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दास्ताँ ए दर्द ! - 9

दास्ताँ ए दर्द !

9

दीक्षा की कार के रुकने की धीमी सी आवाज़ सुनाई दी |कोई शोर-शराबा , आवाज़ न होने से गाड़ी के हल्के से रुकने की आवाज़ दिन में भी वातावरण में सुनाई दे गई थी |

"दीदी ! दीक्षा आ गई हैं, आपको चेंज करना है क्या ?" रीता उस समय किचन में थी, कार की आवाज़ से उसने कमरे में आकर खिड़की से दूर से ही देखा |

"नहीं, ठीक तो है, चेंज की ज़रुरत नहीं लगती | तुम कहो तो ----भाई, आखिर तुम्हारे सम्मान की बात है " प्रज्ञा ने रीता से पूछा |

"हाँ, मुझे भी ठीक लग रहा है | चलिए, आपको बाहर छोड़ देती हूँ, दीक्षा से भी मिल लूंगी| हमारा सम्मान तो इसमें है कि आप यहाँ पर, हमारे पास आए हैं | " रीता छोटी-छोटी बातों में भावुक हो जाती थी |

"आइये दीदी, वहाँ टाइम पर पहुंचना होगा| मैंने उन्हें इन्फ़ॉर्म कर दिया था कि मेरे साथ भारत से आई हुई लेखिका मेहमान आएंगी , आज आपसे कुछ सुनेंगे वो लोग --| "

बिना कुछ उत्तर दिए प्रज्ञा यह सोचती हुई गाड़ी में बैठ गई कि वहाँ के लोगों व वातावरण का जायज़ा लेगी फिर जैसी स्थिति होगी वैसा उन्हें कोई कविता या भजन आदि सुना देगी |

"बाय ----?रीता को करते हुए दीक्षा ने गाड़ी आगे बढ़ा दी और कुछ ही देर में गाड़ी 'कंट्री साइड' पर पहुँच गई | साफ़-शफ़्फ़ाक़ सड़कों पर गाड़ी फिसलती जा रही थी | दीक्षा उसे बताती जा रही थी सड़कों के बारे में, रास्तों के बारे में |

एक बड़े से मैदान में बहुत दूरी तक फैंसिंग लगी थी जिसके अंदर काले-सफ़ेद व सफ़ेद त्वचा पर काले या मटमैले पैचों वाले खूब लंबे, तगड़े , स्वस्थ घोड़े गोल-गोल चक्कर काट रहे थे | दीक्षा ने बताया, वह घोड़ों को रखने की जगह थी जिसे हम अस्तबल कहते हैं |वहाँ उन्हें ट्रेनिंग भी दी जाती थी | साफ़-सुथरे इतने कि प्रज्ञा की नज़र गाड़ी में बैठे हुए भी उनका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी, वह घूम-घूमकर पीछे घोड़ों को स्मार्टली चक्कर लगाते देखती रही, बीच में उनका ट्रेनर शान्ति से चाबुक पकड़े दिखाई दे रहा था |

दूर-दूर तक सलीकेदार बगीचे और खेत जैसे मुस्कुरा रहे थे | प्रकृति का बहुत सुंदर लुभावना रूप ! सच मन खुश हो गया प्रज्ञा का और वह दीक्षा से बातें करते हुए सोचने लगी उस खूबसूरत साफ़-सुथरी जगह के बारे में ! सुंदर, स्वस्थ, मज़बूत कद-काठी के लंबे घोड़े उसकी आँखों में भर गए | वैसे भी उसे व उसके पूरे परिवार को पशु-पक्षियों से बहुत मुहब्बत थी | उसकी बिटिया तो अपने बालपन में कुत्ते, बिल्ली, तोते खूब पालती रही थी | उसने साँप को गले में डालकर फ़ोटो भी खिंचवाई थी | वह हमेशा कहती --

"पशु-पक्षी में भी तो हमारे जैसे ही प्राण होते हैं, उन्हें चोट पहुँचाओगे तो ही वो आपको काटेंगे वर्ना कुछ नहीं कहते --"

"शिवी होती तो यहीं रोक लेती आपको ---बस, इन घोड़ों की मदमस्त चाल देखती रहती ---"घोड़ों को देखकर प्रज्ञा के मुख से निकल ही तो गया |

"अच्छा ! इतना प्यार है आपकी बिटिया को जानवरों से ? भई ! जानवर तो जानवर ही हैं ---" दीक्षा बहन के मुख से यह सुनकर प्रज्ञा का मन इस विषय में और बात करने का नहीं हुआ | क्या बताती कि उसकी पगली बिटिया तो सड़क के चोट खाए कुत्तों को लेकर डॉक्टर के पास दौड़ती है |सड़क की कुतिया ने दो बार उनके बगीचे में कई-कई बच्चे दिए थे, उनको कई महीने पाला था उसने !

वह दीक्षा बहन के नैरोबी से इंग्लैण्ड शिफ़्ट करने की बातें चुपचाप सुनने लगी|बातें करते -करते वे दोनों उस स्थान पर पहुँच गईं थीं जहाँ उनका निर्दिष्ट था |काफ़ी बड़ी व सुंदर जगह थी | सुन्दर बगीचा पार करते हुए वे दोनों बरामदे के कमरों को छोड़कर सामने वाले हॉलनुमा बड़े कमरे में प्रवेश कर गईं | प्रज्ञा ने कमरे में नज़र दौड़ाई , ख़ासा बड़ा कमरा था जिसमें कुर्सियाँ सजी हुईं थी, बीच में एक काँच की मेज़ थी जिस पर शायद वहीं के बगीचे के सुन्दर फूलों का गुलदस्ता सजाया गया था | आगे बैठी हुई दो-तीन स्मार्ट सी अधेड़ स्त्रियाँ आगंतुकों की ओर बढ़ आईं |

" आइए ---वैलकम ----माइसेल्फ़ गीता कपूर ---" उसने अपने पास खड़ी महिला से गुलदस्ता लिया और प्रज्ञा का स्वागत किया |

" थैंक्स, इसकी कहाँ ज़रुरत थी, मैं यहाँ सबसे मिलने आई हूँ ----"उसे ऐसे स्वागत की कोई उम्मीद नहीं थी, न ही उसने सोचा था किसी स्वागत के बारे में, आख़िर वह बुज़ुर्ग महिलाओं से मिलने आई थी, उनसे बातचीत करने आई थी |वह यह भी जानना चाहती थी कि वे महिलाएँ भारत से दूर किन परिस्थितियों में इस विदेशी भूमि पर आई हैं ?

अपने देश से, अपनी धरती, अपनी मिट्टी की सुगंध से दूर कौन रह सकता है ? वह ज़माना आज का नहीं था, आज विदेशों में जाने की होड़ लगी है, बहुत से कारण हैं कि युवा अपने देश में रहना ही नहीं चाहते ---और एक बार विदेश गए तो उल्टे-सीधे रास्तों से वहीं घुसे रहना चाहते हैं किन्तु जब प्रज्ञा वहाँ गई थी, उन दिनों तक लोगों में इतना क्रेज़ नहीं था फिर भी वो स्त्रियाँ कई पीढ़ियों से उस ज़मीन पर रह रही थीं | अधिकांश स्थानीय अँग्रेज़ की नज़र में उनकी कोई ख़ास इज़्ज़त नहीं थी |प्रज्ञा उन भारतीय स्त्रियों के बारे में बहुत कुछ जानना चाहती थी |

" ये मिसेज़ मिनी अरोड़ा ---" गीता ने अपने पास खड़ी स्त्री से परिचय कराया और उसे बीच में पड़ी मेज़ की ओर आने का अनुग्रह किया, जहाँ दो कुर्सियाँ सजा दी गईं थीं |

कुछ ही मिनटों में स्कूल के बच्चों की तरह सब अपनी-अपनी कुर्सी में धंस गए | गीता ने उसका परिचय सबसे करवाया |

"ये डॉ. प्रज्ञा शर्मा हैं, अपने देश से आई हैं, भारत से ! बहुत मशहूर, महान हस्ती हैं--| दीक्षा बहन जी ने इनके बारे में बहुत कुछ बताया है और यह उन्हीं के कारण आज यहाँ की शोभा हैं "गीता ने कहते हुए एक प्रशंसात्मक दृष्टि उस पर डाली |

'ये क्या बोलने लगीं ---ये महा -वहान क्या होता है ?'प्रज्ञा ने मन में सोचा, वह अपनी गौरव-गाथा सुनाने थोड़े ही आई थी वहाँ पर | उसे आज तक समझ में नहीं आया था कि यह महानता आख़िर है किस चिड़िया का नाम ?लोग अपने हिसाब से जीवन जीते हैं या ये कहें कि उन्हें उस बाध्यता को ओढ़ना-बिछाना पड़ता है जो उनके सामने आ खड़ी होती है |

उसने नोटिस किया कुछेक चेहरे मुस्कुरा रहे थे लेकिन कुछ चेहरों पर कोई भाव ही नहीं था, बिलकुल निर्लिप्त ! दक्षा सामने वाली कुर्सियों में से एक पर जम गई थी जहाँ बहुत सी और वृद्धा व अधेड़ औरतें बैठी हुईं थीं |उसके मुख पर प्रज्ञा को अपने साथ लाने का उत्साह व गर्व की चमक पसर गई थी |

अर्धगोलाकार बनाती कुर्सियों के बीच में पड़ी हुई कुर्सियों पर प्रज्ञा के साथ गीता व मिनी बैठीं , इसीसे प्रज्ञा को अनुमान हुआ कि वे दोनों ही उस स्थान की सर्वेसर्वा होंगी |

प्रज्ञा से सबका परिचय करवाया गया |अधिकांश महिलाएं ख़ासी उम्र की थीं |अधेड़ उम्र की महिलाएं अपने से बड़ी उम्र की महिलाओं को खुश रखने के लिए कुछ न कुछ करती रहतीं | कुछ महिलाएं कम उम्र की भी थीं जिनके चेहरे पर समय के थपेड़े स्पष्ट दिखाई दे रहे थे |

उन बुज़ुर्ग महिलाओं के लिए किसीके पास समय नहीं होता था | पूरे सप्ताह काम करके थके लोग स्वयं अपना एंटरटेन करने घूम-फिर सकते या अपने सप्ताह भर के पेंडिंग कामों को पूरा करने की कोशिश करते, मित्रों से मिलने या फिल्म देखने या फिर एक-दूसरे के घर कभी-कभार जाते पर उन बुज़ुर्गों के लिए उनके पास न समय था न ही कोई समय निकालने की भावना !शायद उनके भीतर बुज़ुर्गों के लिए कोई संवेदना होती तो वे लोग किसी न किसी प्रकार समय निकाल ही सकते थे |

अब भारत में भी कहाँ किसीके लिए कोई संवेदना रह गई थी जो वह इस देश में सोच रही थी लेकिन उसके देश में जहाँ संयुक्त परिवार होते थे, वहाँ अब 'तुम और मैं' के अलावा तीसरे की कहाँ कोई जगह रह गई थी ? और ये 'तुम और मैं' भी एक दूसरे के साथ टिक सकें, एक-दूसरे का ख्याल रख सकें, एक-दूसरे की इज़्ज़त कर सकें, तो बहुत था | हर जगह 'ईगो' का रेशो बढ़ता ही जा रहा था |परिवारों का टूटना आम बात होने लगी थी | 'परिवार बनाने की ज़रूरत ही क्या है?क्यों बनाते हैं लोग परिवार?क्यों बच्चों को पैदा करते हैं जब उन्हें विघटन की पीड़ा झेलनी पड़े ?केवल अपने स्वार्थ के लिए, अपने ईगो के लिए ही न ?"प्रज्ञा अपने चारों ओर देखती और असहाय सा महसूस करती |

सप्ताह में निश्चित दिन एक गाड़ी एक सिरे से दूसरे सिरे की बुज़ुर्ग महिलाओं के लिए तय कर दी गई थी जो सबको बटोरती हुई इस स्थान पर ले आती | कुछ गाना-बजाना करने की कोशिश की जाती, कुछ खिलाया-पिलाया जाता और दो/तीन घंटे में गाड़ी उन्हें फिर से अपने में समेटकर उन महिलाओं के निवास पर वापिस छोड़ आती | कोई बिरला ही अपने ही परिवार में रहता था, अधिकाँश महिलाओं के लिए बने 'ओल्ड एज होम्स ' --जो अधिकतर इन वृद्ध महिलाओं से आबाद रहते, सरकार ने इन वृद्धों के निवास की अच्छी-ख़ासी व्यवस्था की हुई थी लेकिन उनके लिए जिन्हें यहाँ की नागरिकता प्राप्त हो चुकी थी, यहाँ के स्थानीय निवासी हो चुके थे, यहाँ कुछ ऐसे लोग भी थे जो अभी तक पक्के नहीं हुए थे यानि जिनको इंग्लैण्ड की नागरिकता प्राप्त नहीं हुई थी और ताउम्र वे पकड़े जाने के भय से इधर-उधर छिपकर रहते आए थे | न वे अपने देश के रहे थे और न ही यहाँ के |

गीता ने प्रज्ञा का परिचय देते हुए उससे कोई गीत या ग़ज़ल सुनाने का अनुरोध किया | वह खड़ी ही हुई थी कि एक काफ़ी चिड़चिड़ी सी लगभग पचास वर्ष से कम की महिला ने गुस्से में लगभग चिल्लाकर कहा ;

"सान्नु नी सुनणा --नाश्ता-वाश्ता कदो आवेगा "

"थोड़ी देर में करते हैं नाश्ता भी, अभी थोड़ी देर में ----"गीता ने समझाने की कोशिश सी की लेकिन महिला का मूड भयंकर बिफरा हुआ था |

"ले आंदीए जिन्ने बी फड़के ---की गाणे वाणे सुनने दी लोड़ हैगी ---" वो बहुत ही झल्लाई हुई थी |

महिलाओं में फुसफुसाहट होने लगी कि ये महिला जब भी आती हैं कुछ न कुछ गड़बड़ ही करती हैं | तहज़ीब का माहौल बनाए रखने के लिए गीता व उनके साथ की अन्य महिलाओं ने उन्हें धीरे से समझाने की कोशिश करनी चाही पर वो तो बिफर ही गईं |

प्रज्ञा को कुछ अजीब सा लगा, यहाँ भी ऐसा कुछ ---यानि लड़ाई-झगड़ा, तानाकशी !मन में हँसी भी आई, अपनी सोच पर उसे ---अरे ! मनुष्य तो सब जगह मनुष्य ही हैं |अपने मन को शांत करने की कोशिश करते हुए वह चुप्पी ओढ़कर एक कुर्सी में धँस गई | एक थकान सी महसूस की उसने ! वह ही कौनसी बड़ी युवा थी अब ? लेट फ़िफ्टी के लपेटे में थी |

अब वो बात अलग है मत मानो अपने को प्रौढ़ ! समय तो बता ही देता है, दिखा देता है अक्स अपना ! सच्ची ! प्रज्ञा एकदम गुम सी हो उठी, बड़ी उत्साहित होकर वह गई थी 'लेडीज़ -मीटिंग-प्लेस' या जो भी कह लो उसे, वहाँ पर ! स्वागत भी हुआ उसका ! परिचय कराया गया; भारत से आई हैं, कविता लिखती हैं, कहानी और उपन्यास भी ! बुके मिला और कुछ मोमेंटो भी जो उसके सामने मेज़ पर रखा उसका मुँह चिढ़ा सा रहा था | न जाने प्रज्ञा क्यों एक बहुत बूढ़ी सी थकान महसूस करने लगी | उसका मन वहाँ बैठी प्रौढ़ और वृद्धाओं के भीतर चल रही सनसनी के भीतर जाकर उसमें डूबना चाहता था, वह उनके मन की तकलीफ़ जानना चाहती थी |

उसने गीता व अन्य कुछ महिलाओं के इसरार पर एक छोटा सा खुद का लिखा हुआ गीत सुनाया, तालियाँ बजीं , कई जोड़ी आँखें प्रशंसा से भर उठीं पर उस नाराज़ महिला ने कुछ प्रतिभाव नहीं दिया |बुरा सा मुह बनाकर अपनी ऑंखें नीची ही किए बैठी रहीं जैसे उनके मन में कुछ भीतर ही भीतर चल रहा था | ऐसा जैसे कोई उनके मन को निचोड़ रहा था लेकिन शायद वो स्वयं भी नहीं जानती थीं उनके भीतर है क्या ?एक ब्लैंक सा, एक स्पेस सा उनके भीतर काले बादलों सा उमड़-घुमड़ रहा था | प्रज्ञा उनका चेहरा पढ़ने की कोशिश करती रही, कुछ तो था -----उनके उदास चेहरों की तलहटी में छिपा !

कार्यक्रम सम्पन्न होने पर कुछ स्त्रियों ने उठकर नाश्ते के डिब्बे खोलने शुरू किए, डिस्पोज़ेबल प्लेटें सबके हाथ में दे दी गई थीं और कई स्त्रियाँ सामने से उठकर डिब्बों में से नाश्ते निकालकर उन प्लेटों में रखने लगी थीं |प्रज्ञा को उस स्थान पर अकेले बैठे रहने में कुछ असहज सा महसूस हुआ और वह भी उठकर नाश्ता सर्व करने में सहायता करने लगी |

"अरे ! आप बैठिए न ?" वहाँ की प्रमुख कार्यकर्ता गीता ने उसे बैठने का इसरार किया लेकिन वह जुड़ना चाहती थी, जानना चाहती थी, उनकी मानसिक स्थिति को समझना चाहती थी, शायद ऐसे ही उन महिलाओं के क़रीब जा सके | उसके अनुग्रह पर उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा दे दिया गया जिसमें से मिठाई के टुकड़े निकाल-निकालकर वह सबकी प्लेटों में बड़ी प्रफुल्ल्ता से रखने लगी |

" ऐ ---मैनू क्यों नी दित्ता ---" ज़ोर की आवाज़ सुनकर प्रज्ञा का मुड़कर देखना लाज़मी था |

" हाँ --तू---मैनू छड़ दित्ता ----"

"जी ---" प्रज्ञा की समझ में अब भी नहीं आया |

शायद वह बेध्यानी और सबके साथ मिलकर काम करने के उत्साह में आगे बढ़ गई थी, उसने ध्यान ही नहीं दिया कि उन महिला की प्लेट में मिठाई रखना भूल गई है वह जिनका मूड बहुत बिफरा हुआ था ! उसे अफ़सोस हुआ जिसका प्रसारण उसकी मुख मुद्रा पर हो ही गया |

"आप परेशान न हों, आप प्लीज़ बैठ जाइए ---हम कर लेंगे --" एक स्त्री ने आगे बढ़कर प्रज्ञा के हाथ से मिठाई का डिब्बा ले लिया, उसे बड़ा अजीब सा भी लगा किन्तु वह चुप होकर बैठ गई| वही मानिनी स्त्री प्रज्ञा की ओर घूरकर लगातार बड़बड़ किए जा रही थी और प्रज्ञा को अनजाना अपराध-बोध होने लगा था |

वास्तव में यह कोई सरकारी 'ओल्ड-एज -होम' नहीं था, यह एक ऐसा बड़ा स्थान था जिसमें कुछ स्थानीय समर्थ स्त्रियाँ सप्ताह में एक बार ऎसी औरतों को 'इंटरटेन' करने की कोशिश करती थीं जिन्हें कहीं कोई 'कंपनी' नहीं थी | बच्चे उनके साथ रहना पसंद नहीं करते थे या वो बच्चों के साथ रहना पसंद नहीं करती थीं अथवा उनके कोई संबंधी थे ही नहीं | इसलिए वे सरकारी 'ओल्ड-एज-होम्स' में रहती थीं जहाँ उन्हें सरकार के द्वारा सभी सुविधाएँ मिलतीं केवल प्यार व अपनत्व के | यहाँ थोड़ा सा स्नेह व अपनत्व बाँटने का प्रयास किया जाता | उन्हें एक बदलाव और थोड़ा सा सुकून मिल जाता, बाँटने वाले और पाने वाले दोनों को थोड़ी सी दिली खुशी मिल जाती|

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