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सुनो पुनिया - 3

सुनो पुनिया

(3)

पुनिया अब घर से अकेली कम ही निकलती थी. जब कभी जाती या तो अपनी माई के साथ या पडोस की बसंती के साथ. बसंती उम्र में पुनिया से चार साल छोटी थी, और पारस सोचता कि क्यों न बसंती के माध्यम से ही वह अपनी बात पुनिया तक पहुंचा दे, लेकिन वह ऎसा भी नहीं कर सका.

एक दिन कुछ देर के लिए पुनिया से फिर मुलाकात हो गई. बसंती साथ थी उस दिन पुनिया के. बसंती खेत में कुछ खोद रही थी और पुनिया मेड़ पर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी. पारस अपने खेतों की ओर जा रहा था. पुनिया को देख वह उधर से जा निकला.

पारस को देख पुनिया का चेहरा लाल हो गया, और वह सामने आम के पेड़ की ओर देखने लगी जैसे उसने पारस को देखा ही न हो.

“कैसी हो, पुनिया?” निकट पहुंचकर पारस ने पूछा.

पुनिया ने एक दृष्टि पारस के चेहरे पर डाली, फिर नीचे की ओर देखने लगी.

“नाराज हो?”

“मैं क्यों होने लगी नाराज!”

“मुझे लगा—कुछ दुबली हो गई लगती हो---.”

“तुम मोटे हो गए हो क्या?”

दोनों हंसने लगे—हलकी हंसी. पारस ने बसंती को देख लिया. उसकी हंसी बिला गई. दोनों इधर-उधर देखने लगे.

“तुम कहो तो मैं तुम्हारे बापू से बात करके देखूं?” कुछ देर बाद पारस ने पुनिया के चेहरे पर नजरें गड़ाकर पूछा.

“किस बारे में?”

“अपने और तुम्हारे बारे में---.”

“कोई और बात नहीं कर सकते---मुझे रोज-रोज वही बात पसंद नहीं.” पुनिया का स्वर उत्तेजित था.

“पसंद नहीं?” पारस हत्प्रभ था, “पसंद नहीं ---यानी---.”

“यानी---कुछ कर-करा सकते नहीं---फिर माथा खराब करने से क्या फायदा?” पुनिया चुप हो गई.

बसंती आ गई थी.

“का बात है, पारस ह भइया?” बसंती ने पूछा.

“कुछ नहीं.” पारस अपने खेतों की ओर मुड़ने लगा.

“मैं सब समझती हूं.” बसंती फिक से हंस दी.

पारस खुश था यह सोचकर कि पुनिया उसे चाहती है---और अब उसे पुनिया के बापू से बात कर लेनी चाहिए या अपने बापू को बुधई काका के घर भेजना चाहिए. लेकिन वह अपने बाप से डर के कारण अभी बात नहीं करना चाहता. पहले पुनिया के बापू का मन जान ले, फिर बापू से बात करेगा.

पुनिया उस क्षण घबरा उठी थी बसंती की बातों से---कहीं बसंती ने घर में माई से कह दिया तो?

और वही हुआ. बसंती ने पुनिया की माई से कह दिया था कि पुनिया और पारस कुछ प्यार-व्यार की बातें कर रहे थे. माई ने बुधई से कहा, “लड़की पराए घर की होने वाली है. अब उस पर ध्यान देना जरूरी है.”

“हुंह!” इतना ही बोला था बुधई. उसने पुनिया से कुछ भी नहीं कहा और पत्नी को भी रोक दिया था कि वह भी कुछ न कहे.

सांझ अचानक ही रामभरोसे आ गया था उसी दिन. अच्छा लगा था बुधई को. होने वाले दामाद की जमकर खातिरदारी की थी बुधई ने.दोनों बातें कर ही रहे थे कि पारस आ गया.

“राम-राम—काका!” पारस ने बुधई से कहा, “अरे भरोसे, तुम---कब आए?”

बुधई ने पारस की राम-राम का कोई उत्तर नहीं दिया. रामभरोसे ने केवल इतना ही कहा, “थोड़ी देर पहले ही आया हूं.” और वह फिर बुधई से बातें करने लगा.

“और सब ठीक-ठाक?” पारस ने रामभरोसे से पूछा.

रामभरोसे ने उसकी ओर देखा, फिर रुखाई से बोला, “ठीक-ठाक ही होना है.”

पारस ने समझ लिया कि शायद उन लोगों को उसका आना ठीक नहीं लगा. वह घर के अंदर जाना चाहता था, लेकिन उसके मन में विचार आया—कहीं बुधई ने टोक दिया---अंदर किसलिए---? वह तुरंत लौट पड़ा.

दिन में पारस जितना खुश था, शाम तक उतना ही निराश हो उठा था. मन पुनिया का भी दुखी था, क्योंकि उसे यह आभास मिल चुका था कि बसंती ने माई से शिकायत कर दी थी.

लेकिन रामभरोसे उस दिन अवश्य खुश था. पुनिया के हाथ का पका खाना खाकर और उससे दो बातें करके वह उसके घर से निकला था. पुनिया के घर से जाते समय रामभरोसे बसंती के घर गया था. बसंती के परिवार से उसके पुराने संबन्ध थे. बसंती ने मजाक-मजाक में ही रामभरोसे से कहा था, “पुनिया दीदी को जल्दी से ब्याह ले जाओ, भरोसे भइया---नहीं तो हाथ मलते रह जाओगे.”

“क्यों, क्या हुआ?”

“बस, समझ लो.” बसंती उसके कान में फुसफुसाई थी.

रामभरोसे ने और जोर दिया तो बसंती ने उस दिन की घटना भी उसे बता दी थी.

सुनकर कुछ न बोला था रामभरोसे. लेकिन उस दिन के बाद उसने पारस से बात करना बंद कर दिया था.अपने बापू से स्पष्ट कह दिया था कि वह पुनिया के बापू पर जल्दी-से-जल्दी ब्याह कर देने के लिए दबाव डालना शुरू कर दें.

पारस अब उदासीन-सा रहने लगा था. पुनिया ने भी बाहर जाना लगभग छोड़ दिया था. जब-तब पारस उसके घर के सामने से निकलता तो वह उसे दरवाजे की ओट होकर देख भर लेती---बातें करने का साहस दोनों ही नहीं कर पाते थे.

बुधई को रघुआ के संदेश मिलने लगे थे और वह स्वयं भी पुनिया के बोझ से जल्दी-से-जल्दी मुक्त हो जाना चाहता था, लेकिन आर्थिक समस्या अभी भी थी---इसलिए उसने कुछ दिन की और मोहलत मांग ली थी. इस बार बुधई को उम्मीद थी कि फसल अच्छी होगी. फसल काटते ही वह पुनिया का विवाह कर देगा. इस वर्ष उसने और अधिक परिश्रम करके खेत तैयार किए थे. सभी खेतों में गेहूं ही बोया था. दीवाली तक उसके सारे खेत बोए जा चुके थे, और वह प्रतिदिन खेतों में जाकर देखने लगा था कि गेहूं अंखुआए या नहीं. वह इसलिए भी उधर जाता, क्योंकि उसे डर लगा रहता था कि कहीं दीवाली खेलने की उन्मुक्तता में लड़के पाटा दिए एवं बोए उसके किसी खेत में दीवाली न खलने लगें.

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कार्तिक-पूर्णिमा का गंगा स्नान निकट आ चुका था. दीवाली के बाद की पंचमी का इंतजार था और वह दिन भी उंगलियों पर गिनते न गिनते आ ही गया. एक दिन पहले ही बीर बाबा के मंदिर के पास के मैदान में बीस किलोमीटर दूर तक से आए व्यापारियों की दुकानें सजने लगी थीं.

बीर बाबा का मंदिर दलपत खेड़ा से लगभग दो किलोमीटर दूर, पूर्वी दिशा में, पांडु नदी के किनारे है, जिसके चार-पांच किलोमीटर इर्द-गिर्द अनेक गांव हैं. पिछले कुछ वर्षों की अपेक्षा उस वर्ष लोगों में मेला देखने का उत्साह कुछ अधिक ही था, क्योंकि वर्षा अच्छी होने से फसल की बुआई भलीभांति हुई थी. किसानों को अच्छी फसल की उम्मीद थी, और इस उम्मीद के कारण उनमें मेला देखने का उत्साह दोगुना हो उठा था.

चारों दिशाओं की पगडंडियों पर रेंगते हुए लोग मेले की ओर बढ़ रहे थे.

पुनिया भी बापू और माई के साथ आई थी. एक-एक रुपए के बतासे लेकर तीनों बीर बाबा पर प्रसाद चढ़ाने गए. सीढ़ियां चढ़ते समय पुनिया ने नजरें नीचे झुका लीं और भीड़ को ठेलती जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ने लगी. उसका दिल तेजी से धड़कने लगा था. बुधई ने भी पारस को देख लिया और पुनिया की माई ने भी, लेकिन देखते ही दोनों ने नजरें घुमा ली थीं.

पारस सीढ़ियां उतरकर रुक गया और पुनिया के लौटने की प्रतीक्षा करने लगा. वह सोच रहा था कि पूछेगा उससे कि आज खेल देखेगी या नहीं. लेकिन क्षण भर बाद ही उसे याद आया बुधई का उपेक्षापूर्ण चेहरा और उसका अब तक का व्यवहार. पारस ने विचार बदल दिया और दुकानों के बीच से होकर चल पड़ा उस टीले की ओर, जिधर दीवाली खेलने वाले युवक तैयारी में व्यस्त थे.

हलवाइयों की दुकानों से ताजी मिठाई की गंध आ रही थी और जलेबियां निकाली जा रही थीं. बिसातियों की दुकानों में औरतों की भीड़ थी. खिलौनों की दुकानों के आस-पास बच्चे मंडरा रहे थे. पारस ने रास्ता बदल लिया, और बायीं ओर मुड़कर लकड़ी के सामानों की दुकानों की ओर जा निकला. पास ही एक लड़का उबले सिंघाड़े बेच रहा था. पारस का मन सिंघाड़े खाने को हुआ, लेकिन कुछ खाकर खेलना उचित नहीं. वह आगे बढ़ गया.

ढोल बजने लगा था और छोटे-छोटे लड़के खेलने लगे थे. अपने गांववाले युवकों के पास जाकर पारस उनका खेल देखने लगा. दीवाली देखने के लिए लोग टीले पर इकट्ठे होने लगे थे.

लड़कों को खेलता देख कुछ बूढ़ों में भी जोश आ गया. उन्हें अपनी जवानी के दिन याद आ गए. अपनी बेढंगी लाठियां संभाल वे भी उछलने लगे. लगभग आधा घंटा तक हुड़दंग होता रहा.

लड़के थक गए तो हंसते हुए एक ओर जा खड़े हुए. ये सभी दलपत खेड़ा के लड़के थे---बारह से पन्द्रह वर्ष की उम्र के बीच.

मैदान साफ देख पारस का एक साथी बोला, “चलो, पारस.”

“हां घिनुआखेड़ा वालों को आवाज दे दो---तैयार होकर आ जाएं.” अपनी पतली और मजबूत लाठी को तीन बार मोड़कर पारस ने देखा, और साथियों को चलने का इशारा किया.

पारस का एक साथी लाठी ऊपर उठाते हुए चीखकर बोला, “अरे, रामभरोसे होऊ---आ जाओ सबके साथ.”

ढोल बज उठा जोर से. ठोल बजाने वाला बलमा धानुक था दलपत खेड़ा का. वर्षों से वही बजाता आ रहा था. इस अवसर पर जब वह ढोल बजाकर गांव लौटता, प्रत्येक अहीर परिवार से उसे एक सेर अनाज मिलता.

ढोल की आवाज से जोश आने लगा युवकों में. सभी लुंगी और बनियायन में, नंगे पैर थे. ठंड का असर जैसे उन पर नहीं हो रहा था. खेलने का उत्साह जो था सभी में. घिनुआखेड़ा वाले युवक भी आ गए. ढोल की आवाज पर सभी लाठियां ऊपर उठाकर नाचने लगे. खेल शुरू करने से पहले वे सदैव ऎसा ही करते थे.

नाचते-नाचते वे गा रहे थे—

“काहे तो निमिया कड़वी लागे,

काहे से लागे शीतली छांह।

काहे से भइया बैरी लागे,

काहे से लागे दाहिनी बांह।

ढम—ढम—ढम—ढमाढम---

खाए से निमिया कड़वी लागे,

बैठे से लागे शीतली छांह।

बांट में भइया बैरी लागे,

रण में लागे दाहिना बांह।

हो—हो—हो---

खाने को चाहिए खांड़ा चिरऊंजी,

सोने को चाहिए छरहरी डाल।

छैला को चाहिए पातर धनिया,

ओ—हो—हो—हो---।“

बलमा धानुक के हाथ रुक गए. युवकों का नृत्य-गान भी रुक गया.यह संकेत था खेल शुरू करने का. बलमा ने देख लिया था कि सूरज की रोशनी बूढ़ी होती जा रही है, और छाया आम के पेड़ों से नीचे उतर आई है.

“हां, भइयन, खेल शुरू करो!” बलमा ने कहा और ढोल पर दो बार ढम-ढम की आवाज दी.

खिलाड़ी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे. इसका अर्थ था, पहले कौन किससे भिड़ेगा? पारस ने स्थिति भांप ली. वह अपनी लाठी संभाल आगे आ गया. रामभरोसे को पारस के साथ खेलना था. वह भी आगे बढ़ आया. रामभरोसे ने लाठी को जमीन पर रखकर जल्दी-जल्दी कई बार लचकाया और रहस्यात्मक दृष्टि से पारस की ओर देखा. पारस ने महसूस किया कि रामभरोसे ने अपनी लाठी को अधिक ही तेल पिलाया है. इस खेल के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली ठोस बांस की लाठियों को खिलाड़ी अधिक-से अधिक कड़वा तेल लगाकर मजबूत बनाते हैं, और उनकी यह प्रक्रिया वर्ष भर चलती रहती है.

बलमा ढोल बजाने लगा. रामभरोसे पर एक दृष्टि डाल पारस ने टीले की ओर देखा. पुनिया, बापू और माई के साथ भीड़ के एक कोने में खड़ी दिख गई. पुनिया एकटक उसी को देख रही थी. पारस को टीले की ओर देखता देख रामभरोसे की दृष्टि ने उसकी दृष्टि का पीछा किया. उसने भी पुनिया को देख लिया. रामभरोसे के अंदर अंगारे सुलग उठे. लाठी पटक बोला, “खेल शुरू हो.”

पारस संभला. रामभरोसे ने ’जय बीर बाबा’ कहकर अपनी लाठी पारस की लाठी से टकराई---और खेल शुरू हो गया. दोनों को खेलता देख दो अन्य जोड़ों में भी उत्साह आ गया. वे भी मैदान में उतर आए और रामभरोसे और पारस से कुछ हटकर खेलने लगे. छह लाठियों के समवेत स्वर बजने लगे---कट—कड़ाक—कट--- कड़ाक—कड़ाक— कट—कटाक!

बड़ी मात्रा में लोग खिलाड़ियों के चारों ओर एकत्रित हो गए थे. सभी दम साधे देख रहे थे. अद्भुत प्रदर्शन था. औरतें और बच्चे सीत्कार कर उठते---अब लगी उसके लाठी---तब लगी. लेकिन खेलने वाला यदि प्रतिद्वंद्वी का प्रहार नहीं बचा सकता, तो फिर वह खिलाड़ी कैसा? तीनों जोड़े घूम-घूमकर खेल रहे थे. दृष्टि बंध गई थी देखने वालों की. किसको देखें—किसको नहीं---यही प्रश्न था. वे तीनों जोड़ों को एक साथ देखना चाहते थे, लेकिन तीनों पर एक साथ दृष्टि स्थिर रखना संभव न था---तीनों के प्रदर्शन में तीव्रता जो थी!

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