Hone se n hone tak - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 6

होने से न होने तक

6.

तीन दिन बाद मैं ग्यारह बजे से कुछ पहले ही चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज पहुच गयी थी। समय पर कमरे के बाहर खड़े चपरासी को मैंने अपने नाम की पर्ची दे दी थी। शीघ्र ही मुझे अन्दर स बुला लिया गया था। प्रिंसिपल की कुर्सी के बगल की कुर्सी पर एक स्वस्थ से गौर वर्ण के सज्जन बैठे हैं। चेहरे पर रौब और भेदती हुई गहरी निगाहें। मैंने अपने आप को संयत करने की कोशिश की थी। पता नहीं क्यों लगा था जैसे मेरी ऑखें पसीजने लगी हों। मैंने अपने आप को समझाया था...ऐसा निरीह महसूस करने की तो कोई बात नहीं। नौकरी नहीं भी लगी तो मेरा कुछ खो तो नहीं रहा। कुछ नही तो इन्टरव्यू देने का अनुभव ही सही। मेरे जीवन का पहला साक्षात्कार।

उन्होने मुझे सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया था। मैं ‘‘थैंक्यू सर’’ कह कर बैठ गयी थी।

वह अपने सामने रखे मेरे फाइल में उलझे रहे थे। बारी बारी से ध्यान से एक एक सर्टिफिकेट देखा था। बीच बीच में बिना कुछ बोले धीरे से मुस्करा देते। मुझे लगा था वे माहौल को सहज होने का समय दे रहे हैं। कुछ देर बाद उन्होंने निगाह उठायी थी, खुल कर मुस्कुराए थे और उसी गहरी निगाह से देखा था,‘‘एडूकेशन तो तुम्हारी बहुत अच्छे इन्स्टीट्यूशन्स में हुयी है।’’

मैं चुप रही थी। मैंने मन ही मन आण्टी का आभार माना था।

‘‘आल थ्रू बाहर पढ़ने के बाद एम.ए. लखनऊ से क्यों?’’

‘‘जी मेरी कुछ पर्सनल प्राब्लम्स हो गयी थीं।’’ मैंने जैसे सफाई दी थी, जैसे मेरे स्वर में क्षमा याचना हो।

‘‘नहीं। इट्स ओ.के। मैने तो ऐसे ही कह दिया था।’’ वे मेरे कागज़ उलटते पलटते रहे थे ‘‘गुड’’ उन्होंने फिर मेरी तरफ देखा था,‘‘बहुत अच्छा रिकर्ड है तुम्हारा...को करिकुलर एक्टिविटीस में भी रही हो। डिबेट में स्टेट लेवल के इनाम जीते हैं।’’ वे बात मुझसे कर रहे हैं किन्तु हर वाक्य पर डाक्टर मिस दीपा वर्मा की तरफ देख रहे हैं।

‘‘जी ’’

‘‘वैल्हम मे काफी साल रही हैं आप। क्या आपके फादर पोस्टेड रहे हैं वहॉ?‘‘

‘‘जी नहीं मैं होस्टल मे रही थी वहॉ।’’

‘‘बचपन से ही हॉस्टल्स में रही हो।’’ उन्होने मेरे ऊपर सवाल करती हुयी निगाह टिका दी थी ‘‘बाई द वे व्हाट डस योर फादर डू ?’’

मैं क्षण भर को चुप रह गयी थी। मुझे किसी ने बताया था, ‘‘वहॉ या तो बहुत बड़ें बहुत अमीर नामी गिरामी घराने वालों को नौकरी मिलती है या बहुत ख़ूबसूरत लोगों को।’’ मुझे अचानक वही बात याद आई थी। मैं उनकी गहरी पढ़ती सी निगाह के तले अचानक असहज महसूस करने लगी थी,‘‘जी उनकी डैथ बहुत साल पहले हो चुकी है। मैं तब केवल चार साल की थी।’’ मेरी आवाज़ मेरी कोशिश के बावजूद कॉप गयी थी।

‘‘आई एम सॉरी’’ उनके मुह से तुरंत निकला था। प्रिसिंपल मैडम भी सम्वेदना में कुछ बुदबुदाई थीं।

‘‘आपकी मदर वर्किंग हैं?’’ लगा था वे मेरे बारे में सब कुछ जानने को उत्सुक हैं।

‘‘जी नहीं। उनकी डैथ को ग्यारह साल हो चुके हैं।’’ और मैं एकदम चुप हो गई थी। कमरे में कुछ क्षण को जैसे सन्नाटा भर गया था।

दोनों लोगों ने बहुत अपनेपन से अफसोस जताया था। लगा था वे कुछ और पूछना चाहते हैं। उन्होने मुह खोला था पर फिर कुछ सोच कर एकदम चुप हो गए थे। फिर उन्होंने प्रिसिपल की तरफ देखा था। लगा था जैसे निगाहों में कुछ बात की हो। कमरे में कुछ देर सन्नाटा रहा था। फिर उन्होंने दुबारा प्रिंसिपल की तरफ देखा था फिर मेरी तरफ और बहुत ही सहजता से मुस्कराए थे,‘‘सो अम्बिका। यू आर एपायन्टेड। परसों मनडे है।’’ उन्होने सामने टंगे कलैन्डर पर निगाह डाली थी, ‘‘अगले मनडे पहली है। अगले मनडे से आ जाईए।’’

मैं जैसे एकदम स्तब्ध रह गई थी। जैसे समझ ही न आ रहा हो कि इतनी ख़ुशी के मौके पर मुझे कैसी ख़ुशी महसूस करना चाहिए, ‘‘थैंक्यू सर’’ कहने मे मुझे कुछ क्षण का विलम्ब हुआ था। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया था। नौकरी शुरू होने में पूरे नौ दिन बाकी हैं।

‘‘ओ हॉं। आप आल थ्रू इंग्लिश मीडियम से पढ़ी हैं। हिन्दी में पढ़ा लेंगी?’’ उन्होंने शंका भरी निगाह से मेरी तरफ देखा था,‘‘हमारे यहॉ टीचिंग का माध्यम हिन्दी है।’’

‘‘जी...जी बहुत अच्छी तरह से।’’ मैंने आत्म विश्वास से कहा था।

‘‘हॉ। वन थिंग मोर।’’ वे कुछ क्षण को झिझके थे, ‘‘यह चार महीने की वैकेन्सी है। वैसे तो सुना है डाक्टर रिज़वी का यूनिवर्सिटी में सैलेक्शन हो गया है। पर हाल फिलहाल वह छुट्टी लेकर गयी हैं। उन्होंने रिसिगनेशन नहीं दिया है। इसलिए टैक्नीकली तो इसे लीव वैकेन्सी ही कहा जा सकता है।’’उन्होने जैसे सफाई सी दी थी।

‘‘यस सर,’’ मैंने धीरे से कहा था।

‘‘नो नीड टू फील बैड।’’उन्होने मेरे चेहरे पर न जाने क्या पढ़ा था कि मुझे बहलाते हुए से हॅसे थे,‘‘आप मन लगा कर काम करिए। कुछ न कुछ रास्ता निकलेगा।’’

‘‘यस सर ’’

‘‘यह तुम्हारी प्रिंसिपल हैं।’’उन्होंने बगल की कुर्सी की तरफ इशारा किया था, ‘‘इनका नाम डा. मिस दीपा वर्मा है। मैं यहॉ का मैनेजर हॅू। मेरा नाम शशि कान्त भटनागर है। आई होप यू विल एन्जाय वर्किगं हियर। कोई परेशानी हो तो दीपा के पास बेझिझक जा सकती हो। शी इज़ लाइक एल्डर सिस्टर टू यू। अ मदर फिगर टू हर टीचर्स।’’

‘‘यस सर’’ मेरा मन भर आया था। नौकरी में इस सद्भाव और अपनेपन की मैंने बिल्कुल भी आशा नहीं की थी।

‘‘मैं बहुत ख़ुश हूं शशि भाई। बहुत अच्छा नया स्टाफ आ रहा है हमारे पास। फ्राम हर फेस आई कैन टैल यू दैट शी विल बी ऐन एसैट टू अस।’’ वे मेरी तरफ देख कर बहुत अपनेपन से हॅसी थी,‘‘मुझे तो इन ताज़ा ताज़ा चेहरों से ज़िदगी मिलती है। आल द टाईम आई फील फ्रैश एण्ड यंग।’’ मिस वर्मा की वह निश्छल सी हॅसी और उत्तेजित सा स्वागत। लगा था जैसे वह कमरा अपनेपन की एक गन्ध से महकने लग गया हो। मेरे लिए वह एकदम अनहोना सा एहसास था।

बाहर निकल कर आई थी तो लगा था जैसे ज़िदगी बदल गई हो। एकदम अपनी सी, अपने हाथों में, अपनी मनचाही। इस सच से ऊॅचा सपना तो मैंने अपने लिए देखा ही नहीं था। चारों तरफ निगाह घुमाई थी तो सब कुछ धुला धुला लगने लगा था। एकदम साफ और सुथरा।

यश बाहर गए हुए हैं। वह एक दो दिन बाद लौटेंगे। इस समय यश का शहर में न होना खल गया था मुझे। मैं यह ख़ुशी सबसे पहले यश के साथ बॉटना चाहती थी। पर...। मेरे पास उनका कोई सम्पर्क नम्बर भी तो नहीं। शायद यश स्वयं करें फोन। पर क्यों करेंगे? ऐसे कभी तो नहीं करते। मैं स्वयं भी तो नहीं चाहती कभी।...फिर बुआ की वह पढ़ती हुयी निगाहें, बेवजह।

मेरे हाथ में मिठाई के दो डिब्बे देख कर बुआ नें प्रश्न भरी निगाह से देखा था। इतनी बड़ी ख़ुशी बुआ को कितनी ख़ुश हो कर बताऊॅ यह मुझे समझ नहीं आ रहा था। मेरी नौकरी लगने की बात वह भी डिग्री सैक्शन में सुन कर बुआ ख़ुश हो गयी थीं। वह एकदम से चहकने लगीं थीं। बड़ी देर तक चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज और शहर के अन्य विद्यालयों के बारे में बात होती रही थी। तभी बातों के बीच जैसे अचानक बुआ को कुछ याद आया हो,‘‘पर अम्बिका’’ बुआ कुछ क्षण को झिझकी थीं,’’वहॉ हास्टल तो नहीं है न ?’’ बुआ ने अर्थ भरी निगाह से फूफा की तरफ देखा था और फूफा ने बुआ की तरफ। लगा था उन दोनों के चेहरे पर परेशानी छलकने लगी है।

‘‘नहीं बुआ वहॉ हास्टल तो नहीं है। पर’’ मुझे लगा था जैसे मैं सफाई दे रही हूं ‘‘पर उसके लिए मैंने सोच लिया है।’’

‘‘क्या ?’’ बुआ ने फौरन पूछा था।

मैं क्षण भर को अचकचाई थी। मैंने फूफा की तरफ देखा था फिर बुआ की तरफ,‘‘मैं आपसे थोड़ी देर बाद इस बारे में तसल्ली से बात करुंगी।’’

बुआ के चेहरे पर उलझन बनी रही थी। अपने घर का एक हिस्सा ख़ाली करा कर उसमें अकेले रहना चाहती हॅू...यह सीधे सीधे बिना किसी भूमिका के एकदम से कहने का साहस नहीं हुआ था। फिर अपनी उस इच्छा की घोषणा अपने किसी निजी निणर्य की तरह मैं कर भी नही सकती थी। वह बात मुझे बहुत सोच कर, बहुत व्यवस्थित ढंग से बुआ और आण्टी के सामने रखनी है। पर कैसे यह मैं नही समझ पा रही थी।

सोचा आण्टी को नौकरी लगने की सूचना दे दूं पर दोपहर के तीन बज रहे हैं। उन्हें शाम को ही फोन करूॅगी। फूफा अस्पताल चले गए थे। मैं अन्दर कमरे में आ गई थी। मैंनें चारों तरफ के पर्दे खींच दिए थे और लेट गई थी। इन्टरव्यू के तनाव में पिछली रात ठीक से सो नहीं पाई थी। लग रहा है कि ऑखों में नींद भरी है। पर मैं लेटे लेटे करवटें बदलने लगी थी। बहुत कोशिश करने पर भी नींद का नामों निशान तक नहीं। लगता रहा था कि आज तो मुझे बहुत ख़ुश,बहुत भार मुक्त महसूस करना चाहिए। पर पता नही मन पर यह कैसा भारीपन है। तब बहुत उलझन लगती है जब अपना मन अपने आप को ही न समझ पाए।

कुछ ही देर बाद बुआ भी आ गई थीं। वह मेरे पलंग के पास की कुर्सी पर बैठ गई थीं। उनके मना करने पर भी मैं भी उठ कर पलंग के सिरहाने से टेक लगा कर बैठ गई थी। कुछ देर वे इधर उधर की बात करती रही थीं। फिर अचानक ही रोने लगी थीं। शायद हॉस्टल के प्रश्न पर उन्होने मेरी ऑखों मे कुछ पढ़ा हो या शायद उनके मन ने स्वयं उन्हें कचोटा हो कि हॉस्टल की बात उठा कर उन्होने मुझसे घर छोड़ने के लिए कहा है या जो भी हो। उनकी ऑखों से मोटे मोटे ऑसू गिरने लगे थे और वे ऑखों पर पल्ला रख कर जल्दी जल्दी उन्हे पोंछने लगी थीं। बुआ के व्यतित्व के जो बहुत से फ्रेम मेरे मन पर अकिंत रहे हैं उसमे उनकी एक यह छवि भी है। उन्हें कहीं भी, कभी भी, किसी बड़ी ही नहीं बहुत छोटी सी बात पर इस तरह रोते मैंने न जाने कितनी बार देखा है, हॅसते हॅसते एकदम रोने लगना और रोने के कुछ क्षण बाद ही ठहाके लगा कर हॅसने लगना।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com