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त्याग

त्याग

मैं उसके लगभग पांच सालों तक सम्पर्क में रहा | जिसमें उससे व्यक्तिगत रूप से कोई दो चार ही मुलाकातें हुई थी, लगभग फोन पर है वो मेरी भेजी हुई कहानियों को प्रूफ चेक करती और छपने के बाद केवल 'गुड' लिखकर भेजती | पहली से आखिरी मुलाकात में भी वो अनमेरिड ही थी | मैंने उसे कई बार शादी के प्रस्ताव रखे कि अच्छा सा लड़का देख कर शादी कर लीजिए | क्योंकि एक बार किसी कॉन्फ्रेंस में उसकी ही सहेली गीता , जो मेरे और देवी के दोस्ताना व्यवहार से जलती थी, गीता ने मुझे उस पर व्यंग्य करते हुए पूछा -वो अनमेरिड है ना l" शायद! हो, मुझे नहीं पता! मैंने जानबूझ कर यही कहा था |

फिर कहीं एक बार गीता ने मुलाकात में वही प्रश्न मुझसे दोहराया - "अरे! तेरी मेम कैसी है हरि?" "एक दम मस्त" मेरा जवाब उसके चेहरे पर पानी फ़ेर देता वहीं मुझे देवी का अविवाहित रहना गीता का व्यंग्य भी कई-कई दिनों तक परेशान भी करता | हर लड़की की आखिर अपनी मर्यादा होती है, अगर वो लड़का होती तो एक - एक लड़की को चार- चार बार देखकर रिजेक्ट करती फिर कोई कहीं फाइनल करके शादी करती, पर स्त्रीत्व का धन सदैव सीमित व इच्छाओं का दमन कर जीने वाला ही होता है |
गीता जब भी मुझसे मिलती, न जाने क्यूँ उसी के बारे में यही एक ही सवाल वो भी मुझसे ही पूछा करती "देवी ने शादी कर ली क्या? मैं बड़ा हैरान था, जिसे मैं ईश्वर के तुल्य समझा, उसके बारे में मेरे कानों ने कटुता भरे शब्द सुनने मिलते l ओर तो ओर दूसरे साथी भी उनके नाम की चुटकियां भरते, इसी प्रतिकार के कारण मैं अपनापन दिखाया करता और आखिर रटीरटायी बात कह ही देता - देवी, शादी कर लो l वो हर बार मेरी बातों को इग्नोर कर दिया करती थी | शायद उसे किसी का इंतज़ार था |
एक दिन उसकी अनमैरिड वाली बातें मैंने स्टाफ में बड़े ही निंदनीय तरीके से सुनी, मुझसे रहा नहीं गया, मैंने तुरंत फोन करते हुए अपनेपन का अहसास जताया और कह दिया- देवी, कोई लड़का देखो शादी कर लो, देवी को खुश करने के लिए अहसास भरी एक कविता भी सुनाई -

एक तरफ झुका रथ रण तो सारथी भी मारा जाता है |
एक तरफ लगती है ठोकर तो महारथी भी हारा जाता है||

एक चोट एक तरफ महाबली को विकलांग बना देती है|
एक तरफ की हुई दोस्ती सब कुछ गवां देती है ||

एक तरफ का झुका पेड़ भी क्षत - विक्षत होता है |
एक तरफ प्रेमी का प्यार भी घुट - घुट कर रोता है ||

मेरी कविता को सुनती रही जैसे है मैंने पूछा, कैसी है देवी, मेरी कविता ? इतना पूछते ही वह बहुत रोई थी, यहाँ तक कह दिया कि "जी करता मैं अभी मर जाऊँ |" उस दिन मैं भी बहुत रोया था | मेरी माँ कहती थी, कि मर्द रोते नहीं | वो बात झूठी हो गयी, क्योंकि मैं मेरे आँसू स्वत ही निकल रहे थे |
समय कब बीत जाता है, दूरियाँ बनती गयी एक ओर मैं अपनी पारिवारिक दुनिया में दो पुत्रों का पिता बना l मेरी पत्नी प्रियंका से मुझे बहुत प्यार मिला है, पर उन आंसुओ को मैं भूला नहीं सका | आज करीब पच्चीस वर्ष बाद भी यदा-कदा किसी समाचार या टेलीविजन के कुछ दृश्यों में उसका साया मेरे सामने आकर अंतर्मन को झकझोर कर रख देता | कुछ भावुक दृश्यों को देखकर मेरी आँखों में आँसू आ जाते तो प्रियंका कहती - "बड़े भावुक हो, यार| ये सब फिल्मी दुःख है |" उधर मेरे बेटे भी व्यंग्य करते - "क्या डैडी आप टीचर होकर भी |" न जाने क्यों आजकल उसके ही ख्याल मेरे दिल - दिमाग में घूमने लगे | मैंने प्रियंका को देवी के बारे में एक दो बार बताया भी है, पर उसने कभी सही ढंग से मुझे जाना ही नहीं , वो देवी का नाम लेते ही शक की दुनिया में डूब जाती, इसलिए उसे देवी के निश्चल प्रेम को जानने का मौका ही नहीं मिला | ये आँसू उन्हीं के थे, ये कौन जाने ? कौन सुने ? क्योंकि मेरी उस निश्चल प्रेम की अनन्या देवी को सुनने के लिए वृषभानुजा के दोनों स्वरुपों की शक्ति एक ओर तो ब्रज की ग्वालिन वाला कोमल हृदय और दूसरी ओर उसी कोमलता से परे वज्र का पक्का सहनशील व प्रेम का स्वार्थहीन त्याग वाला दिल चाहिए, वो शायद ही किसी पत्नी के पास हो, पर मेरी प्रियंका पास नहीं है |
मैं देवी को कभी भुला नहीं | आज लगभग पच्चीस वर्ष बाद मुझे सब्जी बाजार में दूर से देवी की झलक देखने को मिली | मैं तुरन्त पहचान गया | मेरा चेहरा पुलकित व उठा मैं उसको रोकना चाहता था, पर उसकी भी सीमाएं और मेरी मर्यादा के बीच जवान नवविवाहित बेटा कार्तिक साथ था |
आज फिर पच्चीसों सालों की पुरानी यादें ताजा हो गयी | वही रटीरटायी बात खयालों में उतर गयी - "देवी, अब तो शादी कर लीजिए |"
मैं उसकी तलाश करने लगा हर रोज सब्जी बाज़ार में आकर खड़ा हो जाता | मुझे देवी से ढेर सारी बातें करनी थी | आज महीनेभर इन्हीं गलियों में भटकने के बाद मुझे श्री राधाकृष्ण मंदिर से निकलती दिखाई दी|l मैंने भागमभाग करके फूलती साँसों को लिए मंदिर पहुंचा | देवी, रुको | मेरी आवाज़ दबी सी थी, साँस फूल रही थी, बोला भी नहीं जा रहा था, पर उनके कानों में मेरी आवाज़ पहुंची | मैं साँसेभर थोड़ा रुका |
देवी के भी कदम रुके उसने मेरी तरफ देखा पर उसके कदम मेरी तरफ न बढ़े, हमेशा की तरह ही मुझे ही उसके पास जाना पड़ा, आखिर मैं ही चलकर उसके सामने गया | झूठी मुस्कान बिखरते हुए उसी प्यार वाले स्टाइल में होठों पर तर्जनी उँगली रखते हुए बोली - "हरि तुम, देखो पहचान लिया ना मैंने ! उसकी आवाज़ में आज भी ग़मगीन उदासी, आँखों को न मिला पाने की झूठी हामी और धीरे - धीरे से बंद करती-खोलती पलकों के पीछे छुपा दर्द साफ दिखायी दे रहा था l मैंने सिर हिलाते हुए कहा - हाँ | अपनों को बन्द आंखे भी देख लेती है, मैंने व्यंग्य किया | आजकल कहाँ रहती हो? कितने बच्चे हैं?
मेरा प्रश्न करते ही मुड़ गयी और चल पड़ी, पर मेरे कदम उसके कदमों का साथ देने के लिए आगे न बढ़े और उसने चलते -चलते बिना देखे अपनी पीठ से ही जबाव देते हुए कहा -"शादी नहीं की, तूने पूछा नहीं, गैरों से की नहीं !" इतना कहते ही वो दूसरी गली में मुड़ गयी | मेरी आँखों ने एक निश्चल प्यार को खोने का भयानक दृश्य, एक स्त्रीत्व का एकांत भरा दर्द, उसका संघर्ष, उसकी सहनशीलता, उसके अरमानों का जड़त्व चित्रण, रातभर घुट - घुटकर रोने वाली आँखे देखी; उस महान बलिदानी देवी के आगे मैं नतमस्तक खड़ा रहा, उसकी वेदना मेरी आंखों से बह निकली | मैं निरुत्तर था |
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