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दरवाज़े


मंदिर में आरती और घंटियों का मधुर संगीत मन की गहराइयों में उतर रहा था। धूप और अगरबत्तियों की सुगन्ध मन-मस्तिष्क को तरोताजा कर रही थी। फरवरी की ठंडी सुबह में खिली गुनगुनी धूप का स्पर्श ऐसा था कि महेन्द्र आँखें बन्द किये और हाथ जोड़े ईश्वर के ध्यान में डूबता जा रहा था। नये शहर में नयी नौकरी की पहली तनख्वाह के बाद इतना तो बनता ही है कि आज छुट्टी के दिन ईश्वर को प्रणाम किया जाए। इसी विचार से वह अपनी पहली-पहली तनख्वाह से कुछ मिठाई और फल लेकर मंदिर आया था। सबकुछ पंडित जी के हाथों में सौंप कर वह हाथ जोड़कर ईश्वर की प्रतिमा के सामने बैठा था। मंदिर के वातावरण ने उसके मन के किसी कोने में आस्था का नन्हा-सा दिया टिमटिमाने लगा और वह ध्यान की मुद्रा में बैठ गया। उसका मन बाहर की दुनिया से विरक्ति पाने ही वाला था कि उसके शरीर पर ठंडा पानी पड़ते ही पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गयी मानों बिजली का करंट उसे लग गया हो। आस्था का नन्हा-सा दिया जरा से शारीरिक विचलन में बुझ गया और वह आँखें खोलकर एकदम उठ गया, “उफ! यह कौन...” उसने अपनी जगह से उठते हुए कहना चाहा लेकिन जैसे ही उसकी नज़र नीली साड़ी पर मक्खन के रंग वाली शाल लपेटे हुए पास खड़ी उस युवती पर पड़ी वह स्तब्ध रह गया, ‘यह क्या! इतनी सुन्दर लड़की’ वह मन ही मन बुदबुदाते हुए अपलक उसे निहारता रहा, ‘कितनी सुन्दर है यह! ऐसा लगता है कि राधाकृष्ण की युगल प्रतिमा की राधा साक्षात् मेरे सामने खड़ी है।’ युवती पूजा की थाली पंडित जी को दे चुकी थी और हाथ जोड़कर आँखें बन्द किये चुपचाप खड़ी थी। थाली पंडित जी को देते समय जलभरा लोटा थोड़ा असंतुलित हो जाने से ही थोड़ा-सा जल महेन्द्र के ऊपर गिर पड़ा था। सिर पर पड़ी मक्खनी शाल और हल्के से झुके चेहरे पर रेशमी बालों की एक झूलती लट देखकर ऐसा लग रहा था कि कमल की कोमल कली अपनी पँखुड़ी खोलने ही वाली है। उसके सुन्दर और दूध से सफेद हाथ, पैरों की गोरी व चिकनी एड़ियाँ ऐसी मालूम पड़ती थीं कि किसी कुशल शिल्पी ने बहुत सूक्ष्मता के साथ संगमरमर तराश कर बनायी हों। सिर से पाँव तक वह संगमरमर से तराशी गयी एक दिव्य प्रतिमा लग रही थी। शरीर पर पड़े पानी की सिरहन तो न जाने कब की समाप्त हो चुकी थी। हाँ मन में अब आस्था के स्थान पर प्रेम का दिया टिमटिमाने लगा था।
वह उसे एकटक देख ही रहा था कि युवती ने पंडित जी से थाली वापस ली और महेन्द्र की उपस्थिति से अनभिज्ञ वहाँ से चुपचाप चल दी। महेन्द्र न केवल उसे निहारता रहा बल्कि स्वयं पर नियंत्रण न रख पाने के कारण वह उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। महेन्द्र कुछ दूरी पर उसके पीछे-पीछे चल रहा था। युवती मंदिर से कुछ दूरी पर एक सँकरी गली में बढ़ गयी। महेन्द्र भी उसी गली में बढ़ चला लेकिन युवती उसके आने से अभी तक अनजान थी। महेन्द्र ने देखा कि वह गली एक बड़े से चौक में खुलती है, जिसमें चारों तरफ एक जैसे मकान बने हैं। मकान के बाहर एक चौड़ा-सा सपाट चबूतरा उस पर ऊपर की ओर तीन दरवाज़ों वाली एक खिड़की और एक तरफ एक दरवाजा। ऊपर एक छज्जा और छज्जे पर छह से आठ छोटी-छोटी खिड़कियाँ तथा छज्जे पर आने के लिए एक पतला-सा दरवाजा। महेन्द्र ने नज़र चारों तरफ घुमाई, सभी मकान आकार और बाहरी संरचना में एक समान थे। अन्तर था तो केवल दरवाजों के रंग का कहीं लाल तो कहीं हरे। कहीं नीले तो कहीं काले और एक-दो सफेद भी। ऐसा लग रहा था कि बड़े से डिब्बों को एक-एक करके खड़ा कर दिया गया है और उन पर दरवाजों और खिड़कियों की चित्रकारी करके बच्चों ने गुड्डे-गुड़ियों के लिए खिलौने जैसे मकान बना लिये हैं। मकानों के बाहर लकड़ी और टीन के खोखे थे, जिनमें अधिकांश बन्द थे और जो दो-एक खुले थे, उनमें चाय और पकौड़ियाँ बनाई जा रही थीं। चौक में तीन-चार बच्चे खेल रहे थे। वह उस नये स्थान को आश्चर्य से देख ही रहा था कि वह युवती सामने के एक पीले दरवाज़े वाले मकान में समा गयी और दरवाज़ा बन्द हो गया। उसने सोचा कि आगे बढ़कर उस घर तक चला जाए लेकिन फिर किसी अनजाने भय के कारण वह वापस हो लिया। लौटते समय उसके मन में एक प्रसन्नता भी थी कि कुछ भी हो उसने कम-से-कम उस लड़की का घर तो देख लिया। किसी दिन उससे बात करने के लिए किसी-न-किसी बहाने से उसके घर भी चला जाएगा। वह मंदिर लौटा और अपना प्रसाद लेकर वापस चला गया।
अक्सर छुट्टी वाले दिन वह मंदिर जाने लगा लेकिन अब उसका ध्यान ईश्वर के चरणों में न लगकर उस युवती की प्रतीक्षा में लगने लगा। वह हमेशा तो नहीं लेकिन कभी-कभी मंदिर आती थी और महेन्द्र उसी तरह चुपके-चुपके उसके पीछे जाता था। युवती उसके पीछे आने से अनजान ही रहती। हर बार उसे देखने से महेन्द्र के मन में उसके प्रति प्रेम की ज्योति जलने लगी थी। उसने मन-ही-मन उस युवती से बात करने तथा उससे विवाह करने का स्वप्न देख डाला था। मंदिर पहुँचकर उसका कार्य ईश्वर को प्रणाम करके मन-ही-मन अपनी प्रेयसी के आने की प्रार्थना करना और उसकी बाट जोहना था। युवती के आने में कभी-कभी विलम्ब हो जाने से वह बेचैन हो मंदिर से गली तक चहलकदमी भी करता तो कभी-कभी वह ईश्वर की प्रतिमा के सामने हाथ जोड़कर मन ही मन बुदबुदाता, ‘हे प्रभु! आज ऐसा अवसर मिल जाए कि उससे बात हो जाए।’ एक किशोर के मन में उठी पहले प्रेम की तरंग की तरह उसका मन भी हिलोरें मारने लगा था। ऐसे ही एक दिन उसे वह अवसर मिल गया जब उसने बहुत हिम्मत करके उसका रास्ता रोका और उससे उसका नाम पूछा, लेकिन युवती ने अपना नाम न बताकर उस पर एक नज़र डाली और मुस्कुराती हुई चली गयी। उसका मुस्कुराना था की महेन्द्र का दिल उस मुस्कुराहट से बँध गया और उसने अपने प्रेम की स्वीकृति मिलती-सी प्रतीत हुई। अब तो अक्सर वह युवती मंदिर में बैठे महेन्द्र की ओर देखती और हँसती मुस्कुराती हुई चली जाती। हालाँकि अब तक उससे महेन्द्र की कोई स्पष्ट बातचीत नहीं हुई थी लेकिन दोनों की आँखें मिल चुकी थीं। आँखें ही तो हैं जो हाले-दिल बताने में नहीं चूकतीं। हमारे मन की हर बात आँखों के आइने में दिखाई दे जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो आँखों के उदास होने, हँसने, मुस्कुराने, बोलने आदि के सारे मुहावरे झूठे हो जाते। महेन्द्र ने भी उस युवती की आँखों में अपने प्रेम की स्वीकृति को ढूँढ़ ही लिया। दोनों पर आँखों का जादू ऐसा चला कि दोनों के मन में प्रेम की धूनी रमने लगी।
उस दिन भी हमेशा की तरह वह उसके पीछे-पीछे जा रहा था कि चौक में पहुँचकर अचानक किसी हट्टे-कट्टे आदमी ने पीछे से उसकी गर्दन पकड़ ली। वह सकपका गया। इससे पहले वह कुछ कर या कह पाता, वह आदमी बोल पड़ा, “क्यों बे.., क्या चाहिए तुझे? बहुत दिन से देख रहा हूँ कि तू काजल के पीछा कर रहा है।” महेन्द्र ने उससे अपनी गर्दन छुड़ाई और बहुत शालीनता से बोला, “वह लड़की कौन है? मुझे उससे बात करनी है।” हट्टा-कट्टा आदमी मुस्कुराते हुए बोला, “यहाँ जो आता है उसे किसी-न-किसी से बात ही तो करनी होती है, बात हो गयी तो सौदा पट गया, पर सुबह-सुबह...जाओ उससे बात करने के लिए शाम को सात बजे आना।”
“शाम को क्यों ? अभी क्यों नहीं?” महेन्द्र ने आश्चर्य से पूछा।
“क्योंकि वेश्याएँ दिन में किसी से बात नहीं करतीं...” कहकर वह आदमी जोर से हँसा।
महेन्द्र को काटो तो खून नहीं। उसे लगा कि उसे सैकड़ो बिच्छुओं ने डंक मार दिया हो। उसके कान में किसी ने खौलता हुआ तेल डाल दिया हो। अभी कुछ देर पहले जो गुलाबी ठंडी सुबह उसके शरीर को भा रही थी वह सैकडों काँटों के चुभने का दर्द उसे देने लगी। “क्या बकवास कर रहे हो”, उसने गुस्से में कहा।
“मैं बकवास नहीं कर रहा हूँ बाबू, यह तवायफों का चौक है। ये जो सामने के घर देख रहे हो ना, इन सबमें तवायफें रहती हैं। यहाँ की रौनक देखनी हो तो शाम को आना, इस समय तो यहाँ मुर्दे लोटते हैं” उस आदमी ने बीड़ी सुलगाते हुए बहुत शान्त भाव से कहा।
महेन्द्र को अपने चारों ओर वे मकान घूमते हुए प्रतीत होने लगे। इतने दिनों में उस युवती के लिए पनपे प्रेम को लेकर उसने जो कुछ सोचा था वह सब धूमिल होने लगा। उसे लगा कि उसकी स्मृति खोती जा रही है। उसे अचानक बहुत गर्मी लगने लगी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। वह कुछ सोच पाता कि वह आदमी फिर बोला, “मदन...मदन दलाल कहते हैं मुझे। शाम को आना जिससे चाहोगे उससे बात करवा दूँगा। अब फूटो यहाँ से...” अंतिम वाक्य उसने इतनी कठोरता से कहा कि महेन्द्र को अपने सारे सपने चूर-चूर होते दिखने लगे लेकिन शाम को आकर एक बार उस युवती से बात करने की इच्छा उसके मन से नहीं गयी। वह थके कदमों से वापस लौटने लगा और याद करने लगा कि उस आदमी ने क्या नाम बताया था उसका ‘का...ज...ल...हाँ, काजल, चलो आज शाम को ही आऊँगा’ सोचते हुए वह लौट ही रहा था कि मदन ने पीछे से कहा, “सीधे मेरे पास आना बाबू...कहीं और मत भटक जाना...यह दस नम्बर वाला खोखा अपना ही है।” महेन्द्र ने एक बार पीछे मुड़कर देखा और वहाँ से वापस अपने कमरे पर लौट आया।
वापस आकर वह उस आदमी की कही बातों को दोहराता रहा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि काजल एक वेश्या है। रह-रहकर काजल की दिव्य प्रतिमा जैसी छवि उसकी आँखों में आ रही थी ‘ऐसी सुन्दर, सुशील, शान्त और कोमल लड़की और वेश्या...नहीं...नहीं...जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है। काजल वेश्या नहीं हो सकती। लेकिन यदि सचमुच वह वेश्या हुई तो...तो क्या...मैंने उससे प्रेम किया है...मैं उसे उस गंदगी से बाहर निकालने की पूरी कोशिश करूँगा...पर मुझे यकीन है कि वह वेश्या नहीं हो सकती...उस मदन ने मुझसे झूठ कहा है...वह वेश्या नहीं हो सकती...’ ऐसे न जाने कितनी बातें उसके मन-मस्तिष्क को झकझोर रही थीं। जैसे-जैसे समय बीत रहा था काजल से एकबार बात करने की इच्छा प्रबल होती जाती थी उसके साथ ही उसके वेश्या होने की बात याद करके उसकी बेचैनी बढ़ती जाती। वह बेसब्र होकर शाम का इंतजार करने लगा। बार-बार उसकी नज़र घड़ी पर जाती पता नहीं क्यों, उसे लग रहा था कि घड़ी की सुइयाँ आज बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हैं। वह कभी अपना ट्रांजिस्टर खोलता तो कभी अपने मोबाइल में समय देखता लेकिन समय तो अपनी ही गति से बढ़ेगा, यह और बात है कि प्रतीक्षा की घड़ियों में समय धीरे-धीरे बीतता हुआ लगता है और मिलन की घड़ियाँ उसी समय को तेजी से बढ़ाती हुई लगती हैं। शाम के इंतजार में उस उदास दोपहर में उसकी आँख लग गयी। समय अपनी गति से बढ़ते-बढ़ते शाम तक आ ही पहुँचा। वह झटके से उठा तो देखा घड़ी में साढ़े पाँच बजे हैं। वह झटपट तैयार हुआ और अपने कमरे से निकल पड़ा। उसके कमरे से मंदिर और फिर मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर वह गली तक का रास्ता उसने कब तय कर लिया उसे पता ही नहीं चला। उसने घड़ी देखी, पौने सात बज रहे थे।
पता नहीं क्यों आज उस गली में आगे बढ़ते हुए उसके पैर काँप रहे थे। उसका दिल जोरों से धड़क रहा था। उसके हाथ-पाँव ठंडे हुए जा रहे थे। उसका गला सूख रहा था और होंठ खुश्क हो रहे थे। कभी दो मिनट में तय हो जाने वाली कुछ मीटर की गली आज कितनी लम्बी लग रही थी। एक-एक कदम मानों कई-कई मीटर लम्बा हो गया था। वह जितना उस गली में बढ़ता जाता गली उतनी ही लम्बी हो जाती। फिर भी वह पूरी हिम्मत से गली में आगे बढ़ता जा रहा था कि अचानक एक भारी-भरकम हाथ उसके कंधे पर आया, उसने चौंक कर पीछे देखा, मदन था। पर इस समय उसका हुलिया सुबह से बिल्कुल अलग लग रहा था। फिल्मों में जैसे इस तरह के लोगों का हुलिया दिखाते हैं सिर पर टोपी, हाथ में रुमाल, आँखों में काजल और मुँह में पान, बिल्कुल उसी हुलिये में मदन ने मुस्कुराते हुए महेन्द्र से कहा, “सबर नहीं हुआ बाबू...पन्द्रह मिनट पहले ही चले आए...अभी तो बाजार जमा भी नहीं...अरे थोड़ा रात जवान होने दो...चाँदनी का सुरूर चढ़ने दो...तब मज़ा है बातों का...” कहते हुए वह अश्लील इशारा करने लगा। महेन्द्र का मुँह कड़वा हो उठा। उसकी इस हरकत पर उसने अपने कंधे से उसका हाथ हटा दिया और बोला, “मुझे फालतू की बातें नहीं सुननी हैं, मुझे सीधे उसके...क्या नाम है...काजल के घर ले चलो...” मदन ने यह सुना तो हँसते हुए बोला, “अरे हुजूर इतने उतावले मत होइए...उतावलेपन से बात ठीक से नहीं हो पाती और फिर...” कहकर उसने फिर अश्लील इशारा किया। महेन्द्र के चेहरे पर घृणा के भाव उभरने से पहले ही वे गली पार करके चौक में आ चुके थे।
शाम को चौक का दृश्य देखते ही महेन्द्र की आँखें खुली रह गयीं। हर मकान रंग-बिरंगी रोशनी से दमक रहा था। पूरे वातावरण में न जाने कैसी मदहोशी छाई थी। सुबह के वक्त जो खोखे बन्द थे वे सब के सब खुले थे। कहीं पर खाने-पीने का सामान तो कहीं पान बिक रहा था। कहीं पर फूलों की लड़ियाँ थीं तो कहीं पर खुले-आम शराब बिक रही थी। लगभग हर खोखे में पीछे की तरफ अर्द्धनग्न लड़कियों के चित्र टँगे थे जिस पर गर्भनिरोधकों के विज्ञापनों के साथ वैधानिक चेतावनी ‘असुरक्षित यौन संबंधों से एड्स हो सकता है’ लिखी हुई थी। महेन्द्र ने कुछ खोखों पर नजर डालने के बाद घृणा से अपनी नज़र हटा ली और मकानों की ओर देखने लगा। लगभग हर मकान से रिकार्डेड संगीत की हल्की-हल्की आवाज़ आ रही थी। किसी-किसी मकान में से लड़कियों की अश्लील बातें भी सुनाई पड़ रही थीं। मकानों के दरवाजे खुले थे। ऊपर खिड़कियाँ खुलीं थीं। कुछ में से झाँकती तो कुछ में सिगरेट फूँकती लड़कियाँ। कुछ लड़कियाँ बैठी हुई फूहड़ इशारे कर रही थीं और और कुछ हँस रही थीं। महेन्द्र ने चारों ओर एक नज़र डाली और काजल के मकान की तरफ देखने लगा जिसमें दरवाजा तो खुला था लेकिन ऊपर छज्जे की खिड़की बन्द थी। अब तक उसने सोच लिया था कि शायद काजल भी उन्हीं में से किसी खिड़की में से झाँकती हुई नज़र आ जाएगी। उसकी नज़रें काजल के मकान और उसके ऊपर छज्जे की ओर कुछ पल के लिए रुक गयी। लेकिन वह बन्द खिड़की बन्द ही रही। इससे पहले वह कुछ और सोच पाता, मदन बोल पड़ा, “चलिए साहब, कहाँ चलना है, किससे बात करनी है?”
“व...वो...क...का...जल” हिचकते हुए महेन्द्र ने कहा।
“ओहो...हुजूर के शौक के क्या कहने ? अरे हुजूर वह तो कच्ची कली है। सबसे मँहगी है। सुना है मैडम तो उस पर नज़र भी नहीं रखने देतीं और आप तो...,” मदन ने महेन्द्र को ऊपर से नीचे तक देखा और अपनी बात आगे बढ़ाई, “इतना मँहगा माल खरीदने की हैसियत तो नहीं लगती हुजूर की, फिर भी इस कँगले पर रहम कीजिए तो आपको उसकी मैडम के पास ले चलूँ? क्या पता सारे पत्ते अन्दर ही खुलें?” कहते हुए उसने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया और बाएँ हाथ से दाहिने हाथ की हथेली खुजलाते हुए पैसे माँगने का इशारा किया। महेन्द्र ने चिढ़ते हुए सौ रूपये का नोट उसकी हथेली पर रख दिया। मदन ने नोट को सिगरेट की तरह गोल बनाकर अपनी कनपटी पर लगा लिया और उसे लेकर काजल के मकान की तरफ चल दिया। दरवाजा खुला था। दोनों उसमें घुस गये। अन्दर दाहिनी ओर एक और दरवाजा था जिसके ऊपर ‘मैनेजर ऑफिस’ लिखा था। मदन, महेन्द्र को ऑफिस में ले गया। ऑफिस बेले और गुलाब की भीनी सुगन्ध के भरा था। सामने एक बड़ी सी मेज़ पर एक लैपटाप रखा था। मेज के एक किनारे गुलदस्ते में गुलाब के ताजा फूल महक रहे थे। मेज के पीछे रिवाल्वलिंग चेयर थी जिस पर एक मोटी सी अधेड़ औरत बैठी हुई थी। उसका चेहरा मेकअप के कारण खूब चमक रहा था। दोनों भवें बहुत पैनी बनी हुई थीं। नाक सुडौल थी। होंठों पर लिपिस्टिक और आँखों में काजल। कानों में बड़े-बड़े झुमके लटक रहे थे। उसके घने काले बालों की मोटी चोटी में बेले के फूलों की कई सारी लड़ियाँ लटक रही थीं। लगता था कि अपने ग्राहकों को रिझाने और लुभाने के लिए वह अभी-अभी बन-सँवरकर आई है। सूरत से अत्यन्त क्रूर, असंवेदनशील और अशिष्ट लग रही थी। उसकी बदमिजाजी आँखों से ही झलक रही थी। वह बराबर रिवाल्विंग चेयर को दाएँ-बाएँ घुमा रही थी और लैपटाप पर कोई पिक्चर देख रही थी जिसमें किसी लड़की के चीखने की आवाज़ आ रही थी और उस आवाज पर वह औरत के चेहरे के भाव बदल रहे थे।
मदन ने हिचकते हुए कहा, “म...मैडम...यह बाबू...”
“क्या है बे...भड़ुवे...भो...के” अश्लील गाली देते हुए उस औरत ने मदन की ओर देखा और आगे बोली, “ये नमूना कौन है ? क्या चाहिए ? कह दे, हम दान-वान नहीं देते। कहीं और जाकर मरे।”
“आंटी, मैं काजल से मिलने आया हूँ” बड़ी शालीनता से महेन्द्र ने कहा। औरत की तीखी नज़र महेन्द्र पर पड़ी। उसने पिक्चर को पॉज़ किया और मदन को इशारे से जाने के लिए कहकर महेन्द्र को सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। महेन्द्र के बैठने के बाद उसने बहुत गौर से एकबार फिर उसे देखा और घंटी बजाई। कुछ ही सेकेण्ड्स में एक पन्द्रह-सोलह साल का लड़का ट्रे में दो गिलासों में पानी लेकर आ गया। लड़के ने ट्रे पहले महेन्द्र के आगे बढ़ाई और फिर उस औरत की ओर। पानी का गिलास उठाकर महेन्द्र ने होठों से लगाया ही था कि वह औरत बोल पड़ी, “तुम्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि तुम किसी बड़े बाप की औलाद हो और न ही बहुत पैसे वाले दिखते हो जो अपना शौक पूरे करने के लिए पैसे उड़ाता है। तुम्हें देखकर तुम्हारी हैसियत भी नहीं लगती कि ऐसे शौक करो, फिर इतना बड़ा ख्वाब देखने की क्या जरूरत है?” कहते हुए उसने भी गिलास होठों से लगा लिया।
पानी पीने के बाद महेन्द्र ने कहा, “आंटी...आप जैसा समझ रही हैं, वैसा बिल्कुल भी नहीं है। मेरा नाम महेंद्र है। मैं इस शहर में एक कम्पनी में नौकरी करता हूँ। माँ-बाप कोई नहीं है। एक तरह से अनाथ हूँ। जैसे-तैसे पढ़-लिखकर मैं अपने पैरों पर खड़ा हुआ हूँ। कम्पनी ने मुझे नौकरी देते हुए इस शहर में भेज दिया। उस दिन मैंने काजल को मंदिर में देखा तो...” महेन्द्र ने सारी बात कह सुनाई और सबसे अन्त में उसने कहा, “मैं काजल से प्यार करने लगा हूँ। उसको अपनी ज़िन्दगी में लाने और उसे हर खुशी देने के लिए कुछ भी कर जाऊँगा।” वह औरत जिसकी आँखें अब तक बहुत खूँखार लग रह थीं, महेन्द्र की निश्छल आँखों में झाँकते हुए समझ चुकी थी कि महेन्द्र उन लोगों में से नहीं है, जो इन दरवाजों में वासना लिए घुसते हैं और अपनी आँखों से ही औरत के जिस्म की बोटी-बोटी नोच लेना चाहते हैं। वह समझ चुकी थी कि महेन्द्र एक सच्चा और नेक इंसान है। उसकी आँखों में सच्चाई की चमक है, एक निश्छलता है। अब उसने महेन्द्र से बहुत सभ्यता से बोलना आरंभ कर दिया, “महेन्द्र, तुम भले ही अनाथ हो, पर तुम्हारी आँखों में एक सच्चे और अच्छे इंसान की चमक है। मुझे नहीं पता कि तुमने मुझे किस रिश्ते से आंटी कहा, लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि हमारी इस दुनिया से तुम दूर ही रहो तो अच्छा है। वरना बिना वजह किसी मुसीबत में फँस जाओगे और...” कहकर वह रुक गयी और गिलास में बचा पानी गटक गयी।
“कैसी मुसीबत आंटी...मैं तो बस यह जानना चाहता हूँ कि क्या काजल भी वे...” महेन्द्र ने कहा।
“नहीं...बिल्कुल नहीं...वह बेचारी तो एकदम निर्दोष है, निष्कलंक है और गंगा की तरह पवित्र है। वह तो भगवान के प्रसाद की तरह माथे से लगाने योग्य है” कुछ रुकते हुए वह औरत बोली, “मेरे पापों के कारण वह अभागिन इन दरवाजों में कैद हो गयी है, पता नहीं कब उसे इस कैद से छुटकारा मिलेगा?” कहते हुए उस औरत की आँखों में पानी आ गया।
कुछ पल रुककर महेन्द्र ने कहा, “ऐसा क्या है आंटी...यदि आप चाहें तो मुझे बता सकती हैं। हो सकता है मैं ही कोई रास्ता बता दूँ।”
अपनी मेज की दराज़ से रूमाल निकालकर उसने आँखें पोंछीं और फिर बोली, “बहुत पुरानी बात है महेन्द्र! लगभग बीस साल पहले तब मैं इस धन्धे में नहीं आई थी और अपनी माँ के साथ यहीं इसी चौक में रहती थी। तुम्हारी ही तरह एक इंसान इस दरवाजे में आया था और मेरा दीवाना बन बैठा। जोगिन्दर नाम था उसका। मुझसे शादी करके अपनी बीवी बनाना चाहता था। उसने मुझे बाहर की दुनिया के सपने दिखाए। उसके मन में बिल्कुल वैसी ही सच्चाई थी जैसी तुम्हारे मन में है। मैं उसकी नेकदिली पर फिदा हो गयी। मैंने बहुत से मर्द देखे, लेकिन मर्दांगी नहीं देखी क्योंकि मर्दांगी के लिए केवल शरीर ही नहीं बल्कि दिल भी देखा जाता है। शरीर और दिल का यह अनोखा जोड़ केवल मेरे जोगिन्दर में था। मैं उसके लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार थी। मैं उसके प्यार में पूरी तरह पागल हो चुकी थी और इस गंदे समाज से के साथ-साथ अपनी माँ से भी बगावत करने को तैयार थी। मेरी माँ ने मुझे बहुत समझाया कि ‘हम तवायफों को किसी एक आदमी से प्यार करने की आजादी नहीं है। हमें सबसे प्यार करने का हक़ है और उन सबमें भी उससे सबसे ज्यादा जिसकी जेब भारी हो। हमारी यही परम्परा रही है। मेरी माँ और उसकी माँ और उसकी भी माँ सब इन्हीं दरवाजों के पीछे कैद रहीं और इन्हीं दरवाजों के पीछे की रस्में और नियम मानती आई थीं’। मेरी माँ ने मुझसे कहा था कि “ये दरवाजे बाहर से अन्दर की ओर खुलते हैं। अन्दर से बाहर की ओर नहीं। हमें बाहर की दुनिया केवल खिड़कियाँ खोलकर ही देखने का हक़ है। बाहर निकलने का नहीं। हम खुले आकाश के नीचे, नदियों के किनारे, पहाडों पर, मैदानों में अपनी इच्छा से नहीं जा सकते हमारी किस्मत में ये बन्द दरवाज़े ही हैं” कहकर उसने फिर अपनी आँखों में आए पानी को पोंछा। खँखार कर गला साफ किया और अपने बीते जीवन की कहानी सुनाने लगी, “...मैंने अपनी माँ की बात नहीं मानी और एक दिन उसके साथ भाग गयी। वह मुझे लेकर अपने दोस्तों के यहाँ जाता रहा, क्योंकि किसी रिश्तेदारी में मुझे लेकर नहीं जा सकता था इसलिए एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे दोस्त के घर एक, दो या तीन दिन बिताते हुए हमने किसी तरह एक महीना काटा। ऐसे ही यहाँ-वहाँ जाते हुए एक रात जब हम थककर एक मंदिर में आराम करने के लिए बैठे हुए थे तो बुरी तरह घायल एक औरत मेरे पास आई, उसकी गोद में एक नन्हीं-सी बच्ची थी। उसने वह बच्ची मेरी गोद में देते हुए कहा कि “मेरी बच्ची को बचा लो, वो लोग इसे जिन्दा दफन करना चाहते हैं।” उसकी बात सुनकर हम दोनों के होश उड़ गए। इससे पहले कि हम उस औरत से कुछ पूछते वह आगे भाग गयी और अंधेरे में गुम हो गयी। जोगिन्दर ने मुझे उस बच्ची के साथ मंदिर के अन्दर जाने की सलाह दी और खुद उस औरत को ढूँढ़ने चला गया। मैं बच्ची को लेकर मंदिर में आ गयी। मंदिर में कोई उत्सव चल रहा था। भगवान के भजन और कीर्तन हो रहे थे। मैं उस भीड़ में शामिल हो गयी। जब बहुत देर हो गयी तो मैं बाहर आई। बाहर आकर देखा जोगिन्दर बुरी तरह से घायल था और अपनी अन्तिम साँसें गिन रहा था। उसने मरते हुए मुझे बताया कि वह औरत पकड़ी गयी। उसके गाँव के लोगों ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। उन्हीं से हाथापाई में जोगिन्दर पर भी कई वार हुए जिससे वह बुरी तरह घायल हो गया था। मरने से पहले उस औरत ने उस ने जोगिन्दर को ‘भाई’ कहा और उसकी बच्ची को एक अच्छा इंसान बनाने का वादा लिया। यह कहकर जोगिन्दर ने वही वादा मुझसे भी लिया और हमेशा के लिए मुझे छोड़कर चला गया” इतना कहकर वह जोर से रो पड़ी। महेन्द्र की आँखें भी नम हो रही थीं। खुद को संयत करके वह पुनः बोली, “दूसरों के लिए अपनी जान दाँव पर लगाने वाले उस जोगिन्दर की आँखों में उस अजनबी बच्ची के लिए प्यार और मुझ पर किये गये विश्वास का कर्ज़ बनकर वह बच्ची मेरे साथ इस चौक में आ गयी। मेरी माँ को जब यह पता चला तो पहले तो उसने मुझे खूब खरी-खोटी सुनाई लेकिन फिर जोगिन्दर की नेक दिली और उस बच्ची को देखकर माँ का दिल पसीज गया। अब मैं फिर इस बाजार में और इन दरवाजों के पीछे आ चुकी थी, इसलिए मुझे यहाँ के नियम मानने पड़े। मैं नहीं चाहती थी कि इस धन्धे में उतरूँ इसलिए मुझे उस बच्ची को लेकर काले दरवाजों के पीछे जाना पड़ा। लेकिन बच्ची की परवरिश और उसे अच्छा इंसान बनाने का जो वादा मेंने जोगिन्दर से किया था, उसे निभाने के लिए मुझे पैसों की जरूरत थी। उधर मेरी माँ भी बूढ़ी हो रही थी और उसे इन सफेद दरवाजों के पीछे जाने से बचाने का फर्ज़ भी मेरा था इसलिए न चाहते हुए भी मुझे इस धन्धे में आना ही पड़ा। पर, ईश्वर साक्षी है कि मैंने उस बच्ची को अपनी बेटी की तरह पाला है और उसे बीए तक पढ़ाया भी है। अब तो बस यही तमन्ना है कि किसी तरह यह इन दरवाज़ों की कैद से बाहर निकल जाए और एक अच्छे इंसान की ज़िन्दगी जिए।” कहते हुए उसकी आँखों से पानी बह निकला। अपने को सँभालते हुए वह फिर बोली, “यह जो बाहर अलग-अलग रंग के दरवाजे हैं ना...यही हम तवायफों की किस्मत है। मैं नहीं चाहती कि मेरी बच्ची की किस्मत में ये दरवाज़ें हों।”
“अलग-अलग रंग किस्मत कैसे हो सकते हैं आंटी?” महेन्द्र ने रुमाल से अपनी आँखें पोंछते हुए पूछा।
“लाल रंग के दरवाजे के पीछे वे तवायफें रहती हैं जिनका धंधा जोरों से चल रहा है और अभी कुछ सालों तक चलता रहेगा। हरे रंग के दरवाजे के पीछे वे हैं जो एक या दो साल पहले इस धंधे में आई हैं। नीले रंग के दरवाजें उन तवायफों के लिए हैं जिनका धंधा खत्म होने वाला है और उनकी लड़कियाँ इस धंधे को अपनाने के लिए तैयार हो रही हैं” उसने कहा।
महेंद्र को याद आया कि उसने सफेद और काले रंग के दरवाजे भी देखे हैं। उसने तुरन्त प्रश्न किया, “सफेद और काले रंग के...” इससे पहले कि महेन्द्र की बात पूरी होती वह औरत बोल पड़ी, “सफेद रंग के दरवाजे के पीछे वे बूढ़ी तवायफें हैं जिन्होंने न तो लड़की पैदा की और न ही किसी की लड़की को गोद लेकर, चुराकर या खरीद कर अपने धंधे में डाला। उनकी बूढ़ी हड्डियों ने जिस तरह उनकी खाल को छोड़ दिया है, उसी तरह इस धंधे ने भी उन्हें छोड़ दिया है। वे यहाँ रहने और खाने के लिए भीख माँगकर पैसा लाती हैं और यहाँ जमा करती हैं जिससे उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके और काले दरवाज़े उन बदकिस्मत लड़कियों के हैं जिन्होंने किसी से प्यार किया और उनके प्यार की निशानी अपने पेट में लेकर यहाँ आ गयीं। उन्हें केवल यहाँ इस उम्मीद से रहने दिया जाता है कि वे कभी-न-कभी इस धंधे में उतर आएँगी। अगर समय रहते नहीं उतरतीं तो उन्हें यहाँ से बाहर फेंक दिया जाएगा या फिर अपंग बनाकर सफेद दरवाजे के पीछे धकेल दिया जाएगा और वे भीख माँगकर पैसा लाएँगी। सब बिजनेस है महेन्द्र...बिजनेस।”
“लेकिन आपका दरवाजा तो शायद पीले रंग का है तो आप...” महेन्द्र ने कुछ हिचकते हुए पूछा।
“मैं पहले काले दरवाजे के पीछे रहती थी...लेकिन...अब मैं यहाँ की मैनेजर हूँ। यहाँ का सारा पैसा मेरे पास आता है और सारा खर्च निकाल कर बचा हुआ पैसा...मुझे इस जगह के मालिक को देना पड़ता है।” औरत ने कहा।
“जगह के मालिक...कौन है वह?” महेन्द्र ने आश्चर्य से पूछा।
वह औरत थोड़ी देर तक खामोश रही फिर बोली, “रहने दो बेटा, क्या करोगे जानकर?”
“नहीं आंटी, आप बताइए ना कौन है यहाँ का मालिक?” महेन्द्र ने पूछा।
“यहाँ का मालिक बहुत बड़ा आदमी है। उसके बहुत सारे बिजनेस हैं, उन्हीं में से एक बिजनेस यह भी है। मुझे डर है कि कहीं उसकी नज़र काजल पर न पड़ जाए वरना वह काजल को...” वह कह ही रही थी कि मदन हाँफता हुआ उसके ऑफिस में आया, “मैडम...सेठ आया है।”
“क्या...ओह...चलो-चलो जल्दी करो...महेन्द्र को छुपाओ जल्दी...” कहकर उसने महेन्द्र को उस ऑफिस में ऊपर बनी दुछत्ती में चढ़ा दिया और बाहर से ताला लगाकर खुद ऑफिस के दरवाजे पर सेठ की अगवानी करने को खड़ी हो गयी।
महेन्द्र ने दुछत्ती में लगी किवाड़ के दोनों पल्लों के बीच खुली झिरी से देखा तो एकदम चौंक गया, ‘अरे...यह तो मेरी कम्पनी का मालिक है सेठ अमीरचंद। इसका मतलब यह यहाँ का...’ महेन्द्र को अपनी आँखों और कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसे लग रहा था कि सचमुच बाहर की दुनिया में लोग न जाने कितने मुखौटे लगाए घूमते हैं। जब जैसी जरूरत होती है वैसा मुखौटा लगाकर दुनिया के सामने आते हैं। अपनी कम्पनी के मालिक जिस अमीरचंद को कल तक वह बहुत धर्मात्मा समझता था, उसका असली चेहरा आज दिखाई दिया है। वह मन ही मन उसे धिक्कारने लगा और चुपचाप उन दोनों की बातें सुनने लगा। सेठ कह रहा था, “सुना है चाँदनी कि नयी चिड़िया आयी है...एकदम कच्ची कली...क्या सच है?”
“नहीं हुजूर...अगर ऐसा होता तो आपकी अगवानी मैं करती क्या? सबसे पहले आपकी सेवा हाज़िर करती,” उस औरत ने कहा।
“वही तो मैं कहूँ कि मेरी चाँदनी को क्या हो गया जो मुझसे झूठ बोलेगी? नयी मुर्गी आए और मुझे न पता चले ऐसा कैसे हो सकता है? चाँदनी, मेरी जान, मुझे सच-सच बताना वरना तुम तो जानती हो...हम इस जगह एक बड़ा होटल बनवाना चाहते हैं” सेठ ने आँख मारते हुए उस औरत से कहा, “और हाँ, कुछ हिसाब-किताब भी नहीं मिल पा रहा है कुछ दिनों से...देख लो...मैं दो-चार रोज़ इसी शहर में हूँ”।
“ज...जी हुजूर...आपकी सेवा में मैं हाजिर हूँ...आप जब कहें हिसाब लेकर आ जाऊँगी बंगले पर...” चाँदनी ने हिचकते हुए कहा।
“न...न...तुम नहीं वही कच्ची कली आएगी हिसाब लेकर, वह भी कल सुबह...हम नाश्ता उसी के साथ करेंगे और अगर नहीं आई तो...” कहकर सेठ कुर्सी से उठ गया और दरवाजे की ओर जाने लगा।
“पर...पर सेठ जी वह मेरी दूर की रिश्तेदार....” चाँदनी ने कहना चाहा लेकिन सेठ वापस मुड़ा और हँसते हुए बोला, “रिश्तेदार...एक रात के बाद तो हम भी तुम्हारे रिश्तेदार बन जाएँगे जानेमन...हमारी रिश्तेदारी खूब जमेगी...और तुम तो जानती ही हो कि हम बहुत अच्छा रिश्ता निभाते हैं...” कहते हुए सेठ ने चाँदनी के वक्षस्थल पर अपना हाथ मारा और वहाँ से चला गया। यह देखकर महेन्द्र का खून खौल उठा। उसे अमीरचंद और उसकी कम्पनी में नौकरी करने से नफरत होने लगी। उसने तुरन्त ही उसकी नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया
सेठ की बात सुनकर चाँदनी का चेहरा सफेद पड़ गया। उसे जैसे लकवा मार गया था। वह अपनी कुर्सी पर धँस गयी और मन-ही-मन सेठ को कोसने लगी। कुछ देर के बाद उसने महेन्द्र को उस दुछत्ती वाली कोठरी से बाहर निकाला और गिड़गिड़ाने लगी, “महेन्द्र तुमने मुझे आँटी कहा है, तुम मेरा एक काम करोगे?”
“हाँ, आँटी बोलिए ना” महेन्द्र ने कहा।
“त...तुमने कहा था कि तुम काजल को चाहते हो...उससे शादी करना चाहते हो...उसके साथ घर बसाना चाहते हो...परिवार बनाना चाहते हो...”
“ह...हाँ...कहा था और अब भी कह रहा हूँ” महेन्द्र ने कहा।
“तो...तुम काजल को लेकर भाग जाओ...आज ही रात में...सारा इंतजाम मैं कर दूँगी” चाँदनी ने कहा।
“पर...मैं...” महेन्द्र थोड़ा हिचकिचाया।
“क्या सोच रहे हो महेन्द्र...जल्दी बोलो...ज्यादा समय नहीं है...तुमने सारी बातें तो सुन ही ली होंगी...वह जानवर मेरी बच्ची को...प्लीज़ महेन्द्र बचा लो मेरी बच्ची को...सदियों से अन्दर की तरफ खुलने वाले इन दरवाजों को आज बाहर की तरफ खोल दो...जो जिन्दगी मैं नहीं जी पाई वह मेरी बच्ची की किस्मत में लिख दो...बोलो महेन्द्र मेरी बच्ची को वह सारी खुशियाँ दोगे जो मुझे नहीं मिल पाईं। महेन्द्र मैंने आदमी के बहुत रूप देखे हैं। मैं आदमी को पहचानने में गलती नहीं करती क्योंकि यहाँ हर रात अलग-अलग तरह के आदमी आते हैं। कोई सफेद पोश तो कोई वर्दीधारी, कोई नशे का पर्दा डाले तो कोई अपने जज्बातों का। हम सबको प्यार देती हैं, खूब प्यार, लेकिन जिस सच्चे प्यार की तलाश में हम उम्रभर तड़पती हैं वह किसी-किसी को ही नसीब होता है। वही सच्चा प्यार तुम्हारी आँखों में अपनी बच्ची के लिए मुझे दिखा है। मुझे तुम में मेरे जोगिन्दर की छवि दिखती है। जल्दी बोलो महेन्द्र मेरी बच्ची की किस्मत में ये दरवाज़े बाहर की तरफ खोलोगे ना...” चाँदनी की उसके सामने हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रही थी। महेन्द्र को यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि पहली नज़र में इतनी क्रूर और कठोर लगने वाली एक वेश्या के दिल में इतनी ममता है कि वह अपनी गोद ली हुई बच्ची की इज्जत बचाने के लिए उसके सामने भीख माँग रही है। उसने चाँदनी के हाथों को अपने हाथों में लिया और उसे आश्वासन दिया कि वह काजल को लेकर किसी सुरक्षित स्थान पर चला जाएगा। उसी रात महेन्द्र, काजल को उन दरवाज़ों की कैद से छुड़ाकर ले गया। चाँदनी ने सारी आनन-फानन में तैयारियाँ कर दीं। भारी मन और भरी हुई आँखों से काजल को विदा कर दिया।
किसको पता था कि उलझन और बेचैनी के कारण आँखों में कटी सारी रात, सुनहरी सुबह लेकर आएगी। सुबह का सूरज धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा था। न जाने क्यों चाँदनी का मन बहुत खुश था। उसे अब किसी बात की चिन्ता नहीं थी। वह निश्चिन्त थी कि जोगिन्दर के साथ जिन दरवाजों को उसने बाहर की ओर खोलने का सपना देखा था, वह सच हो चुका था। चाय का प्याला लेकर वह छज्जे पर खुले आसमान के नीचे, खुली हवा में साँस ले रही थी और उगते हुए सूर्य की किरणें उसके चेहरे की मुस्कुराहट को बढ़ा रही थीं। एकबार उसके मन में पिछली रात सेठ की कही बात याद आई लेकिन वह अब किसी भी मुसीबत का सामना करने को तैयार थी। उसने सोच लिया था कि अगर अपने जोगिन्दर की अन्तिम इच्छा पूरी करने में उसकी जान भी चली जाए तो उसे कोई गम नहीं। उसे अपने हिस्से की आजादी और खुलापन भले ही न मिला हो लेकिन काजल को तो मिल ही गया था। उसने जोगिन्दर से ही सीखा था कि केवल खुसी पाना ही प्यार नहीं होता, बल्कि खुशी लुटाना प्यार होता है। खुशी लुटाकर जो प्यार हासिल किया जाता है तो यह सारी सृष्टि प्यार में रंगी हुई नज़र आती है। उसने भी खुशी लुटाकर अपने प्यार को सिद्ध किया था। उसका सिर आत्माभिमान से उठा हुआ था। उसने चाय की अंतिम चुस्की ली ही थी कि साइकिल की घंटी की आवाज़ से उसने गली की ओर देखा। अखबार वाला तेजी से उसके मकान की ओर आ रहा था। उसने अखबार को गोल किया और ऊपर की ओर फेंका। अखबार ठीक चाँदनी के पैरों में गिरा। उसने अखबार उठाया और पहले ही पेज की खबर पढ़कर उसे लगा कि सुबह के सूरज की किरणों ने अपनी सुनहरी कलम से उसके हक़ में फैसला लिख दिया है। सचमुच यह सारी सृष्टि प्यार के रंग से रंग चुकी है और उसके जीवन के सारे बन्द दरवाजों को बाहर की ओर खोल चुकी है। उसके हर्ष और आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। आँखों में आए आँसुओं के पीछे से अखबार की मुख्य खबर के धुँधले अक्षर वह साफ-साफ पढ़ पा रही थी— “हृदयगति रुक जाने से कल रात सेठ अमीरचंद की निधन।”
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