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दीवारें तो साथ हैं - 2

दीवारें तो साथ हैं

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-2

‘नहीं दीदी सब इतना नहीं कर पाते। पांडे जी का घर देखिए न। उन्होंने तो जब बच्चों ने ज़्यादा परेशान किया, तो सब को अलग कर दिया। इसके बाद जब बेटों ने बैंक में जमा पैसों और पेंशन पर भी नज़र लगाई तो पहले तो विरोध किया। मगर जब बेटे झगड़े पर उतारू हुए, बहुओं ने आफ़त कर दी, जीना हराम कर दिया तो उन्होंने बिना देर किए पुलिस की मदद ली। यहां तक कह दिया कि मियाँ-बीवी को कुछ हुआ तो ज़िम्मेदार यही सब होंगे। पुलिस जब अपने पुलिसिया अंदाज में आई तो सभी बहुओं-बेटों ने न सिर्फ़ माफी मांगी बल्कि वादा किया कि कभी परेशान नहीं करेंगे। तब से दोनों ठीक हैं। टिफिन सर्विस लगा ली है। दोनों टाइम खाना-पीना घर बैठे मिल जाता है। चाय-नाश्ता किसी तरह खुद बना लेते हैं। बच्चों से कोई मतलब ही नहीं रखते।’

‘तुम ठीक कहती हो। लेकिन बिरले ही मां-बाप ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाएंगे। कम से कम मैं तो ऐसा नहीं कर पाऊंगी। भले ही बच्चे घर से बाहर निकाल दें। सड़क पर रहना पड़े। भले ही जान चली जाए। क्या तुम ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाओगी ?’

‘नहीं ...... मैं भी सोच कर ही सहम जाती हूं दीदी।’

‘जानती हो मेरी अम्मा बचपन में एक कहानी हम सब बच्चों को सुनाती थीं कि मां कैसी होती है। वो कहानी आज भी मुझे करीब-करीब पूरी याद है। बताती थीं कि एक गांव में मां-बेटा अकेले रहते थे। बेटे के पिता बचपन में ही गुजर गए थे। मां, मां-बाप दोनों ही की ज़िम्मेदारी निभा रही थी। दोनों का प्यार स्नेह दे रही थी। उसे अच्छी परवरिश देने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रही थी। लड़का बड़ा हुआ। उसका एक लड़की से इश्क हो गया।

मां बेटे की शादी कहीं और करना चाहती थी। लड़के ने यह बात लड़की से बताई। इससे वह नाराज़ हो गई। तब लड़के ने कहा चलो हम लोग अलग रह कर शादी कर लेंगे। तब उस लड़की ने शर्त रख दी कि जब तुम अपनी मां का कलेजा लाकर मुझे दोगे तभी मैं तुम्हारे साथ शादी करूंगी। लड़की के प्यार में अंधे लड़के ने मां को मार दिया। फिर उसका कलेजा निकाल कर दौड़ता-भागता प्रेमिका के पास जाने लगा। रास्ते में ठोकर लगने से वह गिर गया। लड़का फिर उठा, कलेजा उठा कर चलने लगा तो उसमें से आवाज़ आई

‘‘बेटा तुझे ज़्यादा चोट तो नहीं आई?’’ यह सुन कर बेटे का मन बदल गया। वह लौट आया मां के पार्थिव शरीर के पास और विलाप करने लगा। मगर जब अम्मा यह कहानी सुनाती थीं पैंतालीस-पचास साल पहले तब के लड़के भले ही ठोकर लगने पर मां के लिए विलाप करते रहे हों । लेकिन आज पांच दशक में पूरी पीढ़ी बदल गई है। अब वह भावनात्मक लगाव खत्म हो चुका है जो हुआ करता था। आज के लड़के तो उठ कर फिर चल देंगे आवाज़ को सुने बिना ही।’

‘आप सही कह रही हैं। आज के बच्चे भावनाहीन हो चुके हैं। वास्तव में जो आप बता रही हैं यही हालत घर-घर की है। विरला ही कोई घर होगा जहां बच्चे मां-बाप को पूरी अहमियत देते हों। नहीं तो करीब-करीब सभी मां-बाप की हालत वही है जो आपकी है। हम सत्संगियों के बीच उस वक़्त आपकी बड़ी तारीफ़ होती थी जब आप एक बार कुछ महीनों के लिए दिल्ली छोटे बेटे के पास गई थीं। सब यही कहते कि आपने बच्चों को बड़ी अच्छी परवरिश दी है। वह सब आपको कितना हाथों-हाथ लिए हुए हैं। दिल्ली जैसे महंगे शहर में भी बेटा मां को इतने दिनों से रखे हुए है। मैं आज अपने मन का एक पाप आपके सामने कहती हूं। उस समय मुझे अपनी किस्मत पर बड़ी कोफ़्त हो रही थी। मेरा बेटा उस समय मुंबई में था। उसने अपने मन से तो कभी एक बार भी भूल कर नहीं कहा कि हां मम्मी-पापा तुम लोग आ कर घूम जाओ या फिर खुद साथ चलने की बात की हो।

आपको दिल्ली में देख कर मैं खुद को रोक न पाई। एक दिन जब फ़ोन आया तो मैंने बड़े संकोच में कहा,

बेटा ज़रा एक बार हम लोगों को भी मुंबई घुमा दे, बड़ी-बड़ी बातें सुनती हूं उस शहर के बारे में। बड़ा मन होता है वहां आने का।

जानती हो दीदी मुझे क्या जवाब मिला।

‘यही कहा होगा कि टाइम नहीं है।’

‘नहीं इसके अलावा भी बहुत कुछ कहा। छूटते ही बोला ‘अरे! मम्मी तुम्हें घूमने की पड़ी है। मैं यहां अपना कॅरियर देखूं कि गाइड बन कर तुम्हें घुमाऊं। यहां लाइफ़ इतनी फास्ट है कि तुम लोग एक घंटे भी एडजस्ट नहीं कर पाओगी। फिर मुंबई में देखना क्या, फ़िल्में तो देखती ही रहती हो।’

कल्पना से परे उसके इस जवाब से मैं एकदम आहत हो गई। गुस्सा भी आया। फ़ोन रखने से पहले मैंने इतना ज़रूर कह दिया -

‘बेटा तुम भी तो लखनऊ के हो, जब तुम वहां जा कर एडजस्ट हो सकते हो तो हम लोग क्या दो चार दिन वहां नहीं रह पाएंगे। और फिर सुना है वहां ज़्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार के ही लोग हैं। खैर तुम परेशान न हो हम लोग नहीं आएंगे।’

और उसके बाद मैं कई दिन रोई थी। अपनी किस्मत पर गुस्सा आ रहा था। और यही सोचती थी कि आप कितनी भाग्यशाली हैं कि आपका बेटा आपको महीनों अपने पास रखे था।

‘काश तुम जैसा सोचती थी वैसा होता।’

‘क्यों ?ऐसा भी क्या हुआ दीदी।’

‘दरअसल हुआ यह था कि बेटे के सास-ससुर, सभी साले- सालियां महीने भर से वहां डेरा जमाए हुए थे। एक साथ छः लोगों को दिल्ली जैसे शहर में झेलना मुश्किल हो गया। उसकी परेशानियों का अंदाजा लगा हम लोग परेशान हो रहे थे। एक दो बार जब फ़ोन पर बात हुई तो मैंने खुद बात उठाई। तो वह बोला,

‘हां परेशानी तो बहुत हो रही है। पैसे भी सब खत्म हो गए हैं। काफी उधार भी हो गया है।’

‘तो किसी तरह जाने को क्यों नहीं कहते।’

‘कैसे कहूं वो लोग बुरा मान गए तो।’

‘तो ऐसा करो, बोल दो कि हम सब लोग दो तीन दिन में आ रहे हैं। यह सुन कर शायद चले जाएं।’

बेटे ने ऐसा ही किया लेकिन वह सब इतने बेशर्म कि टस से मस न हुए। सच कहूं ऐसे बेशर्म मर्द-औरत इसके पहले मैंने नहीं देखे थे, कि पूरा परिवार दामाद की रोटी तोड़ रहा हो। हमारे पूर्वांचल में इसे बहुत बुरा मानते हैं। मगर जमाने का फेर देखो ये सब भी उसी पूर्वांचल के होकर दामाद के यहां गुलछर्रे उड़ा रहे थे, जिस पूर्वांचल में लोग लड़की-दामाद के यहां का एक गिलास पानी भी पीना धर्म के खिलाफ मानते हैं।’

‘हां ये तो आप सही कह रही हैं। फिर वो सब गए कैसे ?’

‘गए क्या बेटे की परेशानी सुन कर मैं गुस्से में आ गई। मैंने वहां जाने की ठान ली। मगर एक मुश्किल यह आ पड़ी कि अगले पद्रंह दिनों तक किसी ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिल रहा था। तब मैंने बडे़ बेटे से कहा। फिर तीन दिन बाद ही हम कार से वहां पहुंच गए।

हमारा वहां पहुंचना बेटे को छोड़ कर बाकी सबको बहुत खला। हालांकि बेटे के चेहरे पर भी कोई खुशी नज़र नहीं आई थी। मैंने सोचा शायद अपनी समस्याओं से पस्त होने के कारण ऐसा है। मगर कुछ ही घंटों के बाद ही उसकी बातों से साफ हुआ कि नहीं वह तो इस असमंजस में है कि अपने ससुराल वालों के सामने अपने भाई और मां को कैसे ज़्यादा तवज़्जो दे। बहू के चेहरे पर तो अपने लिए नफरत की रेखाएं साफ देख रही थी। बेटे का असमंजस और बहू की नफरत उनके काम काज में साफ दिख रही थी।

मेरा जो बेटा ऑफ़िस में बहुत सख्त मिजाज, बड़ा गुस्से वाला माना जाता है, उसी को ससुरालियों के सामने भीगी बिल्ली बने देख कर मैं अंदर ही अंदर कुढ़ रही थी। उसके भीरूपन का अंदाजा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि रात जब सोने का वक़्त आया तो मुझे, बड़े बेटे के लिए लॉबी में बिस्तर लगाया गया। और ससुरालियों के लिए बक़ायदा अंदर कमरे में ही सारी व्यवस्था थी। मुझे यह बहुत खला। अंदर ही अंदर मैं यह भी डर रही थी कि बड़ा बेटा कहीं भड़क न उठे। क्योंकि गुस्से में वह दुर्वासा ऋषि से कम नहीं है।

मगर वह शांत ही रहा। जाने का फ़र्क यह पड़ा कि वह सब दूसरे दिन वहां से चले गए। मगर जाते वक़्त उन सबके चेहरे पर अपने लिए नफरत की इबारत साफ पढ़ रही थी कि ये सब यहां क्यों आ गए। खैर मैंने राहत महसूस की कि बेटे को मुसीबत से मुक्ति मिली।

‘और आपकी बहू के रिएक्शन क्या थे।’

‘बहू के रिएक्शन! आज भी मैं कुछ कह नहीं सकती। उसके मन की बात भांप पाना या उसके चेहरे को पढ़ पाना मैं समझती हूं कि हम जैसों के वश में नहीं है। जब पहुंची थी तब तो चेहरे पर नफरत साफ दिख रही थी। लेकिन कुछ घंटों बाद उसके हाव-भाव समझना मुश्किल हो गया था। उसने अपने को बड़ी कुशलता से संभाल लिया था।’

‘क्या वो इतनी नाटकीय है।’

‘हां यही कह सकती हो। मैंने अपने जीवन में उसके जैसी दूसरी औरत नहीं देखी जिसके मन के भावों का अंदाजा ही न लगाया जा सके। उसके जवाब इतने डिप्लोमेटिक होते हैं कि एक आम व्यक्ति के वश में नहीं है उसे समझना। हमने जब हफ़्ते भर बाद ही लखनऊ वापस आने की बात की तो उसने फॉर्मेलिटी के लिए भी एक शब्द नहीं कहा कि मम्मी और रुक जाइए। वैसे मैं रुकना भी नहीं चाहती थी क्यों कि मेरे रुकने पर भी खर्चा तो बढ़ता ही न। जो मैं नहीं चाहती थी। इसलिए मैंने बेटे से कहा किसी तरह एक दिन की छुट्टी लेकर मुझे लखनऊ छोड़ दो। उसने कहा ठीक है। पहले ऑफ़िस में देख लूं।

‘क्यों बड़ा बेटा पहले ही चला आया था क्या ?’

‘हां उसके पास भी छुट्टी नहीं थी तो वह भी पहुंचाने के अगले ही दिन वापस आ गया था। इतनी जल्दी उसे फिर नहीं बुलाना चाहती थी क्योंकि उसके ऑफ़िस में तो छुट्टी की और भी ज़्यादा मारामारी रहती है।’

‘तब तो आप बड़ी मुश्किल में पड़ गई होंगी आने को ले कर।’

‘हां मैं जितना जल्दी कर रही थी उतनी ही देर हो रही थी। कहने के तीसरे दिन छोटे बेटे ने बताया कि टाइम नहीं मिल पा रहा है। साथ ही एक बात और जोड़ी कि ऐसा करो अभी और कुछ समय तक रुक जाओ। मैंने पूछा क्यों तो उसने जवाब दिया। ससुराल के लोग पूछ रहे थे कि तुम कब तक हो। वह सब दीपावली यहीं मनाना चाहते हैं। तुम चली गई तो सब फिर महीनों के लिए आ टपकेंगे। और अभी दीपावली आने में करीब डेढ़ महीना है। फिर उसने और भी तमाम बातें बताईं । जिन्हें सुनने के बाद मैं रुक गई। तब मैंने एक और बात महसूस की कि मेरा बेटा अब शादी से पहले वाला वह बेटा नहीं है जो मां-बाप, घर-परिवार के लिए बहुत कुछ करना चाहता था। अब वह घर में भी जो व्यवहार कर रहा है वह बहुत प्रोफेशनल है। बहुत कैलकुलेटिव ढंग से बात करता है। उसके एक-एक काम के पीछे एक पूरा कैलकुलेशन होता है। मैं उसके इस बदले रूप से बेहद आहत हुई। एक क्षण रुकना नहीं चाहती थी। मगर उसको कष्ट में भी नहीं देखना चाहती थी इसलिए रुकी रही।’

‘ओह ... और हम लोग सोचते थे कि आपका बेटा आपसे बहुत प्यार करता है इसलिए रोक रखा। हमारे बेटे ही मां-बाप से प्यार नहीं करते।’‘मेरी ऐसी किस्मत कहां...जब तक रही तब तक बेटे का व्यवहार देख-देख कर मन में यही आता कि यह सब देखने की ज़रूरत ही क्या है? भगवान ऊपर क्यों नहीं बुला लेता। अब करने धरने के लिए जीवन में बचा ही क्या है? कौन है दुनिया में अपना। बेटे को लाख व्यस्तताओं के बावजूद ऑफ़िस से आने के बाद भी ससुराल में सबसे घंटों बात करने के लिए फुरसत मिल जाती है लेकिन कभी घर फ़ोन कर के बाप से बात करने के लिए टाइम नहीं होता।

कई-कई दिन हो जाता इनका कोई हाल न मिलता। मेरे पास उस वक़्त मोबाइल था नहीं, बहू से कहने की हिम्मत जुटा न पाती कि लखनऊ घर पर बात कराओ। मज़बूर होकर एक दिन बेटे से कहा तो बात हो पाई।

तभी ये पता चला कि लखनऊ से बड़े बेटे और इनका फ़ोन आता था लेकिन छोटे बेटे के पास वक़्त नहीं होता था कि मुझ से बात करा देता। इनकी आवाज़ से मुझे यह भी यकीन हो गया कि इनकी भी हालत कोई अच्छी नहीं है। हां वहां चार साल के पोते के कारण इनका मन ज़रूर थोड़ा बहल जाता था। और मैं पिंजरे में बंद तड़पती रहती। मेरी पूरी दुनिया लॉबी और बॉलकनी तक ही सीमित थी। अपनी और इनकी स्थिति पर मुझे बार-बार कुछ ही महीने पहले टी.वी. पर देखी अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी की ‘बागवान’ पिक्चर याद आ जाती। उसमें बेटों की उपेक्षा का शिकार मां-बाप बुढ़ापे में बंट कर अलग-अलग बेटों के पास एक दूसरे से दूर रहते थे। बुढ़ापे में हैरान, परेशान व्याकुल। मुझे अपनी कहानी भी ‘बागवान’ जैसी लग रही थी। हेमा मालिनी ही की तरह मैं सोच कर परेशान हो जाती कि पता नहीं ये ठीक से खा-पी रहें हैं कि नहीं, मैं इसी उधेड़-बुन में परेशान रहती, व्याकुल रहती कि कैसे जल्दी से लखनऊ पहुंचूं। मगर हालात ऐसे थे कि वापसी हो नहीं पा रही थी। फिर मैंने सोचा इन्हें भी बुला लूं।

आखिर बहुत हिम्मत करके एक दिन छोटे बेटे से बोली कि कुछ दिन के लिए अपने पापा को भी यहीं बुला लो। मैं सोच रही हूं कि एक बार ‘अक्षरधाम’ मंदिर हो आएं सब लोग। सच कहूं तो मंदिर सिर्फ़ एक बहाना था। मैं इनकी परेशानियों का अनुमान लगा-लगा कर परेशान हो रही थी इसलिए सारे जतन कर रही थी कि हम जहां भी रहें साथ रहें। क्योंकि बच्चों के व्यवहार ने कहीं हमारे विश्वास को झकझोर दिया था। हिल गई थी हमारे विश्वास की नींव। और बचपन में बाबू जी की अक्सर कही जाने वाली बात का अर्थ भी मैं तभी समझ पाई थी,

‘कौन सी बात का?’

‘असल में गांव में जब वह कभी चाचा एवं अन्य लोगों के साथ बैठते और समाज की बातें शुरू होतीं, परिवार की बात आतीं तो वह एक बात जोड़ना नहीं भूलते, कहते

‘‘एक मां-बाप कई-कई बच्चों को हंसी-खुशी पाल लेते हैं। लेकिन कई-कई बच्चे मिलकर एक अपने मां-बाप को बुढ़ापे में कुछ बरस भी नहीं पाल पाते।’’

‘सही तो कहते थे आप के बाबू जी। हम लोगों के कई-कई बच्चे एक मां-बाप को मैदान में फुटबॉल की तरह एक दूसरे की तरफ किक मार-मार कर ठेल रहे हैं। हमारा सहारा कहां बन पा रहे हैं। आप ही देखिए कि आप दिल्ली में, माथुर साहब लखनऊ में, मगर बच्चों को परवाह नहीं थी कि उन्हें भी आपके पास पहुंचा देते। वैसे माथुर साहब कब पहुंचे।’

‘नहीं पहुंचे। लाख जतन के बावजूद किसी बेटे के पास वक़्त नहीं था। या कहें कि उन्हें परवाह ही नहीं थी।’

‘हे भगवान! तुम्हारे भी खेल निराले हैं। मगर दीदी उस बीच माथुर साहब गए तो थे कहीं बाहर। एक दिन मैं आई थी तो आपकी बड़ी बहू ने बताया था कि वो आऊट ऑफ स्टेशन हैं।’

‘हां ..... तब वो चार-पांच दिन के लिए लड़की के यहां गए थे। असल में लड़की के ससुर युग निर्माण योजना से जुड़े हैं। बहुत सक्रिय रहते हैं। उन्होंने ही बहुत आग्रह करके बुलाया था। कोई यज्ञ वगैरह का आयोजन था उसी में शामिल होने के लिए। मुझे भी बुला रहे थे लेकिन मैं वहां होने के कारण नहीं जा पाई थी। इनका भी मन नहीं था लेकिन समधी जी के आग्रह के आगे एक न चली। इतना ही नहीं वह इनको लेकर चित्रकूट वगैरह घूमने गए। फिर दामाद खुद आकर लखनऊ छोड़ कर गए। मैं इस मामले में बहुत खुशनसीब हूं। मेरा दामाद हीरा है। आज के जमाने को देखते हुए मैं तो कहूंगी कि भगवान सभी को ऐसा ही दामाद दे।’

‘आप सही कह रही हैं। नहीं तो लड़के तो लड़के दामाद तो और भी जी का जंजाल बन कर सामने आते हैं। उनकी डिमांड उनके नखरे पूरे करते-करते ही ज़िंदगी खतम हो जाती है।’

‘असल में दामाद आजकल दो तरह के हैं। एक तो वो हैं जो दहेज के लालची हैं। दहेज के लिए लड़की को मारते-पीटते हैं, जलाकर मार डालते हैं। ऐसे लालचियों की संख्या ज़्यादा है। उसके बाद ज़्यादातर उस तरह के हैं जो बीवी, सास-ससुर, साले-सालियों के पिच्छलग्गू या ये कहें कि गुलाम बन कर रहते हैं। उनकी सेवा-सुश्रुषा में उन्हें बड़ी खुशी मिलती है। उनके लिए तन-मन-धन लुटा देते हैं। अपने घर वालों से नफरत करते हैं। मुझे सुकून सिर्फ़ इस बात का है कि लड़कों के लिए जहां हम लोग एक बेकार वस्तु हो चुके हैं वहीं मेरा दामाद न तो दहेज के लालच में लड़की को जलाने, मारने, आए दिन डिमांड करने या नखरे दिखाने वाला है और न ही ससुराल वालों की गुलामी करने वाला, वह अपने घर और ससुराल दोनों का पूरा ख़याल रखता है। उन्हें उनका पूरा सम्मान देता है। आज कल ऐसे दामाद गिने-चुने ही होते हैं।’

‘हां ऐसे दामाद ही सही मायने में हीरा हैं। .... अच्छा ये बताइए कि आपकी लड़की दामाद को इन सारी बातों के बारे में पता है ?’

‘लड़की को थोड़ा बहुत मालूम है। मैंने उसे मना कर रखा है कुछ बताने के लिए। क्योंकि बताने से सिवाए बदनामी के और कुछ तो मिलने वाला नहीं इसलिए उसको भी कुछ खास नहीं बताया। हां उसने कई बार यह ज़रूर कहा कि अगर परेशानी ज़्यादा होती है तो तुम लोग हमारे यहां आ जाओ। मगर ऐसे ज़िंदा रहने से तो अच्छा है मर जाना। लड़की के सहारे की ज़रूरत न पड़े भले ही आज ही अभी ही, मौत हो जाए।’

‘कैसी बात कर रही हैं दीदी। आखिर लड़की भी तो आपकी ही संतान है न। और अब हमें इस बंधन या इस सोच से बाहर आना चाहिए कि लड़की के घर का पानी नहीं पीना चाहिए।’

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