Zee-Mail Express - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

जी-मेल एक्सप्रेस - 13

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

13. चुंबकीय आकर्षण

कमाल है, इतनी सारी मस्ती के बाद भी क्वीना का रिजल्ट प्रभावित नहीं हुआ था। निकिता ने भी अपनी पुरानी परसेंटेज बनाए रखी थी जबकि समीर एक पेपर में पास नहीं हो पाया था। रिजल्ट के बाद ये लोग वी पी मॉल गए थे। समीर साथ होकर भी साथ नहीं था। वह उखड़ा-उखड़ा ही रहा।

क्वीना लिखती है कि वे लोग कितनी मस्ती किया करते थे, किसी भी ट्रक को हाथ के इशारे से रोक देना और ऊपर जा बैठना, फिर सबका मिलकर कोरस गाना, शोर मचाना... ये शरारतें इस बार अनुपस्थित रहीं बल्कि समीर के कारण सबके बीच एक तरह की असहजता बनी रही। एक तो उसका रिजल्ट भी संतोषप्रद नहीं था, दूसरे निकिता के साथ से वह कॉन्शियस हो रहा था।

बाद में क्वीना ने निकिता से इस बारे में बात की थी मगर निकिता बिलकुल सामान्य थी।

‘‘उसने एक प्रस्ताव रखा जिसे मैंने मना कर दिया, इसमें इतना विचलित होने की क्या बात है?’’ उसका कहना था, ‘‘मेरे मानने, न मानने का अधिकार मेरे पास सुरक्षित है। इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।’’ ऐसा कहकर निकिता ने क्वीना को भी उसके हद की पहचान करा दी।

क्वीना खामोश हो गई। क्वीना की खामोशी में कई सवाल थे, संबंधों की गहराई और अधिकारों को लेकर मगर निकिता ने किसी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया।

निकिता थोड़ी अजीब तो है, कुछ हद तक रूखी भी है। पता नहीं वह इन कोमल अहसासों के प्रति इतनी कठोर कैसे रह लेती है?

चरित के जाने के बाद से पूर्णिमा ने गीतिका को मेरी सहायता के लिए लगा दिया है। पूर्णिमा का कहना है कि मुझे अपने जूनियर्स से काम लेना भी आना चाहिए और गीतिका से काम लेकर मैं यह सिद्ध कर पाऊंगा। लोगों की धारणा है कि गीतिका काम के प्रति जरा भी जिम्मेदार नहीं। पता नहीं, उसे काम आता नहीं या वह सीखना नहीं चाहती। मगर, उससे काम ले पाना टेढ़ी खीर है। मजे की बात यह है कि वह न तो किसी काम को मना करती है, न ही उसमें कोई कठिनाई बताती है, बस काम लेकर रख लेती है। काम में उसकी कोई दिलचस्पी है ही नहीं, उसका सारा ध्यान तो सोनिया के साथ रणनीतियां बनाने में होता है। यहां यही दिमाग खूब काम करता है, छोटी से छोटी बात पर नजर रखता है और विश्लेषण करता है। पूर्णिमा तो उसे मुझे सहायक के तौर पर देकर मुक्त हो गई है, मगर मेरे लिए मुसीबत हो गई। मुझे लगता है कि काम कराने में अधिक मेहनत लगती है, बनिस्पत खुद कर लेने के। फिर भी, कोशिश कर रहा हूं, मैंने उसे दो फाइलें दी हैं।

‘‘खाली समय में इन्हें पढ़ना और एक पेपर पर नोट करना कि पिछले दो वर्षों में हम कितने लोगों को, कितने तरह की ट्रेनिंग करा चुके हैं।’’

मैंने उसे खाका भी खींचकर दे दिया-- ट्रेनिंग की तारीख, ट्रेनिंग का विषय, कुल प्रतिभागी, फिर दो सब हेडिंग, सामान्य जाति के प्रतिभागी, आरक्षित जाति के प्रतिभागी।

हो सकता है, कुछ सीख ही जाए। या क्या पता, मैं ही सीख जाऊं कि कैसे आज के बच्चों से काम लिया जाता है।

देख रहा हूं कि चरित हर दूसरे दिन दफ्तर में आया होता है। वह कुछ देर पूर्णिमा के कमरे में बैठता है, फिर पूर्णिमा के साथ ही बाहर निकल जाता है। इस दौरान सोनिया भी ज्यादातर वहीं होती है। यानी मेरा अंदाजा सही था। मगर लोगों की निगाह पूर्णिमा की तरफ उठ रही है। उनका मानना है कि नौकरी का झांसा देकर पूर्णिमा ही इसे अपने जाल में फंसा रही है। सिंगल वूमन होने के कारण कोई कुछ भी कह सकता है उसके बारे में...

लंच टाइम हो गया है, पूर्णिमा चरित के साथ कहीं बाहर गई है।

सोनिया और गीतिका हॉल में बैठे हैं।

‘‘ये चरित का क्या सीन है?’’ गीतिका सोनिया से पूछ रही है।

यानी गीतिका भी सोनिया का मन पढ़ चुकी है और शायद इसीलिए सोनिया को पूर्णिमा और चरित के बारे में सतर्क कर रही है।

सोनिया ने एक गहरी सांस छोड़ी, ‘‘कुछ नहीं, अपने सपने पूरे करने के लिए हर कोई साधन जुटाता है...’’

यानी सोनिया के मुताबिक वह सचमुच अपनी नौकरी की खातिर पूर्णिमा के चक्कर काट रहा है।

‘‘मिस्टर त्रिपाठी, वर्कशॉप की फाइल लेकर आइएगा।’’ पूर्णिमा बाहर से लौट आई थी।

निगाह उठाकर देखा, पूर्णिमा की आंखों में एक अलग-सी चमक थी।

क्या सचमुच यह चमक चरित के कारण है?

छिः, मैं भी क्या-क्या सोचने लगा!

मैं वर्कशॉप की फाइल लेकर पूर्णिमा के कैबिन में चला गया।

पूर्णिमा के कैबिन की खिड़की खुली है। बाहर से आती हवा में उसकी साड़ी का पल्ला अठखेलियां कर रहा है। लहराते पल्ले को वह बार-बार कंधे पर समेट रही है... पारदर्शी साड़ी के भीतर से दिखाई पड़ता ‘लो नेक’ ब्लाउज और चंदन वन का सौंदर्य... मन हिरण को खुला आमंत्रण दे रहा है...

धक... धक... धक... धक...

अपनी धड़कन को एक खास लय में महसूस कर रहा हूं। पता नहीं, उसने क्या-क्या कहा और मैंने क्या-क्या नोट किया, पर मैं जल्दी से बाहर निकल आया।

कुछ तो है पूर्णिमा के भीतर जो किसी को भी, बड़ी तेजी से उसकी ओर खींचता है। वह मिसेज विश्वास की तरह चंचल या सोनिया की तरह उच्छृंखल नहीं है... वह इन सबसे बहुत अलग है। वह लहराकर, मटक कर पुरुषों का ध्यान अपनी ओर खींचने का प्रयास नहीं करती, किंतु फिर भी, कुछ तो ऐसा है उसमें जो पुरुषों को चुंबकीय ताकत से उसकी ओर आकर्षित करता है।

छुट्टी का समय हो रहा है, मैंने जल्दी से फाइलें समेट लीं।

‘‘आज थोड़ा जल्दी आ जाते तो क्या हो जाता?’’ घर पहुंचते ही विनीता ने स्वागत किया।

चलो उलाहना ही सही, पर इसे इंतजार है मेरा, मैं इतना भी अनपेक्षित नहीं। मगर ये उलाहना क्यों दिया गया, ‘आज’ में कोई खास बात है क्या?

याद करने की कोशिश करता हूं... विनीता का जन्मदिन या हमारी शादी की सालगिरह?

‘‘आज शादी में नहीं जाना?’’

विनीता इस तरह याद दिलाती है जैसे मेरा यह सब भूल जाना विनीता के लिए बहुत अपेक्षित हो। खैर, मुझे कौन-सा पार्लर जाना है कि समय लगेगा, कुल पंद्रह-बीस मिनट में तैयार हो जाता हूं। शादी का कार्ड टेबल पर पड़ा है। पलट कर देखता हूं, किसी फार्म हाउस में शादी है। आजकल ऐसी-ऐसी जगह शादियां होने लगी हैं जहां पहुंचने तक अपनी शादी याद आ जाए।

‘‘खोल लिया दफ्तर?’’

मुझे कंप्यूटर खोलते देख विनीता की त्योरियां चढ़ गई हैं, मगर कंप्यूटर को विनीता का कोई खौफ नहीं। वह पूरे इतमीनान के साथ रूट मैप प्रगट कर रहा है। विनीता के चेहरे की लाल धारियां धीरे-धीरे नक्शे पर उभरने लगी हैं-- रिंग रोड, एम्स, महरौली रोड, आया नगर, गुड़गांव रोड, फिर फार्म हाउस का लंबा सिलसिला... दिमाग में नक्शा फिट कर उठा तो देखा, विनीता अच्छी-भली पहनी साड़ी के पिन्स खोलने में लगी है।

‘‘क्या हुआ? बढ़िया तो बंधी है।’’

‘‘मुझे नहीं जाना कहीं।’’

विनीता का सब्र कितनी जल्दी चुक जाता है।

‘‘क्यों? शादी किसी और दिन है क्या?’’

‘‘.......’’ विनीता आगबबूला है।

‘‘तुम समझती क्यों नहीं, विनीता,’’ मैंने अनुनय भरे स्वर में कहा, ‘‘वेन्यू कहां है, जान लेना जरूरी था, वरना रास्ता भटक जाते।’’

‘‘किसी से पूछ भी सकते हैं रास्ते में।’’

शुक्र है, बोली तो सही, मेरा हौसला बढ़ा, ‘‘मुझे लोगों पर एतबार नहीं और वो भी जब सजी-धजी बीवी को लेकर जा रहा हूं।’’ मैं उसके हाथ में पिन थमाते हुए धीरे-से गुनगुनाने लगा,

‘‘मैं कैसे खुदा हाफिज कह दूं, मुझको तो किसी का यकीन नहीं

निकला न करो, तुम सजधज के, भगवान की नीयत ठीक नहीं’’

मैं उसकी मुस्कराहट भांप न जाऊं, इसलिए वह जल्दी से दूसरी तरफ घूम गई।

उसकी यह लज्जा उसे आज भी दुल्हन बना देती है। मैंने धीरे से उसकी कमर में बांहें डाल दीं।

‘‘अब ये कोई समय हुआ इश्क फरमाने का?’’ आवाज में हलकी-सी झिड़की है, ‘‘जल्दी करो ।’’

‘‘क्या?’’ मैंने शरारत से पूछा।

‘‘खुद को तैयार।’’ उसने धीरे से खुद को मेरे पाश से मुक्त किया। मेरी शरारत से उसके चेहरे पर हलकी-सी मुस्कान आ गई।

‘‘अभिषेक तैयार है?’’ मैं जल्दी से वह सूट पहनने लगा जो विनीता ने इस मौके के लिए निकाल रखा था।

‘‘वो नहीं जाना चाहता।’’

‘‘तो राजी करो न।’’

‘‘आजकल के लड़के कहां पसंद करते हैं ऐसी पार्टियां।’’

‘‘मगर हमारा बेटा आजकल का लड़का तो है नहीं। क्या पता उसे वहां कोई लड़की ही पसंद आ जाए और हमें उसे साइकाइट्रिस्ट के पास ले जाने की जरूरत ही न पड़े। हमारे जमाने में तो ब्याह-शादियों में ही लड़के-लड़कियां पसंद कर लिए जाते थे। अभिषेक भी तो मेरे जमाने का है... पापाज सन।’’

‘‘तो तुम्हीं संभालो न अपने जमाने को।’’ मेरे तर्क से विनीता के मन में कुछ आशा बंधी।

मुझे बहुत अनुनय नहीं करनी पड़ी, मेरे एकाध बार कहने से ही अभिषेक तैयार हो गया। विनीता आश्चर्य और खुशी से मेरी कमर से लिपट गई।

‘‘अरे, ये कोई समय हुआ, इश्क फरमाने का?’’ मैं हलकी शरारत से कहने लगा, ‘‘जल्दी करो।’’

वह मुस्कराने लगी।

‘‘तुमने पूछा नहीं, ‘क्या’?’’

वह मुस्कराती रही। मुस्कराती हुई वह कितनी भली लगती है।

गाड़ी चलाते हुए भी मैं उसे अपने बहुत करीब महसूस करता रहा। वह बीच-बीच में हलकी मुस्कराहट और तिरछी नजर से मेरी ओर देखती रही। मैं महसूस करता हूं कि इस उम्र में भी उसकी नजर में ऐसी कशिश और चेहरे पर वह लावण्य है, जो व्यक्ति को बांधे रखता है, इधर-उधर भटकने नहीं देता।

‘‘सोने जैसा रंग है तेरा, चांदी जैसे बाल......’’ मैं गुनगुनाने लगा।

‘‘बालों को कलर करने का भी समय नहीं मिला...’’ वह अपने आप में बड़बड़ाई।

मैं समझ गया, मैं गलत गा रहा था।

‘‘चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल...’’ मैं सुधारकर गाने लगा।

वह खुश दिख रही है, सहज लग रही है। मैं भी अच्छा महसूस कर रहा हूं। सच बात है, पत्नी का साथ-सहयोग मिले तो पुरुष में कितनी ऊर्जा भर जाती है।

क्वीना ने बहुत संक्षेप में लिखा है कि वह इस बार भी टॉपर रही है।

अगले पन्नों में पढ़ाई के टेक्निकल डीटेल्स हैं, शायद उसके प्रॉजेक्ट संबंधी विवरण।

ये सब मेरी समझ और रुचि से परे हैं। मैं पन्ने पलटता जा रहा हूं।

अचानक एक लंबी तहरीर देखकर ठहर जाता हूं...

कभी न भूलने वाला एक दिन, शीर्षक से क्वीना ने लिखा है कि इस दिन ने उसे जिंदगी को देखने की एक अलग दृष्टि दी।

वह समीर का जन्मदिन था। सेवन-स्टार ग्रुप जानता था कि समीर अपना जन्मदिन मनाने में कतई उत्सुक नहीं होगा, इसलिए एक सोची-समझी योजना के तहत किसी ने भी उसे ‘विश’ नहीं किया, जैसे किसी को इसका ध्यान ही न हो कि आज उसका जन्मदिन है।

क्वीना क्लास के बाद नई फिल्म देखने की जिद ले बैठी। जब सभी चलने लगे तो समीर को भी चलना ही पड़ा। कॉमेडी फिल्म थी, मजा आया। वैसे, जब सारा दल साथ-साथ कोई फिल्म देखता तो मूवी सीरियस हो या डरावनी, उसका जो कार्टून खींचा जाता कि लोग हंस-हंसकर दोहरे हो जाते। खैर, काफी समय बाद आज ये लोग फिर से साथ थे। खामोशी टूटी थी और वे हंस-बोल रहे थे। इंटरवल के दौरान ही समीर को भरपूर उछालें दी गईं और बर्थ डे विश किया गया। समीर के पास बचने का कोई रास्ता नहीं था। उसकी मर्जी के बगैर जन्मदिन मनाया गया, हंसी-ठहाके गूंजे, पिज्जा-बर्गर खाया गया।

रात घिरने लगी थी। सुहाना मौसम था, न सर्द न गर्म।

वीरान होती सड़कों पर सात सितारे टिमटिमा रहे थे। जरा-जरा-सी बात पर खिलखिलाकर हंस पड़ना, जोर-जोर से गाने गाना।

(अगले अंक में जारी....)