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इज़हार

इज़हार

"हैलो, निखिल...किस सोच में डूबे हो।" - इंदु ने निखिल को चुपचाप बैठे देखकर पूछा। रूचि और सुरेश भी उसके पीछे-पीछे पहुँच गए।

"कुछ खास नहीं, बस यूँ ही बैठा था।" - निखिल ने उन तीनों को पास पड़े डेस्क पर बैठने का इशारा करते हुए कहा।

फरवरी का अंतिम सप्ताह चल रहा था। सुबह-सुबह मौसम में थोड़ी ठंडक थी, ऐसे में सुबह की गुनगुनी धूप में बैठना आनन्ददायक था। निखिल भी कॉलेज की कक्षा शुरू होने से पहले इसी धूप का आनन्द ले रहा था। इंदु, रूचि, सुरेश और निखिल चारों अच्छे दोस्त थे। सुरेश और निखिल तो शुरू से सहपाठी थे, जबकि इंदु और रूचि से उनकी दोस्ती कॉलेज आकर हुई थी। इंदु और रूचि भी बचपन की सखियाँ थी। इनकी दोस्ती का कारण सुरेश और इंदु दोनों का कॉमर्स के विद्यार्थी होना था। दोनों धीरे-धीरे दोस्त बने और पिछले वेलेंटाइन पर उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई। दोनों चाहते थे, कि इस वेलेंटाइन पर निखिल और रूचि भी एक-दूसरे को चुन लें, ताकि उनकी दोस्ती कॉलेज के बाद भी बरकरार रहे, लेकिन उनमें से कोई भी आगे नहीं बढ़ रहा था, हालाँकि वे बहुत अच्छे दोस्त थे। दोनों की चुप्पी के कारण कुछ ही दिन पहले इस कॉलेज में उनका अंतिम वेलेंटाइन भी निकल चुका था। संभवतः अगले वर्ष उनकी राहें जुदा हों, क्योंकि निखिल आर्ट्स का विद्यार्थी था, तो रूचि विज्ञान की और अगले वर्ष स्नातकोत्तर में उन्हें कहाँ दाखिला मिलेगा, यह निश्चित नहीं था।

चारों दोस्तों में निखिल गंभीर प्रवृति का था, जबकि शेष तीनों चुलबुले और सदा हँसी-मजाक में व्यस्त रहने वाले थे। ऐसा नहीं, कि निखिल बिल्कुल भी मजाक नहीं करता था या मजाक सहता नहीं था, लेकिन अपने साथियों की तुलना में थोड़ा गंभीर था। आर्ट्स का विद्यार्थी होते हुए भी कॉलेज में उसका समय क्लास रूम में या लाइब्रेरी में ही बीतता था। हाँ, सर्दियों में सुबह-सुबह कैंटीन के बाहर धूप सेंकने के लिए बैठने की फुर्सत वह अवश्य निकाल लेता था, अन्यथा कॉलेज कैम्पस में इधर-उधर घूमना उसे उचित नहीं लगता था। लड़कियों से बात करने को लेकर वह विशेष रूप से संकोची था, अगर वह सुरेश का दोस्त न होता, तो शायद ही उसकी किसी लड़की से दोस्ती होती। इंदु से मिली जानकारी के आधार पर सुरेश निखिल को रूचि के संबन्ध में आगे बढ़ने के लिए उकसाता था, लेकिन निखिल अपने संकोची स्वभाव की केंचुली उतार पाने में खुद को असफल पाता। दरअसल वह नहीं चाहता था, कि प्रणय निवेदन करके वह एक दोस्त खो दे। रूचि निखिल के प्रति आकर्षित तो थी, लेकिन उसके गंभीर स्वभाव को देखकर एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाती थी। निखिल के मन की थाह उसे इंदु-सुरेश से भी नहीं मिल पा रही थी।

चारों दोस्त आज कैंटीन पर बैठे चाय की चुस्कियों के साथ धूप का आनंद ले रहे थे, कि पीरियड लग गया। इंदु और सुरेश ने जल्दी-जल्दी चाय खत्म की और किताबें उठाकर चल दिए। निखिल का यह पीरियड फ्री होता है, वह अक्सर कुछ देर बैठकर लाइब्रेरी चला जाता है। रूचि ने भी आज यहीं रुकने का मन बनाया। रूचि को न उठते देखकर निखिल ने पूछा, "तुमने आज क्लास नहीं लगानी क्या?"

"नहीं...मेरा आज मूड नहीं क्लास लगाने का।"

"क्या हुआ तुम्हारे मूड को?"- निखिल ने पूछा।

"कुछ नहीं, बस वैसे ही दिल किया धूप में बैठकर तुम्हारे साथ गप्पें मारने का।"

"दिल की बातें मानना सदा ठीक नहीं रहता।" - निखिल ने गंभीर होते हुए कहा ।

"रहे, न रहे, लेकिन हर कोई तुम-सा नहीं हो सकता।"

"क्या मतलब है तुम्हारा?"

"ज्यादा कुछ नहीं, बस इतना ही, कि तुम्हें शायद भगवान ने दिल नहीं दिया।" - रूचि ने व्यंग्य बाण छोड़ा।

"दिल तो दिया है, लेकिन फिल्मी दिल नहीं दिया।"

"मतलब?"

"मतलब यही, कि हर लड़की को देखकर सीने से उछलकर हाथ में आने वाला दिल नहीं दिया।"

"अच्छा तो कैसा दिल दिया है, जनाब को भगवान ने?" - रूचि ने उत्सुकता से पूछा।

"बस साधारण-सा दिल, जो धड़कता है, जिसे दूसरों का दर्द अनुभव होता है, जो औरों की ख़ुशी से खुश हो सकता है।"

"सचमुच!" - रूचि ने शरारती लहजे में कहा।

"क्यों, यकीन नहीं।"

"कैसे हो, हमें कौन-सा तुमने अपने दिल में झाँकने का मौका दिया है।" - रूचि ने हौसला करके अपनी बात पर विशेष जोर देते हुए कहा। यह पहला मौका था, जब निखिल के सामने ऐसी बात कहने का कारण मौजूद था।

"दिल कोई कमरा तो नहीं, जिसमें दरवाजे-खिड़कियाँ खोलकर अंदर झाँका जाता है।" - निखिल ने धड़कते दिल को नियंत्रित करते हुए कहा।

"तो कैसे झाँका जाता है?" - रूचि ने उत्साहित होते हुए पूछा।

"हम जिसके करीब होते हैं, उनके दिल को भी जान लेते हैं।" - निखिल ने अपनी असहजता को छुपाते हुए कहा।

"कुछ लोग तुम जैसे भी होते हैं, जिन्हें जानना बहुत मुश्किल होता है।" - रूचि ने फिर व्यंग्य बाण छोड़ा।

"हो सकता है मुश्किल हो, मगर असंभव तो नहीं।" - निखिल ने गंभीर होकर कहा ।

"चलो हम कोशिश करते रहेंगे, शायद कुछ पल्ले पड़ जाए।" - रूचि ने निखिल की आँखों में झाँकते हुए कहा।

"अब तो दो-तीन महीने बचे हैं, अगले साल न जाने कहाँ होंगे।"

"तो क्या दोस्ती की डोर यहीं टूट जाएगी?" - रूचि ने उदास होते हुए पूछा।

"कुछ कहा नहीं जा सकता?"

" क्यों...क्या मैं इस काबिल भी नहीं, कि तुम्हारी दोस्त बनी रह सकूँ।" - रूचि ने निराश होते हुए बोला। उसका सारा जोश ठंडा पड़ गया।

"नहीं रूचि, तुम गलत समझ रही हो। मेरे कहने का मतलब है, कि ज़िन्दगी की व्यस्तताओं के बीच क्या पता हम आगे कहाँ होंगे। जब भविष्य की तस्वीर स्पष्ट नहीं, तो कैसे कहें, कि हम इसी प्रकार दोस्त बने रहेंगे।"

"हाँ, ये तो है। इंदु सचमुच किस्मत वाली है। उसका दोस्त ही उसका प्यार है। कम-से-कम, वे दोनों तो उम्र भर के साथी हैं।"

"तुम्हें भी मिल जाएगा कोई साथी, क्यों इतना बेकरार हो रही हो।" - निखिल ने दोनों के बीच पसरती जा रही गंभीरता को कम करने के लिए चुटकी ली।

"हम्म...पर वो दोस्त भी बन पाएगा या नहीं, ये तो नहीं कहा जा सकता।"

"तो इन तीन सालों में कोई ऐसा दोस्त बनाना चाहिए था, जिससे प्यार भी किया जा सके।" - निखिल ने यूँ ही बिना सोचे-समझे बात कह दी, हालाँकि बात कहने के बाद वह कुछ असहज महसूस कर रहा था।

"यही तो बदकिस्मती रही मेरी। मैंने दोस्त भी बनाया तो तुम-सा।" - भीतर गहरी जिज्ञासा लिए हुए, बाहर से बनावटी मुस्कान के साथ, उसने वो बात कह दी, जो वह कहना चाहकर भी, कभी कह नहीं पाई थी। आज भी वह यह कह पाएगी, उसे इसकी आशा नहीं थी, हालाँकि वह मौके की तलाश में थी और कॉलेज छोड़ने से पहले निखिल से पूछना ज़रूर चाहती थी, कि क्या उनके बीच भी प्यार का पवित्र रिश्ता पनप सकता है या नहीं। जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे, उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। आज उसने अपनी क्लास भी जानबूझकर ही छोड़ी थी। दोस्ती के खो जाने की निराशाजनक बात सुनने के बाद उसे लगा, कि अब आर-पार की बात हो जानी चाहिए थी, भले ही उसे नहीं पता था, कि कौन-सी बात उसे कैसे कहनी है।

"क्या मैं इतना बुरा हूँ?" - निखिल ने भी हिम्मत करके बात को आगे बढ़ा दिया।

"शायद..." - रूचि ने कहा, जबकि वह कहना तो चाहती थी, कि नहीं, तुम बहुत अच्छे हो और तुम्हारे प्रति उसके दिल में ऐसी भावना रूपी बीज है, जो अंकुरित होकर प्यार के वृक्ष में बदल सकता है। ज़रूरत तो बस उसे तुम्हारी स्वीकृति की है।

"क्यों, क्या बुराई है मुझमें?" - निखिल ने सहज होते हुए कहा|

"खुद ही सोचो..." - रूचि ने शरारती लहजे में कहा।

"खुद की नजर में तो ठीक ही हूँ। अच्छा बनने का प्रयास भी रहता है, पर तुम्हें बुरा लगता हूँ, तो कोई कारण तो होगा ही।" - निखिल ने गंभीर होते हुए कहा।

"कभी किसी लड़की की तारीफ की है?" - ये शब्द कहकर रूचि ने अपनी निगाहें निखिल के चेहरे पर टिका दी।

"इससे क्या होता है?"

"यही तो मूलमंत्र है प्यार का।"

"अच्छा...तो लड़कियाँ तारीफ की भूखी होती हैं।" - निखिल ने ऐसे कहा, जैसे वो इस तथ्य से बिल्कुल अनजान हो।

"कुछ भी समझो, मगर प्यार करना है, तो यह ज़रूरी शर्त है।" - रूचि ने दार्शनिक अंदाज़ में कहा।

"फिर तो प्यार बड़ा खोखला हुआ।"

"कैसे?"

"तारीफ तो सुंदरता की होती है और सुंदरता कभी स्थायी नहीं होती, जब सुंदरता स्थायी नहीं, तो तारीफ स्थायी कैसे होगी और जो प्यार तारीफ की नींव पर खड़ा हो, वो तारीफ के अभाव में क्या बिखर नहीं जाएगा ?" - दार्शनिकता बघारने के बारी अब निखिल की थी।

"क्या तुम्हारी नजर में तारीफ की कोई अहमियत नहीं?" - रूचि ने नया सवाल दागा ।

"अहमियत है, मगर काम के मामले में। अच्छे काम की तारीफ होनी ही चाहिए, लेकिन यहाँ तक सुंदर चेहरे की तारीफ की बात है, मुझे नहीं लगता, कि सुंदर चेहरों को इसकी ज़रूरत है। जो सुंदर है, वह सुंदर है, चाहे कोई तारीफ करे, न करे। चाँद को कोई सुंदर कहता है या नहीं, इसकी परवाह चाँद को कब है।"

"उफ्फ...! तुमने तो बात का बतंगड़ बना दिया।"

"नहीं, मैंने तो बस वही कहा, जो मैं सोचता हूँ। अब तुम्हें गलत लगता है, तो तुम जानो।" - निखिल ने पल्ला झाड़ते हुए कहा।

"नहीं, मैं तुम्हें गलत नहीं कह रही। मैं तो बस तुम्हें प्यार करने का तरीका बता रही थी।" - रूचि ने बात को संभालते हुए कहा।

"इस मेहरबानी के लिए शुक्रिया। पर माफ करना, मैं इस तरीके को आजमा नहीं पाऊँगा।"

"पछताओगे..."

"कैसे?"

"कोई प्यार नहीं करेगा तुम्हें।"

"झूठी तारीफ से प्यार हासिल किया तो क्या किया। प्यार दिल से होना चाहिए। दिल में होना चाहिए।"

"तुम्हारे दिल में है प्यार?" - रूचि ने फिर सवाल किया।

"तुम्हें मेरी इतनी फिक्र क्यों हो रही है आज?" - निखिल ने भी प्रत्युत्तर में सवाल किया।

"दोस्त हूँ तुम्हारी और ..." - रूचि ने बात को जानबूझकर अधूरा छोड़ दिया। उसकी निगाहें अब निखिल पर टिक गई।

"और क्या?" - निखिल ने अनजान बनते हुए कहा।

"खुद समझने की कोशिश करना, मैं जवाब का इंतजार करूँगी।"- रूचि ने आखिरी बात कह दी। उसे लगा, वह इससे अधिक स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह सकती, इसलिए किताबें समेटकर वह उठ खड़ी हुई।

"रुको रूचि !" - निखिल ने रूचि का हाथ पकड़कर रोकते हुए कहा, "कैसा जवाब?"

"अपने दिल से पूछो?" - रूचि ने निखिल की आँखों में आँखें डालते हुए कहा।

"तुम भी तो अपने दिल से पूछो, कि क्या जवाब की ज़रूरत है?" - निखिल ने संकोच की केंचुली को किसी तरह से उतारते हुए कहा।

"शायद नहीं।" - रूचि कुछ आशान्वित और कुछ आशंकित होते हुए बोली।

"शायद का अर्थ?"

"यही, कि जब तक जवाब आपके मुँह से सुन न लूँ, तब तक तसल्ली नहीं होगी।"

"मैं तुम से आप कैसे हो गया रूचि?" - निखिल ने मुस्कराते हुए पूछा।

"दिल ने मजबूर किया, तो कहा। अब फैसला आपका है।"

"रूचि, तुम इस दर्जा पागल होओगी, सोचा न था।" - निखिल ने खड़े होकर, रूचि के हाथ को अपने हाथों में दबाते हुए कहा।

"क्या प्यार पागलपन नहीं है, निखिल?"

"है...बड़ा प्यारा पागलपन और ख़ुदा करे यह पागलपन सब करें।" - निखिल ने रूचि के गालों को प्यार से थपथपाते हुए कहा।

रूचि की आँखें आँसुओं से लबालब थी। शब्द होंठों पर आ ही नहीं रहे थे। आते भी कैसे, प्यार निशब्द होता है। शब्द तो छोटे पड़ जाते हैं, प्यार का इजहार करने में।

दिलबागसिंह विर्क