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जी-मेल एक्सप्रेस - 19

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

19. ‘पैसिव पार्टनर’ नहीं, ‘एक्टिव प्लेयर’

‘‘मिस्टर त्रिपाठी!’’ पूर्णिमा कुछ हड़बड़ाई-सी सामने खड़ी थी। उसे मैडम से किसी अर्जेंट फाइल पर साइन लेने थे। उसे कोई विश्वसनीय व्यक्ति चाहिए था जो यह काम करा लाता। मैडम अपना फोन नहीं उठा रहीं, मगर वह जानती है कि इस वक्त मैडम कहां होंगी। मैं सीलबंद फाइल लिए गाड़ी में बैठ गया। ड्राइवर रास्ता जानता है, इसलिए मुझे अधिक चौकस रहने की जरूरत नहीं है। गाड़ी मेन रोड से भीतर की सड़क पर उतर आई है... अंदर गलियों-गलियों घूम रही है। खीज आती है मुझे खुद पर... क्या समझते हैं सब मुझे? खजुराहो घुमाने के लिए इन्हें धमेजा याद आता है, मगर यहां की गलियों में घूमने के लिए विश्वसनीय आदमी चाहिए।

खैर! ‘विश्वसनीय’ विशेषण से थोड़ी राहत मिली। गाड़ी रुक गई थी।

ड्राइवर ने सामने फ्लैट की ओर इशारा किया, ‘‘यही है।’’

फाइल संभाले मैं भीतर चला गया। बाहर से जो फ्लैट मामूली-सा दिखाई दे रहा था, भीतर से वह वैसा मामूली नहीं था। दीवारों पर शीशे लगे थे, दो ऊंची कुरसियां भी रखी थीं। कुछ पार्लर-सा लगा। दरबान ने मुझे भीतर चले जाने का इशारा किया। मैं अंदर वाली लॉबी में चला आया।

‘‘और जोर से करो... नो, नॉट लाइक दिस... रब प्रॉपरली...’’

लॉबी के साथ लगे कमरे से फुसफुसाती आवाजें आ रही थीं। महिला स्वर, मगर आवाज में नजाकत नहीं बल्कि आदेश... अजब-सी कसमसाहट।

गर्म सांसों के उफान ने जैसे समूची लॉबी को अपने आगोश में ले रखा हो।

एक बेचैन अकुलाहट...

जैसे अतृप्त आत्माओं की आंख-मिचौनी...

लगा, मैं अगर कुछ देर और रुका तो ये वहशी दीवारें मुझे निगल लेंगी।

‘‘अर्जेन्ट फाइल... विश्वसनीय...’’ जैसे शब्द मेरे कानों से टकरा रहे थे।

मैंने फिर हिम्मत की। फाइल उठाए, सामने वाले कमरे की ओर कदम बढ़ाने की कोशिश की। मगर पैरों को जैसे किसी ने जकड़ लिया था। उद्दाम सांसों का उठता-गिरता शोर जैसे मुझे लील लेने को मेरी ओर तेजी से बढ़ता आ रहा था। बिना किसी सवाल-जवाब, मैं उस फाइल को लॉबी की टेबल पर छोड़, तुरंत बाहर निकल आया।

‘‘हो गया?’’ दरबान ने अविश्वास से देखा।

‘‘नहीं... फाइल अर्जेन्ट है, तुम साइन कराके ले आओ... प्लीज...’’ मैं उसकी मिन्नत कर रहा था।

‘‘अरे, तो आपने किया क्या भीतर जाकर?’’

मेरे भीतर सोचने-समझने की ताकत नहीं रह गई थी। फिर भी, मैंने ऊपरी तौर पर सहज रहने की कोशिश की, ‘‘पता नहीं, मैडम शायद अंदर वाले कमरे में आराम कर रही हैं, मैं फाइल टेबल पर रख आया हूं...’’

‘‘पता भी है, और कहते हैं पता नहीं...!’’ मेरी बात को बीच में काटता हुआ, वह भीतर चला गया।

दो मिनट बाद मैडम खुद बाहर निकल आई थीं।

लंबा-सा गाउन पहले, बिखरे बालों को लपेटती, वह ठीक मेरे सामने आ खड़ी हुईं।

मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया।

‘‘मुझे पता ही नहीं चला तुम्हारे आने का, वरना मैं तुम्हें भीतर ही बुला लेती।’’ लगा, जैसे मैडम ने मेरी ओछी मानसिकता के परखच्चे उड़ा दिए हों और मेरे पास शर्मिंदा होने के सिवाय कोई विकल्प न बचा हो।

‘‘मेरे पास पूर्णिमा का फोन आ गया था, आइ वाज एक्च्युअली वेटिंग फॉर यू।’’ वे बिलकुल सामान्य थीं, इतना कि जितना ऑफिस में भी नहीं होतीं।

उन्होंने साइन कर फाइल मुझे थमा दी और पलट गईं। ऐसे पलट गईं जैसे मेरी सोच-समझ पर एक झन्नाटेदार तमाचा रसीदकर गई हों... जिसकी झन्नाहट से मेरा शरीर अभी तक झनझना रहा है...

फाइल थामे, मैं जल्दी से बाहर निकल आया और गाड़ी में धंस गया।

मैंने लंबी सांस भरी और बेवजह की घबराहट को बाहर फेंका। कुछ गहरी सांसें लेने के बाद मैं थोड़ा बेहतर महसूस कर रहा था। रूमाल निकालकर माथे पर छलक आई बूंदों को साफ किया। मैं बेवजह ही घबरा जाता हूं। सब कुछ तो नॉर्मल ही था। दरबान बता रहा था कि मैडम मसाज ले रही थीं। मैं तो ख्वामखाह ही क्या की क्या सोच बैठा। अब मुझे खुद पर हंसी आ रही है। बीते दृश्य को दोहराता हूं कि जब मैडम अचानक बाहर निकलकर मेरे सामने आ खड़ी हुई थीं तब मेरी तो हवा ही सरक गई थी। मैं तो ऐसे डर गया था जैसे वो मेरा रेप ही कर डालेंगी। मन किया खुद पर ही ठहाका लगाकर हंस पड़ूं। कैसा पागल हूं मैं भी, आखिर वो मेरा बिगाड़ ही क्या सकती थीं जो मैं इतना घबरा गया।

घबराना तो उन्हें चाहिए था... उस एकांत में वह अकेली औरत... लंबा गाउन पहने, बालों को पीछे लपेटकर जूड़ा बनाते हुए उनकी छवि निगाहों में तैर गई...

नहीं, मैडम के भीतर कहीं भी कमजोरी या बेबसी का स्थान नहीं था, बल्कि मैं ही वहां बेबस-सा हाथ बांधे खड़ा था।

वक्त बहुत बदल चुका है। अब लड़कियां पहले की तरह लजीली, शरमीली नहीं रहीं... वे तो हाथ में दोनाली बंदूक थामे तफरीह के लिए शिकार पर निकली दिखाई पड़ती हैं... सुना नहीं था दीवारों का आर्तनाद! लगता था, अगर इन औरतों की हवस न मिट पाई तो वे उन्हें रौंदकर रख देंगी।

वहां का माहौल, वह गुमसुम परिवेश, सांय-सांय का अहसास जैसे बहुत कुछ कह रहा था, मगर मैंने सुनना नहीं चाहा, घबराकर बाहर निकल आया। अगर कुछ देर और ठहरता तो सब कुछ उधेड़कर रख देता...

मगर उधेड़कर ही क्या कर लेता? क्या पता, उधेड़े जाने की खातिर ही मैं वहां भेजा गया था...

आजकल की औरतें पता नहीं क्या चाहती हैं? बड़े पदों पर पहुंच गई हैं, मगर खुश नहीं हैं। इतना पैसा कमा रही हैं, मगर तसल्ली नहीं है। कड़ा अनुशासन रखती हैं, हर किसी पर रोब मारती हैं, मगर फिर भी तृप्ति नहीं है।

भीतर से कहीं बहुत खाली हैं...

अपने पति को तो वे कुछ समझती ही नहीं...

वे सारा गणित उलट देना चाहती हैं। वे चाहती हैं कि अब पुरुष नीचे हों और वे ऊपर रहें... उनकी मर्जी और हिसाब से सब कुछ किया जाए।

अब वे ‘पैसिव पार्टनर’ की तरह नहीं बनी रहना चाहतीं, बल्कि ‘एक्टिव प्लेयर’ होना चाहती हैं।

मैं महसूस कर रहा हूं कि उस रोज की घटना के बाद से क्वीना और निकिता एक-दूसरे के बहुत निकट आ गई हैं। अनकहे में बयान हुई अभिव्यक्तियां एक-दूसरे को समझने में शब्दों से अधिक सहायक हुई हैं।

दबावों से मुक्त होने के बाद निकिता का असल व्यक्तित्व निखरकर आ रहा है।

क्वीना लिखती है कि निकिता मुक्त भाव से अपनी बात रखने लगी है। अब वह बात को दूसरे के पक्ष से भी देखने लगी है, उसका मन उदार होने लगा है।

वह खिलने लगी है, जैसे नया फूल खिलता है...

उसके होंठों पर हंसी वैसे ही उतरने लगी है, जैसे पहाड़ों से झरना उतरता है...

वह थिरकने लगी है, जैसे तितली थिरकती है...

मुझे क्यों ऐसा लगता है, जैसे निकिता के बारे में लिखते हुए क्वीना दरअसल अपने भीतर के दबाव से मुक्त होने की कामना की तीव्रता को रेखांकित कर रही है? निकिता के खुले स्वरूप का उल्लेख पढ़ते समय क्यों बार-बार क्वीना को उस रूप में देखने की भावना जोर मारने लगती है? मुझे क्यों लगता है, जैसे ऐसा लिखते हुए क्वीना खुद को निकिता में देख रही है, उसकी उन्मुक्तता में स्वयं की मुक्ति का उत्सव मना रही है।

यानी कुछ है ऐसा जो क्वीना को मुक्त नहीं होने देता?

यानी क्वीना की भीतरी परत में भी कुछ ऐसा अनर्गल-अवांछित जरूर घटा है जिसे वह निकिता के कृष्ण पक्ष के साथ जोड़कर देखती है और निकिता के अंतस की उज्ज्वलता में खुद की पाकीजगी का जश्न मनाना चाहती है?

क्या हर लड़की की चांद जैसी जिंदगी में कृष्ण पक्ष का होना एक स्वाभाविक हकीकत है?

मुझे क्यों लगता है कि क्वीना के भीतर कोई पुराना घाव है जो रह-रहकर टीस रहा है?

क्या इसलिए कि क्वीना मेरी कहानी का केन्द्रीय पात्र है और हर प्रमुख घटना उससे संबंधित होनी चाहिए?

शायद ऐसा ही है, वरना निकिता की राजदार होने के बावजूद ऐसा क्या है जिसे निकिता के साथ साझा करने में क्वीना की जबान पलट नहीं पाती? क्या वह निकिता पर भरोसा नहीं करती और डरती है कि सब जान लेने के बाद कहीं वह निकिता की दोस्ती से निष्कासित तो नहीं कर दी जाएगी?

ऐसा भी क्या घटा है उसकी जिंदगी में कि जिसे जानकर निकिता उसे समझने में गलती कर सकती है?

ऐसा भी तो हो सकता है कि क्वीना ने भले ही उस घटना का जिक्र डायरी में न किया हो मगर जबानी तौर पर अपना हलफनामा निकिता के सामने दर्ज कर दिया हो?

या फिर, निकिता ने ही उसे अपनी दोस्ती का वास्ता देकर उसका वह पन्ना पढ़ लिया हो जिसे लिखते हुए उसके हाथों ने बगावत कर दी थी और मुझे उसका राजदार होने से बेदखल कर दिया गया?

तो क्या उसने अपने भीतर का गुबार निकिता से साझा कर लिया था और इसीलिए झरने और तितली की उन्मुक्तता के अहसास से खुद भी झूमने लगी थी?

डायरी मेरे सवालों के जवाब में चुप साधे बैठी है मगर मेरी दिली ख्वाइश क्वीना को खिलते हुए देख रही है, उसकी आंखों का बादल छंट गया है, बरसात के बाद का धुलापन उसके चेहरे को नई ताजगी से भरने लगा है...

वह हवाओं के सरगम पर गाने लगी है...

फूलों की खुशबू से महकने लगी है...

(अगले अंक में जारी....)