Jo Darr Gaya Vo Mar Gaya books and stories free download online pdf in Hindi

जो डर गया वो मर गया

5. जो डर गया वो मर गया

परिचय

जन्म तिथि- 16 जुलाई 1956

पेशे से चिकित्सा भौतिकीविद एवं विकिरण सुरक्षा विशेषज्ञ। पूरा नाम तो वैसे अरविन्द कुमार तिवारी है, पर लेखन में अरविन्द कुमार के नाम से ही सक्रिय। आठवें दशक के उत्तरार्ध से अनियमित रूप से कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा और अखबारों में स्तंभ लेखन। लगभग तीस कहानियाँ, पचास के करीब कवितायें और तीन नाटक बिभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित। सात कहानियों के एक संग्रह "रात के ख़िलाफ" और एक नुक्कड़ नाटक "बोल री मछली कितना पानी" के प्रकाशन से सहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में एक विशिष्ट पहचान बनी। आजकल विभिन्न अख़बारों और वेब-पत्रिकाओं में नियमित रूप से व्यंग्य लेखन। अब तक करीब सौ से ऊपर व्यंग्य रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक कविता संग्रह “आओ कोई ख्वाब बुनें” और एक व्यंग्य संग्रह “राजनीतिक किराना स्टोर” अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है।

सम्प्रति—चिकित्सा महाविद्यालय, मेरठ (उ० प्र०) में आचार्य (चिकित्सा भौतिकी)

ई-मेल: tkarvind@yahoo.com

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शोले फिल्म में डरा हुआ गब्बर कहता है---जो डर गया, वो मर गया। और वाकई यह सच भी है। डरा हुआ इंसान मुर्दे के समान होता है। न कोई सपना। न कोई उम्मीद। भय की गिरफ्त में जकड़ा हुआ। असुरक्षित। असहाय। कहा भी जाता है कि अगर जि़ंदगी में कुछ करना और आगे बढ़ना है, तो सबसे पहले अपने डर पर काबू पाओ। डर को जीतो। क्योंकि डर के आगे ही जीत है। यह डर भी अजीब चीज है। कहीं भी किसी भी रूप में आकर हमको डरा देती है। कभी भूत बनकर। कभी अन्धविश्वास और टोना टोटका बनकर। कभी किस्मत का डर। कभी ईश्वर का भय। कभी प्राकृतिक आपदा का डर। और कभी आतंकवाद और युद्ध का भय। कभी दुनिया के ख़त्म हो जाने का डर। अमीर मुल्कों की दादागिरी तो पूरी तरह से डर के सिद्धांत पर ही फल फूल रही है। क्योंकि डरा हुआ इंसान, राज्य और मुल्क हमेशा डर कर गुलाम बना रहता है। जिसको जितना डराओ, वह उतना ही चिपकता है। तुलसी बाबा कहे भी हैं कि भय बिन होए न प्रीति।

नौकरी जाने का भय हमें मालिकों के तलवे चाटने के लिए मजबूर करता है। पति को खो कर बेसहारा होने का भय महिलाओं को पूरी जि़ंदगी उन्हें परमेश्वर मान कर उनकी गुलामी सहने के लिए मजबूर करता है। भाग्य-दुर्भाग्य, ग्रहों-नक्षत्रों और काली सायाओं का भय हमेशा ज्योतिषियों, तांत्रिकों, ओझाओं-सोखाओं और पीर-फकीरों के चंगुल में फंसा देता है। पहले तो कुण्डली या हथेली में से कोई न कोई दोष निकालना। फिर उस दोष से क्या-क्या अनिष्ट होने वाला है, इसका भय दिखाना। और फिर उस दोष के निवारण के नाम पर डरे हुए परिवार को दुह कर रख देना। पैसा हमारा, मौज उनकी। इसी तरह अपहरण व फिरौती ही नहीं, शिक्षा और चिकित्सा का पूरा व्यापार भी लोगों के भय पर ही फल-फूल रहा है। फ़ौरन बाईपास करवा लो। नहीं तो, बस दो-चार दिन में ही खेल ख़त्म हो जायेगा। डर की इस इंडस्ट्री से आज कईयों की चांदी कट रही है। डराने वाले वेल ट्रेंड और स्किल्ड हैं, पर डरने वाले बेवक़ूफ़। डराने वाले संगठित हैं, लेकिन डरने वाले असंगठित। अपने स्किल से वे हमें इतना डरा देते हैं कि रस्सी भी सांप नज़र आने लगती है। गाँव-जवार की गरीब बेसहारा औरतें डाइन-चुड़ैल दिखने लगती हैं। और मासूम बच्चे बलि योग्य बुरी आत्माएं।

डर के हाथ-पाँव नहीं होते। उसका कोई आकार-प्रकार भी नहीं होता। ठीक निरंकार ब्रह्म की तरह वह हर जगह मौजूद रहता है। पर इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन जिनके ज्ञान चक्षु खुले होते हैं, उनको वह साफ़-साफ़ नज़र आता है। वे फ़ौरन समझ जाते हैं कि कौन सा डर इस समय लोगों को डराने के लिए कारगर होगा और कौन सा नहीं। और फिर उस डर को वे और डरावना बना कर हमको डराने लगते हैं। और हम उस डर से डर कर वही सब कुछ करने लगते हैं, जो कि वे चाहते है। तोड़-फोड़। उपद्रव। हड़ताल। आन्दोलन। सड़क जाम। रेल जाम। देश जाम। हिंसा। और आतंकवाद।

वे हमें कभी पकिस्तान के नाम से डराते हैं। कभी चीन और बांग्लादेश के नाम से। वे हमें कभी तसलीमा के नाम से डराते हैं। कभी सलमान रश्दी के नाम से। कभी हमारे अन्दर एम एफ हुसेन का खौफ भरते हैं। कभी किसी फिल्म का। और कभी किसी कार्टून का। हमें डराने के लिए वे हमारी आस्था को जगाते हैं। कभी धर्म के नाम पर। कभी ईशनिंदा के नाम पर। कभी संस्कृति के नाम पर। कभी राष्ट्र और उसकी एकता और अखंडता के नाम पर। वे हमारी भावना को इतना उत्तेजित कर देते हैं कि हम विवेक शून्य होकर जूनूनी बन जाते हैं।

दरअसल गब्बर टाईप रिंग मास्टर्स यही चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हम हिंसक हों। समाज में अराजकता फैले। क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया हो। सांप्रदायिकता फैले। दंगे-फसाद हों। आतंकी वारदातें हों। और लोग डर कर दुबके रहें। यही उनकी राजनीति है। यही उनका व्यापार है। लेकिन सच तो यह है कि गब्बर्स हमेशा खुद अन्दर से डरे हुए होते हैं। वे डरते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से। लोकतंत्र से। लोगों की एकजुटता से। लोग कहीं डरना बंद न कर दें, वे इस ख्याल से डरते हैं। लेकिन चालाकी से अपने डर को वे हमारा डर बना देते हैं। और डरे हुए हम आसानी से उनकी कठपुतली बन जाते हैं। और कठपुतलियाँ न तो सोचती हैं, न समझती हैं और न ही सवाल पूछती हैं। क्योंकि कठपुतलियां कभी इंसान नहीं होतीं।

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