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सुनो पुनिया - 1

सुनो पुनिया

(1)

घाम की चादर आंगन के पूर्वी कोने में सिकुड़ गई थी. पुनिया ने मुंडेर की ओर देखा और अनुमान लगाया सांझ होने में अधिक देर नहीं है. ठंड का असर काफी देर पहले से ही बढ़ने लगा था. रह-रहकर हाथों के रोंगटे खड़े हो जाते थे और बदन कांप उठता था.

पुनिया चाहती थी कि डेलवा (टोकरी) आज ही तैयार हो जाए. ’थोड़ा-सा ही बचा है---’ सोचकर उसने कुछ कांस खोंसकर सूजा उसमें घोंप दिया और आरण (सरकंडा) से तैयार मूंज फंसाकर आगे बुनना शुरू कर दिया. डेलवा समाप्त कर उसे आंगन बुहारना था, इसीलिए वह जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगी.

’माई आ जाती तो वही बुहार देती आंगन—गंद मची हुई है.’ पुनिया ने सोचा, ’लेकिन हार-पतार काम करती कितना थक जाती है माई भी---घर आते ही खटिया पर ढेर हो जाती है----और मैं सोचती हूं, अगर वही---मैं कितनी मूर्ख हूं---.’ सूजा एक जगह अटक गया तो उसे ठीक करने लगी, ’कितना काम करते हैं माई और बापू---बापू जैसे थककर भी नहीं थकता---ई फसल मा मिसिर महाराज का करज जो उतारना है. उन्हें जस---तस---.’ सूजा उसकी उंगली में चुभ गया. झुंझलाकर पुनिया ने डेलवा एक ओर पटक दिया, कांस समेटे और मूंज से बांधकर नहा पर रख दिया. कुछ देर यों ही बैठी रही, फिर झाड़ू उठाकर आंगन बुहारने लगी.

आधा आंगन भी न बुहार पाई थी कि ढोल बजने और कुछ लोगों की ’डिग-डिग—डिग---डा—डा---डा---’ की आवाज आई. सूजा-झाड़ू थामे वह कुछ देर यों ही खड़ी रही, फिर झाड़ू फेंक बाहर आई और दरवाजे से टिककर खड़ी हो गई.

’डिग—डिग—डिग--- डिग—डा—डा---डा---’ की आवाज ढोल के साथ तीव्र से तीव्रतर होती जा रही थी. पुनिया का हृदय जोर-जोर से धड़कने लगा और आंखें सामने गली की ओर टिक गईं. उसे मालूम था—जब भी ढोल बजता है---दीवाली खेलने के लिए---पारस उसमें जरूर शामिल होता है. पारस को खेलता देखने के लिए पुनिया की आंखें लालायित रहती हैं. सच यह है कि वह पारस के खेल को कम ---पारस को अधिक देखती है. उस क्षण उसके हृदय में एक विचित्र गुदगुदी-सी होती रहती है और अन्य अवसरों की अपेक्षा--- जब कभी वह पारस से मिलती है---घर में—खेत में, या किसी बाग में---पारस उसे अधिक अच्छा लगता है. लेकिन महीनों से पारस से मिलना तो दूर, वह उसे देख भी नहीं पाई है.

मैदान में खेल शुरू होने से पहले पारस एक बार उसके घर के सामने से अवश्य गुजरता है, और इस समय भी पुनिया को विश्वास था कि वह उधर से होकर ही मैदान की ओर जाएगा.

पुनिया को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. कंधे पर लाठी रखे, बनियान और लुंगी पहने, पारस गली में आता दिखा उसे. पुनिया ने नज़रें घुमा लीं, जैसे उसने पारस को देखा ही न हो. कनखियों से देख वह तब भी रही थी. पारस ने समझ लिया कि पुनिया जानबूझकर उसे अनदेखा कर रही है. वह मन-ही-मन मुस्कराया. पुनिया के दरवाजे के सामने आकर उसने खंखारा. लेकिन पुनिया ने तब भी उसकी ओर नहीं देखा. पारस एक क्षण के लिए ठिठका और पुनिया के चबूतरे पर लाठी पटक दी.

“ठीक से चलना नहीं आता?” पारस के चेहरे पर नज़रें टिकाकर पुनिया बोली.

“वह मैं तुझसे सीखूंगा न अब---.” लाठी चबूतरे पर टेककर पारस बोला.

“पुनिया लजा गई और ड्योढ़ी की ओर देखने लगी.

“आज दीवाली नहीं देखोगी---कांटे की बराबरी होगी घिनुआखेड़ा वालों से.”

“होने दो---मुझे क्या? तुम लोगों को कोई काम-धाम भी है, या---खाए---अंगड़ाए और लाठियों पर उछलने लगे.” बहुत दिनों बाद पारस से बातें करना अच्छा लग रहा था उसे.

“बातें मत मार---देखना है तो आ जा---आज के बाद फिर बीर बाबा के मेला के दिन ही खेल होगा---इन्हीं लोगों से---.”

“होने दो—मुझे क्या?”

“अरे तेरा वो---रामभरोसे भी तो खेलेगा---.”

“मैंने कहा न—मुझे क्या? मत रुला मुझे यूं---.” पुनिया रुआंसी हो गई.

“देख---रोना मत---मैं तो तुझे बता रहा था---रामभरोसे भी आया है, और मेलावाले दिन उसी के गुट से होंगे दो-दो हाथ---.”

“यह तू जान—मुझसे मत बोल.”

“देखना हो तो आ जा---देर हो रही है---मैं चला---.” और भरपूर नजर पुनिया पर डाल वह चल पड़ा. पुनिया उसे गली के मोड़ तक देखती रही. फिर चीखकर बोली, “मैं नहीं आऊंगी---नहीं.” और दरवाजा धड़ाम से बंद कर वह आंगन में आ गई, और चारपाई पर ढह फूट-फूटकर रोने लगी.

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दलपत खेड़ा में लगभग पच्चीस घर अहीरों के हैं---गांव के दक्षिणी कोने में पूरा एक मोहल्ला है ’अहीरन टोला’ नाम से. एकाध को छोड़ सभी काश्तकार—परिश्रमी और खाते-पीते. पुनिया का घर भी इसी टोला में है---पारस के घर से दूर. टोला के उत्तरी छोर में पुनिया का घर है तो पूर्वी छोर में पारस का. दोनों घरों को एक गली जोड़ती है. जिस मैदान में दीवाली खेली जाती है, वह उत्तरी छोर की ओर पड़ने वाली मुख्य सड़क के किनारे है और वह मुख्य सड़क गांव को अन्य गांवों से जोड़ती है.

दीवाली खेल ’अहीरन टोला’ के युवकों का प्रिय खेल है. गांव के दूसरे टोला—ठाकुर टोला---ब्राम्हण टोला—पासी टोला—कोइरी टोला आदि के कुछ युवक भी कभी-कभी दो-चार हाथ आकर खेल लेते हैं---लेकिन केवल मन बहलाव के लिए ही. जो कौशल ’अहीरन टोला’ के युवकों के हाथ में है, दूसरों में नहीं. और इस टोला के युवकों में भी सर्वाधिक सफाई और कुशलता पारस के खेल में होती है.

पारस दोनों प्रकार की दीवाली खेल लेता है. छः-सात युवकों के साथ बैठकर छोटे-छोटे डंडों का खेल, जिसमें सभी एक-दूसरे के डंडों में डंडे मारते हुए बैठे-बैठे चक्राकार घूमते रहते हैं और दूसरा लठही दीवाली. इसमें दो युवक एक साथ अत्यंत कुशलता से लाठियों का प्रदर्शन करते हुए त्वरित गति के साथ लाठियां भांजते हैं और लाठियां केवल लाठियों से ही टकराती हैं. इस खेल में पारस अपनी कोई बराबरी नहीं रखता.

पारस है भी बांका जवान. बहुत अच्छी काश्त नहीं उसके पिता के पास, फिर भी उसका परिवार सुखी है. दसवीं तक पढ़कर आर्थिक कारणों से वह आगे नहीं पढ़ सका, और पिता के साथ खेती में हाथ बंटाने लगा. जबसे पारस ने खेती संभालनी शुरू की, उसके घर में खुशहाली लौट आई. तीन वर्ष से वह खेती संभाल रहा है. खेतों की जुताई-बुवाई तक वह काम में इतना खोया रहता है कि उसे अन्य बातों का होश नहीं रहता, लेकिन उससे मुक्त होते ही वह मोहल्ले के युवकों के साथ दीवाली खेलने के अभ्यास में जुट जाता है. उसका मानना है कि इससे शरीर की मांस-पेशियां दुरुस्त रहती हैं.

यह खेल दीवाली के बाद ही शुरू होता है और केवल दलपत खेड़ा में होता हो, ऎसा नहीं है, उसके आस-पास के गांवों में भी खेला जाता है. लेकिन बीर बाबा के मंदिर में कार्तिक-पूर्णिमा के बाद पंचमी के दिन मेला लगता है जिसमें इस खेल का अच्छा प्रदर्शन देखने को मिलता है. दो गांवों के खिलाड़ी प्राण-पण से एक-दूसरे को हराने का प्रयत्न करते हैं और खेल खत्म होने तक अगले वर्ष किस गांव के साथ किस गांव का खेल होगा, तय हो जाता है.

ऎसी किसी प्रतियोगिता में पारस केवल दो वर्ष से ही शामिल हो रहा है और दो वर्ष पहले जब पहली बार वह खेला था---इन्हीं घिनुआखेड़ा वालों के साथ---पुनिया भी अपनी माई और बापू के साथ उसका खेल देख रही थी. पुनिया की आंखें गड़कर रह गई थीं पारस पर, और पारस ने भी खेलते-खेलते देख लिया था कि पुनिया उसे ही देखे जा रही है. खेल खत्म होने के बाद वह सीधा उधर ही आया था और पुनिया के बापू से पूछा था, “कैसा लगा मेरा खेल, बुधई काका?” पूछ वह पुनिया के बापू से रहा था, लेकिन देखता जा रहा था पुनिया की ओर.

पुनिया लजाकर माई की ओट में जा खड़ी हुई थी.

“बहुत अच्छा खेले, बेटा---तुमने त गांव-टोला का नाम रोशन कर दिया. तू न होत त ई पौना-अद्धा का करि लेत---नाम डुबा देत---धनि भाग महादेव के—जो तू जइसा पूत पैदा कीन्ह---.” बुधई आसीसने लगे थे पारस को.

पारस खिल उठा था उस दिन. उसने फिर एक बार पुनिया की ओर देखा था---पुनिया कनखियों से उसकी ओर देख रही थी. पारस के अंदर खुशी के बगूले उठने लगे थे. लाठी पर उछलता वह साथियों के बीच जा पहुंचा था. उसने फिर मुड़कर देखा था पुनिया की ओर. पुनिया अभी भी देख रही थी उसी को.

और उसी दिन से दोनों के मध्य एक अनाम रिश्ता पनपने लगा था---जिसे वे समझते तो थे---लेकिन नाम नहीं दे पाए थे. दोनों के मन पवित्र थे. जब तक दिन में कम-से-कम एक बार एक-दूसरे को देख नहीं लेते, बेचैन रहते थे. यह बेचैनी चुंबक की तरह दोनों को एक-दूसरे की ओर खींचती---लेकिन कठोर सामाजिक अनुशासन उनके बीच दीवार बनकर खड़ा हो जाता. वे मिलते, बातें करते—एक-दूसरे को उलाहने देते---फटकारते-मनाते—मिन्नतें करते---किन्तु अपने इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाते. कह भली ही न पाते वे कुछ लेकिन आंखें स्पष्ट कर देतीं कि ’तुम कहो या न कहो, हम समझते हैं कि हम दोनों एक-दूसरे को प्यार करते हैं.’ और उनका प्यार पवित्र था—दूध की भांति.

लेकिन उस दिन मेले में रामभरोसे की नज़र भी पुनिया पर टिकी रही थी, यह किसी ने न देखा था. पुनिया रामभरोसे को भा गई थी. उस दिन वह भी नयी उमंग लेकर अपने गांव घिनुआखेड़ा लौटा था.

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