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सत्या - 2

सत्या 2

सुबह काफी तड़के सत्या उठ गया. उसने साईकिल निकाली और धीरे-धीरे साईकिल चलाता हुआ सड़क के दोनों तरफ नज़र दौड़ाने लगा, इस उम्मीद में कि शायद उसका चेन और ताला कहीं पड़ा मिल जाए. सामने भीड़ देखकर वह रुका. फिर जिज्ञासावश पास जाकर देखा तो सन्न रह गया. सड़क के किनारे बोल्डर्स पर गोपी की लाश पड़ी थी. चेहरे पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं. सर के पास खून बिखर कर सूख गया था. एक पच्चीस-छब्बीस बरस की स्त्री पास बैठी ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी. कुछ औरतें उसको संभाल रही थीं. कई लोग पास खड़े अफ़सोस ज़ाहिर कर रहे थे. सत्या को काटो तो खून नहीं. वह डर कर आगे बढ़ गया.

गल्ले की एक दुकान – ‘रतन स्टोर, मारडन बस्ती’ – का साईनबोर्ड देखकर वह रुका. स्टोर के आगे कुछ लोग खड़े आपस में बातें कर रहे थे. गरीब मज़दूर से दिखने वाले ये लोग बीड़ी पी रहे थे. उनके चेहरों पर से रात की शराब की ख़ुमारी उतरी नहीं थी. सत्या दुकान पर आया, लेकिन उसके कान लोगों की बातचीत पर ही लगे थे.

चौंतिस-पैंतिस बरस का थोड़ा समझ़दार सा दिखने वाला घनश्याम कह रहा था, “मेरे सामने ही भट्टी पर से निकला था. बहुत पिए हुए था.”

रतन सेठ ने उसकी बात में अपनी बात जोड़ी, “हम देखे थे उसको. रात करीब ग्यारह बजे दुकान बढ़ाने उठे तो सामने से लड़खड़ाता हुआ जा रहा था.”

“इतनी रात में बस्ती के बाहर कहाँ जा रहा था?” रामबाबू ने सवाल किया.

“अरे पीने के बाद तुमलोगों को होश भी रहता है कि कहाँ जा रहे हो?” रतन सेठ ने मुँह बनाया.

चँदू चहका,“हम तो जितना भी पी लें, घर का रास्ता कभी नहीं भूलते.”

बाकी दोनों उससे बारी-बारी हाथ मिलाकर ज़ोर से हँसे. रतन सेठ अब सत्या की तरफ मुख़ातिब हुआ, “हाँ आपको क्या चाहिए?”

सत्या हड़बड़ा गया, “बस यूँ ही.....यहाँ क्या हो गया है?”

रतन सेठ ने बताया, “बस्ती का लड़का था गोपी. कल रात पत्थरों पर गिर कर मर गया.”

सत्या ने एक सहज सा सवाल किया, “कैसे गिर गया?”

“पूरी चढ़ाए हुए था. ठीक से चल भी नहीं पा रहा था,” रतन सेठ ने जवाब दिया,

“आप इतना परेशान न हों. यहाँ का यही हाल है. गिर कर नहीं मरता, तो दारू पी कर मर जाता,” फिर वह होठों ही होठों में बड़बड़ाया, “साले सब-के-सब पियक्कड़ हैं. बेहिसाब पीते हैं और मेरा हिसाब चुकाए बिना मर जाते हैं.”

दुकान की बगल की गली से कुछ आदमीयों और एक ठेले के साथ एक सिपाही निकला. सत्या सहम गया. सिपाही ने वहाँ खड़े लोगों को डाँट लगाई, “तुमलोग तमाशा क्या देख रहे हो? चलो सब मिलकर लाश को ठेला पर चढ़ाओ. पोस्माटम के लिए ले जाना है.”

तीनों बस्ती वाले सिपाही के पीछे चले पड़े. सत्या के मुँह से अनायास निकला, “इसका पोस्ट-मॉर्टम भी होगा?”

दुकान पर छः-सात बरस का एक बच्चा आया. रतन सेठ ने देखते ही उसे आवाज़ लगाई, “अरे रोहन, तू यहाँ क्या कर रहा है?”

रोहन ने मुट्ठी में पकड़ा पचास पैसे का सिक्का बढ़ाया और बोला, “बिस्कुट.”

रतन सेठ ने उसे बिस्कुट की एक छोटी पैकेट थमाई और बोला, “आज तुझसे पैसे नहीं लेंगे. जा ले जा, खा ले.....इसी बेचारे का बाप मरा है,” उसने सत्या को बताया.

लेकिन सत्या का ध्यान कहीं और था. वह एकटक बच्चे को देख रहा था. उसने गले में हार की तरह उसकी साईकिल की चेन और ताला लटका रखा था. रोहन ने सिक्का काउंटर पर छोड़कर बिस्कुट का पैकेट उठा लिया.

“ये चेन और ताला तुमको कहाँ मिला?” सत्या का ध्यान अभी भी रोहन पर ही था. बिना कोई जवाब दिए रोहन पैकेट से बिस्कुट निकाल कर खाने लगा.

सत्या से नहीं रहा गया. उसने पूछ ही लिया, “ऐ सुन, ये चेन और ताला सौ रुपये में बेचेगा?”

रोहन ने दूसरे हाथ से गले में लटके चेन और ताले को कस कर पकड़ लिया.

“अरे बेच दे बेटा. इसका तो कोई पचास भी नहीं देगा, तुमको तो सौ मिल रहा है,” रतन सेठ ने रोहन को समझाने की कोशिश की.

रोहन ने ज़ोर से प्रतिरोध किया, “नहीं, ये मेरा है.”

तभी एक आठ-नौ साल की लड़की वहाँ आई. उसके गालों पर सूखे हुए आँसू की लकीरें थीं. वह रोहन का हाथ पकड़कर अपने साथ ले जाती हुई बोली, “तू यहाँ क्या कर रहा है? चल मेरे साथ.”

सत्या ने झेंपते हुए रतन सेठ को देखा और बोला, “बाप मर गया है, सोचें इसी बहाने कुछ सहायता कर देते हैं.”

रतन सेठ, “ठीक बोलें. बहुत गरीब हैं. अभी बुलाते हैं .....खुशी, अरे ओ खुशी बेटी, इधर आ जरा ... अरे सुन तो.....आ ना,” खुशी और रोहन के पास आने पर वह आगे बोला, “देख, ये साहब सौ रुपये दे रहे हैं, इस चेन और ताले के लिए.”

खुशी ने चौंक कर रोहन के गले में पड़ा चेन और ताला देखा, “अरे, ये कहाँ से मिला तुमको? पता नहीं किसका लेकर घूम रहा है. चल लौटा दे उसको,” कहती हुई वह रोहन का हाथ खींचती हुई उसे ले जाने लगी.

रतन सेठ ने आख़िरी कोशिश की, “कोई बात नहीं बेटा, ये सौ रुपये तो ले जा.”

“नहीं-नहीं पैसा नहीं चाहिए,” कहती हुई खुशी भाई को लेकर दुकान से चली गई.

रतन सेठ ने हाथ बढ़ाकर कहा, “लाइये हम उसकी माँ को बाद में भिजवा देंगे.”

“हम बाद में आते हैं. खुद ही मिलकर दे देंगे,” कहकर सत्या दुकान से बाहर निकल आया. उसने देखा कि लोगों ने लाश को ठेले पर लाद दिया है. पुलिस के साथ कई लोग ठेला लेकर चल पड़े. सत्या उदास नज़रों से कुछ दूर तक उनको जाते हुए देखता रहा. फिर साईकिल पर चढ़कर सड़क पर आगे बढ़ गया.

सत्या ने संजय के घर के आगे हड़बड़ाते हुए साईकिल रोकी और साईकिल से उतरते-उतरते उसने आवाज़ लगाई. संजय शौल लपेटे पाएजामे में बाहर निकला.

संजय, “अरे, इतनी सुबह-सुबह? बाहर क्यों खड़ा है. अंदर आ ना.”

सत्या ने साईकिल स्टैंड पर खड़ी की और दौड़कर संजय की बाँह पकड़ कर उसे लगभग खींचता हुआ अपने साथ सड़क पर ले आया, “अरे सुन तो. बहुत ज़रूरी बात है.”

सत्या की हालत देखकर संजय भी थोड़ा चिंतित हो गया, “क्या बात है? कहीं जाना है? कपड़े तो बदलने दे.”

“अरे आ ना. बहुत मुसीबत में है,” सत्या ने जैसे गुहार लगाई.

संजय और सत्या साथ-साथ चलने लगे. मोड़ पर पहुँचकर दोनों पुलिया पर बैठ गए.

दोनों हाथों से सर को पकड़ कर पुलिया पर चिंतित बैठे सत्या को संजय ने सांत्वना देने की कोशिश की, “कुछ नहीं होगा. तू घबरा मत,” चिंतित तो संजय भी हो गया था.

सत्या, “तू कैसे भी करके पोस्ट-मॉर्टम की रिपोर्ट पता कर.”

संजय, “तू ज़्यादा ही डर रहा है. क्या पता चलेगा पोस्ट-मॉर्टम में, कि तूने उसे मारा है?”

“क्या पता, मेरा तो दिमाग काम नहीं कर रहा है. कहीं कोई देखा हो तो? फिर वह चेन और ताला उसके बेटे के पास है. डर के मारे मेरी तो हालत ख़राब है. तू कुछ कर संजय.”

संजय कुछ देर सोच में पड़ गया. फिर बोला, “चलो उठो. कल की तारीख़ पर छुट्टी की दरख़्वास्त लिख कर हमको दे दो. हम साहब से मंज़ूर करवा लेंगे. तुम अभी के अभी घाटशिला अपने गाँव चले जाओ. इधर हम देखते हैं, पोस्ट-मॉर्टम में क्या है.....और इतना डरने का क्या है? तुमने कोई जानकर तो उसे मारा नहीं. उल्टे उसी ने तुमपर चाकू से हमला किया था.”

“अरे नहीं ना....वह तो केवल डरा रहा था. चाकू से हमको जब खरोंच लगी तो वह सॉरी भी बोला था. तभी तो उसको ज़ख्मी करके अपनी साईकिल वापस पाने का विचार मेरे दिमाग में आया,” सत्या की हालत ऐसी थी जैसे अब रोया कि तब रोया, “उफ्फ, हम क्यों इतनी ज़ोर से मार दिये कि वह मर गया?... सच संजय उसको जान से मारने का मेरा कोई इरादा नहीं था.”

“जो हो गया सो हो गया. तुम जान-बूझ कर तो उसे नहीं मारे ना? अब सीधा बस पकड़ो और गाँव चले जाओ. हम देखते हैं इधर कैसी परिस्थिति बनती है. जैसा होगा तुमको ख़बर करेंगे. और हाँ, कल ऑफिस में फोन कर लेना,” कहकर संजय पुलिया पर से उठ गया. सत्या के शरीर में तो जैसे जान ही नहीं थी. उसे वहीं बैठा देखकर संजय ने उसकी पीठ थपथपाई, दिलासा दिलाई और उसे अपने साथ उसकी साईकिल के पास ले आया.

संजय, “हम बोल रहा हैं ना, कुछ नहीं होगा. तू बेकार ही चिंता कर रहा है.”

“संजय, ज़रा यह भी पता करना इसमें कितने साल की सज़ा होगी,” सत्या ने बड़े कातर स्वर में कहा.

संजय झुँझलाकर बोला, “तू पागल हो गया है.”