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स्टॉकर - 25




स्टॉकर
(25)



सूरज सिंह के पिता गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे। उनका इलाज कराने के लिए घरवालों ने उन्हें गांव के पास एक कस्बे के प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करा दिया था। सूरज सिंह के पिता के इलाज पर अब तक उनकी सारी जमा पूंजी लग चुकी थी। पर अभी भी कोई लाभ नहीं हुआ था। ऐसे में परिवार की उम्मीद बड़े बेटे सूरज सिंह से थी कि वह इलाज के खर्च में कुछ मदद करेगा।
लेकिन सूरज सिंह खुद ही अपनी समस्या में उलझा था। पर वह घर वालों को मना भी नहीं कर सकता था। वह नहीं चाहता था कि इस बार भी वह नाकारा साबित हो। वह बड़ी परेशानी में था। कुछ समझ नहीं पा रहा था। घरवालों की ज़रूरत भी थोड़ी नहीं थी। उन्होंने दो लाख का इंतजाम करने को कहा था। सूरज सिंह के लिए इतने का इंतजाम कर पाना संभव नहीं था।
सूरज सिंह को मदद के लिए केवल एक ही नाम याद आ रहा था। वह था नीलांबर का। उसके पास नीलांबर का कोई फोन नंबर नहीं था। ना ही उसके घर का पता मालूम था। पर वह उस फ्लैट का पता जानता था जहाँ नीलांबर ने उसे विलायती शराब पिलाई थी।
सूरज सिंह यह सोंच कर उस फ्लैट पर गया कि यदि नीलांबर नहीं भी मिला तो उसके नौकर से उसका फोन नंबर या घर का पता ले लेगा।
जब सूरज सिंह फ्लैट पर पहुँचा तब इत्तेफाक से नीलांबर वहाँ था। नौकर ने उसे बैठा कर भीतर सूचना दी। अंदर से आती आवाज़ों से सूरज सिंह अंदाज़ लगा सकता था कि वह किसी औरत के साथ था। यकीनन वो उसकी पत्नी नहीं थी। क्योंकी नीलांबर पहले ही कह चुका था कि यह फ्लैट मौज मस्ती के लिए है।
नीलांबर जब बाहर आया तो उसके चेहरे से झलक रहा था कि उसे सूरज सिंह का असमय आना अच्छा नहीं लगा।
"क्या बात है ? अचानक आ गए।"
सूरज सिंह ने कुछ संकोच के साथ कहा।
"वो एक ज़रूरी काम था।"
"ठीक है....पर बिना कुछ बताए...."
नीलांबर के सुर की रुखाई को सूरज सिंह समझ गया था। पर अपनी गरज़ थी।
"माफी चाहता हूँ। पर तुम्हारा नंबर नहीं था। तुम नंबर दे दो। पूँछ कर सही समय पर दोबारा आ जाऊँगा।"
"रहने दो....जो कहना चाहते हो कहो।'
सूरज सिंह को बुरा लग रहा था। पर पैसे तो मांगने ही थे।
" मुझे कुछ पैसे चाहिए थे....दो लाख...."
नीलांबर ने उसे घूर कर देखा।
"सिर्फ दो लाख...."
उसके कहने के तरीके में तंज़ था। सूरज सिंह ने सफाई दी।
"वो बाबूजी बहुत बीमार हैं। उनके इलाज के लिए चाहिए थे।"
नीलांबर कुछ कहता तभी एक फोन आ गया। फोन उठा कर वह बात करने लगा।
"अच्छा.... अब कैसा है.....कब हुआ.....ओह....यह तो बहुत बुरा हुआ। देखो कुछ इंतज़ाम करता हूँ।"
नीलांबर कुछ परेशान लग रहा था। सूरज सिंह की तरफ देख कर बोला।
"दो लाख क्या पेड़ पर लगते हैं। मैं जैसे भी कमाता हूँ। मेहनत से कमाता हूँ। वापस कैसे करेगे।"
"मैं जल्दी ही वापस कर दूँगा।"
नीलांबर हंसा।
"वापस कर दूँगा....कैसे ? तुम्हारी हालत तो तुम खुद बता कर गए थे।"
सूरज सिंह कुछ नहीं बोला। पिछली बार वह खुद ही स्वयं को नाकारा, असफल कह कर गया था। नीलांबर किसी सोंच में डूबा था। सूरज सिंह इंतज़ार कर रहा था कि वह कुछ बोले। कुछ देर कोई कुछ नहीं बोला।
करीब पाँच मिनट के बाद नीलांबर बोला।
"हाँ तो बताओ कैसे लौटाओगे दो लाख रुपए ?"
सूरज सिंह के पास कोई जवाब नहीं था। पर वह बोला।
"धीरे धीरे करके अपनी कमाई से दे दूँगा।"
"अच्छा....कितने सालों में ? तुम्हारी कमाई के हिसाब से तो कई साल लगेंगे।"
सूरज सिंह उठ कर खड़ा हो गया। बात सही थी। दो लाख चुकाने में उसे समय लगता। फिर जो उनकी हालत थी उसके हिसाब से वह पूरी रकम दे भी पाए यह भी संभव नहीं था।
"रुको.....अपना नंबर दे दो। कुछ सोंचता हूँ।"
सूरज सिंह ने अपना नंबर दे दिया। वह अपने घर पहुँचा ही था कि भाई का फोन आया। उसने कहा कि रकम का इंतजाम जल्दी करना होगा। ऑपरेशन बहुत ज़रूरी है। कोशिश कर रहा हूँ कह कर सूरज सिंह ने फोन काट दिया।
उसे बहुत कम उम्मीद थी कि नीलांबर उसकी मदद करेगा। पर उसने नंबर लिया था। इसलिए सूरज एक हल्की सी आस लगाए बैठा था। नीलांबर के अलावा और कोई था भी नहीं जिसके दरवाज़े पर वह जाता।
रात करीब नौ बजे नीलांबर ने फोन कर उसे फ्लैट पर आने को कहा। सूरज सिंह जब वहाँ पहुँचा तो एक और आदमी वहाँ मौजूद था। नीलांबर ने सूरज सिंह को बैठने का इशारा करते हुए कहा।
"अगर तुम मेरा एक काम करने को तैयार हो तो मैं तुम्हें पैसे दे सकता हूँ।"
सूरज सिंह जानता था कि वह उससे क्या काम करने को कहेगा। नीलांबर उसके मन की बात समझ गया।
"देखो भाई उधार मैं दे नहीं सकता। हाँ कमाने का मौका दे सकता हूँ। काम करो और पैसे ले लो।"
"पर जो काम तुम करवाओगे मैंने कभी किया नहीं है। कुछ गड़बड़ी हो गई तो ?"
"अब हर काम में पहली बार तो होता ही है। पहली बार तुम कोर्ट भी गए होगे।"
"कोर्ट जाने और इस काम में फर्क है।"
"ये फर्क दिमागी है। ठान लो तो कुछ भी कर सकते हो। मैंने भी कभी पहली बार ये काम किया था। तब मेरे गुरू ने यही कहा था। मैंने मन में ठान लिया। दिमाग ने भी इधर उधर सोंचना बंद कर दिया। मैं सफल हो गया। वैसे तुम सोंच लो काम करोगे तो पैसा मिलेगा। वरना मैं किसी और से करा लूँगा। मैंने तो तुम्हारी मदद करने के लिए सोंचा था।"
सूरज सिंह सोंचने लगा। वह कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा था। उसे पैसों की ज़रूरत भी थी। पर मन में इस काम को लेकर एक डर भी था।
"देखो भाई....काम आज रात ही करना है। तुम्हारा जो निर्णय हो बता दो।"
कमरे में मौजूद दूसरे शख्स का नाम मुन्ना था। उसने कहा।
"ज्यादा मत सोंचो। मैं तुम्हें स्पाट पर ले जाऊँगा। सब तय है। वह एक मकान से निकलेगा। तुम्हें पास जाकर गोलियां चलानी हैं। मैं तुम्हें लेकर भाग लूँगा। सिंपल है।"
सूरज सिंह अभी भी दुविधा में था। नीलांबर ने कहा।
"अब थोड़ा बहुत रिस्क लिए बिना आसानी से इतनी बड़ी रकम तो नहीं मिल सकती। तुम बस दिल मजबूत कर गोली चला देना। बाकी काम हमारा है।"
सूरज सिंह कुछ कहता तभी उसके भाई का दोबारा फोन आया। उसने कहा कि वह कल पैसे लेने उसके पास आ रहा है। कुछ भी करके पैसे का इंतजाम कर लो।
सूरज सिंह के पास समय नहीं था। मना करने का मतलब था कि सबकी नज़र में बेकार साबित होना। वह अब और ताने नहीं सुनना चाहता था। उसने सोंचा नीलांबर सही कह रहा है। बिना रिस्क उठाए इतनी बड़ी रकम कैसे कमा सकता है। उसने कहा।
"मैं तैयार हूँ। पर मुझे पैसे काम होते ही चाहिए।"
"इस धंधे में ज़बान की बहुत कीमत है सूरज। जैसा कहा है वैसा ही होगा। काम होने के बाद मुन्ना तुम्हें एक जगह ले जाएगा। वहाँ तुम्हें पैसे मिल जाएंगे।"

सूरज सिंह ने अपना काम सफलता पूर्वक कर लिया। उसे उसके पैसे भी मिल गए। उसके पिता का ऑपरेशन भी सफलता पूर्वक हो गया। घरवालों में उसकी शान बढ़ गई।
पहली सफलता ने उसके मन के डर और संकोच दोनों को ही समाप्त कर दिया था। उसने सोंचा कि इतने दिनों तक कोशिश के बाद कुछ हाथ नहीं लगा। पर उसने पहली बार इस राह पर कदम रखा और अपने परिवार का दिल जीत लिया। अब वह वसुधा को भी वापस लाना चाहता था। उसने तय कर लिया था कि जिस राह पर उसने कुछ कदम बढ़ाए हैं उससे कदम वापस नहीं खींचेगा।
नीलांबर भी उसके काम से खुश था। उसे एक आदमी की ज़रूरत थी। दरअसल बात यह थी कि नीलांबर केवल सुपारी लेता था। काम उसके दो गुर्गे शंभू और मुन्ना करते थे। मुन्ना का काम मोटरसाइकिल से शंभू को स्पॉट तक पहुँचाना और काम होने के बाद वहाँ से लेकर भागना था। मारने का काम शंभू करता था।
उस दिन जब सूरज सिंह पैसे मांगने आया था तब मुन्ना ने उसे फोन कर बताया था कि शंभू को दुर्घटना में गंभीर चोट लग गई है। अब वह कई हफ्ते तक काम नहीं कर सकेगा। यही सुन कर वह परेशान हो गया था। पर सूरज सिंह के जाने से पहले उसे एक विचार आया था। अतः उसने नंबर लेकर उसे जाने दिया।
कई घंटों तक वह इस बात पर विचार करता रहा कि क्या सूरज सिंह पर इस काम के लिए भरोसा कर सकता है। पर वह जानता था कि सूरज सिंह को पैसों की सख्त ज़रूरत थी। उसने उस समय को याद किया जब वह सूरज सिंह की स्थिति में था। तब उसकी आवश्यक्ता ने ही उसे हिम्मत दी थी। वह जानता था कि सूरज सिंह भी खुद को साबित करने के लिए कुछ भी कर सकता है। फिर उसके पास कोई और रास्ता भी नहीं था। अब वह परदे के पीछे से काम करता था। सामने आकर गोली नहीं चलाना चाहता था।
सूरज सिंह काम करने को तैयार हो गया। यही नहीं उसने काम सफलता पूर्वक अंजाम दिया। नीलांबर को शंभू की जगह काम करने वाला मिल गया।
सूरज सिंह एक के बाद एक सफलता पूर्वक काम करता जा रहा था। कुछ ही दिनों में उसने बहुत सा पैसा बना लिया। वह वसुधा को अपने साथ ले आया।

कहानी सुनाते हुए सूरज सिंह रुका। उसने एसपी गुरुनूर की तरफ देख कर कहा।
"मैडम अब मैं पैसे की ताकत को समझ चुका था। पैसा आते ही सब मुझसे खुश हो गए। रूठी हुई पत्नी फौरन मेरे साथ आने को तैयार हो गई। घरवाले जो मुझे निकम्मा समझते थे। अब मेरी तारीफ करते नहीं थकते थे। किसी को यह जानने की ज़रूरत नहीं थी कि अचानक मेरे पास इतना पैसा आया कहाँ से ? मुझे तो अब कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मैं सही राह पर हूँ या गलत।"
सूरज सिंह एसपी गुरुनूर की तरफ देख रहा था। वह अपने विचारों में मग्न थी।