Hone se n hone tak - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 2

होने से न होने तक

2.

खाने की मेज़ पर बैठे ही थे कि कुछ ख़ास सा लगा था, विशेष आयोजन जैसा। सबसे पहले निगाह सलाद की प्लेट पर पड़ी थी। प्याज टमाटर और खीरे के चारों तरफ लगाई गई सलाद की पत्तियॉ, बीचो बीच मूली और गाजर से बने गुलाब के दो फूल-सफेद और नारंगी रंग के। पहला दोंगा खोला था-गरम गरम भाप निकलते हुए कोफ्ते, टमाटर वाली दाल,दही पकौड़ी और मिक्स्ड वैजिटेबल। श्रेया खाना देख कर चहकने लगी थी। बुआ हॅसी थीं ‘‘क्या बात है दीना आज तो तुमने अपनी पूरी कलनरी स्किल्स मेज़ पर सजा दी हैं।’’

दीना शर्माया सा मुस्कुराए थे,‘‘असल में आज अम्बिका दीदी का रिजल्ट निकला है न। सो हम सोचा कुछ स्पेसल बना दें।’’

मैं ने चौंक कर दीना की तरफ देखा था। मैंने तो सोचा भी नहीं था कि यह सारा आयोजन मेरे लिए है। मेरा मन एकदम से भर आया था। कितना ख़्याल करता है दीना मेरा। जब भी मैं हॅास्टल से आती हूं तब हमेशा ही वह मेरे लिए कुछ न कुछ स्पेशल बनाता रहता है। आज तो इसने पूरा आयोजन ही कर डाला। मैंने सोचा था कि मेरी नौकरी लग जाए तो मैं दीना के लिए कुछ अच्छी सी चीज़ लाऊॅगी...शर्ट...नहीं घड़ी...नहीं दोनो चीज़ें।

तभी श्रेया की आवाज़ कानों में पड़ी थी,‘‘यह दीना आपको दीदी क्यों बोलता है। हमारा रिश्तेदार है क्या?’’

मुझे अजीब लगा था,‘‘अरे तब क्या बोलेगा? ठीक तो है।’’

‘‘ठीक कैसे है? मिस साहब कहे नही तो उसे बहन जी कहना चाहिए।’’

बुआ श्रेया की तरफ देख कर अपने विशिष्ट अंदाज़ में होंठों को टेढ़ा कर के हॅसी थीं,‘‘दीना तो सब तुम्हारे ही रिश्ते पुकारते हैं। दिनेश और दीपा को भी चाचा चाची कहते हैं।’’

मुझे बुआ के लहज़े से समझ नहीं आया था कि वे दीना का मज़ाक उड़ा रही हैं-उसका पक्ष ले रही हैं या ऐसे ही बोल रही हैं।

श्रेया ने बुआ की तरफ देखा था। उस की आवाज़ में तेज़ी है,‘‘आपको उसे डॉटना चाहिए। उसको अपनी औकात में रहना सिखाईये। बहुत छूट दे रखी है आपने उसको।’’

बुआ ने सॉस भरी थी,‘‘अब क्या क्या सिखॉए इनको। अपने आप को फैमिली का मैम्बर समझने लग गए हैं। कुछ पूछने की तो इन्हें ज़रूरत रहती ही नही है।’’

मैं सन्न रह गई थी। मुझे लगा था कि क्या बुआ को मेरे स्वागत में दीना का इतना लम्बा चौड़ा आयोजन करना अच्छा नहीं लगा है। पर बुआ सहज और ख़ुश दिख रही हैं। मैंने कनखियों से चौके की तरफ देखा था। दीना ने यह पूरा वार्ताक्रम सुना तो नहीं। चौका थोड़ी दूर पर ही है। मैं कुछ समझ नही पाती। पर उसके बाद बहुत कोशिश करने पर भी मैं सहज नहीं रह सकी थी। न मुझसे ठीक से खाना ही खाया गया था, न खाने पर से उठने के बाद दीना को थैक्यू बोलने का ही साहस हुआ था।

रात को मुझ को बहुत देर तक नींद नहीं आई थी। मॉ बहुत याद आती रहीं थीं। लगता रहा था जैसे ज़िदगी में कुछ भी मेरा अपना नहीं है-मेरी ख़ुशी-मेरे दुख-मेरे रिश्ते-मेरे निर्णय-कुछ भी तो नही। आधी रात को मैं अपने बिस्तर पर उठ कर बैठ गयी थी। लगा था बहुत सारे काम करने हैं। ख़ाली सोचते रहने से और दुखी होते रहने से अब काम नहीं चलेगा। जब तक अपने काम सही तरीके से नहीं निबटाऊॅगी तब तक यह बोझ भी जस का तस मन पर लदा रहेगा, बल्कि बढ़ता ही जाएगा। कुछ तो करना ही है और अब अपने निर्णय भी स्वंय ही लेना है मुझे। अपना बायो डेटा बनाना हैं। अपने सारे सर्टिफिकेट्स की प्रतिलिपियॉ तैयार करनी है-उन्हें अटैस्ट कराना है। फिर कहॉ कहॉ एप्लाई कर सकते हैं इसका हिसाब लगाना है। ख़ाली लोकल अख़बारों से काम नही चलेगा। एक दो दिल्ली के पेपर भी लेना पड़ेगे। पिछले अख़बार आस पास की लाइर्ब्रेरी में बैठ कर ढॅूडना हैं। शहर में कौन कौन से कालेज हैं। मैं मन ही मन हिसाब लगाने लगी थी। मैंने तय कर लिया था कि सिर्फ डिग्री कालेजों मे ही कोशिश करुंगी। जूनियर स्कूल में नही पढ़ाना मुझे। नहीं मिली तब? नहीं हुआ तो देखा जाएगा। नही हुआ तो फिर रिसर्च ही में दाख़िला ले लेंगे। सर्टिफिकेट किससे अटैस्ट कराऊॅगी ? फूफा को दे सकती हूं । पर फिर फूफा एक घण्टे तक अपने बगल में बिठा लेंगे एक एक सर्टिफिकेट वैरीफाई करने के लिए और बुआ परेशान होती रहेंगी। आस पास मंडराती रहेंगी। एम.ए.के एडमिशन के समय कराए थे न। बार बार यह पॉच लिखा है या आठ? फर्स्ट डिवीज़न ही है-सैकन्ड तो नहीं? पता नही उन्हें इतनी शंकाए वास्तव में रहती हैं कि बात चीत का सिलसिला बढाने का उनका यह अपना तरीका है, या दोनों ही बातें हैं। मैंने तय कर लिया था कि फूफा जी से नहीं कहूंगी मैं।

साढ़े दस बजे मैंने यश को आफिस में फोन किया था,‘‘तुम आफिस पहॅुच गए यश ?’’

‘‘हॉ क्यों-तुमने यहीं तो फोन किया है न ?’’

‘‘ओ हॉ’’ मैं सकपका कर हॅसी थी,‘‘मेरा एक काम करा सकते हो? मेरे कुछ सर्टिफिकेट अटैस्ट होना है। किसी कालेज के प्रिंसिपल, गज़ेटेड अफसर या किसी और अथॅारिटी से कराने होते हैं।’’

‘‘पता हैं। ऐसा करते हैं कि मैं फैक्ट्री बन्द करके सरकारी नौकरी ज्वायन कर लेता हूं।’’यश हॅसे थे।

‘‘मज़ाक मत करो मुझे जल्दी है।’’

‘‘तो दे देना न। बहुत से लोगों को जानता हॅू।’’

‘‘ठीक है मैं आज टाइप करा कर तैयार रखूगी।’’

‘‘ठीक है।’’ कह कर यश ने फोन रख दिया था।

कुछ ही क्षणों में फोन की घण्टी बजी थी। मैंने फोन उठा कर हैलो किया ही था कि यश की आवाज़ सुनाई दी थी,‘‘कहॉ से टाइप कराओगी ?’’

मुझे कुछ क्षण यश का सवाल समझने में लगे थे,‘‘कचहरी से या जी.पी.ओ. के बाहर से।’’

यश एकदम हड़बड़ा गए थे,‘‘पागल हो गयी हो।’’ उसके स्वर में गुस्सा है,‘‘वहॉ सड़क पर जा कर तुम बैठोगी कराने के लिए। निकाल कर रखो। मैं अभी एक घण्टे में ले लेता हॅू तुमसे।’’

‘‘अच्छा। थैंक्यू यश।’’ फोन रख कर मैंने अपने सारे कागज़ निकाल लिए थे और उन्हें सिलसिलेवार ढंग से लगाने लगी थी-पास सर्टिफिकेट्स और अपनी डिग्रियॉ,सिलसिलेवार मार्कशीट्स, कोकरिकुलर एक्टिविटीस के सर्टिफिकेट्स। फिर मैंने अपने पास सबकी एक लिस्ट बना ली थी। एक लिस्ट यश को भी दे दी थी।

‘‘नौकरी के लिए ही एप्लाई कर रही हो?’’ यश ने पूछा था।

‘‘हॉ यश। नहीं नौकरी के लिए भी एप्लाई कर रही हॅू। पी.एच.डी. का फार्म भी भरुंगी । कोई ज़रूरी तो नही है कि नौकरी लग ही जाए।’’

‘‘यही बेहतर है।’’यश ने कहा था।

‘‘नौकरी नहीं लगी तो हॉस्टल तो मुझे चाहिए ही होगा।’’ मैंने अपनी बात पूरी की थी।

‘‘और लग गई तो ?तब भी तो चाहिए ही होगा न हॉस्टल?’’

मैं ने यश की तरफ देखा था। कुछ कहने को मुह खोला था। फिर कुछ सोच कर चुप रह गई थी। यश मेरी ही तरफ देख रहे हैं। मैं धीमें से हॅस दी थी,‘‘तब? तब की तब देखी जाएगी यश। कहॉ लगेगी यह भी तो पता नहीं।’’ मेरी आवाज़ पसीजने लगी थी। मुझे लगा था मैं रो दूंगी। आजकल पता नहीं क्या हो गया है कि बात बात में रोना आता रहता है। बिना बात भी।

‘‘हॉ सो तो है।’’यश ने एक बार गहरी निगाह से मुझे देखा था,जैसे कुछ सोच रहे हों,‘‘पर तुम्हे हो क्या गया है अम्बिका, इतनी परेशान क्यों रहने लगी हो?’’

‘‘पता नहीं यश उलझ गई हूं। पी.एच.डी. की फार्मेलिटीज़ पूरी होने में भी समय लगेगा। उससे पहले हॉस्टल नहीं मिल सकता। डेढ़ महीने से पहले ही बुआ के घर हूं । अब अटपटा लग रहा है। लगता है दिन गिन रही हूं।’’ मैं खिसियाया सा हॅसी थी,‘‘कौन जाने बुआ भी दिन गिन रही हों। यूनिवर्सिटी के हॉस्टल सैशन ओवर होते ही ख़ाली करा लिए जाते हैं। ठीक ही तो है वे कोई अनाथों की शरणगाह तो हैं नहीं।’’

‘‘अरे। कैसी बात करती हो।’’ यश ने डपटा था। फिर बहुत ही अपनेपन से देखा था,‘‘इतना परेशान क्यों हो। थोड़े दिनों के लिए हमारे घर आ जाओ। कहूं क्या मम्मी से कि तुम्हें बुला लें?’’

मैं एकदम हड़बड़ा गई थी,‘‘नहीं यश। प्लीज़ नहीं।’’ इसके अलावा क्या कहूं यश से ? क्या यश आण्टी के अलगाव को नहीं समझ पाते? अपनेपन के व्यवहार के पीछे बहुत साध कर के बनाई रखी गई दूरी को? समझते भी होंगे तो वह मुझसे क्या कह सकते हैं भला। मैं भी तो इस बारे में यश से कोई बात नहीं कर सकती। ज़िदगी अजब तरह से उलझती जा रही है। छोटी सी थी तो कुछ समझ नहीं पाती थी-न बुआ की ऊब को-न आण्टी के अलगाव को। शायद तब ही ज़्यादा ख़ुश थी। कभी कभी लगने लगता है दोनो मुझसे छुटकारा चाहती हैं। अपनी अपनी तरह से-अपने अपने कारणों से। अब क्या करुं जो मन की आखों को सब साफ दिखने लगा है। कभी कभी लगने लगता है कि शायद मैं सच से थोड़ा अधिक ही देखने लगी हॅू।

आजकल पैसों को लेकर भी थोड़ा परेशान है मन। आण्टी उतने ही देती हैं जितने भर में मेरा काम चल सके। उनसे और मॉगने में मुझे संकोच लगता है। वैसे ज़रूरत पड़ने पर रूपए तो मैं यश से भी मॉग सकती हूं पर मुझे अच्छा नहीं लगता। पर अपनी ज़रूरत पर मैं यश पर निर्भर कर सकती हूं मेरे लिए उतना भरोसा ही काफी है। वैसे भी पैसे होते भी तो क्या कर लेती? पहले ज़िदगी का कोई साफ चेहरा तो आए सामने निकल कर। कुछ समझ तो सकूं कि मैं क्या कर रही हूं, क्या कर सकती हूं। समझ सकूं कि ज़िदगी मुझे किस दिशा में ले जा रही है।

यश जितनी हड़बड़ी में आए थे उतने ही झटपट नीचे उतर गए थे। साथ साथ नीचे तक की वे चार सीढ़ी तक मेरे उतरने का भी इंतज़ार नहीं किया था। मुझ को लगा था अच्छा हुआ इस समय बुआ घर पर नहीं हैं, नहीं तो फिर वही बहस कि पी.एच.डी. कर के क्या करोगी। शायद फूफा के होते हुए बुआ को सर्टिफिकेट अटैस्ट करवाने के लिए यश को बुलाना भी अच्छा न लगता। मैं कई बार नहीं समझ पाती कि मेरे लिए क्या सही है और क्या ग़लत है। बुआ कई बार चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी वाली स्थिति कर देती हैं। तब मेरा हर निर्णय ग़लत ही लगता है उन्हें। फिर वे यह भी पूॅछतीं कि कहॉ एप्लाई कर रही हो ? मैं झूठ नही बोल पाती और बुआ का फिर वही सवाल कि बी.एड. में क्यो नहीं ? मैं बुआ से किसी विवाद में पड़ना नहीं चाहती। पर बी.एड. की बात सुनते ही मन में चिड़चिड़ाहट भरने लगती है। पर जब तक आगे की कोई दिशा नही दिखती तब तक उस पर बात करने से कोई लाभ नही है। इसलिए मुझे चुप ही रहना है। मॉ मेरे ख़र्चे के लिए पैसा छोड़ कर गई हैं तब मुझे लगता रहता है जैसे मैं सब पर बोझा हूं-सबके लिए एक तरह का झंझट सा बनी हुयी हूं। अगर उन्होंने पैसा न छोड़ा होता तब मेरा क्या होता सोच कर ही मैं परेशान होने लग जाती हूं।

शाम को यश सारे सर्टिफिकेट्स ले आए थे। साथ में कुछ कैरेक्टर सर्टिफिकेट भी बना लाए थे। यश ने ही बताया था कि उन्हें हर अर्जी के साथ लगाना होगा।

Sumati Saxena Lal

Sumati1944@gmail.com

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