है।)

जोरो से उद्घोषणा होती है, “ देखिये भक्तो ! होलिका तो जल गई किन्तु भक्त प्रल्हाद सकुशल अग्नि से बाहर निकल आए है I भगवन सदा अपने भक्तो की रक्षा करते है I

भीड़ ताली बजाती है। )

***

अगला दृष्य

( हिरण्य व प्रल्हाद स्टेज पर खड़े हैं। हिरण्य बार बार अपनी तलवार घुमाकर स्वयं को सृष्टि का भगवान घोषित कर रहा हे।)

हि: अरे दुष्ट प्रल्हाद बता तो सही तेरा नारायण कहां है ?

प्र: पिताजी ! भगवान नारायण इस सृष्टि के कण कण में व्याप्त हैं। वे सर्वत्र विराजमान हैं।

( हिरण्य ऐक खंभे पर गदा मार कर कहता है ). ‘क्या तेरा भगवान इस खंभे में मौजूद है ?

प्र: अवश्य! नारायण, इस खंभे मे विराजमान हैं।

(हिरण्य उस खंभे पर अधिक जोर से गदा मार कर कहता है )

‘ ले मैं तेरे भगवान का अभी वध कर देता हूं। मैं इस खंभे के दो टुकड़़े कर देता हूं ।’

( उसी समय जोरों की दहाड़ सुनाई देती है। खंभे से भगवान नृसिंह प्रकट होते हैं।

उनका आधा शरीर शेर का व निचला धड़ मनुष्य का है। वे जोर से दहाड़ते हैं व हिरण्य को पकड़कर ऊपर उठा लेते हैं। हिरण्य उन पर गदा से वार करता है। वे हिरण्य से गदा छीनकर उसे तोड़ देते हैं। नृसिंह लाल आंखें किए उसे उठाकर दहलीज पर लाकर कहते हैं )

‘ अरे दुष्ट प्राणी ! खुद को भगवान कहता है । मेरे भक्तों के प्राण लेता है। उन पर भारी अत्याचार करता है। अब देखूं तुझे कौन बचाता है ? देख अभी न सुबह है न शाम है। यह स्थान न महल के अंदर है न बाहर है। मैं न मनुष्य हूं न कोई अन्य जीव हूं। ब्रम्हाजी का वरदान इस समय पूरी तरह असफल हो गया है। ’

(यह कहते हुए वे हिरण्य का पेट फाड़ देते हैं। स्टेज पर लहू बिखर जाता हे।

भगवान स्टेज पर अत्यंत क्रोधित मुद्रा में नृत्य करते हें। सब हाहाकार करने लगते हैं। स्टेज पर सभी देवी देवता भगवान से शांत होने की प्रार्थना करते हैं किन्तु वे शांत नहीं होते हें।) अंत में प्रल्हाद भगवान की प्रार्थना करता है: ‘ हे प्रभु कृपया शांत हो जाइये’ तब जाकर प्रभु चतुर्भुज रूप मे प्रकट होते हैं।

( भीड़ जयकारे लगाती है ‘ नृसिंह भगवान की जय ’ बड़ी देर तक भजन कीर्तन चलते रहते हैं। )

***