Kya me ritayar hu ? books and stories free download online pdf in Hindi

क्या मैं रिटायर हूँ ?

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कोल्हू के बैल की तरह गृहस्थी की चक्की पिसते पिसते एक दिन एक खबर ने मेरा दिल खिला दिया । हाँ ! खबर ही ऐसी थी जिसका इंतजार हर कर्मचारी , मुलाजिम बड़ी सिद्दत से करता है और फिर ऐसी खबर अचानक मिल जाए तो क्या कहने ? इससे बड़ा सरप्राइज गिफ्ट और कुछ हो ही नहीं सकता । शायद आप लोग समझ गए होंगे । क्या ? नहीं समझे ?

चलो मैं ही बता देता हूँ ।

स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना के तहत हमारी अर्जी मंजूर हो गयी थी और बस यही महिना पूरा करके हमें सेवानिवृत्ति मिल जानेवाली थी । कूल अठारह दिन शेष बचे थे ।

बस इसी खबर ने मुझे रोमांचित कर दिया था ।

मन में अजीब अजीब से खयाल आने लगे थे । याद आ रहा था रोज मुँह अँधेरे उठना । घडी देखते हुए ही जल्दी जल्दी नाश्ता करना । और फिर ऑफिस का बैग लिए दौडते हुए निर्धारित ट्रेन पकड़ना । ऑफिस में दिन भर फाइलों से उलझना और गाहे बगाहे बड़े बाबू की फटकार झेलना । देर शाम ऑफिस से छूट कर घर पहुंचने से पहले श्रीमतीजी की फरमाइशों को पूरा करने का दबाव अलग से झेलना होता था । देर रात सोना और फिर वही सुबह ………… क्यों ? ठीक ही कहा न ! कोल्हू के बैल की तरह ही लगी न आपको यह जिंदगी ?

और ऐसे में जब यह खबर मिले की अब आपको इस तरह की जिंदगी से निजात मिलने वाली है तो खुश होना स्वाभाविक ही है । हम भी खुश हुए थे ।

सेवानिवृत्ति में अभी पूरे अठारह दिन शेष थे । और सुकून भरे ख़याल मन में आने शुरू हो गए थे । वो भी क्या दिन होंगे जब अपनी मर्जी से देर से सो कर उठेंगे । अपनी मर्जी से घुमने फिरने जायेंगे ‘ मजे करेंगे । दूरदर्शन पर अपनी पसंद के कार्यक्रम देखते हुए मजे से समय बिताएंगे । गली मोहल्ले में मित्रों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हो जाएगी ।

तमाम तरह के विचार या यूँ कहिये मन में खयाली पुलाव पकने लगे थे ।

एक एक दिन गिनते गिनते परेशान हो गए तब कहीं जाकर मेरी जिंदगी का वो हसीन सूरज निकला । आज मेरा ऑफिस में अंतिम दिन था । सभी कर्मचारी जमा हो गये थे । बड़े बाबू जो हमेशा खा जानेवाली निगाहों से कहर ढाते थे आज कुछ बदले बदले से अंदाज में नजर आ रहे थे ।

एक छोटा सा सुसज्जित मंच बनाया गया था जहाँ एक मेज के पीछे बड़े बाबू बैठे थे । बड़े ही मधुर स्वर में बड़े बाबू ने पहले तो मेरा नाम पुकारा और मंच पर ही एक कुर्सी पर बैठने का संकेत किया । मेरे बैठने के बाद सभी कर्मचारियों को इस ख़ास आयोजन के बारे में बताया और मेरी तत्परता ‘ इमानदारी ‘और कार्यकुशलता की तारीफ़ करते हुए जमकर मेरी शान में कसीदे पढ़े ।

मैं मंच पर बैठा सारी बातें सुनते हुए किसी दूसरी ही दुनिया में खो गया था । एक पल में ही बड़े बाबू की मुझको भेंट की हुयी सारी गालियाँ याद आ गयीं और मैं सोचने लगा था कि ऐसा क्यों होता है कि इंसान की कदर कभी भी उसके जाने के बाद ही होती है ?

मैं एक सामाजिक प्राणी हूँ । समाज की इस सच्चाई से भली भाँति अवगत था कि किसी इंसान के स्वर्गवासी होने पर किस तरह उसकी कुछ अच्छाइयों का ही हरदम गुणगान करना होता है और उसके हजारों दुर्गुणों को नजरंदाज करना होता है ।
अब यह विचार मन में आते ही मैं समझ गया की बड़े बाबू मेरी तारीफ़ क्यों कर रहे थे । आखिर मैं भी तो अब यहाँ के लिए भूतपूर्व ही हो जानेवाला था ।

अब जबकि मैं इस ऑफिस से विदा हो रहा हूँ ये बड़े बाबू तो मेरी तारीफ़ करके मेरे स्वैच्छिक सेवानिवृत होने के फैसले पर ही सवालिया निशान मेरे मन में उपजा रहे हैं ।
अभी मैं कुछ और सोच पाता कि तालियों की तेज गडगडाहट ने मेरी तन्द्रा भंग की और मैं चौंक कर वर्तमान में आ गया । बड़े बाबू एक फूलों का हार मेरे गले में डाल चुके थे ।

इसके बाद तो सभी मेरे सहयोगी एक एक कर मिलने और शुभकामनाएं देने के लिए आगे बढे । इस लम्हे ने मुझे कुछ ख़ास होने का अहसास करा दिया था । और मैं सोच रहा था कि अगर मैं इतना ही खास था यह पहले बता दिया होता तो मैं समय से पहले सेवानिवृत्त ही क्यों हुआ होता ?

खैर मेरा बिदाई समारोह समाप्त हुआ और मैं ऑफिस से घर के लिए रवाना हुआ । अब की निकला था ऑफिस से हमेशा के लिए , दुबारा वापस न आने के लिए । अब मैं आजाद जो हो गया था । जी हाँ ! आजाद भारत देश का एक आजाद नागरिक ।
अब मुझे क्या पता था कि आगे क्या क्या होने वाला था ?

बड़े ही खुश मिजाजी से घर में प्रवेश किया । दोपहर हो गयी थी और श्रीमतीजी भोजन करने जा रही थीं शायद । देखते ही चहक पड़ीं ‘ ” अरे ! आज आप इतनी जल्दी आ गए ? मैं तो समझी थी कि आप रोज के समय पर ही आयेंगे । ”

मैं भी उसकी धुन में धुन मिलाते हुए बोला ” अरे ! नहीं भागवान ! अब आज मुझे कोई काम थोड़े ही न करना था । काम तो मेरा कल ही समाप्त हो गया था । आज तो ऑफिस में बड़े बाबू ने मेरा बिदाई समारोह आयोजित किया था । ”

श्रीमतीजी बोलीं ” अच्छा है ! जल्दी से हाथ मुंह धो लो । मैं खाना लगा देती हूँ । गरम ही है खाना खा लीजिये ।”

एक पल को मुझे लगा ‘ वाह ! क्या बात है ! अब तो लगता है मुझे रोज ही लज्जतदार खाना वो भी गरमागरम खाने को मिलेगा । इसे कहते हैं जिंदगी का मजा लेना । वाह ! ‘

इसी उधेड़बुन में मैं कब हाथ मुंह धोकर खाना खाने बैठ गया पता ही नहीं चला । वो तो भला हो उस मिर्ची का जो साबूत ही मेरे मुंह में चली गयी थी और अपना रंग दिखा रही थी । मैं तुरंत ही यथार्थ की दुनिया में लौट आया । पानी वानी पीकर किसी तरह जलन थोड़ी कम हुयी । भोजन करने के पश्चात् श्रीमतीजी का आदेश हुआ ” थोड़ी देर आराम कर लीजिये । शाम को बाजार जाना है । घर के लिए कुछ सामान लेना है । मॆरी मदद भी हो जाएगी और आपकी तफरीह भी । ”

बात तो अच्छी थी सो खाना खाकर मैं बिस्तर पर लेट गया ।

बिस्तर पर लेट तो गया लेकिन बिना आदत के भरी दोपहरी में निंदिया रानी कैसे मेहरबान होतीं ? कुछ समय तक तो बहुत बढ़िया लगा लेकिन थोड़े ही देर बाद बिस्तर काटने सा लगा ।

समय तो बिताना ही था सोचा चलो आज दुनिया का हालचाल ही ले लेते है । नौकरी के चक्कर में अब तक तो हम लोग दुनिया की खबरों से अनजान ही रहते थे । हॉल में आते ही देखा श्रीमतीजी और बहूरानी दोनों ही कोई सास बहू का धारावाहिक बड़ी तन्मयता से देख रही थीं ।

सास और बहू को इकट्ठे बैठ देख कर सीना थोडा चौड़ा हो गया । नहीं तो दूसरों की पंचायतें सुनकर मन कभी कभी आशंकित हो जाता पता नहीं हमारे घर में क्या हो रहा है ।

देखते ही बहू तो उठकर अपने कमरे में चली गयी लेकिन श्रीमतीजी भला कैसे मैदान छोड़ देतीं ?

” बस ! दस मिनट और ! यह बहुत बढ़िया धारावाहिक है । हम लोग रोज देखते हैं । ”

श्रीमती जी की इच्छा का सम्मान करते हुए हम वहीँ सोफे पर बैठकर धारावाहिक देखने लगे । हालाँकि श्रीमतीजी बीच बीच में पात्रों का परिचय कराते हुए कहानी समझाने का प्रयत्न कर रही थीं लेकिन हम क्यूँ समझने की कोशिश करें ? हमारी तो इन धारावाहिकों और फिल्मों में कोई रूचि ही नहीं थी ।

खैर किसी तरह समय बीता और हमने सोचा ‘ चलो अब आराम से टांग सोफे पर पसार कर दुनिया की खबर अर्थात समाचार देखेंगे । लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि हम कितने गलत थे ।

समाचार देखते हुए अभी हम सभी समाचार चैनलों का नाम ही पढ़ पाए थे कि पुनः एक बार श्रीमतीजी चाय की प्याली लिए कमरे में दाखिल हुयीं । ” अजी सुन रहे हैं ! जल्दी से हाथ मुंह धोकर चाय प़ी लीजिये। बाजार चलने का वक्त हो गया है । "

मरता क्या न करता ? श्रीमतीजी के रूप में दूसरे बड़े बाबू का चेहरा नजर आने लगा था । चाय पीकर बाजार के लिए निकले । बाजार घर से थोड़ी ही दुरी पर था सो पैदल ही निकले और दस मिनट में ही पहुँच भी गए ।

कोई सवारी करने के नाम पर श्रीमतीजी ने ज्ञान की घुट्टी भी पीला दी ‘ अरे ! सवारी क्यों ? अब क्या हम इतना भी पैदल नहीं चलेंगे ? पैदल चलना सेहत के लिए अच्छा है । अभी से इतना नाजुक बनोगे तो कैसे चलेगा ? ”

बाजार पहुंचकर हम श्रीमतीजी की व्यवहारकुशलता देखकर दंग रह गए । सब्जी वाले ने जैसे ही करेला साठ रुपये किलो बताया श्रीमतीजी ने तपाक से तीस रुपये किलो में मांग लिया और मैं धीरे से वहाँ से बगल में सरक गया कहीं सब्जीवाला झगडा न करने लगे ।लेकिन उसकी क्या मजाल ? वह तो नाराज होने की बजाय खुशामद भरे स्वर में बोला ” अरे नहीं बहनजी ! इतना कम थोड़े ही होता है । आपके लिए पचास रुपये किलो का भाव लगा दूंगा । ”

श्रीमतीजी ने कहा ” हमारे दरवाजे पे सब्जी वाला चालीस रुपये किलो के भाव से करेला बेचने आता है । चालीस रुपये लगाना हो तो दो किलो तौल दो ।”
सब्जी वाला चुपचाप करेला तौलने लगा ।

रास्ते में मैंने श्रीमतीजी से पूछा ” जब घर के सामने ही सब्जी वाला सब्जी बेचने आता है तो फिर यहाँ आने की क्या जरूरत थी ?”

श्रीमतीजी हुशियारी भरे स्वर में बोलीं ” आप भी आ गए झांसे में ! वो तो मैंने सब्जीवाले से ऐसे ही कह दिया था । ”

इसी तरह से मोलभाव करते हुए खरीददारी करके श्रीमतीजी ने पैसे तो बचा लिए थे लेकिन अब मुझे यह खरीददारी अखरने लगी थी । सस्ता पाने के चक्कर में हर सामग्री दुगुनी हो गयी थी और उसी अनुपात में मेरे हाथों में स्थित थैले भी वजनदार हो गए थे ।

लगभग बारह किलो वजन थैले में लेकर पैदल ही वापस जाने के ख्याल मात्र से सिहर उठा था लेकिन भला हो श्रीमतीजी का उन्होंने स्वयं ही एक रिक्शा तय किया और हम शीघ्र ही वापस घर पर आ गए ।

कुछ देर बाद ही थोडा आराम करके सोसायटी में ही बने बगीचे में जाकर बैठ गया । यहाँ मुझ जैसे ही कुछ अन्य सेवा निवृत्त उम्रदराज लोग बैठे थे । मुझे देखते ही इशारे से पास बुलाया और फिर थोड़ी जान पहचान के बाद आत्मीय बातें होने लगीं । उन महानुभावों से बात कर बहुत ही बढ़िया लग रहा था ।

अभी आधा घंटा भी नहीं बीते होंगे कि श्रीमतीजी छोटे पोते को लेकर आती दिखाई पड़ीं । बोलीं ” आखिर आप यहाँ बैठे ही हैं । थोड़ी देर सार्थक के साथ खेल लेते तो मैं जरा बहू का रसोई में हाथ बंटा देती । ”

” हाँ हाँ क्यों नहीं ? ”

सार्थक जो अब मेरी तरफ शरारती नज़रों से देख कर मुस्करा रहा था गेंद लेकर मेरी तरफ बढ़ा । ” दादाजी मेरे साथ खेलो न ! ”

” हाँ ! तुम गेंद फेंको मैं पकड़ता हूँ । ”

” ठीक है । ” कहकर सार्थक मेरे साथ गेंद से खेलने लगा । पोते के साथ खेलकर बहुत ही संतोष मिला । उसकी हरकतें , उसकी बातें सभी कुछ मन को मोह रही थीं और मैं सोच रहा था कि कुदरत की दी हुयी इस अनमोल सौगात से मैं इतने दिनों तक कितना दूर था ।

सुबह जल्दी जल्दी तैयार होते हुए अगर कभी देखकर मचलता भी तो गोद में लेकर बहलाने का फुर्सत नहीं था । अब तो मेरे पास वक्त ही वक्त था । बगीचे में खेलते हुए अब मैं पस्त हो चला था कि निर्भय जो पास में ही ट्यूशन गया था आ गया और दोनों भाई खेलने में मशगुल हो गए ।

मैंने राहत की सांस ली । काफी थकान महसूस हो रही थी । इतना श्रम की आदत जो नहीं थी । ऑफिस में तो बस बैठ कर फाइलों में ही सर खपाना होता था । अब बगिचे में मैं अकेला ही बचा था । सो उठकर घर आ गया सोचा मजे से बैठकर समाचार देखूंगा ।

टी वी खोलकर कुछ देर समाचार देखता रहा । अचानक श्रीमतीजी पल्लू से हाथ पोंछते आयीं और हाथ से रिमोट लेते हुए बोली ” आप जरा रुक जाइये । शक्ति धारावाहिक का समय हो गया है । आज देखना है दोनों मिल पाते हैं कि नहीं । ”

अब मैं क्या कहता ? खैर बुद्धू की तरह बैठे धारावाहिक देखता रहा । न कुछ पल्ले पड़ना था न कुछ पड़ा ।

इतने में छोटा बेटा काम पर से आ गया । श्रीमतीजी उसकी पसंद पूछ कर फिर से रसोई में घुस गयीं । अब रिमोट छोटेे बेटे के हाथों में था ।

कुछ ही देर में बड़ा बेटा भी अपनी दुकान बंद कर आ पहुंचा । अब दोनों भाई मिलकर फ़िल्मी चैनल पर सिर्फ बेहतर फिल्मों की खोज करते रहे और भोजन करने के उपरांत अपने अपने कमरे में सोने चले गए ।

भोजन मैं भी कर चुका था और दस मिनट बाहर घूमकर वापस घर में टी वी के सामने बैठा समाचार देख रहा था । अब मैं सोच रहा था शायद मेरे लिए समाचार देखने का यही समय तय किया गया है क्यों कि अब रिमोट का दावेदार कोई नहीं था । धीमी आवाज में बड़ी देर तक समाचार देखता रहा । अब सुबह उठने की कोई चिंता जो नहीं थी ।

सुबह बड़े आराम से आठ बजे नींद खुली । किसीने जगाया भी नहीं । सुबह उठते ही शौचालय जाने की आदत के चलते उसकी तरफ बढ़ ही रहा था कि श्रीमतीजी बोल पड़ीं ” थोड़ी देर रुक जाइये । सोनू आ रहा है । उसे जाने दीजिये नहीं तो उसकी ट्रेन छूट जाएगी । आपको तो घर पर ही रहना है । ”

मैं बोल उठा ” ठीक है मैं दुसरे में चला जाता हूँ ।”
‘” उसमें तो निर्भय कभी से गया हुआ है ।”
मजबूर होकर मुझे रुकना ही पड़ा ।

खुद पर संयम रखकर सबके जाने के बाद नाश्ता वगैरह करके बैठा ही था की श्रीमतीजी की आवाज आई । ” जरा स्कूटी से निर्भय को स्कूल तो छोड़ते आइये । बहू को थोडा आराम भी मिल जायेगा और आपकी तफरीह भी हो जाएगी । ”

निर्भय को उसके स्कूल छोड़ कर थोडा इधर उधर की सैर करके घर पर पहुंचा ।
श्रीमतीजी जैसे रास्ता ही देख रही थीं । ” जल्दी से हाथ मुंह धोकर भोजन कर लीजिये । फिर थोड़ी देर के लिए दुकान पर बैठ जाना । आकाश आकर घर पर ही भोजन कर लेगा । वहां दुकान पर उससे खाया नहीं जाता । ”

जल्दी जल्दी भोजन कर के मैं अपने बड़े बेटे के दुकान पर पहुंचा । यह ऑटो पार्ट्स की एक छोटी सी दूकान थी जहां कई तरह के आयल व ग्रीस भी रखे हुए थे ।

निर्भय को स्कूल से लाने का भी समय हो चला था । ” मैं निर्भय को स्कूल से लेकर घर पर पहुंचाकर और भोजन करके आता हूँ तब तक आप दूकान देखिये । ” कहकर बेटा जाने के लिए निकला ही था कि अचानक मुझे कुछ याद आया ” अरे बेटा ! मैं तो ऑटो पार्ट्स के बारे में कुछ जानता ही नहीं । क्या करूँगा ? ”

” कोई बात नहीं । मिस्त्री है न सब बता देगा । आपको सिर्फ यह लिखना है की किस गाडी में क्या लगा है । और फिर कोई ज्यादा जरूरी हो तो मुझे फोन कर लीजियेगा । ” कहकर आकाश निकल पड़ा ।

दूकान के काउन्टर पर रखा कम्प्यूटर देख कर अच्छा लगा । हालाँकि मुझे कम्प्यूटर चलाने की जानकारी नहीं थी लेकिन कोई बात नहीं बिगड़ भी गया तो अपना ही है मानकर कम्प्यूटर से छेड़खानी करता रहा लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ा । लगभग तीन बजे आकाश वापस दुकान पर आया ।

उसके आते ही मैं घर के लिए निकल पड़ा । ” पापा ! नागोरी डेरी से दूध लेते जाइएगा ।” अबकी फरमाइश बेटे की थी ।

मैं सहमति में सिर
हिलाते दुकान से बाहर निकला और दूध लेकर घर पर पहुंचा ।
बस इसी तरह मैं धीरे धीरे दिन भर के लिए व्यस्त हो गया । कभी बच्चों को स्कूल पहुँचाना हो या उन्हें वापस लाना हो ‘ बाजार से कुछ लाना हो ‘ कहीं रिश्तेदारों में कोई जरूरत हो ‘ और फिर बाकी समय बच्चों के साथ खेलकर अपने बचपन को फिर से जीना हो । अब व्यस्तता बढती जा रही थी ।

जान पहचान वालों में भी एक समझदार इंसान के रूप में पहचान बनी हुयी ही थी । पहले जो काम की वजह से आने में संकोच करते थे अब सीधे घर पर आ जाते अपनी समस्या लेके । किसीको हॉस्पिटल ले जाना है तो किसीके पडोसी से झगड़े के मामले में पुलिस चौकी जाना है । किसीको दुकान तो किसीको घर खरीदना है एक बार पहले अवश्य दिखाना चाहेंगे । फिर कागजातों के दिखाने का सिलसिला शुरू हो जाता है । और इन्हीं सब जिम्मेदारियों के बीच यह नया शौक लेखन का । कभी कभी प्रतिक्रयाओं का जवाब लिखने का भी वक्त नहीं मिल पाता ।

सेवानिवृत होकर मैं गाडी का वह पहिया बन गया हूँ जो किसी भी गाडी में फिट हो जाता है ।

अब कभी कभी गुजरा जमाना भी याद आ जाता है । जब किसीकी कोई चिंता नहीं होती थी । सिर्फ ऑफिस और फिर घर लेकिन अब तो जैसे पूरा समाज ही अपना घर बन गया हो ।

इन्हीं सब के बीच कभी कभी मन में यह ख्याल भी आ जाता है ‘ क्या मैं रिटायर हूँ ? ‘

जी नहीं ! इंसान कभी रिटायर नहीं हो सकता । लोभ मोह माया ताउम्र उसे रिटायर नहीं होने देते बल्कि सेवानिवृत्ति के बाद जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं फिर वह चाहे अप्रत्यक्ष जिम्मेदारियां ही क्यों न हों ?

राजकुमार कांदु
काल्पनिक व स्वरचित