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भीड़ में - 4

भीड़ में

(4)

वे चिन्तित होते तो सावित्री कहती, “लल्लू के बाबू—तुम अपने शरीर पर ध्यान दो. देख रही हूं कि कंचन-सी काया मेरी चिन्ता में मिट्टी कर रहे हो. अरे मुझसे तो भगवान ही रूठ गया है---तुम भी अपने को बीमार कर लोगे तो जो दो-चार साल मुझे तुम्हारे साथ रहने को मिलने वाले हैं वे भी न मिलेंगे.”

वे चुप रहते. जिन्दगी भर अच्छा खाने-पहनने वाले उन्हें सादा-खाना और दो जोड़ी कपड़ों में अपने को सीमित कर देना पड़ा था. बचपन से दूध उनकी कमजोरी रहा था. सुबह वे दो बिस्कुट या एक केला के साथ आधा लीटर दूध रिटायर होने तक लेते रहे थे. लेकिन सावित्री की बीमारी और इलाज में खाली होते बैंक बैलेंस ने उन्हें दूध पर नियन्त्रण करने के लिए विवश कर दिया था. दूध केवल चाय के लिए ही आता. सावित्री दूध कभी नहीं लेती थी. वह चाय की शौकीन रही और मधुमेह ’डिटेक्ट’ होने के बाद भी चाय के लिए जान देती रही.

उनके रिटायर होने के बाद एक महीने के अन्तर से रमेन्द्र के पुत्तन और धीरेन्द्र के आनन्द पैदा हुए. पोतों के जन्म से सावित्री बीमारी भूल गयी. बोली, “लल्लू के बाबू किसी तरह मुझे बाजार ले चलो---दोनों को बधाई भेजनी है. बहुओं के लिए कपड़े और पोतों के लिए सोने का कोई नग और कपड़े खरीदने होंगे. तुम्हें तो सऊर नहीं---मुझे साथ चलना ही होगा.”

“सावित्री, तुम्हारा शरीर साथ नहीं दे रहा. मैं ही कुछ खरीद लाऊंगा. तुम बता भर देना.”

“ना---ना---लल्लू के बाबू, मुझे ले चलो. टैक्सी नहीं ले सकते तो रिक्शा ही सही. गुमटी नं. पांच से खरीद लेंगे. तुम खरीद नहीं पाओगे.”

और उन्हें टैक्सी मंगवानी पड़ी थी. सहारा देकर टैक्सी में बैठाया था सावित्री को. कितना खुश थी वह. गुमटी नं. पांच में एक सरदार की दुकान में ले गए थे. वहां से एक रेडीमेड गारमेंट शॉप, फिर ज्वेलर, फिर एक और दुकान---दो घंटे की खरीददारी ने थका दिया था सावित्री को. लेकिन वह प्रसन्न थी कि पोतों के लिए बधाई भेज सकेगी. बहुओं को कहने का मौका नहीं देना है. वे अपना धर्म निभाएं या नहीं---लेकिन वह मां है. उसे वह सब करना ही है.

रात सावित्री ने उनसे जिद की थी, “लल्लू के बाबू---यह सब लेकर तुम्हें ही जाना होगा लखनऊ-इलाहाबाद.”

“लेकिन तुम्हें छोड़कर---.”

“मेरी चिन्ता क्यों करतो हो! अभी इतनी जल्दी मरने वाली नहीं हूं. तुम्हें और कष्ट दूंगी.” वह मुस्कराई थी. चेहरे पर झुर्रियां उभर आईं थीं. उनसे तीन वर्ष छोटी थी सावित्री, लेकिन बीमारी ने उसे असमय ही अधिक बूढ़ा कर दिया था.

वे लखनऊ-इलाहाबाद न जाने का बहाना ढूंढ़ते रहे थे. कई दिन टल गए थे. बहाने का कारण यह नहीं था कि बेटे उनसे मिलने कम आते थे, फिर क्यों जाएं वे उनके यहां, बल्कि वे सावित्री को अकेले नहीं छोड़ना चाहते थे. जानते थे कि पोतों की खुशी में वह अपने कष्ट भूल गयी है, लेकिन---.

परन्तु उनके ’लेकिन’ को सावित्री ने खारिज कर दिया था, “तुम मेरी चिन्ता छोड़ो. विमला है न---अपनी नौकरानी, देखभाल कर लेगी. मैंने उससे बात कर ली है. तुम कल सुबह की गाड़ी से चले जाओ लखनऊ. कल इतवार है न! लल्लू भी घर में मिल जाएगा. रात वहां रहकर सोमवार को वहीं से इलाहाबाद और मंगल को कालका मेल से वापस. जमा खर्च ढाई दिन की बात है. बेटे भी खुश होंगे. पोतों को गोद खिला आओगे.” सांस फूल गयी थी सावित्री की तो कुछ देर के लिए रुकी थी वह.

“और हां” कुछ याद करती सावित्री बोली थी, “एक बात कहना न भूलना. दोनों से कहना. दो चार महीना बाद—बच्चे जब कुछ बड़े जाएं---बहुओं को मिलवा ले जाएंगे. विनीता शादी के बाद आई ही नहीं. नंदिता यहीं की है. पोतों को गोद खिलाकर मरना चाहती हूं.” आंखें भीग गयी सावित्री की तो उसने धोती के कोर से पोंछ डाला. “तुम आज ही जाने की तैयार कर लो लल्लू के बाबू.”

वे सोच में डूब गए थे. जाते हैं तो पता नहीं पीछे क्या बदपरहेज हो जाए या क्या संकट आ टपके. लेकिन समाधान सूझा. लखनऊ-इलाहाबाद के टेलीफोन नम्बर लिखकर दे जाना ठीक रहेगा. विमला को भी समझा देना होगा. कोई परेशानी होगी तो किसी से प होन करवा देगी. कुछ पैसे भी दे जाना चाहिए.” मन आश्वस्त हुआ.

शाम विमला को फोन नम्बर और बीस रुपए दिए थे उन्होंने और विस्तार से सब कुछ समझा दिया था. अगले दिन सुबह साढ़े सात बजे की सीतापुर एक्सप्रेस पकड़ने के लिए वे छः बजे घर से निकल पड़े. गाड़ी दस बजे लखनऊ पहुंची. शाम मेस्टन रोड जाकर कानपुर के मशहूर ठग्गू के लड्डू भी ले आए थे. जीन्स के बड़े-से थैले में लड्डू, कुछ काजू, पिस्ता, बादाम आदि मेवे बाएं हाथ में लटका और अटैची दाहिने हाथ में पकड़ वे रिक्शा से साढ़े दस बजे रमेन्द्र के बंगले के बाहर उतरे. घंटी बजाई. वही पुराना नौकर नमूदार हुआ.

“बाबू जी नमस्ते.” गेट खोलता वह बोला, “बाबू जी साहब तो कल बीवी जी के साथ ससुरबाड़ी गए थे.” नौकर ने अटैची पकड़ ली थी.

गेट से अन्दर घुसते उन्होंने पूछा, “लौटेंगे या---?”

उनका आभिप्राय समझ नौकर बीच में ही बोला, “बोले थे, बीवी जी वहीं रहेंगी और वे शाम तक आ जाएंगे.”

“हुंह.” वे नौकर के साथ ड्राइंगरूम में पहुंचे. थैला सोफे पर रख सोचते-से कुछ देर तक खड़े रहे. ’शाम तक आने का मतलब वह रात वहां से भोजन करके आएगा. और ’बेटा कल यहीं से दफ्तर चले जाना’ गोपाल प्रसाद के कहने पर वह नहीं भी आ सकता. यानी लल्लू पूरी तरह गोपाल प्रसाद सिंह के प्रभाव में है. क्यों न इस नौकर से फोन करवाकर कहलवा दूं कि ’मैं’ आया हूं.’ विचार उन्हें बुरा नहीं लगा. ’लाइन पर आने पर अगर लल्लू बात करना चाहेगा तो कह दूंगा कि दो घंटे के लिए बहू-पोते को लेते आओ, फिर छोड़ आना. बड़े पदाधिकारी हैं ससुर---गाड़ी-ड्राइवर सब है. ऎसा कर सकता है. मेरा आना भी सार्थक होगा.’ यही तय किया और नौकर की ओर मुड़कर, जो अटैची एक ओर दीवार के सहारे रखकर उनके आदेश की प्रतीक्षा में था, बोले, “तुम्हारे पास लल्लू के ससुरबाड़ी का फोन नं. है?”

नौकर भौंचक-सा उनकी ओर देखता रहा. वे उसका संकट समझ गए.

“लल्लू यानी रमेन्द्र ---तुम्हारा साहब---.”

“ओह---नम्बर है बाबूजी ----“ और नौकर दूसरे कमरे की ओर दौड़ गया था. एक छोटी-सी डायरी, जो शायद उसकी निजी डायरी थी, क्योंकि उसमें कुछ ही नाम लिखे थे, ख्योलकर बोला वह, “यह रहा वहां का नम्बर.” डायरी उसने उनकी ओर बढ़ा दी.

“तुम्हीं मिलाओ और पूछो साहब हैं? हैं तो लाइन पर लेकर बात करवाना—नहीं हैं तो पूछना कब तक आएंगे और कह देना कि आते ही यहां फोन करेंगे.”

“जी बाबूजी.”

वे सोचने लगे कि इस नौकर को कैसे पता कि सभी उन्हें बाबूजी ही कहते हैं. सम्भव है लल्लू और विनीता की बातों से अन्दाज लिया हो. तभी उन्हें याद आया जब पिछली बार शादी के विषय में लल्लू का निर्णय जानने वे आए थे तब लल्लू को उसने बाबूजी कहते सुना था. उस दिन भी उसने एक-दो बार यही कहा था.

नौकर भी कितना याद रखते हैं. मालिक क्या पसन्द करते हैं क्या नहीं. इस सबका किस प्रकार खयाल रखते हैं. भले ही बहुत कुछ अनिच्छा से करना होता है. नौकरी करनी है---कुछ और वे कर नहीं सकते और नौकरी मिलती नहीं---तो मालिक का खयाल रखना ही होगा. तभी उन्हें खयाल आया, यह बात मालिक-नौकर के सन्दर्भ में ही क्यों! नौकरी का मतलब ही है गुलाम मानसिकता में जीना. सरकारी हो या निजी. दफ्तरों में ’सर’ कहने का अर्थ ही है कि आप मालिक हैं. यह अंग्रेजी देन है. लेकिन सामन्ती युग में भी यही सब था. केवल स्वरूप बदला है. गुलाम और मालिक थे और रहेंगे. किस देश में नहीं है यह सब! देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन होता गया है.

“बाबूजी, साहब तो उधर नहीं है. सुबह निकल गए थे.” नौकर बोला तो वे चौंके.

“कब तक आएंगे---कुछ बताकर गए होंगे.” वे उठ खड़े हुए थे.

“नहीं बाबूजी---बीवी जी थीं. कहा, शायद रात देर तक आएंगे. यह भी नहीं पता इधर आएंगे या उधर ही चले जाएंगे.”

“ओह!’ वे अन्यमनस्क हो सोफे पर लेट-सा गए थे.

“आपके लिए चाय-नाश्ता लाता हूं.” नौकर चला गया था.

चाय-नाश्ता लेते समये वे सोचते रहे थे कि लल्लू की प्रतीक्षा करें या पैकेट नौकर को देकर और, ’आने पर कहना यह बीवी जी को दे देंगे.’ कहकर इलाहाबाद की बस ले लें. लगभग आधा घंटा तक पसोपेश में रहने के बाद उन्होंने यही तय किया था और पैकेट जिसे उन्होंने घर में ही तैयार कर लिया था, नौकर को देकर समझाकर बारह बजे के लगभग रमेन्द्र के बंगले से निकल आए थे.

रात नौ बजे वे धीरेन्द्र के यहां पहुंचे.

धीरेन्द्र और नंदिता के व्यवहार और पोते को गोद में लेने के सुख ने रमेन्द्र के यहां से निराश लौटने की पीड़ा धो दी थी.

अगले दिन ही वे कानपुर लौट आए थे. सावित्री चौंकी थी, लेकिन जब उसे वस्तुस्थिति पता चली तो बोली, “तुमने ठीक ही किया लल्लू के बाबू. उसके ससुरबाड़ी जाने का कोई मतलब न था. चलो अपना कर्तव्य हमने निभा ही दिया. सामान मिलने की खबर तो लल्लू को देना ही चाहिए.”

लेकिन सावित्री की आशा और विश्वास को तब धक्का लगा, जब न रमेन्द्र आया और न ही उसने सूचित किया कि उसे उनका दिया पैकेट मिल गया था.

“फुर्सत न मिली होगी उसे लिखने के लिए---बड़े पद की जिम्मेदारियां भी बड़ी होती हैं लल्लू के बाबू” लड़खड़ाए स्वर में सावित्री बोली थी, “तुम भी तो एक-एक महीने चिट्टी नहीं देते थे. मैं तड़पती रहती थी. फुर्सत मिलते ही लल्लू जरूर विनीता और पोते के साथ आएगा.”

वे सावित्री की बात का ही समर्थन करते रहे थे. बीमार को मानसिक कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए.

लेकिन सावित्री के आशानुरूप रमेन्द्र नहीं आया. धीरेन्द्र अवश्य आया पन्द्रह दिनों का अवकाश लेकर. नंदिता एक सप्ताह घर रही और एक सप्ताह मायके. एक सप्ताह सावित्री के लिए किसी उत्सव से कम न था. लग रहा था जैसे कोई बीमारी है ही नहीं. विमला को भी दिन भर काम में लगाए रहती. खर्च करते समय वह यह भूल गयी कि बैंक खाली हो चुका है. जो भी हो, “पोता आया है, मैं रहूं—न-रहूं—दिल खोल खर्च करूंगी.”

सावित्री की खुशी देख वे भी खुश थे. “चलो इतने दिनों के लिए ही सही यह अपनी बीमारी तो भूली है.”

जब बहू जाने लगी, सावित्री ने जिद कर टैक्सी मंगवाई. बैंक से पैसे निकलवाए और धीरेन्द्र और बहू-पोते को साथ ले एक बार फिर गुमटी नम्बर पांच खरीददारी के लिए गयी. इस बार धीरेन्द्र ने मां को अधिक खर्च नहीं करने दिया. स्वयं ही किया और मां और उनके लिए कपड़े खरीदे.

धीरेन्द्र के खरीदे वही कपड़े वे वर्षों तक पहनते रहे थे. बाद में आर्थिक स्थिति ही ऎसी बनी कि वे अपने लिए कपड़े नहीं खरीद सके.

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छः महीने बाद रमेन्द्र आया अकेले. सावित्री को झटका लगा. अभी तक वह यह मानकर मन को दिलासा देती रही थी कि वह दफ्तर के काम में उलझा होगा और विनीता को मायके वाले नहीं छोड़ रहे होंगे, इसीलिए लल्लू नहीं आ पा रहा, लेकिन आते समय क्या एक दिन के लिए भी बेटा बहू को नहीं ला सकता था. उसकी शिकायत पर लल्लू बोला था, “अम्मा पिछले हफ्ते पुत्तन (बेटे का घर का नाम रमेन्द्र ने यही रखा था) बीमार हो गया था. विनीता का आने का पूरा प्लान था, लेकिन---अब जब भी आऊंगा अवश्य लेकर आऊंगा.”

मां की भेजी और उनकी पहुंचाई बधाई के विषय में उसने जिक्र भी नकीं किया और न ही उन्होंने पूछा. सावित्री ने भी नहीं पूछा तो उन्हें लगा था कि उसने उनके मान की रक्षा कर ली है.

’पुत्तन पिछले हफ्ते बीमार हुआ. उससे पहले क्यों नहीं आए! लेकिन तुम्हें अब मां-पिता की भावनाओं से क्या लेना-देना’ यह बात उनकी जुबान पर आयी थी, लेकिन, “आपको मेरी व्यस्तता पर यकीन नहीं है बाबूजी” अगर लल्लू प्रत्युत्तर में यह कह दे तो! जुबान पर आयी बात को दबा गए थे. फिर सोचा था, ’हो सकता है लल्लू लाना चाहता हो बहू को, लेकिन पी.सी.एस. से आई.ए.एस. बने गोपाल प्रसाद की बेटी ने आने से इंकार कर दिया हो. लल्लू श्वसुर के प्रभाव में है, यह तो पहले दिन से ही स्पष्ट है. यह सब नया नहीं है. उनके साथ के भी कई अधिकारी थे, जो ऎसा करते थे. शादी के बाद मां-बाप की चिन्ता कितने करते हैं. फिर मैंने कभी यह अपेक्षा भी नहीं की. पेंशन मिलती है. मकान है. दो बुड्ढों का खर्च ही कितना! वह तो अगर सावित्री बीमार न हुई होती तो वे न केवल ठाठ से रहते, बल्कि एक-दो का और पालन करते. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा. बैंक लगभग खाली हो चुका है. मकान में किराएदार के रहने से सुरक्षा भी होगी और चहल-पहल भी. नीरसता टूटेगी. कोई छोटा-सा परिवार रख ही लेना चाहिए! मन में निर्णय कर लिया था.

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