Badi Didi - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

बड़ी दीदी - 7

बड़ी दीदी

शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 7

कलकत्ता के मकान में अब ब्रज बाबूु के स्थान पर शिवचन्द्र मालिक है और माधवी के स्थान परक अब नई बहू धर की मालिक है। माधवी अब भी वहीं है। भाई शिवचन्द्र स्नेह और आदर करता है लेकिन अब माधवी का वहां रहने को जी नहीं चाहता। घर के दास, दासी, मुंशी, गुमाशते अब भी बड़ी दीदी कहते हैं, लेकिन सभी जानते है कि सन्दूक की चाबी अब किसी और के हाथ में चली गई है, लेकिन यह बात नहीं कि शिवचन्द्र की पत्नी किसी बात में माधवी का निरादर या अवज्ञा करती है, फिर भी वह ऐसा भाव प्रकट करने लगती है जिससे माधवी अच्छी तरह समझ ले कि अब बिंना इस नई स्त्री की अनुमति और परामर्श के उसे कोई काम नहीं करना चाहिए।

उस समय पिता का राज्य था, अब भाई का राज्य है, इसलिए कुछ अन्तर भी पड़ गया है। पहले उसका सम्मान भी होता था और वह जो भी चाहती थी वही होत था, लेकिन अब केवल आदर है, जिद नहीं है। पहेल पिता के कारण सब कुछ वही थी लेकिन अब वह केवल आत्मीयों और कुटुम्बियों की श्रेणी में आदर रह गई।

इस पर यदि कोई यह कहे कि हम शिवचन्द्र अथवा उसकी पत्नी को दोषी ठहरा रहे हैं और सीधे-सीधे न कहकर घुमा फिराकर उसकी निन्दा करते है तो वह हमारे अभिप्राय को ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहे। संसार को जो नियम है और आज तक जो रीति-नीति बराबर चली आ रही है हम केवल उसी की चर्चा कर रहे हैं। माधवी का भाग्य फूट गया है। अब उसके लिए कोई स्थान नहीं रह गया है जिसे वह अपना कह सके। केवल इसी से कोई अपना अधिकार क्यो छोड़ने लगा। यह बात कौन नहीं जानता कि पति की चीज पर स्त्री का अधिकार होता है, लेकिन वह माधवी की कौन होती है? दूसरे के लिए वह अपना अधिकार क्यों छोड़ने लगी। माधवी सब कुछ समझती है। बहू जिस समय छोटी थी और ब्रजबाबू जीवित थे उस समय माधवी की नजर में प्रमिला और बहू में कोई अन्तर नहीं था लेकिन अब सब बातों में अन्तर है। वह सदा से अभिमानिनी है, इसलिए वह सबसे नीचे है। उसमें बात सहने का सामर्थ्य नहीं है इसलिए कोई बात नहीं कहती। जहां उसका कोई जोर नहीं हे वहां सिर ऊंचा करके खड़े होने से उसका सिर कट जाता है। जब उसके मन में दुःख होता है तब वह चुपचाप सह लेती है। शिवचन्द्र से भी कुछ नहीं कहती। स्नेह की दुहाई देना उसका आदत हनीं है। केवल इसी आत्मीयता के भरोसे अपना अधिकार जताने में उस लज्जा आती है। साधारण स्त्रियों की तरह लड़ाई-झगड़ा करने से उसे कितनी धृणा हे केवल वही जानती है।

एक दिन उसने शिवचन्द्र को बुलाकर कहा, ‘भैया, मैं ससुराल जाऊंगी।’

शिवचन्द्र चकित हो गया, ‘यह क्या माधवी, वहां तो कोई नहीं है।’

माधवी ने मृत स्वामी का उल्लेख करके कहा, ‘उनका छोटा भानजा काशी में ननद के पास है। उसी के साथ गोला में मजे से रह लूंगी।’

पावना जिले के गोला गांव में माधवी की ससुराल थी। शिवचन्द्र ने कुछ हंसकर कहा, ‘भला यहा भी कहीं हो सकता है। वहां तुम्हें बहुत कष्ट होगा।’

‘कष्ट क्यों होने लगा। वहां का मकान तो अभी तक गिरा नहीं है। दस-पांच बीघा जमीन भी है। क्या इतने में एक विधवा का गुजार नहीं हो सकता?’

‘गुजारे की बात नहीं है। रुपये की भी कोई चिन्ता नहीं है। लेकिनि माधवी तुम्हें वहां बहुत ही कष्ट होगा।’

‘नहीं भैया, कुछ कष्ट नहीं होगा।’

शिवचन्द्र ने कुछ सोचकर कहा, ‘बहन आखिर तुम क्यों जा रही हो? मुझे सारी बात साफ-साफ बता दो। मैं सार झगड़ा मिटाए देता हूं।’

शायद शिवचन्द्र ने अपनी पत्नी से अपनी बहन के विरूद्ध कुछ बातें सुनी होंगी। वही बातें शायद इस समय उसे याद आ गई। लज्जा से माधवी का मुख लाला पड़ गया। बोली, ‘भैया, क्या सह समझ रहे हो कि मैं लड़ाई-झगड़ा करके तुम्हारे घर से जा रही हूं?’

शिवचन्द्र स्वयं भी लज्जित हो गया। जल्दी से बोला, ‘नहीं, नहीं यह बात नहीं है, लेकिन यह घर सदा ही तुम्हारा है, फिर आज क्यों जाना चाहती हो?’

एक साथ उन दोनों को अपने स्नेहमय पिता की याद आ गई। दोनों की आंखें भर आई। आंखें पोंछकर माधवी ने कहा, ‘मैं फिर आऊंगी। जब तुम्हारे बेटे यज्ञोपवीत हो, तब ले आना। इस समय मैं जाती हूं।’

‘वह तो आठ-दस वरस बाद की बात है।’

‘अगर तब तक जिन्दा रही तो अवश्य आऊंगी।’

माधवी किसी भी तरह वहां रहने के लिए राजी नहीं हुई और जाने की तैयारी करने लगी। उसने नई बहू को घर-गृहस्थी की सारी बातें समझा दी। दास-दासियों को बुलाकर आशीर्वाद किया। चलने के दिन आंखों में आंसू भरकर शिवचन्द्र ने कहा, ‘माधवी, तुम्हारे भैया ने तो तुमसे कभी कुछ कहा नहीं।’

‘कैसी बात करते हो भैया,’ माधवी बोली।

‘सो नहीं। यदि किसी अशुभ क्षण में किसी दिन असावधानी से कोई बात....।’

‘नहीं भैया, ऐसी कोई बात नहीं है।’

‘सच कहती हो?’

‘हां, सच कहती हूं।’

‘तो फिर जाओ। तुम्हें अपने घर जाने से मना नहीं करूंगा। जहां तुम्हें अच्छा लगे, वहीं रहो, लेकिन समाचार भेजती रहना।’

माधवी ने पहले काशी जाकर अपने भानजे को साथ लिया और फिर उसका हाथ थामे गोला गांव में पहुचकर लम्बे सात वर्षो के बाद अपने पति के मकान में प्रवेश किया।

‘गोला गांव के चटर्जी महाशय घोर विपत्ति मे पड़ गए। उनमें और योगेन्द्रनाथ के पिता में बहुत ही घनिष्ठ मित्रता थी इसलिए मरते समय योगेन्द्रनाथ के जीवन काल में ही वही जमीन की देख-रेख करते थे। योगेन्द्र उसकी कुछ अधिक खोज-खबर नहीं लेते थे। उनके ससुर के पाक ढेरों रुपया था इसलिए पिता की छोड़ी हुई इस मामूली सम्पति पर उनकी नजर ही नहीं पडती थी। उनकी मृत्यु के बाद चटर्जी महाशय बहूत ही न्यायपूर्ण अधिकार बिना किसी बाधा के उस सम्पति का उपयोग कर रहे थे। अब इतने वर्षो के बाद विधवा माधवी ने आकर उनकी व्यवस्थित, बनी बनाई गृहस्थी में भारी बखेड़ा खड़ा कर दिया। चटर्जी महाशय को माधवी का यह हस्तक्षेप बहुत ही अखरा और यह बात भी स्पष्ट रूप से उनकी समझ में आ गई कि माधवी ने केवल ईर्ष्या और द्वेष के कारण ऐसा किया है। वह बहुत ही नाराज होकर आए और बोले, ‘देखो बहू, तुम्हारी जो दो बीधा जमीन थी उसकी दस साल की मालगुजारी ब्याज समेत सौ रुपये बाकी है। उसके न देने से तुम्हारी जमीन के नीलाम होने की नौबत आ गई है।’

माधवी ने अपने भानजे संतोष कुमार के द्वारा कहला दिया कि रुपये की चिन्ता नहीं और साथ ही उसने सौ रुपये भी तत्काल भेज दिए। वह रुपये चटर्जी महाशय ने अपने काम में खर्च कर लिए।

लेकिन माधवी इस तरह सहज में छोड़ने वाली नहीं थी। उसने संतोष को भेजकर कहलवाया कि केवल दो बीधे जमीन पर ही निर्भर रहकर मेरे स्वर्गीय ससुर का जीवन निर्वाह नहीं होता था इसलिए बाकी की जो जमीन जायदाद है वह कहां और किसके पास है?

चटर्जी महाशय के क्रोध की सीमा न रही। स्वयं आकर बोले, ‘वह सारी जमीन बिक-बिका गई। कुछ बंदोबस्त में चली गई। आठ-आठ, दस-दस साल तक जमींदार की मालगुजारी न चुकाने पर जमीन भला किस तरह रह सकती थी।’

माधवी ने कहा, ‘क्या जमीन से कोई आमदनी नहीं होती थी जो मालगुजारी के थोड़े से रुपये नहीं दिए जा सके? और अगर जमीन सचमुच ही बिक गई है तो यह बताईए, उसे किसने बेचा और अब वह किसके पास है? यह सब मालूम होने पर उसे निकालने का इंतजाम किया जाए। और उसके कागज पत्र कहां है?’

चटर्जी महाशय ने जो उत्तर दिया, माधवी उसे समझ नहीं सकी। पहले तो ब्राह्मण देवता न जाने बहुत देर तक क्या-क्या बकते रहे और फिर सिर पर छाता लगाकर, कमर में रामनामी दुपट्टा बांधकर और अंगोछे में एक धोती लपेटकर जमीदार साहब की लालता गांव वाली कचहरी की ओर चल दिए। इसी लालता गांव में सुरेन्द्र नाथ का मकान और मैनेजर मथुरा बाबू का दफ्तर है। ब्राह्मण देवता आठ-दस कोस पैदल चलकर सीधे मथुरा बाबू के पास पहुंचे और रोते हुए कहने लगे, ‘दुहाई सरकार की। गरीब ब्राह्मण को अब गली-गली भीख मांगकर खाना पड़ेगा।’

‘ऐसे तो बहुत से आया करते हैं,’ मथुरा बाबू ने मुंह फेरकर पूछा, ‘क्या हुआ?’

‘भैया मेरी रक्षा करो।’

‘आखिर क्या हुआ?’

विधु चटर्जी ने माधवी के दिए सौ रुपये दक्षिणा के रूप में मथुरा बाबू के हाथ पर रखकर कहा, ‘आप धर्मांवतार हैं। अगर आपने मेरी रक्षा न की तो मेरा सर्वस्व चला जाएगा।’

‘अच्छा साफ-साफ बताओ क्या हुंआ है?’

‘गोला गांव के रामतनु सान्थाल की विधवा पुत्रवधू न जाने कहां से इतने दिन बाद आकर मेरी सारी जमीन पर दखल करना चाहती है।’ फिर उन्होंने हाथ में जनेऊ लेकर मैनेजर साहब का हाथ जोर से पकड़कर कहा, ‘मैं तो दस वरस से बराबर सरकारी मालगूजारी देता चला आ रहा हूं।’

‘तुम जमीन जोतते-बोते हो तो मालगुजारी नहीं दोगे?’

मथुरा बाबू ने उसका अभिप्राय अच्छी तरह समझ लिया। ‘विधवा को ठगना चाहते हो न?’

ब्राह्मण चुपचाप देखता रहा।

‘कितने बीधा जमीन है?’

‘पच्चीस बीधे।’

मथुरा बाबू ने हिसाब लगाकर कहा, ‘कम-से-कम तीन हजार रुपये की जमीन हुई। जमीदार कचहरी में कितनी सलामी दोगे?’

‘जो हुकुम होगा, वही दूंगा-तीन सो रुपये।’

‘तीन सो देकर तीन हजार का माल लोगे। जाओ हमसे कुछ नहीं होगा।’

ब्राह्मण ने रुखी आंखों से आंसू बहाकर कहा, ‘कितने रुपये का हुकुम होता है?’

‘एक हजार रुपये दे सकेगे?’

इसके बाद देर तक दोनों आदमियों मे गुपचुप सलाह-मशवरा होता रहा। परिणाम यह हुआ कि योगेन्द्र नाथ कि विधवा पर मालगुजारी और ब्याज मिलाकर डेढं हजार रुपये की नालिश कर दी गई। सम्मन निकला तो सही लेकिन माधवी के पास नहीं पहुंचा। इसके बाद एकतरफा डिगरी हो गई और ड़ेढ महिने के बाद माधवी को पता चला कि बाकी मालगुजारी के लिए जमीदार के यहां से नीलाम का इश्तेहार निकला और उसकी सारी जमीन जायदाद नीलाम हो गई है।

माधवी ने अपनी पड़ोसिन को बुलाकर कहा, ‘यह क्या यह बिल्कुल लुटेरों का देश है?’

‘क्यों क्या हुआ?’

‘एक आदमी धोखा देकर मेरा सब कुछ हड़प लेना चाहता है और तुम लोगों में से कोई देखता तक नहीं?’

उसने कहा, ‘भला हम लोग क्या कर सकते है। अगर जमीदार नीलाम कराए तो हम गरीब लोग उसमें क्या कर सकते है।’

‘खौर, वह तो जो हुआ सो हुआ, लेकिन मेरा घर नीलाम हो और मुझे खबर तक न हो? कैसे हैं तुम लोगों के जमींदार?’

तब उस स्त्री ने विस्तार से सारी बातें बताकर कहा, ‘ऐसा अन्यायी और अत्याचारी जमींदार इस देश में पहले कोई नहीं हुआ।’

इसके बाद उसने न जाने और कितनी ही बातें बताई। अब तक जितनी भी बातें उसे लोगों के मुंह से मालूम हुई थी एक-एक करके सब खोल दी।

माधवी ने डरते-डरते पूछ, ‘क्या जमींदार साहब से भेंट करने से काम नहीं निकल सकता?’

अपने भानजे संतोष कुमार के लिए माधवी यह भी करने को तैयार थी। वह स्त्री उस समय तो कुछ न कह सकी लेकिन वचन दे गई कि कल अपने लड़के से सारी बातें अच्छी तरह पूछने के बाद बताऊंगी। उसका बहनौत दो-तीन बार लालता गांव गया था। जमींदार की बहुत सी बातें जानता था, यहां तक कि वह बाग में ठरही एलोकेशी तक की कहनी सुन आया था। जब मौसी ने जमींदार के साथ रामतनुं बाबू की विधवा पूत्रवधू के भेंट करने के बारे में पूछा तो उसने यथाशक्ति अपने चेहरे को गंभीर बनाकर पूछा, ‘इस विधवा पुत्रवधू की उम्र कितनी है?’

मौसी ने उत्तर, ‘देखने में कैसी है?’

‘बिल्कुल परी जैसी।’

इस पर उसने एक विशेष प्रकार के भाव अपने चेहरे पर लाकर कहा, ‘हा, उनसे भेंट करने के काम तो हो सकता है लेकिन मैं तो कहता हूं कि वह आज राक तो वही नाव किराए पर लेकर अपने पिता के घर चली जाए।’

‘यह क्यों?’

‘इसलिए कि तुम कह रही हो कि वह देखने में परी जैसी है।’

‘तो इससे क्या?’

‘इसी से तो सबकुछ होता है। परी जैसी है इसलिए जमींदार सुरेन्द्र नाथ के यहां उसकी कुशल नहीं।’

मौसी ने अपने गाल पर हाथ रखकर कहा, ‘तू कैसी बातें करता है?’

बहनौत ने मुस्कुराकर कहा, ‘हां, यही बात है। देशभर के लोग इस बात को जानते हैं।’

‘तब तो उनसे भेंट करना उचित नहीं है।’

‘नहीं, किसी भी तरह नहीं।’

‘लेकिन उसकी सारी सम्पत्ति तो चली जाएगी।’

‘जब चटर्जी महाशय इस मामले में हैं तब सम्पत्ति मिलने की कोई आशा नहीं है और फिर वह गृहस्थदार की लड़की ठहरी। सम्पत्ति के साथ क्या उसका धर्म भी चला जाए?’

दूसरे दिन उस स्त्री ने सारी बाते माधवी को बता दीं। सुनकर वह हैरान रह गई। दिन भर जमींदार सुरेन्द्रनाथ के बारे में सोचती रही। उसने सोचा, यह ना तो बहुत ही परिचित है, लेकिन उस व्यक्ति के साथ मेल नहीं खाता। यह नाम तो उसने मन-ही-मन कितने ही दिनों तक याद किया है। उसे आज पूरे पांच वर्ष हो गए। भूल गई थी उसे, लेकिन आज बहुत दिनों बाद फिर याद हो आया।

स्वप्न और निद्रा में माधवी ने बड़े कष्ट से वह रात बिताई। अनेक बार उसे पुरानी बातें याद आ जाती थीं और उसकी आंखों में आंसू उमड़ आते थे।

संतोष कुमार ने उसके मुख की और डरते-डरते कहा, ‘मामी, मैं अपनी मां के पास जाऊंगा।’

स्वयं माधवी ने भी यह बात कोई बार सोची थी, क्योंकि जब यहां ठिकाना ही नहीं रहा तब काशी वास करने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। उसने संतोष के लिए ही जमींदार से भेंट करने के बारे में सोचाथा लेकिने वह हो नहीं सकता। मोहल्ले टोले के और अड़ोसी-पड़ोसी मना कर रहे हैं। इसके सिवा वह चाहे जहां जाकर रहे।

अब एक नया बखेड़ा और खड़ा हो गया है। वह है उसका रूप और यौवन। माधवी सौचने लगी, मेरा भाग्य भी कैसा फूटा है। यह सारे उपद्रव अभी तक उसके शरीर के साथ जुड़े हुए हैं। आज सात वर्ष हो गए। यह सब बातें उसके ध्यान में ही नहीं आईं और इन बातों का स्मरण करा देने वाला भी कोई नहीं था। पति की मृत्यु के बाद जब वह अपने पिता के घर चली गई थी तब सभी ने उसे बड़ी दीदी और मां कहकर पुकारा था। इन सम्मानपूर्ण सम्बोधनों ने उसके मन को वृद्ध बना डाला था। कहां का रूप और कहां का यौवन? जहां उसे बड़ी बहन का काम करना पड़ता था और मां जैसा स्नेह लुटना पड़ता था, वहां क्या यह सब बातें याद रह सकती? याद नहीं थी, लेकिन अब याद हो आई हैं। उसने लज्जा से काफी हंसी हंसकर कहा, ‘यहां के लोग अंधे हैं या जानवर?’ लेकिन यह माधवी की भूल थी। सभी का मन उसकी तरह इक्कीस-बाईस वर्ष की उम्र में बूढ़ा नहीं हो जाता।

तीन दिन बाद जमींदार का एक प्यादा उसके दरवाजे के ठीक सामने आसन जमाकर बैठ गया ओर पुकार-पुकारकर लोगों को जमींदार सुरेन्द्रनाथ की नई कीर्ति के बारे में लोगों को बताने लगा। तब माधवी संतोष का हाथ पकड़कर दासी के साथ नाव पर जा बैठी।

गोला गांव से पन्द्रह कोस दूर सोमरापुर में प्रमिला का विवाह हुआ था। आज एक वर्ष से वह ससुराल में ही है। शायद फिर वह कलकत्ता जाएगी, लेकिन माधवी उस समय वहां कहां रहेगी? इसलिए उससे मिल लेना आवश्यक है।

सवेरे सूर्य उदय होते ही माझियों ने नाव खोल दी। धारा के साथ नाव तेजी से बह चली। हवा अनुकूल नहीं थी, इसलिए नाव धीरे-धीरे बासों के बीच से गुजरती, कटीले वृक्षो और झाड़ियो को बचाती, घास-पता को ठेलती हुई चलने लगी। संतोष कुमार के आनंद की सीमा नहीं रही। वह नाव की छत पर से हाथ बढ़ाकर वृक्षों की पत्तियां तोड़ने के लिए आतुर हो उठा। माझियों ने कहा, ‘अगर हवा नहीं रुकी तो नाव कल दोपहर तक सोमरापुर नहीं पहुंच सकेगी।’

आज माधवी का तो एकादशी का व्रत है, लेकिन संतोष कुमार के लिए कहीं नाव बांधकर खाना बनाकर खिलाना होगा। माझियों ने कहा, ‘दिस्ते पाड़ा के बाजार में अगर नाव बांधी जाए तो बहुत सुभाती रहेगा। वहां सब चीजें मिल जाती है।’

दासी ने कहा, ‘अच्छा भैया, ऐसा ही करो। जिससे दस-ग्यारह बजे तक लड़के को खाना मिल जाए।’

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