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भीड़ में - 1

भीड़ में

(1)

सुनकर चेहरा खिल उठा था उनका. उम्र से संघर्ष करती झुर्रियों की लकीरें भाग्य रेखाओं की भांति उभर आई थीं. आंखें प्रह्लाद पर टिकाकर पूछा, “कहां तय की लल्लू ने शादी?”

“आपको कुछ भी खबर नहीं बाबू जी?” प्रह्लाद, जो उनके चचेरे भाई का बेटा है, ने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा था.

“इसी शहर---काकादेव की पार्टी है---.” प्रह्लाद रुका, फिर बोला, “मैं सोचता था कि रमेन्द्र ने आपको बताया होगा---वे और भाभी जी तीन बार आ चुके हैं यहां----“

“फुर्सत न मिली होगी---लल्लू ’बिजी’ भी बहुत रहता है.” प्रह्लाद के चेहरे से आंखें हटा वे पास रखे अखबार में कुछ पढ़ने लगे.

“बड़े पद की व्यस्तताएं बड़ी होती ही हैं बाबूजी---“ प्रह्लाद ने देखा वे अखबार में किसी समाचार पर नजरें गड़ाए हुए थे.

कुछ देर सन्नाटा रहा.

“लल्लू ने कुछ कहा है?” अखबार से नजरें हटा कुछ देर बाद वे बोले.

“कहा कुछ नहीं---“ प्रह्लाद ने देखा कि वे फिर अखबार में उलझ गए थे. “मुलाकात तो मुझसे भी नहीं हुई रमेन्द्र की. कई महीने हो गए. अब लखनऊ भी दिल्ली हो रहा है बाबूजी. एक ही शहर में रहकर भी हम नहीं मिल पाते. दूरियां भी बढ़ गयी हैं. एक दिन मेरी बिटिया रंजना ने रमेन्द्र से कुछ पूछने के लिए फोन किया था. वे मिले नहीं---पता चला ऑफिस चले गए थे---पुत्तन की मां यानी रंजना की चाची थीं विनीता. विनीता ने ही बताया था कि दस दिन पहले उन्होंने बेटे की शादी तय कर दी है. लड़की लखनऊ विश्वविद्यालय से बायो-केमेस्ट्री में पी-एच.डी कर रही है. पिता कानपुर में ’जॉयंट डायरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज’ हैं. कानपुर से बीस मील दूर घाटमपुर के पास गांव में बड़ी काश्त है. शहर में तीन मकान---बड़ी पार्टी है.”

’क्या वह व्यर्थ ही बोलता रहा---बाबूजी ने सुना भी या नहीं. उसके बताने से पहले ही वह अखबार में चेहरा झुका चुके थे. वह क्यों इतना सब बोल गया!’ प्रह्लाद को स्वयं पर गुस्सा आ रहा था.

देर तक चुप्पी रही. प्रह्लाद की नजरें उनके चेहरे पर गड़ी थीं. छत के पश्चिमी कोने पर चिड़ियों का झुंड आ बैठा और चहचहाती हुईं वे दानों पर चोंचे चलाने लगीं. वर्षों से वे छत के उस कोने में दो मुट्ठी अनाज डालते आ रहे हैं. चिड़ियों का झुंड निश्चित समय पर प्रतिदिन वहां आ पहुंचता है. वे एक-एक चिड़िया को पहचानते हैं और वे भी उन्हें पहचानती हैं. इसीलिए निर्भय हो वे उनके पास तक चली आती हैं. वे जब तक वहां रहती-चहचहाती हैं, वे मंत्रमुग्ध सुनते रहते हैं. उतनी देर वे अपने एकाकीपन की गुफा से बाहर निकल आते हैं. जब वे चली जाती हैं वे फिर उसी गुफा में समा जाते हैं. कभी जब कोई परिचित चिड़िया कई दिनों तक नहीं आती, वे समझ लेते हैं कि वह अब नहीं आएगी. उनका मन दुखी रहता है. लेकिन दो-चार दिनों में ही उस चिड़िया का स्थान जब कोई नयी चिड़िया ले लेती, वे फिर सामान्य हो जाते.

काफी देर बाद वे बोले, “हमारा पुत्तन भी तो रेलवे में इंजीनियर हो गया है.”

चिड़ियों का झुंड फुर्र से उड़ गया था. वे उन्हें आसमान में दूर उड़ता हुआ देखते रहे.

“हा चाचा---लखनऊ में ही पोस्टिंग मिली है.”

“लल्लू एक बार आए थे---“ वे रमेन्द्र को बचपन से घरेलू नाम ’लल्लू’ से ही बुलाते हैं. रमेन्द्र ने कई बार टोका भी, “बाबू जी, अब मैं लल्लू नहीं रहा---और बचपन में भी नहीं था. पढ़ने में अव्वल रहा हूं. फिर भी आप आज भी लल्लू ही बुलाते हैं. मेरे मित्रो के सामने भी---बाद में लोग मजाक उड़ाते हैं. आप भी अफसर रहे हैं---ए.सी. इन्कमटैक्स---.” उन्होंने हर बार रमेन्द्र को समझाने का प्रयत्न किया, “बेटा यह नाम तुम्हारी मां का दिया हुआ है---जुबान चढ़ा है. लल्लू का मतलब लल्लू ही नहीं होता---लाल है---मेरा लाल. यह केवल नाम ही नहीं है रमेन्द्र---तुम्हारी मां की भावनाएं-प्यार जुड़ा है इससे.”

बाद में रमेन्द्र ने विरोध करना बन्द कर दिया था, लेकिन जब भी उनके मुंह से ’लल्लू’ निकलता वह कसमसमाता अवश्य था.

“हो गए होंगे कोई नौ-दस महीने.” कुछ देर के विराम के बाद वे बोले, “शायद फरवरी की बात होगी---सर्दी के ही दिन थे---मुझे याद आ रहा है.” वे उस दिन को याद करने लगे, “यहां लेबर ऑफिस में कोई मीटिंग थी---दफ्तर की गाड़ी से आए थे लल्लू---बड़ा ताम-झाम था. चपरासी—बड़ा बाबू, दो सहायक अधिकारी---मैं छत पर धूप सेंक रहा था. पन्द्रह-बीस मिनट रुके होंगे---चाय बना दूं कहा तो बोले थे, “आप धूप सेंको बाबू जी---चाय बनने-पीने में देर हो जाएगी---लखनऊ पहुंचकर कमिश्नर के साथ मीटिंग है. बहुत जल्दी में थे. तभी बताया था कि पुनीत (पुत्तन) रेलवे में सेलेक्ट हो गया है.” सांस को स्थिर कर वे फिर बोले, “चलो अच्छा हुआ कि पुत्तन को लखनऊ में पोस्टिंग मिल गयी. लल्लू के रिटायरमेंट में भी तो दो साल ही बचे हैं.”

प्रह्लाद चुप रहा. उसे कोई बात नहीं सूझ रही थी. वे भी अखबार का पन्ना पलट कोई महत्वपूर्ण समाचार ढूंढ़ने लगे थे. देर तक दोनों के मध्य मौन पसरा रहा.

“कब है तिलक और शादी?” अखबार बन्द कर उन्होंने पूछा.

“ शायद पचीस नवम्बर को तिलक है और आठ दिसम्बर को शादी!”

“हुंह” वे डूब गए थे गहरी सोच में, “पचीस नवम्बर—यानी केवल बीस दिन.---“ कुछ देर बाद बोले, “अरे बातों में ऎसा डूबा कि तुम्हें चाय पिलाने की याद ही नहीं रही. लो—अखबार पढ़ो.” अखबार प्रह्लाद की ओर बढ़ा वे उठ गए, “दस मिनट में आया---.”

“चाचा जी---आप तकलीफ न करें---चाय की जरूरत नहीं है.” प्रह्लाद ने विरोध किया. लेकिन, “प्रह्लाद चौरासी साल का हो गया तो क्या---अपने लिए सब करता हूं, तुम्हारे लिए चाय नहीं बना सकता! इन हाथों की चाय पियोगे तो याद रखोगे---!”

उनके उत्साह को देख प्रह्लाद को चुप रह जाना पड़ा. वह सोचने लगा चाचा के विषय में जो दो सफल बेटों और दो बेटियों के होते हुए भी जीवन के अन्तिम चरण में स्वयं सबकुछ करने के लिए विवश हैं.

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बाबू रघुनाथ सिंह ने छोटे स्तर से जीवन प्रारम्भ किया था. बी.ए. करने के बाद वे शिक्षा विभाग में क्लर्क बने थे. पिता किसान थे और कानपुर से बीस मील दूर सरसवा गांव में दस बीघे खेतों में अथक परिश्रम कर उन्होंने बेटे को पढ़ाया था.

वे शिक्षा विभाग में लगे उसके कुछ दिन बाद ही पिता ने आंखें मूंद लीं. मां को वे साथ शहर ले आए. खेती अधाई में दे दी. नौकरी करते हुए एल.एल.बी. की पढ़ाई शुरू की. नौकरी और पढ़ाई में खेती देखने जाने के अवसर कम होते गए. एल.एल.बी. का पहला साल पास किया तब शादी हो गयी. जिम्मेदारियों के कारण महीने में एक बार गांव जाने का क्रम टूट गया. फसल में ही जा पाते. परिणामतः आधा-अधूरा ही मिलता. लेकिन ’खेती है गांव में’ सोचकर सन्तोष कर लेते. यह क्रम अधिक नहीं चलने दिया पट्टीदारों ने. निकट के चाचा ने घर पर अधिकार कर लिया. मिलने पर कुछ कहने का अवसर भी नहीं दिया. “बबुआ, तुम तो शहरी हुए—साल में दो बार आते हो---एक-दो दिन के लिए. तुम्हारा घर मिट्टी के ढेर में तब्दील हो, इससे पहले कुछ करना चाहिए-सोचा.” दीवारों की ओर इशारा कर वे बोले थे, “तुम देख रहे हो न! बिना देखभाल के दीवारें गिरने को हो रही हैं. चप्पर-छानी बिना एक दिन सब ढह जाएंगी, तुमसे बिना पूछे दरवाजा खोलकर मैंने मरम्मत करवाया---बुरा तो नहीं लगा तुम्हे?” उनके चेहरे पर दृष्टि गड़ा उन चाचा ने पूछा तो वे चुप ही रहे थे.

“बबुआ, घर खुला रहेगा तो साफ-सफाई होगी—हवा मिलेगी तो घर बना रहेगा. तुम समझदार हो, दुई अच्छर पढ़े हो. अच्छे ओहदे पर हो. घर और मेहरारू बिना देखभाल के साथ छोड़ देते हैं.” फिक से हंस दिए थे उनके वे चाचा तो वे किसी प्रकार अन्दर उमड़ते क्रोध के ज्वार को दबाकर बोले थे, “फिर भी आपको एक बार पूछ तो लेना ही चाहिए था चाचा. अम्मा को शहर पसन्द नहीं आया अभी तक. पुरखों की ड्योढ़ी है. उनका मन यहां रहने का हो सकता है. खेत-पात देखने की इच्छा हो सकती है.”

बीच में टोका था चाचा ने, “अरे कैसी बात करते हो रघुनाथ बबुआ. तुम्हरी अम्मा—हमरी भौजाई---तुम्हरे घर में कोई दूसरा तो रहेगा नहीं. तुम्हारा छोटा भाई यानी मेरा छोटे ही रहेगा. दो बच्चे हैं और घरवाली. तुम्हारी अम्मा आएंगी तो उनके लिए अच्छा ही रहेगा. सुबह शाम पकी रोटियां मिला करेंगीं. बूढ़ा शरीर---कहां खटकर रोटियां सेंकती रहेंगी. ठाठ से आएं भौजी---रहें---तुम्हारा घर तुम्हारा ही रहेगा बबुआ, मन मा कौनो खोट मत लाओ रघुनाथ. हमहुं तुम्हार सगे हन. तुम्हारे परबाबा और मेरे बाबा सगे भाई थे. यह भी बताने की जरूरत है?” कुछ देर रुककर उनके चेहरे के भाव पढ़कर चाचा बोले थे, “बड़ी रहस की बात है बबुआ. खाली घर पर सारे गांव की नजरें गड़ी थीं. कोई गैर आकर मेरे सिर पर नाजायज कब्जा करे---यह मैं कैसे बर्दाश्त कर सकता था. इसलिए---बाकी भौजी आवें---हमें तो खुशी होगी. बंटाईदार ससुरा सुनता नहीं—मनमानी करता है. तुम भी महीनों में आते हो. थोड़ा जल्दी-जल्दी आया करो बबुआ. दुई-चार दिन रहा करो---छोटे के रहते कोई दिक्कत न होगी. उसके बच्चे सेवा करेंगे तुम्हारी---.”

वे चाचा की बातों का अर्थ समझने की चेष्टा करते रहे थे, तभी कुछ रुककर चाचा बोले थे, “एक बात सुझाई बबुआ?”

उनकी ओर देखा था उन्होंने, आभिपाय था कि कहें आप!

“तुम किसी दूसरे को खेत देते ही क्यों हो बंटाई में? अब छोटे है न---घर भी संभालेगा और खेत भी. साल छः महीने में जब भी फुर्सत मिले आव और अपना हिस्सा ले जाओ, बंटाईदार के पीछे पड़ने की झिक-झिक खत्म.”

“खेती के मामले अम्मा संभालती हैं. उनसे पूछकर ही उत्तर दे पाऊंगा.” वे बोले थे.

“रघुनाथ बबुआ---तुम अब छोटे तो नहीं हो. खुद ही निर्णय कर सकते हो. खेतों की जिम्मेदारी कब तक अम्मा पर डालते रहोगे! बूढ़ा शरीर---उन्हें मुक्त कर दो.” कुछ सोचने का-सा भाव प्रकट करते वे कुछ देर तक चुप रहकर फिर बोले, “पढ़-लिखकर भी तुम अम्मा की भावना की कदर करते हो यह जानकर मुझे अच्छा लगा. तुम जरूर पूछो उनसे और बेहतर तो यही होगा कि भौजी ही आकर रहें कुछ दिन छोटे के साथ. मेरा बेटा है तो उनका भी बेटा ही हुआ न! उसकी बहू उनकी अच्छी देखभाल करेगी.”

वे चाचा को उत्तर नहीं दे पाए थे और न ही उनके बेटे छोटे को घर खाली करने के लिए कह पाए थे. लेकिन यह समझते उन्हें देर न लगी थी कि अनाथ पड़े मकान को जिस प्रकार चाचा ने अपने अधिकार में ले लिया है और वे विरोध नहीं कर सके उसी प्रकार एक दिन वह खेत भी अपने अधिकार में कर लेंगे. बंटाईदार ठहरा गरीब आदमी. धमका देंगे, “मुझे रघुनाथ कह गए हैं कि अब खेत तुम्हारे पास बंटाई में नहीं रहेंगे. छोटे जोतेगा.”

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देश तब आजाद न हुआ था, लेकिन अवसरवादी लोगों की कमी न थी. चारपाई पर उन्होंने करवट ली. नवम्बर के प्रारंभ की धूप की गुनगुनाहट उन्हें भाती लगी. हालांकि सर्दी अधिक न थी, फिर भी बूढ़ा शरीर धूप को अन्दर समेट लेना चाहता था.

अम्मा ने सुना तो अवाक रह गयीं. “मुझे आशंका थी बबुआ. छोटे भला लड़का नहीं है. उल्टे-पुल्टे लोगों का साथ है. हर दिन ठेके जाता है. घरवाले परेशान हैं उससे. तुम्हारे चाचा को मौका मिला. उससे मुक्ति भी मिली और अगर तुमने उसे अधाई में खेत दिए तो वापस मिलने की उम्मीद न करना.” अम्मा का चेहरा विषाद से भर उठा था. देर तक सोचकर वे बोलीं थीं, “रघु, जैसे भी हो तुम खेत बेच दो. ---घर तो शायद ही कोई ले अब---गांव में कोई उनसे लड़ना नहीं चाहेगा और तुम भी कहां कोर्ट-कचहरी करते रहोगे.” चेहरे पर चिन्ता ओढ़ वे आगे बोलीं, “मैं अब उस ड्योढ़ी में कदम नहीं रखूंगीं. अब बचा भी क्या वहां! अपवित्र कर दी उसे छोटे ने---क्या नहीं होता होगा वहां ---शराब-जुआ----.” अम्मा आहत थीं.

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