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साक्षात्कार - 2 - अंतिम भाग

साक्षात्कार

नीलम कुलश्रेष्ठ

(2)

उसे अपनी एक मित्र सिन्धु से जानकारी है जो इनके यहाँ काम कर चुकी है कि हर पाँचवें छठे महीने इनका विदेश टूर लगता रहता है. हर बात को वे विदेशी नज़रिये से तौलते हैं. वह सही कह रही थी जोशी जी कह उठते हैं, "विदेशों में तो आप किसी लेडी से कह सकते हैं कि आप सुंदर हैं. आपकी ड्रेस सुंदर है. यहा तो किसी लेडी से कुछ कह ही नहीं सकते. "

वह मन ही मन खुश होती है कि वह् सुंदर नहीं है. वह जब इंटर्व्यू लेने निकलती है तो बाल कसकर बाँध लेती है. मांसपेशियो में हल्का तनाव लाकर रूखी सूखी महिला बनी रह्ती है जिससे सामने वाले की रूचि सिर्फ़ इंटर्व्यू देने में रहे. अल्बत्त्ता आज उसने साड़ी ज़रूर सुंदर पहन रक्खी है इससे पहले के वह् अपनी रॉ में उसकी साड़ी पर कुछ कमेंट करे वह चतुराई से उन्हें बचपन में ले जाती है, "तो आप विदेशो की कलात्मक वस्तुओं का अध्ययन करते रहे होंगे, ये शौक क्या आपको बचपन से था ?"

"ऑफ़कोर्स, बचपन उनकी मन की परतों को चीरता जैसे साकार होता जा रहा है ---बचपन के गांव के खंडहरो में मिली मिट्‍टी की प्रतिमाओ को इकठ्ठा करने का शौक, युवा होने तक लोककला को जानने का शौक, अपनी कंस्ट्रक्शन कंपनी के परवान चढ़ते ही संग्रहालय बनवाने का जुनून, फिर जंगल मे करोड़ों रुपया बहाने का जुनून. वह् अपनी डायरी में लिखती जा रही है अपने ही इज़ाद किए अंग्रे़जी हिन्दी शॉर्ट हैंड में

इस क्रम को तोड़ती है उनके पी आर ओ की तुर्श आवाज़. उनके चेहरे पर आश्चर्य व गुस्सा दोनों है, " इट्स टू मच मैडम !`चालीस मिनट हो चुके हैं. "

" डोंट माइंड. "श्री जोशी सचमुच इस विशाल कंपनी के प्रमुख की जगह ऎसे व्यक्ति बन चुके हैं जिन्हें लोककला से जुनून की हद तक प्यार है. उन्होंने अपार पैसा बहाकर कलात्मक संतुष्टि पाई है. देखने वालों की आत्मा को एक काव्यात्मक अनुभूति दी है.

वह कहती है, "मै अपने परिवार के साथ वह् संग्रहालय देखना चाहती हूँ. एक भतीजा आदिवासियों पर रिसर्च कर रहा है, वह भी साथ आयेगा. `

वे बुरा सा मुँह बनाते हैं, `इतने लोगों के साथ वहां जाने की व्यवस्था करना मुश्किल है. आप चाहे तो ऑफ़िस से घर जाते समय मैं आपको ले चल सकता हूँ. "

पी आर ओ उसके चेहरे के भाव प ढ़कर कहते हैं, "सर की पी ए भी साथ होंगी फिर संग्रहालय के पास सर की फ़ैमिली भी रह्ती है. "

इतने संरक्षण का आश्वासन भी उसके अपने प्रदेश के उसके रेशे रेशे में गूंथें` भैयापन` को आश्वस्त नहीं कर पा रहा. वह पेन बंद करते हुए गोल मोल उत्तर देती उठ लेती है, "मैं परसों आ सकती हूँ. मेरे साथ मेरे हज़बेंड भी होंगे, वे भी म्युज़ियम देखना चाह रहे हैं. "

पी आर ओ कहते हैं, "कल आप फ़ोन करके परसों का प्रोग्राम कन्फ़र्म कर लीजिये. "

घर पर उस दिन शाम की चाय पर डाइनिंग टेबल पर वातावरण बोझिल है. कल की पति से हुई आम पति पत्‍‌नी जैसी झड़प उन दोनों के चेहरों, प्यालो की खनक, चाय की गर्म भाप पर फैली हुई है.

वह् हल्की सी रोशनी की लकीर पकड़ना चाहती है, "आज मैंने सिन्धु के बॉस के प्रसिद्ध संग्रहालय के लिए उनका इंटर्व्यू लिया था. "

"तो ?तो मैं क्या करु ?"काटती सी आवाज़ से कहकर वे अपने मुँह के सामने अखबार फैला लेते हैं. फिर वह सोचती है आवाज़ तो अखबार के पार जां सकती है, "परसों उसे देखने जाना तय हुआ है, आप साथ चलेंगे न ?"

मैं क्या फ़ालतू बैठा हूँ ? परसों हमारे ऑफ़िस में इंस्पेक्शन है फिर अगले हफ्ते हम लोग बाहर जा रहे हैं. मेरी छुट्टी फालतू थोड़े ही है. "

" वैसे तो वह कह रहे थे. साथ में उनकी पी. ए. भी जायेगी. वहा पास में उनका परिवार रहता है. "

"तो फिर चली जाओ. ही इज़ अ रेपुटेटेड एंड डिग्नीफ़ाईड पर्सन. "वे अपने चेहरे के सामने से अखबार हटाकर उसे देखते हैं, आँखें जैसे कह रही हैं अब तुम्हारी उम्र कौन सी डरने की रही है ?

वह किसी नई जगह उनके बिना नहीं जाती. वह तय नहीं कर पा रही कि वह् सचमुच उस छोटी सी झड़प का बदला ले रहे हैं या सच ही व्यस्त हैं.

कॉलोनी में फ़ोन के नए केबल डाले जा रहे हैं. फ़ोन को भी आज ही डेड होना था. कॉलोनी के अपने विभाग एक्सचेंज के जान पहचान के देसाई की फ़ोन पर आवाज़ सुनकर वह् अनुरोध करती है, "प्लीज़ !पी एंड टी के इस फ़ोन नंबर पर बात करवा दीजिये. "

देसाई नंबर लगाकर दे देते हैं. उधार फ़ोन पर श्री जोशी जी की भारी भरकम आवाज़ आती है", हलो !"

" सर म्युज़ियम देखने की कल जाने की बात तय हुई थी. "

"ओ यस 1लेकिन आज मेरी गाड़ी बिगड़ गई है. बाद में मेरे पी आर ओ से कॉन्टेक्ट कर लीजिये. "

फ़ोन रखने से पहले उसे लगता है उसकी कॉलोनी के देसाई जान बूझकर खांस रहे हैं. अरे ! वह् ये क्या बेवकूफी कर बैठी ? देसाई का उसका किसी की गाड़ी मे उसके साथ जाना शब्द ही समझ आयें होंगे इसके आगे वह और उनकी अक्ल कुछ सोच ही नहीं सकते.

वह अंदर से बुरी तरह झुंझला व खिसिया उठी है. उस संग्रहालय की सौंदर्यानुभूति जैसे एक एक रोम को कहीं गहरे आकर्षित कर् रही है, खींच रही है. सारी दुनिया में मशहूर ये उसकी कलम की पहुँच से ही दूर होता जा रहा है. उसे भी पता है जब तक वह उस पर लेख नहीं लिख लेगी तब तक ऎसे ही तड़पती रहेगी. सब कुछ आस पास होते हुए भी उसकी रूह बेचैन करवट बदलती रहेगी.

इधर पति भाव खा रहे हैं, उधर पति साथ में आयेंगे ये बात सुनकर श्री जोशी जी की गाड़ी खराब हो गई है. अब वह क्या करे?कैसे वह लेख लिखे ?परिस्थितियाँ काँटों में बदली जां रही हैं. फ़ोन पर जोशी के पी. आर ओ. पर उनका गुस्सा फटा पड़ता है. वे कहते हैं, "हम लोग अगले हफ्ते गाड़ी अरेज कर सकेंगे या फिर आप लोग अपनी गाड़ी अरेज कर लीजिये. . "

"वह् फ़ोन पर कह्ती है, "मैंने आपको बताया तो था कि अगले हफ्ते मैं बाहर जा रही हूँ और मेटर देर से देने पर कभी कभी एसाइनमेंट कैंसिल भी हो जाता है. मैं ये जानकारी इंडिया की टॉप मोस्ट मेंगज़ीन के लिए चाह रही हूँ. आप लोग लोकल रिपोर्टर्स को बहुत को- ऑपरेट करतें हैं. "

"वो तो ठीक है मैडम--. "

"आप इंफ़ोर्मेशन विभाग में मेरे काम व मेरी रैपुटेशन के विषय में पता कर लीजिये. "

"मैडम ! `गुस्सा मत होइये. सर से बात करके मैं आपके जाने की व्यवस्था करता हूँ. "

"आप सीधे ही उनसे मेरी बात करवा दीजिये. `

कुछ क्षणों तक फ़ोन पर संगीत बजता रहता है. वह् गुस्सा दबाकर, आवाज़ को भरसक मुलायम बनाकर तड़ी दिखाती है, "सर !मैं शहर से बाहर जा रही हूँ. अभी मेरा संग्रहालय देखने सम्भव नहीं है. क्या आपके ऑफ़िस से उसके फ़ोटोज़ मिल सकते हैं ?"

"ओ शयोर !प्लीज़! कॉन्टेक्ट टु माई पी. ए. ". .

दूसरे दिन वह् उनके ऑफ़िस में फ़ोटोग्राफ्स देख रही है. पी आर ओ महोदय उसकी क्षमता बार बार आंक रहे हैं. , "ये दो फ़ोटोज़ मेंग्ज़ीन के लिये बहुत अच्छे रहेंगे. "

"बिलकुल भी नहीं ये ओवर एक्स्पोज़्द हैं. "

"ये रात में लिया गया फ़ोटो बहुत सुंदर है. "

"ये भी नहीं, इसमें लोक कला की व इमारत की रह्स्यात्मकता बिजली के बहुत से बल्बों की रोशनी में खो सी गई है. . "

वह् अपनी पसंद के फ़ोटोज़ लेकर उठती है. खैर है, उनके चेहरे पर तमाम परीक्षा लेने के बाद एक संतुष्टि है कि फ़ोटोज़ सही हाथों में सोंपे गए है.

`अब वह् अपने कमरे के एक कोने में बैठकर संग्रहालय के बारे में परिपत्र पड़कर फ़ोटोज़ देखकर एक एक कोण का निरीक्षण करती है. नक्शे का अध्ययन करके संग्रहालय की तरफ़ जाने वाले कलात्मक रास्ते के बारे में छोटी छोटी जानकारी को ध्यान से पढ़, संगृहित वस्तुओं के बारे में जानकारी इक्कठ्ठी कर इस नायाब चीज के विषय पाए लेख अपने दिल-ओ -दिमाग को केंद्रित कर उसकी पूरी ताकत लगाकर लिखतीं है कि कहीं पाठकों को जरा सी भी आहत सुनाई ना दे जाए कि उसने संग्रहालय देखा ही नहीं है.

और वह् लेख प्रकाशित होता है संवेदनशील संपादक की एक राष्ट्रीय पत्रिका में. वह् प्रकाशित लेख देखकर हतप्रभ है. लेख व छाया में उसका नाम दे दिया गया है जबकि उसने कही नहीं लिखा था कि उसने ये फ़ोटोज़ क्लिक किए हैं. वह् समझ नहीं पाती कि ये गलती अनजाने हुई है या संपादक की उसके अपने शहर के लोगों के बीच बेईमान सिद्ध करने की कोशिश है. वह अपनी शिकायत संपादक को लिखती है कि वह अगले अंक में ये बात प्रकाशित करे कि भूलवश छायाकार के स्थान पर उसका नाम चला गया था, उत्तर नदारद है. दूसरी पत्रिका में इसी पर आधारित लेख का पारिश्रमिक मिलता है एक वर्ष बाद लगातार पत्र व्यवहार करने के बाद, पता नहीं क्यों ?

कॉलोनी में अकसर देसाई सामने पड़ जाते हैं जिन्होंने उसे एक्सचेंज से फ़ोन पर बात कारवाई थी. वह अपने मोटे फ्रेम के चश्मे से अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते उसे अपनी काली आंखों से घूरते हैं. उन्हें बरबस किसी के साथ गाड़ी में जाने की बात करना और उसका स्त्री होना याद आ जाता है. इन शब्दों को याद करके उनके चेहरे पर जो घृणास्पद विद्रूप उद्‍घाटित होता है उसे हर बार अपमानित करता है, बेहद अपमानित करता है. वह कुढ़ती है इस प्रदेश को खोजने के चक्कर में उस जैसी घरेलू स्त्री कैसी कैसी इमेज पाले चली जा रही है.

कभी कभी वह् सोचती है देसाई को बुलाकर. संग्रहालय संबन्धी अपने लेख को दिखाये, अपनी सफ़ाई दे लेकिन बिना बात क्यों दे अपनी सफ़ाई ? उसे बेहद चिढ़ होती है.

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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