Kaun Dilon Ki Jaane - 34 books and stories free download online pdf in Hindi

कौन दिलों की जाने! - 34

कौन दिलों की जाने!

चौंतीस

रविवार का दिन

अभी सुबह के पाँच बजने में कुछ मिनट बाकी थे। यद्यपि आलोक की नींद खुल चुकी थी, फिर भी उसने अभी बेड नहीं छोड़ा था। उसके मोबाइल की घंटी बजी। मोबाइल की स्क्रीन पर रानी का नाम आ रहा था। उसने फोन ऑन किया। उधर से आवाज़़ आई — ‘गुड मार्निंग आलोक जी! क्या अभी सो रहे थे?'

‘वेरी गुड मार्निंग! जाग रहा हूँ, किन्तु अभी लेटा हुआ हूँ। इतनी सुबह कैसे?'

‘कल फ्लैट में शिफ्ट कर लिया था। घर से बाहर किसी अनजान जगह पर ज़िन्दगी में पहली बार रात के समय अकेली रही। एक मिनट भी पलक झपक नहीं पाई। सारी रात मन में विचित्र—विचित्र ख्याल आते—जाते रहे। मन बेचैन रहा। कई बार मन ने कहा, तुम स्वयं जिम्मेदार हो अपनी इस अवस्था के लिये। अपने निहित स्वार्थ के लिये तुमने अपनी बसी—बसायी गृहस्थी उजाड़ दी है! आलोक जी, क्या मैं सच में स्वार्थी हूँ? इस अवस्था के लिये क्या मैं ही जिम्मेदार हूँ, रमेश जी बिल्कुल निर्दोष हैं?'

‘रानी, इतना सोच—सोच कर अपने चित्त को कष्ट मत दो। यदि रमेश जी की तरफ से आज किसी के आने का कोई प्रोग्राम न हो तो मैं आ जाता हूँ दो—चार घंटे के लिये या तुम पटियाला चली आओ।'

‘मैं ही आ जाती हूँ। जसवन्ती की उपस्थिति में मेरा आना ठीक रहेगा?'

‘कोई प्रॉब्लम नहीं। अगर जरूरत हुई तो मैं कह दूँगा कि तुम मेरी परिचित हो। नहा—धोकर जल्दी आ जाओ। नाश्ता इकट्ठे ही करेंगे।'

‘इस फ्लैट में एक—एक पल भारी लग रहा है। मुझे ही पता है, कैसे मैंने सुबह के पाँच बजाये हैं!'

‘फिर ऐसा करो, अभी निकल लो। यहीं आकर नहा—धो लेना। चाय इकट्ठे पीयेंगे।'

‘मैं दस मिनट में निकल रही हूँ।'

रानी के पटियाला पहुँचने पर आलोक चाय बनाने के लिये रसोई की तरफ जाने लगा तो रानी बोली — ‘आप बैठो, मैं चाय बनाती हूँ।'

‘रानी, आज मैं देख रहा हूँ कि तुम कुछ बदले—बदले ढंग से व्यवहार कर रही हो!'

‘वो कैसे?'

‘अच्छा भला ‘तुम' सम्बोधन छोड़कर ‘आप, आप' ‘आलोक जी' किये जा रही हो?'

‘आलोक जी, अब से मैं ‘तुम' नहीं कह पाऊँगी। प्लीज़ इस पर न तो ऐतराज़ उठाना और न ही इसके लिये कोई स्पष्टीकरण देने के लिये कहना। बस समझ लो कि यह मेरे मन की ख्वाहिश है।'

‘रानी, तुमने इतना कुछ कह दिया है कि मेरे लिये तो कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा है। मैं नत्‌—मस्तक हूँ। न कोई प्रश्न न ऐतराज़। तुम्हें मन की करने की पूरी छूट है।'

चाय पीने के दौरान तथा काफी देर बाद तक दोनों भविष्य को लेकर बातें करते रहे। आलोक ने रानी को पाँच—सात महीने अकेले रहने की आदत डालने को कहा। जब आलोक ने देखा कि रानी कुछ सहज हो गयी है तो कहा — ‘उठो, नहा—धो लो, फिर नाश्ते आदि का प्रबन्ध करेंगे।'

‘आज आपने रसोई में कुछ नहीं करना। जो कुछ करना है, मैं करूँगी।'

‘जैसी तुम्हारी मर्जी।'

जब रानी अपने नित्यकर्म निपटाकर आई तो आलोक भी तैयार हो चुका था। आलोक ने कहा — ‘नाश्ते में सैंडविच ही बना लो। दुपहर का खाना ढंग से करेंगे। बाज़ार से कुछ लाना है, तो बता दो।'

रानी ने फ्रिज खोलकर देखा। दूध, ब्रेड, पनीर, बटर देखकर बोली — ‘घर में सब कुछ है। बाज़ार जाने की जरूरत नहीं। बस दस मिनट इन्तज़ार करनी पड़ेगी।'

‘इन्तज़ार का भी अपना ही मज़ा है। कहो तो मैं कुछ हेल्प करूँ।'

रानी ने मुस्कराकर कहा — ‘आप बैठकर इन्तज़ार का मज़ा लें।'

नाश्ता करते हुए आलोक ने कहा — ‘विनय मेरे पास आया था। हमारे सम्बन्धों के बारे में पूछ रहा था और तुम्हारे भविष्य को लेकर चिंतित था।'

‘आपने क्या कहा?'

आलोक ने गम्भीरता ओढ़े हुए रानी की सहनशीलता व धैर्य की परीक्षा लेने के अन्दाज़ में कहा — ‘मैंने कहा, रमेश जी और रानी के तलाक से मेरा क्या लेना—देना है! तलाक के बाद रानी क्या करती है, मैं क्या जानूँ?'

रानी की प्रतिक्रिया देखने के लिये आलोक रुका और उसकी ओर ताकने लगा। रानी समझ गयी कि आलोक उसे बना रहा है। उसने भी शान्त—चित्त से कहा — ‘यह आपने बहुत अच्छा किया। कौन तलाक ले रहा है, आगे वे कैसे रहेंगे, इस तरह के पचड़े में आपको पड़ने की जरूरत भी क्या है? रानी आपकी होती ही कौन है?'

आलोक ने तंज कसते हुए कहा — ‘ऐसी बात है तो पहली ही रात अकेले बितानी पड़ी और भयां बोल गई!'

‘वो तो एक बहाना था आपसे मिलने का, वरना आपने तो खोज—खबर भी नहीं लेनी थी! आखिर, रानी आपकी होती ही कौन है?'

‘बहुत हो गई चुहलबाज़ीे। अब मेरी एक बात दिल में बिठा लो कि आज के बाद अपने को इस सब के लिये दोषी नहीं मानोगी। मैं इसमें किसी भी पक्ष का दोष नहीं देखता। नियति को यही स्वीकार था। यह होना ही था। अब बहादुरी से कोर्ट का निर्णय आने तक प्रतीक्षा करो। ‘गम न करो दिन जुदाई के बहुत हैं कम'। जब तिथि तय हो जाती है तो दिन बीतते पता ही नहीं चलता। वैसे भी कहते हैं कि समय और वियोग प्रेम प्रगाढ़ करने के लिये खाद और पानी का काम करते हैं।'

‘तिथि तय होने के बावजूद प्रतीक्षा की घड़ियाँ बहुत लम्बी लगती हैं। लगता है, जैसे समय बीत ही नहीं रहा।'

‘रानी, अब जसवन्ती आने वाली है। आओ ड्रार्इंगरूम में बैठते हैं।'

और वे लॉबी से उठकर ड्रार्इंग—रूम में आ गये। ड्रार्इंग—रूम में आते ही रानी की दृष्टि दीवार पर टँगे एक पत्रनुमा पोस्टर पर पड़ी, जिसके ऊपर बाईं ओर मोटे—मोटे अक्षरों में ‘धन्यवाद' तथा नीचे प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का चित्र छपा था। रानी ने पूछा — ‘किस बात के लिये मोदी साहब धन्यवाद कर रहे हैं?'

‘प्रधानमन्त्री जी ने मार्च 2015 में देशवासियों से रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी छोड़ने की अपील की थी। उन्होंने संविधान में प्रदत्त अधिकारों के साथ देशवासियों को उनके कर्त्तव्यों की भी याद दिलाई थी। उनकी अपील पर अमल करते हुए मैंने गैस सिलेंडर पर मिलने वाली सब्सिडी छोड़ी थी। सरकार जन—कल्याण हेतु कुछ विशेष परिस्थितियों में सब्सिडी देती है। जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं, यदि वे भी इस तरह की सब्सिडी ले रहे हैं तो प्रकारान्तर से वे गरीबों को दी जाने वाली सहायता में ही सेंध लगाते हैं। एक अच्छी षुरुआत क्या नहीं कर सकती? अब तक एक करोड़ से अधिक परिवार रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी छोड़ चुके हैं और इससे बचे पैसे से प्रधानमन्त्री जी ने तीन सालों में पाँच करोड़ गरीब परिवारों, जो आज भी मिट्टी के चूल्हे में लकड़ी जलाकर खाना बनाते हैं, को धुएँ से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया है। अब तक दो करोड़ गरीब परिवारों को तो फ्री गैस कनैक्शन दिये भी जा चुके हैं।'

‘बड़ा सही कह रहे हैं आप, कि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग सब्सिडी लेकर गरीबों के हक को ही छीनते हैं।'

थोड़ी देर बाद जसवन्ती आ गई। आलोक के साथ एक अपरिचित महिला को बैठे देखकर उसने दोनों को नमस्ते की। फिर आलोक की ओर देखते हुए पूछा — ‘साब जी, आज क्या बनाऊँ?'

‘जसवन्ती, नाश्ता तो हमने कर लिया है। आज तुम कुछ ना बनाओ, केवल झाडू—पोंछा ही कर लो। दोपहर के लिये खाना मत बनाना, वह हम खुद देख लेंगे।'

जसवन्ती मन में सोचने लगी कि इस महिला को पहले कभी देखा नहीं, किन्तु साब की खास परिचित ही लगती है, जो खाना भी उसी से बनवाने की कह रहे हैं। दिमाग पर ज्यादा बोझ डाले बिना वह अपने काम में लग गई। उसके जाने के बाद आलोक ने रानी से कहा — ‘देखो रानी, तुमने दोपहर का खाना बाहर कहीं खाने की बात कही थी। मेरा विचार है कि दोपहर का खाना तो हम घर पर ही बना लें या ‘तन्दूर' से मँगवा लेंगे, क्योंकि दोपहर में गर्मी बहुत होगी। शाम को काली माता के दर्शन करेंगे, बारादरी में घूमेंगे और रात का खाना कहीं भी खा लेंगे।'

रानी ने चहक कर कहा — ‘इसका मतलब यह हुआ कि जनाब रात को भी मुझे अपने घर नहीं जाने देंगे!'

आलोक ने भी उसी के अन्दाज़ में कहा — ‘उस फ्लैट को तुम अपना घर कहती हो! दिल पर हाथ रखकर एक बार फिर से कहना।'

आलोक की टिप्पणी पर अभिभूत होते हुए रानी बोली — ‘ओह आलोक जी! कितना प्यार करते हो! मैं तो बस यही कहूँगी कि —

तुम ही हो दिल में, तुम ही हो मेरी निगाहों में

ना और आएगा अब कोई मेरी राहों में

करूँ ना आरजू मरने के बाद जत की

अगर ये ज़िन्दगी गुज़रे तुम्हारी बाँहों में।'

***