Vyatha Katha books and stories free download online pdf in Hindi

व्यथा कथा

जब व्यथा की अति हो जाती है तो शब्द खुदबखुद लोप हो जाते हैं। आप अचंभित, शॉकड हो जायज़ एवं सार्थक शब्दों को ढूँढने..तलाशने की कवायद में निशब्द हो खड़े के खड़े रह जाते हैं। ज़रूरत के वक्त ना माँ..ना बाप...ना भाई..ना बहन..ना बीवी-बच्चे, कोई भी आपके साथ..आपको संबल देने को..सहारा देने को नहीं खड़ा होता। सब कुछ आपको खुद ही अपने दम पर भुक्ततना..झेलना एवं यहाँ तक कि अपनी ही नज़रों में खुद के द्वारा प्रताड़ित होना होता है।

"क्या कहा?...दोस्त?"

हुंह!...दोस्त...ये तथाकथित दोस्त सबसे पहले कन्नी काट..किनारा कर लेने की जुगत ढूँढने लगते हैं। आप एक तरह से सब कुछ होते हुए समाज द्वारा निष्कासित, निर्वासित कर दिए जाते हैं। जब..जिस वक्त आपको नयी ऊर्जा..नए संबल, नयी हिम्मत की आवश्यकता होती है, तब...हाँ!...तब ना आपकी बीवी..ना आपके बच्चे...ना एक्स...ना प्रेसेंट..ना वुड बी...ना कुड बी, कोई भी आपके साथ दुख की इस घड़ी में..अवसाद के मौसम में ढांढस बंधाने के लिए उपलब्ध नहीं होता। और तो और हमारे इन तथाकथित जनता के सेवकों, एम.एल.ए , सांसद तथा कारपोरेटर वगैरह के कान में भी जूं तक नहीं रेंगती। समूचा पक्ष-विपक्ष मानों एकसाथ मिल कर हमारे खिलाफ साजिश सी रचने को ख़ंम ठोंकने लगता है..दण्ड पेलने लगता है।

हाँ!...अगर चाहता तो मैं इस सबसे..अपने कहे से आसानी से मुकर भी सकता है। चाहता तो औरों की देखी देखी मैं भी उन्हें ठेंगा दिखा अपना रस्ता आसानी से खुद..अपने बल बूते पर नाप सकता था लेकिन नहीं..ऐसा करना मेरे लाख चाहने पर भी मेरे ज़मीर ने गवारा नहीं किया और अब..अब तो मेरा हाल..बेहाल हो आपके सामने ही है। बेशक..मैं क्षत्रिय ना सही लेकिन ज़बान तो मगर फिर भी ज़बान ही होती है। एक बार कमिटमेंट कर दी तो कर दी। उसके बाद तो मैं अपनी बीवी के अलावा किसी की नहीं सुनता।

"क्या कहा? सुबह का भूला समझ कर में शाम तक घर लौट आऊँ?"

मगर कैसे लौट आऊँ? अगर एक बार या फिर दो बार मेरे साथ ऐसा हुआ होता तो चलो..कोई बात भी थी, मनमसोस कर में ये सब झेल जाता मगर ये सब तो आए दिन की बात हो गयी है। महीने दो महीने में कोई ना कोई खलीफा..अपने पूरे साजोसामान के साथ ऐसा टकरा ही जाता है कि नौबत यहाँ तक पहुंच जाती है कि में सब कुछ छोड़ चाड के सन्यास तक लेने की भी सोचने लगता हूँ लेकिन फिर आसाराम या फिर राम रहीम जैसों का हश्र देख, मुँह नीचे कर चुपचाप चुप्पी साध लेता हूँ। एक बार नहीं ऐसा मेरे साथ कई कई बार हो चुका है।

हाँ!...ऐसा तब तब होता है जब कोई वाहियात.. एकदम बकवास सी किताब आपकी मर्ज़ी से आपके पल्ले पड़ती है। उसे आपने इसलिए पढ़ना है कि आप उस पर अपना पैसा खर्च कर चुके हैं। पढ़नी है कि आप अपने मति भ्रम के चक्कर में उसे पढ़ने के लिए सहर्ष अपनी हामी भर चुके हैं। कोई कोई किताब आपके सब्र, आपकी हिम्मत, आपकी सहनशीलता का इम्तिहान लेती है और इस बार मजबूरन मुझे हार मान अपनी व्यथा मुझे आप सबसे शेयर करनी पड़ रही है कि बेशक आप देर से आएँ मगर दुरस्त तो आएँ ।