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मधुरिमा - भाग (१)

चल राजू,जल्दी से खाना खाकर तैयार हो जा,रात को दस बजे हमारी ट्रेन है, मां ने मुझसे कहा____
मैंने कहा ठीक है मां और मैंने अपने कंचे,चंदा-पवआ खेलने वाली कौड़ी और अपनी गेंद मां को देते हुए कहा कि लो मां ये सब भी रख लेना।
मैं बहुत खुश था क्योंकि हम दीवाली की छुट्टियों में गांव जा रहे थे और मुझे अपने गांव जाना बहुत पसंद था।।
ये बात उस समय की है जब मेरी उम्र करीब नौ दस साल रहा हूंगा,अब तो ना वो बचपन रहा और ना वैसे खेल।।
हां तो मां ने मुझसे तैयार होने को कहा और मां फिर मेरी छोटी बहन को गोद में लेकर और भी सामान देखने लगी कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया।।
मैं बहुत ही खुश था, मेरी पढ़ाई की वजह से ही हमें पापा के साथ कस्बे में रहना होता था लेकिन मुझे तो गांव पसंद था और अब कुछ दिनों के लिए ही सही अपने गांव जा रहा था, पता है जब हमें गांव जाना होता था तो पापा पहले से ही दादा जी को चिट्ठी लिख देते थे कि हम आ रहे हैं और दादा जी सुबह पांच बजे बैलगाड़ी लेकर स्टेशन पर आ जाते थे क्योंकि स्टेशन से गांव पांच छः किलोमीटर दूर था और उस समय बसे भी ज्यादा नहीं चलती थी,इक्का दुक्का तांगे चलते थे तो वो लोग गांव की पक्की सड़क तक ही छोड़ देते थे,पक्की सड़क से अंदर गांव का कच्चा रास्ता भी दो तीन किलोमीटर का था और हम दो दो बच्चे और इतना सामान मां पापा परेशान हो जाते थे इसलिए दादा जी को पहले चिट्ठी लिखकर बता दिया जाता था कि हम फलां फलां दिन आ रहे हैं।।
तो हम रात को स्टेशन पहुंच गये,उस समय स्टेशन भी छोटे छोटे ही होते थे, प्लेटफार्म भी बहुत नीचे होते थे गाड़ी में चढ़ने पर परेशानी होती थी,हम गाड़ी में चढ़ गए,कोयले वाला इंजन हुआ करता था उस समय, वो भी काला काला,इंजन ने सीटी दी, गाड़ी चल पड़ी, हमें जगह भी मिल गई,उस समय रात को ज्यादा लोग सफर नहीं करते थे इसलिए, फिर मुझे नींद आ गई।‌
सुबह गाड़ी पहुंची तो अंधेरा था,हम सब उतरे मां ने मुझे शाल ओढ़ा दिया क्योंकि दीवाली के समय हल्की ठंड हो जाती थीं फिर हम स्टेशन के बाहर आए देखा तो दादा जी आ चुके थे,तब ज्यादा हर जगह बिजली नहीं हुआ करती थी, दादाजी अपनी लालटेन साथ लेकर आए थे,साथ में छोटे चाचा भी थे।।
गांव के लोगों ने कई तरह की बातें फैला रखी थी कि रात में गांव के कच्चे रास्ते पर बडे बड़े जिन्न मिलते हैं बहुत बड़े होते हैं वो, सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ों पर एक एक पैर रख लेते थे और लोगों को मारकर खा जाते थे और गांव वाला जो ऊंचा पहाड़ है उस पर भूतों की बारात निकलती है,जो भी देख लें वो जिंदा नहीं बचता।।
फिर हल्का हल्का उजाला होने पर हम निकल पड़े गांव की ओर बैलगाड़ी में, बहुत ही अच्छा लगता था,रास्ते भर बहुत सारे पुराने जमाने के घरों के खण्डहर मिलते थे,वो सब मुझे बहुत अच्छे लगते थे,रास्ते में मोर भी दिख जाते थे नाचते हुए, नीलकंठ और तोते भी बहुत हुआ करते थे उस समय और सबसे ज़्यादा उस समय गिद्ध हुआ करते थे हमारे गांव के रास्तों में गंदगी खाते हुए दिख जाते थे।।
रास्ते में चाचा तो पैदल ही चल रहे थे और मुझे झाड़ियों से छोटे छोटे वाले बेर तोड़ कर दे रहे थे, मैं खाता था रहा था, बहुत ही अच्छा लग रहा था, बैलगाड़ी में बैठकर।।
फिर हम गांव पहुंच गए और मेरी धमाचौकड़ी शुरू हो गई, सभी दोस्तों के घर हो आया, दोस्तों के साथ मिलकर मिट्टी के ट्रैक्टर बनाए और भी ना जाने कहां कहां घूमने गया।।
फिर दूसरे दिन सबने मिल कर कहा चलो खेतों में चलते हैं,चने का साग उग आया है, वहीं नहर के किनारे खेलेंगे, मैंने कहा ठीक है और हम सब खेतों की ओर निकल पड़े,हम ने वहां पहुंच कर खूब चने का साग खाया और हरी मटर के नए नए पौधों की मीठी मीठी कोंपले खाई, छोटे छोटे पोखर थे वहां, उनमें बेशरम के गुलाबी गुलाबी फूल फूले थे, बहुत मजा आ रहा था।
खेतों के उस तरफ बहुत बड़ा पहाड़ था जिस पर भूतों की बारात निकलती थी ऐसा गांव वाले कहते थे,मेरा कई बार वहां जाने का मन होता था लेकिन कोई ना कोई रोक देता था,उस दिन भी मैंने सबसे पहाड़ पर चलने के लिए कहा लेकिन सबने मना कर दिया,उस दिन मैं भी नहीं जा पाया लेकिन मैंने सोचा कि मैं अब अकेले वहां जाकर रहूंगा और देखूंगा कि आखिर वहां हैं क्या?
दूसरे दिन मैं अकेले ही खेतों की ओर निकल पड़ा और पहुंच गया पहाड़ के दूसरे छोर पर जहां मुझे नीचे से कोई भी नहीं देख सकता था,कई बार फिसला भी लेकिन पहुंच ही गया।।
वहां जाकर देखा कि एक छोटा सा मंदिर हैं नीम के पेड़ के नीचे और मंदिर से थोड़ी दूर एक छोटी सी झोपड़ी बनी है,अब मुझे बहुत जोर की प्यास लगी थी, वहां कहीं भी पानी नहीं दिख रहा था,मैं झोपड़ी के पास जैसे ही पहुंचा किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, मैंने पीछे मुड़कर देखा तो कोई सोलह सत्रह साल की लड़की घाघरा चोली पहने खड़ी थी, बहुत ही सुंदर और उसके माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर से पता चल रहा था कि वो शादीशुदा हैं, मैं उसे ऐसे अचानक देखकर चौंक गया।।
उसने कहा डरो नहीं, छोटे भइया मैं मधुरिमा!!
मैंने कहा मुझे प्यास लगी है!!
उसने कहा,ठहरो!! और वो झोपड़ी के अंदर गई और लोटे में पानी लेकर आई, मैंने एक सांस में सारा लोटा खाली कर दिया।।
वो मुस्कुराकर बोली,भूख भी लगी है
मैंने कहा हां__
और वो एक थाली में गुड़,रोटी और लोटे में छाछ ले आई मैंने वो खा लिया।।
थोड़ी देर में एक आदमी कंधे पर लकड़ियां लेकर आ पहुंचा__
वो बोली,ये मेरे पति...
उस आदमी ने कहा, मैं केशव उसकी उम्र भी अठारह उन्नीस साल ही रही होंगी___
मैंने कहा, ठीक है आज से तुम मेरी मधुरिमा दीदी और तुम मेरे केशव भइया, मैंने उन लोगों से थोड़ी देर बातें की फिर शाम होने को थी तो वो लोग बोले,राजू अब तुम घर जाओ,कल आना लेकिन किसी से ये मत बताना कि हम यहां रहते हैं,तुम्हारा जब भी मन करे तुम हमसे मिलने आ जाना।।
मैंने कहा ठीक है, मैं कल फिर आऊंगा और मै वहां से चला आया....
क्रमशः___
सरोज वर्मा___