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ठौर ठिकाना - 2

ठौर ठिकाना

(2)

घर पहुँचते पहुँचते देर हो गई. कमला ने खाने को पूछा भी मना कर दिया मैने.
सुबह जल्दी जाना भी था बस एक कप चाय पी कर सो गई. इन्ही सब उलझनों में रात को नींद ही नहीं आई. सुबह आठ बजे ही मनोज का फोन आ गया उसे लग रहा था कहीं मै देर न कर दूँ आने में. तैयार हो कर मैने जल्दी जल्दी नाश्ते की खानापूरी की देर हो रही थी अभी रास्ते में मेडिकल शाप पर भी रुकना था एडल्ट डाइपर का पैकेट लेना था. नौ बजने से जरा पहले ही वहां पहुँच गई रास्ते से ही मनोज को फोन कर डाक्टर को लेने भेज दिया था. मिस सेन का बुखार तो कम हो गया था पर अभी डायरिया नहीं रुका था टेबलेट दी तो थी रात में पर आराम कम था,चेहरा एकदम जर्द पड़ा था. समझ में नहीं आ रहा था इनके जीवन के लिये प्राथना करूँ या इन्हें जीवन से मुक्त करने के लिये कितनी दुखद पीड़ादायक स्तिथि है यह.

मै फिर मनोज को फोन करने को सोच ही रही थी कि उसका फोन आ गया. मैने उससे पूछा,

" क्या हुआ मनोज इतनी देर हो गई तुम डाक्टर को ले कर क्यूँ नहीं आये ? "

वह बोला " हम क्लिनिक में ही बैठे है आप से बात करना चाह रही हैं डाक्टर साहिबा लीजिये बात कर लीजिये "

" नमस्ते डाक्टर क्या हुआ आप आइये प्लीज़ मैम सेन की हालत ठीक नहीं आप इनका चेकअप कर के दवा दे देंगी तो ज्यादा अच्छा रहेगा "

उधर से लेडी डाक्टर ने जो कहा सुन कर बहुत अजीब लगा वह बोल रही थी

" मै आ तो जाउंगी पर पहले यह कन्फर्म करना चाह रही थे मेरी विजिट फीस कौन देगा सब बात क्लियर हो जाए तो ठीक वरना बाद में किचकिच होती है "

" आप आइये तो सही पहले मरीज़ को तो देखिये.. फीस के लिये मत परेशान होइए हम देंगे आपकी फीस " कह कर फोन काट दिया. मन में अजीब सी वितृष्णा हुई डाक्टर के प्रति.

" यह सेवा का संकल्प लेने वाले डाक्टर हैं या पेशेवर कसाई हैं. जरा भी दया धर्म नहीं है इनमें अरे इतना पैसा तो नर्सिंग होम से कमा ही रहीं है फिर भी इन बूढ़े बुजुर्गों के लिये वक्त नहीं निकाल सकती दवा न दें बस लिख भर दें पर नहीं यह तो अपना समय भी बेच रही हैं सारा पैसा यही से कमा लेंगी रात को भी नहीं आई जरा भी मन नहीं हौला अगर रातबिरात कुछ हो जाता तो... पर इन्हें क्या इन्हें तो रोज़ ही साबका पड़ता होगा "

मन छोभ से भर गया था मै बडबडाती रही लोग चुप खड़े थे.अब मज़बूरी भी थी इनकी हालत ऐसी न थी कि कहीं ले जा सके इंतजार तो करना ही था.

थोड़ी देर बाद ही मनीष डाक्टर को ले कर आ गया साथ में एक असिटेंट भी थी वही मैम का फीवर और ब्लडप्रेशर ले रही थी डाक्टर साहिबा दो फीट दूर खड़ी रही उन्होंने कहने पर भी हाथ नहीं लगाया बस पर्चा लिखा और पैसे खरे किये और चल दी.

कुछ घरेलू नुस्खे, खान पान और देखभाल से धीमे धीमे हालत सुधरने लगी. मै रोज़ घंटे दो घंटे को जाती रही. उन्हें बहला फुसला कर दवा खिलाते कभी खाना खिलाते हुआ लगता मै अपने बच्चे को फिर से पाल रही हूँ. उन्हें चलने में परेशानी थी कुछ महीने पहले बाथरूम में फिसल जाने से कूल्हे की हड्डी में चोट आ गई थी वो ठीक भी हो गईं थी पर इस बार की बीमारी से इतनी कमजोर हो गईं कि उनके मन में डर बैठ गया बाथरूम खुद नहीं जाना चाहती, बिस्तर खराब कर बच्चों की तरह मुंह छुपा कर पड़ी रहती.

रमा जी भी कितना धोती चादरें वह चिड़चिड़ा जाती तो कभी प्यार से झिड़की देती अब उनकी भी तो उम्र हो गई है, डाइपर बहुत महंगे पड़ रहे थे फिर इनकी आदत भी पड़ती जा रही थी और ऐसे गीले में पड़े रहने से बेडसोर होने का भी डर था.

मै सोच रही थी यह सच है हमारे बुज़ुर्ग जीते नहीं उन्हें जिंदा रखना पड़ता है नन्हे शिशुओं की तरह. मैने उनके लिये वाकर लाकर रखा और एक डब्बे में सबसे छोटी वाली कैडबरीज़ चाकलेट्स और उन्हें दिखा कर कहा -

''आप अपने आप बाथरूम जायेंगी तो आपको एक चाकलेट मिलेगी ".

उन्हें चाकलेट्स बहुत पसंद थी देखते ही बच्चों की तरह खुश हो गई आँखे चमक उठी धीरे धीरे वह वाकर ले कर बाथरूम जाने लगी और हर बार वापस आकर हाथ फैला देती लाओ मेरी चाकलेट.

अब सब कुछ सामन्य था मै अब हफ्ते में एक बार जाती बहुत चाह कर भी अधिक समय नहीं निकाल पाती कभी ड्राइवर की भी मुश्किल होती. इस बार घर पर काफ़ी व्यस्तता रहने के कारण पन्द्रह दिन तक नहीं जा पाये.

वैसे भी जब भी जाते कोशिश करते सब के लिये कुछ खाने पीने को ले जाएँ वह भी उनकी मनपसन्द चीज़ कभी ढोकला कभी समोसा आदि. और कोई पूछने पर भी नहीं बोलता बस मिस सेन को छोड़ कर वही बता देती क्या लाऊं. अब तो ठंड भी पड़ने लगी थी जनवरी लग गई थी मैने सब के लिये मोज़े टोपी पुलोवर आदि लिये साथ ही गरमागरम समोसे भी बंधवा लिया.

भगत जी को पुरुषों के कपड़े दे कर कहा -" दादा आप लोग अपनी अपनी पसंद से नाप कर ले लीजिये मै तो अंदाजे से ही लाई हूँ तब तक चाय मंगवाते है जल्दी करिएगा वरना समोसे ठंडे हो जायेंगे ".

कह कर मै महिलाओं के स्वेटर निकालने लगी.कुछ देर बाद पलट कर देखा तो भगत जी वही खड़े थे.

" क्या हुआ दादा आप खड़े क्यों हैं ? और सब चुप काहे हैं ? "

भगत जी कुछ नहीं बोले बस एक सेट कपड़ा मेरी तरफ बढ़ाया और बोले.

" इस की जरूरत अब नहीं है बिटिया ".

" अरे काहे दादा चार जन हैं न आप लोग ".

कह कर मैने पूरे हाल में नज़र घुमा कर सबको देखा सभी थे गुप्ता जी को छोड़ कर.

'' अरे गुप्ता अंकल नहीं है क्या उनका रख दीजिये जब आयें तो दे दीजियेगा ''.

लबें पतले गुप्ता जी बहुत कम बोलते थे उनके बारे में कभी उनसे बात तो नहीं की चाह कर भी उनका अतीत कुरेदने की हिम्मत नहीं होती मेरी.जानती हूँ बहुत दर्द होता है जब सूखे घाव पर पड़ी पपड़ियाँ उधड़ती हैं.

उनकी बोलचाल हावभाव से वह अभिजात्य वर्ग से दीखते थे.

''अरे कहाँ चले गए क्या उनके बेटे उन्हें ले गये ? ''

मैने मनोज से पूछा.

" नहीं मैम एक बार यहाँ छोड़ने के बाद आजतक तो कोई बेटा बेटी अपने माँ बाप को लेने नहीं आया गुप्ता अंकल दस दिन पहले नहीं रहे उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ और तीसरे दिन वह मुक्त हो गए सब दुखों से ".

मै एक दम सन्न सी रह गई माहौल बड़ा बोझिल हो गया था.मैने और सब को सामान्य करने की कोशिश की चाय मंगाई और मैम सेन से बात करने लगी. थोड़ी देर बाद जब सब लोग शाम की चाय में व्यस्त हुए तो मै वंदना और मनोज के साथ अपनी चाय ले कर बाहर वाले बरामदे में आ गई.

मुझे गुप्ता अंकल के बारे में जानना था.अब वह तो दुनिया से चले गए पर मै जानना चाहती थी संतान किस हद तक पतित हो सकती है.

मनोज ने बताया गुप्ता जी किसी प्राइवेट कम्पनी में ऊँचे पद पर थे उनके दो बेटे और एक बेटी भी है एक बेटा विदेश में अच्छा कमा रहा है दूसरा स्टेट बैंक में मैनेजर है.

उनकी अच्छी खासी सम्पति भी थी पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने मकान छोड़ कर बाकी संपत्ति दोनों बेटों के नाम कर दी.घर पर वह अकेले ही रहते थे पत्नी का संवारा घर था वहां वह अकेलापन नहीं महसूस करते उन्हें लगता उनकी सहधर्मिणी उनके आसपास ही है. बेटी उनकी बहुत लाड़ली थी वह अक्सर उनके पास आ जाती बेटी के मोह में पिता ने घर उसके नाम कर दिया उन्होंने सोचा जब तक जियेंगे यह छत तो है ही उसके बाद बिटिया माँ की हर धरोहर संभाल लेगी बहुओं को तो मोह होता नहीं फिर बेटों को उनका हक दे भी दिया है और उन्हें कोई कमी भी नहीं है.
प्राइवेट फर्म में होने के कारण उन्हें कोई पेंशन तो मिलती नहीं थी. रिटायरमेंट के समय जो एकमुश्त रकम मिली भी थी वह दोनों बेटों ने अपनी जरूरतें बता कर मांग ली और कहा हम हर महीने पैसे जमा कराते रहेंगे. अब दोनों बेटे महीने में एक निश्चित रकम उनके खाते में जमा करा देते पर बेटी को मकान देने से वह दोनों भी नाराज़ हो गए और सब बंद कर दिया.
अब वह पूरी तरह से बेटी दामाद पर ही निर्भर हो गये.कुछ दिन बाद बेटी दमाद ने मकान भी बेंच दिया और फिर कुछ दिनों बाद बेटी नें अपने पति और ससुराल का हवाला देते हुए बाप को यहाँ आश्रम में छोड़ दिया.

शुरू में महीने में एक चक्कर लगा भी जाती बाद में वह भी बंद कर दिया. गुप्ता अंकल कभी कभी बेटी से मिलने जाते पर लौट कर अक्सर ही फूट फूट कर रोते हफ़्तों उदास रहते. उनकी एक चूक ने उन्हें लावारिस बना दिया.पैसा नहीं तो रिश्ते नाते नहीं अपना ही खून सफेद हो गया.उनके मरने की खबर सुन कर लड़के आये तो पर यही पर खानापूर्ति कर चले गए.

गुप्ता अंकल की कहानी तो खतम हो गई,मुक्त हो गये वह इस बेरहम दुनिया से,लेकिन यहाँ तो सभी एक से हैं सभी के पास दर्द की एक पोटली है जिसे वह अपने कलेज़े में दबा छुपा के रखते हैं.
कभी कभी पीड़ा जब असहनीय हो जाती है तो आंसूओं के साथ कुछ दर्द बह भी आते हैं पोटली से बाहर बस उतना ही जान पाते हैं हम सब.

कितने बेरहम और बेशर्म हो गये हैं खून के रिश्ते. भाई बहन हो या संतान सब स्वार्थी यह यहीं आकर दिख जाता है.

सबसे बड़ा उदाहरण तो रमा आंटी ही हैं, अरबपति परिवार की लड़की शादी के दस दिनों बाद ही माँ बाप के घर वापस आ गई,फिर पति कभी उन्हें न लेने आया न ही मिलने, बाद में तलाक का कागज़ आ गया कुछ दिनों बाद पता चला उसने अपनी प्रेमिका से विवाह कर लिया. रमा जी मायके में ही रह गई, माँ बाप की लाख कोशिशों और समझाने के बावजूद दूसरा विवाह नहीं किया. भय और अविश्वास बैठ गया उनके मन में अस्वीकृत होने का वह भी बिना किसी अपराध के. जब तक माँ बाप जीवित रहे बड़े लाड़ प्यार से रखा उन्होंने पर उनके जाने के बाद अपने ही मायके में भाईयों और भाभियों के बीच रमा आंटी पराई होने लगी उम्र बढ़ने के साथ शरीर भी शिथिल होने लगा घर के काम भी अब उनसे नहीं होते. बोझ सी हो गई वह एक अनचाहा बोझ. रमा आंटी की मनस्तिथि भी अजीबोगरीब हो गई थी वह बार बार हाथ धोती दिन में कई बार नहा आती, घंटो पूजा पाठ करती और घर के कोने में बनी कोठरी में पड़ी रहती.लेकिन भतीजों की शादी के बाद तो वह अपनों के लिये भी अवांछित भी हो गई. और फिर एक दिन उन्हें यहाँ पटक दिया गया यह कह कर यह झगड़ा बहुत करती हैं हम तो इन्हें रखना चाहते हैं परंतु यह खुद ही यहाँ आने कि जिद कर रही हैं.अब दो तीन साल से यहीं हैं. जब जाओ बड़े प्यार से मिलती हैं.कभी कभी खुद ही बताने लगती हैं अपने परिवार के बारे में पर कभी बुराई नहीं करती.

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