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मुस्कान के पीछे

मुस्कान के पीछे

उर्मिला शुक्ल

दीवार पर लगी अपनी उस तस्वीर को देख रहीं हैं वे, मुस्कान से दीपित चेहरा । तस्वीर उनकी सगाई की है । बहुत खुश थीं अपनी सगाई पर । और क्यों न होतीं, उनकी सगाई हरीश सान्याल से हो रही थी। हरीश सान्याल साहित्य जगत का जाना माना नाम । न जाने कितनी लड़कियाँ उनकी प्रेम कविताओं की दीवानी थीं और उनसे विवाह के सपने देखती थीं । उनकी कविताओं की दीवानी वे तो भी थीं, मगर उनसे विवाह का सपना ? मगर जब उन्होंने आगे बढ़कर यह रिश्ता भेजा, तो घर वालों की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा और उनके लिए तो यह एक अविश्वसनीय सा सच था। कितनी प्रेमिल कवितायें हैं उनकी। जब कविताओं में इतना प्रेम है, तो ह्रदय में? और वे उस सबकी एकमात्र अधिकारी होंगी, यही सोचकर वे आल्हादित थी। इसीलिए सगाई के समय मन की सारी खुशी चेहरे पर उतर आयी थी । फिर तो वो इसी तस्वीर में सिमट कर रह गई थी ।

बाबू जी को रिश्ता पसंद था। माँ को भी ; मगर एक आशंका उनके मन को खदबदा रही थी, वह थी उनकी उम्र। हरीश दस वर्ष बड़े थे। उम्र का यह अंतर कम नहीं था ।पुरुष भावनाओं में कम ही बँधता है और जब उम्र इतनी परिपक्क्व हो तो .. ? माँ ने अपनी आशंका जाहिर की ;मगर बाबू जी ने - " पुरुष की उम्र नहीं हैसियत देखी जाती है। ऐसा वर सौभाग्य से मिलता है। कहकर माँ की आशंका को चुप करा दिया था । भैया - भाभी को ये रिश्ता तो पसंद आना ही था। बाबू जी के रिटारमेंट का पैसा, उसके विवाह की भेंट न चढ़ जाय ।यह सोच उन्हें खाये जा र ही थी । ऐसे में हरीश का रिश्ता, जैसे छप्पर फाड़कर झोली में ही आ गिरा था।

और वे ? उनके मन में इस तरह की कोई आशंका उठी ही नहीं। बल्कि उन्होंने तो सुन रखा था कि बड़ी उम्र के पुरुष अपनी पत्नी से और अधिक प्रेम करते हैं। उन्हें अपनी सहेली मालिनी याद हो आयी । उसका पति तो दुहाजू था, फिर भी ? फिर तो कल्पना ने कई रंग भर लिये थे। वैसे भी उस समय तो मन भावनाओं के रथ पर सवार था और रास उनके हाथ में थी। सो वह रथ उधर ही जा रहा था, जिधर वे उसे ले जाना चाह रही थीं।

फिर आँखों में सगाई का वह क्षण उभर आया , आँखों की मछलियाँ बहुत आकुल थीं कि देखें भला उनके लिए वहाँ कितना ..?; मगर संकोच इतना कि नजरें उस ऊँगली से हटी ही नहीं और वे अपनी ऊँगली पर उनकी उस छुवन को ही महसूसती रहीं । सो और कुछ उनके भीतर उतरा ही नहीं था। कितना मोहक और जादुई था वह क्षण । फिर तो न जाने कितने दिन, कितनी रातें उसीजादू में बीतीं । जादू तो तब टूटा, जब.. !

कितने सपने देखे थे । धूमधाम से आती बारात, घोड़ी पर बैठे हरीश और वरमाला की सिहरन ;मगर न बारात आयी और न वरमाला हुई । अति साधारण से उस विवाह में दूल्हे के लेखक होने के सिवा ;सब कुछ साधरण से भी ..! यहाँ तक कि जिस मंदिर में फेरे पड़े, वो भी एक खंडहर ही था ! ऐसे में उनके सपने ? मगर किसी को इसकी परवाह ही कहाँ थी ! हरीश ने उस मंदिर के शिल्प की तस्वीरें लीं और उनकी भी । उनकी एक तस्वीर तो ऐसी स्त्री मूर्ति के साथ ली, जिसके केवल धड़ और जँघायें ही थीं ।उस स्त्री मूर्ति के सिर और पैर दोनों ही नहीं थे। हरीश उस मूर्ति पर मुग्ध हो उठे थे !

उनकी बिदाई भी कहाँ हुई । उसकी तो सिर्फ रस्म अदायगी हुई थी। मुठ्ठी के अक्षत को अपने पीछे की ओर उछाल कर वे देहरी के बाहर गयीं । फिर लौटा ली गई, वहीं उसी घर में, जो अब तक उनका मायका था और अब ? जिस कमरे में उनका बचपन बीता था। उसी में उनकी सुहाग सेज सजायी गई थी । उन्हें जब उस कमरे में पहुँचाया गया , तो उनके भीतर न तो वैसी झिझक थी और न ही वो आल्हाद था, जो नई दुल्हन में होता है। वे अपने उस पलंग को देख रहीं थीं, जिसे नयापन देने की कोशिश में उसका पुरानापन उभर ही आया था । देर तक उसे देखती रहीं ;फिर उसी ओर बैठ गयीं, जिधर वे सोया करती थीं। बैठे - बैठे कब आँख लगी पता ही नहीं चला । फिर अनचीन्हीं हथेलियों के स्पर्श से अकचकाकर उठ बैठीं -" ओह तुम सोते हुए इतनी मादक लग रही थीं कि मैं ...... । सचमुच तुम उसी मूर्ति की तरह हो। इतनी मादक कि " कहते हुए हरीश के मुख से एक भभका सा छूटा । वे उस भभके से दूर जाने का सोच पातीं, उससे पहले ही हरीश की हथेलियाँ उनकी सारी झिझक को रौंदते हुए सक्रिय हो उठी थीं ; मगर वे ? मूर्ति तो नहीं थीं ? सो इस मधुमय रात के पढ़े, सुने और कल्पित दृश्य भहरा गये और विवशता आँसू बन लुढ़कने लगी थी।

सुबह होते ही वे निकल पड़े थे , उस यात्रा पर जिसे हनीमून कहते हैं।' हनीमून ' इस शब्द ने उनके मन में कितनी हलचल मचाई थी, जब भाभी ने उन्हें बताया था कि .. ;मगर अब? जब वे हनीमून पर जा रही थीं, तब मन की तलैया में कोई हलचल ही नहीं थी।बीती रात का कसैलापन उभर उभर आता। वे अपनी सीट पर बैठी थीं और हरीश किताब की दुकान में किसी पत्रिका के पन्ने पलट रहे थे। बस ने हार्न दिया, तो वे उनके करीब आ बैठे, इतने कि.. पल भर को उनके मन का सारा कसैलापन कपूर सा उड़ गया और वे उनकी ओर सरककर उनके और करीब जा पहुँची थीं । ये वही पल था, जिसका इंतजार हर लडकी करती है ! उन्होंने भी किया था । ये उनका संचित स्वप्न था । वो साकार होने को था कि - " ज़रा ठीक से बैठो। मैं कोई अननोन परसन तो हूँ नहीं कि ..।" और उनके भीतर छनाक से कुछ टूट गया था ! फिर वे दूर खिसक गयी थीं ; अपनी सीट के दूसरे सिरे पर।

हनीमून का ये पहला दिन था। हरीश किताब में लीन थे और वे ? बाहर केदृश्यों में भटक रही थीं। कभी जिन देवदारों को देखने की हसरत थी; अब उसमें काँटे - ही काँटे उभर आये थे। फिर एक सुंदर सी जगह पर बस रुकी । अन्य यात्रियों के साथ हरीश भी उत्तर गये थे । बस में बचीं वे और एक बूढ़ी अम्मा। उन्होंने उनसे जाने क्या क्या कहा, उन्हें नहीं मालूम। वे बस में थी ही कहाँ !उनकी निगाहों में तो एक प्रेमिल सा जोड़ा समाया हुआ था। अपने आप में व्यस्त और मस्त। कुछ कल्पित पल कौंधे ! फिर बुझ गये । ' एक बार भी तो नहीं कहा कि तुम भी ..... मान आँखों से छलकने को आतुर कि -

" चाय ? " बाँहों पर हल्का सा स्पर्श ! हरीश चाय लिये खड़े थे ;मगर वे तो गहरी खाई में थीं और मन पूछ रहा था कि क्या कवि की भावनायें सिर्फ उनकी रचनाओं तक ही सीमित रहती हैं? सब कुछ कागजी पन्नों पर ही ? उससे इतर कुछ भी नहीं। सो उनका कहा भीतर पहुँचा तक ही नहीं था और गड्ड - मड्ड होती भावनाओं के बीच उन्होंने न में गर्दन हिला दी । बस फिर चल पड़ी थी। ' अब कुछ आश्वस्ति थी !चलो मौन तो टूटा। अब सफर बोझिल नहीं लगेगा ' पर ये तो उनकी सोच थी। सो बस में फिर वे थे और उनकी किताब ! और वे ?

" बहुत सुंदर । " सुनकर उनकी ओर देखा शायद उनसे कहा हो ; मगर नहीं ये तो उनका स्वलाप था। वे तो उसी किताब में डूब हुये थे। शायद यही वो क्षण। जब उन्हें किताब से वितृष्णा सी हुई और उन्होंने आँखें बंद कर लीं थी ।

शाम होते होते वे होटल में थे। जीवन की पहली यात्रा का, पहला पड़ाव। नदी किनारे बना सुंदर होटल। कमरे की खिड़की से नजर आती ऊँची - ऊँची चोटियाँ । खिड़की से होकर आती हवा उनके आँचल से उलझ रही थी कि तभी उन्होंने उसे थाम लिया था और उसके भीतर कुछ उत्तर पाता उससे पहले ही.. । फिर ..?

" चलो खाना खा लेते हैं। इधर पहाड़ों पर देर रात तक खाना नहीं मिलता। " कहते हुये वे बाथरुम जा घुसे थे। और वे अपनी अस्त व्यस्तता में उलझी रहीं। तन - मन थकन से चूर था। फिर भी साथ वे चल पड़ी थीं।

" क्या खाओगी ?

" जो तुम खिलाओ " आँखों की मछलियाँ मचलना चाहती थीं ;मगर वे खामोश रहीं और उन्होंने दो वेज बिरयानी आर्डर कर दी थी और खाने से उलझती वे खाने की रस्म ही निभा पाई थीं।

फिर वही कमरा लहराते रेशमी परदे ; मगर वे अपनी ही दुनिया में खोये से। उन्होंने कुछ पल उन्हें देखा फिर बाहर देखने लगीं। शिखरों से टकराते बादल अब बरसने को आतुर थे। वे उठकर बाथरुम में चली गयीं। नल के शोर में विलीन होते आँसू बहुत कुछ कह रहे थे ; मगर सुननेवाला ? अपने को सहेज कर बाहर आयीं। तभी -

" अब सो भी जाओ सुबह ही साइड सीन के लिए चलना है । " कहकर उन्होंने बेड स्वीच दबा दिया था । अब अँधेरा ही अँधेरा था और वे देर तक उस अँधेरे को खँगालती रहीं । फिर अपने को समेट बिस्तर पर आ गयीं थीं। देर तक ख़ामोशी रही । फिर उनके बीच पसरा अँधेरा सरसराया । फिर बाँहों की जकडन । मन तो किया कि दूर छिटक जायें ;; मगर कहाँ ? सो उन्होंने मन के कपट बंद कर लिये थे ; मगर देह की खिड़कियाँ लगातार भड़ भड़ाती रहीं ! तूफान थमने के बाद चाँद फिर आकाश में इतरा था और धरती पर बिखरीं पड़ी थीं असंख्य टहनियाँ !

सुबह वे फिर सफर में थीं। बस की रफ्तार के साथ भागता मन और करीब बैठे हरीश।' क्या कहूँ इन्हें अपना ? हाँ ! हमारा रिश्ता तो यही कहता है ; मगर ? ' सोचते हुए उन्होंने कनखियों से देखा। आज उनके हाथ में कोई किताब नहीं थी। वे खुद भी पढ़ने में रूचि रखती थीं ;मगर उस वक्त उन्हें एक अजीब सी राहत मिली थी। तभी - मैं इस क्षेत्र पर कुछ लिखना चाहता हूँ। पूरी तरह डूब कर लिखना होता है । सो मुझे डिस्टर्ब मन करना। "

" और प्रेम ? वो क्या बगैर डूबे ही ..... ? कहना चाहा ; मगर कहा नहीं । देर तक वादी में खोये रहने के बाद अब वे सीट से जा टिके थे। कुछ ऐसे कि उनकी आधी देह उससे आच्छादित हो उठी थी ।ये अनायास तो नहीं था ।सो मन किया परे ठेलकर दें और पूछें कि अब आप अननोन ..? मन बहुत उद्द्वेलित था। वो बहुत कुछ पूछना चाह रहा था; मगर ओठों ने साथ नहीं दिया था । ओठों की अपनी मजबूरियाँ जो थीं।

वे उन तमाम जगहों पर गयीं ।वो सब देखा जो लोगों को आल्हादित करता है ; मगर सौंदर्य को तो मन ही परखता है न । सो उन्हें लगा आखिर क्या है यहॉँ ? चारों और बर्फ ही बर्फ और पहाड़ ? अपने आपमें इस कदर तने हुये कि ..?

तमाम सुंदर दृश्य उनके कैमरे में कैद थे और वे भी ? मगर मन ? वो तो बर्फ के नीचे दब चुका था। वे लौट रहे थे। मगर वे अब मिसेज सान्याल थीं । पहाड़ से उत्तर कर मैदान में बहती नदी । तट की मर्यादा में सिमटी हुई । समय के साथ बहुत कुछ बदला था ।ढेरों किताबें और सम्मानों से भर गये थे हरीश । मगर वे ?

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