Mukhbir - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

मुख़बिर - 7

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(7)

विरादरी

मैं मन ही मन किरपाराम की बातों में खो गया तो रघुवंशी बोला

-‘‘ अब आगे का किस्सा सुनाओ यार !‘‘

मैंने वहीं से डोर पकड़ ली, जहां से छोड़ी थी ।

बस के दरवाजे पर चादर बिछाके डाकुओं ने दस मिनिट में ही सवारियों से सारा माल-मत्ता झड़ा लिया। उधर डाकू लूट के माल की पोटली बनाने में भिढ़ गये और इधर कृपाराम ने सवारियो के पास पहुंच कर उनसे पूछताछ शुरू की

-‘‘ अब जल्दी करो सिग लोग। अपयीं-अपयीं विरादरी बताओ सबते पहले ।‘‘

लोग अपनी जाति-बिरादरी और गांव का नाम बताने लगे। घोसी, गड़रिया, कोरी, कड़ेरा, नरवरिया और रैकवार सुनकर तो कृपाराम चुप रह जाता था । लेकिन वामन-ठाकुर और ऐसी ही कोई दूसरी जाति का आदमी होता, तो वह एक ही वाक्य बोलता था -‘‘तू उतै बैठि मादऱ … !‘‘

मुझसे भी ऐसी ही बीती । उसने बड़े क्र्रूर स्वर में पूछा-‘‘तैं कौन विरादरी है रे !‘‘

‘‘मुखिया, मैं कायस्थ विरादरी को हों‘‘ मैंने अपना अधूरा परिचय दिया।

आंखों में नफरत छलकाते कृपाराम ने निर्मम स्वर में कहा-‘‘ हूं, सारे लाला है तैं ! लाला माने पटवारी़़ है न ! तभई इतनों मोटो परि रहो है़, तैंने हमाये भाई-बंधुन से खूब रूपया चीथो होयगो मादर… चल उतै बैठि !‘‘

कुल मिला के छै आदमी छांटे गये, जिनमें मेरे अलावा मेरे बालसखा लल्ला पंडित भी फंस गये थे ।

यकायक कुछ याद आया तो कृपाराम ने अपने साथियों को नया निर्देश दिया-‘‘ अरे भैया, सवारिन के पास खायवे-पियवे को भी तो कछू सामान धरो हुइये, ले लेउ सबते । अपने लिंगा कोन लुगाइयें बैठी हैं । कछु दिन इनकोई अन्न खावेंगे ।‘‘

फिर एक बार और बस की तलाशी हुयी । इस बार पैसा नहीं, रोटियां लूटीं बागियों ने। जिसके पास जो भी मिला-घी, शकर, पूड़ी-परांठे-रोटी, पकवान-मिठाई-सब छीन लिया और एक नयी पोटली बांध ली इस पूड़ी पकवान की।

कृपाराम एक सतर्क लीडर था, उसने अपने साथियों पर एक नया हुकुम ठोंक दिया था-‘‘ इन छै आदमिन्न के माथे पे सिग सामान धर दो और सामान पहंुचाय वे के लाने वहां तक ले चलो।‘‘ फिर वह हमारी तरफ मुंह करके बोला-‘‘ तुम सब तनिक दूर तक हमारो जो सामान ले चलो, फिर लौटि अइयो।‘‘

यकायक वह चौंका-‘‘ अरे तुम तो पांच आदमी हो, छठवां कहां गया?‘‘

हम सबने भी इधर-उधर ताका, दुबला-पतला काला सा आदमी अचानक गायब था हमारे बीच से । कृपाराम के इशारे पर एकदम हरकत में बाकी बागियों ने सतर्कता से दूर-दूर नजरें फंकना शुरू किया और सचमुच ही एक बागी को झाड़ियों के बीच वह आदमी भागता दिखाई दे गया ।

जिस बागी ने भागते आदमी को खोजा था उसने अपनी बंदूक लोड की और निशाना लगा कर ‘धांय ‘ से एक फायर कर दिया । हम सब कंप गये -वो आदमी गया जान से !

लेकिन उसकी किस्मत अच्छी थी, गोली उसके पास से निकल गई थी, वह हाथ ऊंचे करके अपनी जगह खड़ा हो गया था । गोली चलाने वाला बागी उधर ही दौड़ गया । हम सब की निगाहें उधर ही थीं- बागी उस आदमी को बेतहासा मार रहा था और वो आदमी जोर-जोर से रो उठा था ।

कुछ देर बाद घिसटता सा वह आदमी बागी के संग लौटा तो कृपाराम की आंखें अंगार हो गई थी-‘‘ काहे रे ! बड़ी हिम्मत है तिहाई ! कां भगि रहो हतो ?‘‘

‘‘ मुखिया, बनिया आदमी हों, आपके डरि से टट्टी लगि आई हती ।‘‘

कृपाराम का गुस्सा उपहास में बदल गया-‘‘ सारे, अबहीं ते पोंक छूट गई, आगे कैसे झेलेगो ?‘‘

अब हम सब एक दूसरे से सटा कर खड़े कर दिये गये थे ।

इधर हम सबके माथे पर पोटलियां रखी जा रहीं थी और उधर कृपाराम का एक साथी बंदूक दिखाकर ड्राइवर और दूसरे स्टाफ को धमका रहा था-‘‘हमाये निकरिवे के एक घंटा बाद तक ऐसे ही ठाड़े रहियो सारे! नहीं तो इन छैई आदमिन्न की लासि मिलेगी ।‘‘

‘‘ हओ मुखिया जी‘‘ कातर स्वर में ड्र्राइवर बोला था, और इसके बाद कृपाराम के उस साथी ने ड्राइवर को जोरसे एक लात मार दी थी ।

ड्राइवर रिरिया उठा था और निरपेक्ष सा वह डाकू मुड़ गया था ।

मुझे जरा सा भी वजन लेकर चलने की आदत न थी, लेकिन मेरे मोटेे बदन को देख कर बागियों ने पच्चीस-तीस किलो की एक बड़ी गठरी मेरे माथे पर रख दी थी, और इतने वजन से एक पल को तो मैं गिरते गिरते बचा, लेकिन पिटने से बचने के लिए खुद को साधा मैंने और सिर्फ हिल के रह गया था । मैं ही जानता हं किू किस तरह स्वयं का संतुलन बनाके खड़ा रह पाया उस वक्त मैं। मुझे समझ में नही आ रहा था कि इतना वजन लेके मैं कैसे चल पांऊगा ! मैंने कनखियों से बाकी सवारियों की ओर ताका तो अनुभव हुआ कि सबकी हालत एक जैसी है । क्षमता से ज्यादा वजन लाद देने से वे दबे से जा रहे थे सब के सब। मुझे अपना मस्तिष्क ठप्प सा होता महसूस हुआ । आसपास का सारा परिदृश्य झिलमिलाता और हिलता डुलता सा लग रहा था मुझे । हम छहों को एक लाइन में खड़ा होने को कहा गया तो एक दूसरे से सटकर हम ऐसे खड़े हो गये कि एक दूसरे से सांसे टकरा रहीं थी हम सबकी । कृपाराम के एक तगड़े से साथी ने हमे धमकाना शुरू किया-‘‘ सुन लेउ तुम सब, हमारी निगाह से बचिके कभंऊ भगिवे की मति सोचियो, हम बिना हिचक गोली माद्देंगे भगिवे वारे में । सो तुमि लोग जिंदा रहिवो चाहो तो हम जहां तक ले चलें हमाये कहे में चलियो।‘‘

फिर सब लोग वहां से चल पड़े थे । मुझे लग रहा था कि बस दो-चार कदम चलके ही गिर जाउगा मैं, पर ऐसा नहीं हुआ मैं पीड़ा सहता हुआ चलता रहा ।

आगे-आगे कृपाराम था और पीछे-पीछे बस की छहों सवारियां । सबके माथे पर एक-एक पोटली लदी थी । हमारे पीछे कृपाराम के साथी बागी भी पंक्ति बद्ध हो कर लम्बे लम्बे कदम रखने लगे थे ।

बागी इस ऊबड़-खाबड़ रास्ते से भली प्रकार परिचित दिख रहे थे, सो तेज कदमों और बंदूक के वजन के बाद भी वे ठीक तरह से चल रहे थे, लेकिन सामान लादे चल रहे हम छह लोग कदम-कदम पर फिसल रहे थे । हर फिसलन पर पीछे चल रहे डाकुओं में से कोई न कोई हमे एक हूदा मार देता था, और टसकता हुआ हमारा साथी फुर्ती से आगे वढ़ जाता था । पहाड़ी के ऊपर पहुंचने पर पता चला कि उनका एक बागी साथी वहां कुछ पोटलियां रखे खड़ा है । वे पोटलियां बड़ी फुर्ती से शेष बागियों ने अपने माथे पर रखीं और देखा कि एक पोटली ज्यादा है, सो मेरे माथे पर लाद दी ।

पोटली रखते वक्त वो बागी दस सेकंड के लिए मेरे बिलकुल नजदीक आ गया था, उन कुछ सेकंड में मैंने अनुभव किया कि उस बागी के बदन से एक अजीब और असह्य सी बदबू आ रही है-दही की सड़ांध जैसी, ऐसी बदबू कि जी उमछने लगा और पेट का सारा खाया-पिया बाहर आने को उछलने लगा। मुझे ताज्जुब हुआ कि किसी जीते-जागते मनुज में से ऐसी बदबू कैसे आ सकती है भला । जाने कब से नहायाा-धोया नहीं था वह आदमी । छिः छिः मन ही मन घिन हो आयी मुझे उससे ।

ठीक उसी वक्त मेरे बगल में सामान लादे खड़े बड़ी मूंछों वाले एक अधेड़ व्यक्ति ने धीरे से निवेदन किया-‘‘हम लौटि जायें मुखिया जी !‘‘

उसका इतना कहना था कि उसके ठीक सामने खड़ा कृपाराम का एक तगड़ा सा बागी साथी कटखने कुत्ते सा उस पर टूट पड़ा । बंदूक के वट को सीधे उसके सीने में भाले की तरह भोंकते हुये, उसी बट से उसने उस अधेड़ आदमी के कंधों, टांगों, बांहो और सीने पर ठोकरों की ऐसी बरसात सी करी कि वह बेचारा सीधा खड़ा भी नहीं रह पाया । पीड़ा का तीखा अहसास उसके चेहरे पर दिख रहा था । और ज्यादा पीड़ा सहन नहीं कर पाया तो वह जमीन पर गिर पड़ा और बागी की तरफ हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा-‘‘माफी दे देउ दाउ, गलती है गई ।‘‘

बागी ने अब भी उसे नहीं छोड़ा, और दे-पर-दे लातों से उसे लतियाये जा रहा था । जमीन पर गिरा आदमी अब तो भेंकार मारके रो उठा था ।

यह देख के बाकी लोगों का तो खून ही सूख गया । हम सब के सब नीची आंखे किये मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे कि हम बचे रहें । मारपीट का यह अंधड़ इस अधेड़ के बाद सिलसिलेवार होकर हम तक न आ पहुंचे !

लेकिन हम सबकी प्रार्थनायें व्यर्थ गयीं । उन सबने आपस में जाने क्या संकेत किया कि फिर तो मशीनगन सी चली, चारों बागी दरिन्दों की तरह हम पर टूट पड़े । उनने लातों, घूसों और बंदूक के वटों से हम पांचों सवारियों की धुनाई शुरू कर दी । मेरे सामने खड़े डाकू ने मुझे निषाना बनाया और अपने भारी हाथ का एक बेलिहाज चपाटा मेरे गाल पर ठोक दिया । गाल पर ऐसा महसूस किया मैंने, मानों किसी ने चूल्हे में से निकाल कर अंगारे सी एक गर्म चपाती दन्न से चिपका दी हो, गाल सहलाने हाथ उठाया ही था कि मेरे सीने पर एक भारी भरकम लोहे का गोला सा टकराता महसूस हुआ, लगा कि सारी पसलियां टूट गयी होंगी, देखा कि उस बागी ने मिसमिसा कर एक मुक्का मेरे सीने में मारा था। दर्द पीने की कोषिष करता मै घुटनों के बल आगे को झुका ही था कि उस बागी ने मोटे जूते से मढ़ी अपनी लहीम-षहीम लात मेरे पेट में मार दी । फिर तो जाने कितने और कहां -कहां धौल पड़े मुझे याद नही । सिर्फ इतना याद है कि कृपाराम लगातार चीखता जा रहा है-‘‘ सारे तुमने ऐसी हरकत करी कै अब न छूट पावोगे । तुम हमाये गुलाम बनि के रहोगे ! नाहीं तो भुस भर देंगे ।‘‘

मेरे साथियों के मुंह से कराहें निकलने लगीं । वे जितना चिल्लाते, बागी उतनी ही बेदर्दी से उनकी पिटाई करते ।

देर बाद कृपाराम का इशारा मिला तो पिटाई बंद हुयी । हम सबके चेहरे पर आतंक का ठहरा हुआ सा भाव तारी हो गया था । बदन में जगह-जगह जलन और कटने-फटने का अहसास हो रहा था ।

इधर पोटलियां लादते हुये हम लोग भयभीत हो चले थे । हमे एक भयावह आशंका परेशान करने लगी थी कि जब आरंभ में ये हाल है तो आगे क्या होगा ! इन लोगों के बारे में तो वैसे भी यह धारणा है कि ये लोग बात कम करते हैं मारते ज्यादा है । मुझे तो अखबारों में और भी जाने क्या-क्या पढ़ने को मिला है इन डाकुओं के बारे में - जैसे महीनों तक घर-परिवार से दूर रहने के मारण वासना के मारे ये डाकू न जब उत्तेजित हो जायें तो न औरत देखते हैं, न आदमी, न बच्चा यहां तक कि जानवरों को भी ये लोग अपनी हवस का षिकार बना लेते हैं । ऐसे वहषी लोगों के साथ पता नहीं कितने दिन और कैसे गुजारना पड़ेंगे !

मेरे सिर पर फिर से टाट के बोरे की गठरी के ऊपर खाद के बोरे में बंधी पोटली रख दी गई थी, मुझे न वजन लग रहा था न भारीपन, मैं मन ही मन समय गुजरने की प्रतीक्षा कर रहा था ।

--------