Bhadukada - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

भदूकड़ा - 3

छुट्टी के बाद जब दोनों लड़कियां घर पहुंचतीं, तो कुंती घर के दरवाज़े पर पहुंचते ही सुबकना शुरु कर देती, जो भीतर पहुंचते-पहुंचते रुदन में तब्दील हो जाता.
आंखों से आंसू भी धारोंधार बह रहे होते. रो-रो के मां को बताया जाता कि ’बहन जी’ ने आज सुमित्रा की ज़रा सी ग़लती (!) पर कितनी बेरहमी से पिटाई की और इस पिटाई से कुंती को कितनी तकलीफ़ हुई. कुंती हिचक-हिचक के पूरी बात बता रही होती और सुमित्रा अवाक हो उसका मुंह देखती रह जाती! कुंती की ये हरकत सुमित्रा को दोतरफा दंड दिलाती. एक तो स्कूल में, दूसरी डांट उसे मां से पड़ती. और सुमित्रा बस इतना ही कह पाती कि उसने कुछ नहीं किया था. लेकिन वो ग़लती से भी कुंती का नाम न लेती. कभी नहीं बताती कि शैतानी तो कुंती ने की थी.

सुमित्रा द्वारा कुंती को हर ग़लती पर यों बचा लिया जाना, कुंती को अगली शैतानी के लिये उत्साहित करता. शैतानी भी वो, जिसमें सुमित्रा को फंसाया जा सके. पांडे जी जब भी सुमित्रा के किसी काम की तारीफ़ करते तो कुंती को आग लग जाती. जल-भुन के कोयला हुई कुंती , सुमित्रा की हर तारीफ़ के बाद, की गयी तारीफ़ को ही मटियामेट करने की तैयारी करती. और सुमित्रा …… उन्होंने तो सपने में भी ये कभी नहीं सोचा कि कुंती उन्हें नीचा दिखाने के लिये सोची-समझी प्लानिंग पर काम करती है. हर घटना को वे बस दुर्घटना मान लेती थीं. कभी उन्होंने कुंती के लिये ग़लत सोचा ही नहीं. कोई कहता भी कि कुंती तुम्हें फंसा रही, तो वे पूरे भरोसे के साथ अगले की ख़बर को निरस्त कर देतीं. कुंती पर उन्हें बहुत लाड़ आता था. अतिरिक्त स्नेह की वजह शायद कुंती का अतिसाधारण रंग-रूप भी रहा हो. जब-जब कोई सुमित्रा जी के रंग-रूप की तारीफ़ करता, तब तब वे भीतर ही भीतर सिमट जातीं. अपराधबोध से भर जातीं जैसे सुन्दर होने में उनका कोई हाथ रहा हो. जैसे उन्होंने जानबूझ के खुद को सुन्दर बना लिया हो. ऐसी हर तारीफ़ के बाद उनका स्नेह कुंती के प्रति और बढ़ जाता जबकि कुंती इन तारीफ़ों को सुन के मन ही मन सुमित्रा से और दूर हो जाती. उसे नीचा दिखाने की योजना बनाने लगती. सुमित्रा जी के बड़े भाई, यानी बड़के दादा कुंती की हरक़तों को समझते थे, लेकिन स्वभाव से ये भी सुमित्रा जैसे ही थे, सो भरसक वे कुंती को समझाने की कोशिश ही करते, ये ज़ाहिर किये बिना कि वे उसकी हरक़त ताड़ गये हैं. बड़ी जिज्जी अम्मा के साथ रसोई में लगी रहती थीं, सो उन्हें फुरसत ही नहीं थी इस पूरे झमेले को समझने या सुलझाने की. रह गये दो छोटे भाई-बहन, उन्हें न उतना समझ में आता था, न समझने की कोशिश ही करते थे. आज का समय होता, तो बच्चे ही सबसे पहले समझते बात को. सुमित्रा जी की अम्मा थीं तो तेज़ तर्राट लेकिन बच्चों के ऐसे मामलों में उलझने का उनके पास टाइम न था, जिन्हें शैतानियां कहते हैं. जब शिक़ायतें हद से ज़्यादा बढ़ जातीं, तो छहों बच्चों को लाइन से खड़ा करके दो-दो चमाट लगातीं, और सबके कान पकड़, पढ़ने बिठा देतीं. बस हो गयी उनकी ज़िम्मेदारी पूरी

(क्रमश:)