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चुन्नी - अध्याय दो


चुन्नी अपने नाम के हिसाब से ही है।बिल्कुल वैसा ही जैसा उसका नाम है।बचपन से ही भोला और नादान।लोग उसके भोलेपन का फायदा उठा लेते है।

बचपन से चुन्नी को पढ़ने का बड़ा शौक था।उसे क्या पता था यही शौक उसे एक दिन कही और ले जायेगा। पढ़ने के इसी लत मे वो अजीबो गरीब कारनामे करता था। किताब लेकर कभी बिस्तर के नीचे,कभी संदूक के पीछे, कभी छत पर, कभी खेतो मे बैठ कर।पूरा परिवार उसके इस आदत से परेशान रहते थे। वो घंटो घंटो गायब रहता था। इस नशे मे उसने घर के सारे किताब पढ़ डाले। फिर जब कुछ नही बचा तो धार्मिक किताबों की तरफ बढ़ गया। जो हाथ मे आता पढ़ डालता।


दस साल की उम्र मे ऐसे ही ढुंढते ढूंढते एक दिन उसे कोठरी मे रखे अलमारी के सबसे उपरी भाग पर एक भारी किताब हाथ लगी।लाल कपड़े मे बधा हुआ सबके के पहुँच से बाहर, उपर रखा हुआ था। चुन्नी बगल मे रखे कुर्सी उठा लाया और उसपर चढ़ गया। अब वो किताब के बिल्कुल बराबर पर खड़ा था।उस किताब से अलग किस्म की खुशबु आ रही थी,चुन्नी ने सूंघ कर देखा

"कैसी किताब है,इतनी अच्छी खुशबु आजतक नही आई किसी भी किताब से।"

चुन्नी उसको छू कर देखा,उसके पन्ने आम किताबों से मोटे थे।कोई बहुत पुराना किताब जान पड़ रहा था। चुन्नी के आँखे चमक गई।


"बहुत मोटी किताब है,निश्चित ही मेरे एक महीने निकल जायेंगे। "


यही सोच रहा था तभी पीछे से किसी के आने की आवाज आई।

"चुन्नी क्या कर रहे हो?क्या देख रहे वहाँ उपर।" दादाजी की आवाज आई।

"कुछ नही दादा जी"हड़बड़ाकर चुन्नी कुर्सी पर से कूद गया।


" बेटा उधर मत हाथ लगाया करो,वहाँ कुछ पवित्र चीजे रखी है। उसको हम ऐसे हाथ नही लगा सकते है।"दादा जी बोले।


"जी दादा जी। " चुन्नी ये बोलकर वहाँ से भाग गया।




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दूसरे दिन जब दुपहर मे सब सो गए, चुन्नी फिर से उस कोठरी मे घुस गया और उस लाल कपड़े मे बधी हुई किताब को निहारने लगा, बड़ी सिद्दत से।कुछ देर खड़ा रहा और किताब को नीचे से निहारता ही रहा। उसके कान मे दादाजी के कहे बात भी याद आ रहे थे- "ये सब पवित्र चीजे है, ऐसे ही हाथ नही लगाते है।" फिर भी हिम्मत कर चुन्नी ऊपर चढ़ गया और किताब को उतार लिया।वहाँ खोलना उसे सुरक्षित नही लगा, कोई भी आ सकता था,उसने लाल कपड़ा निकाला और उसमे कोई और किताब लपेट कर उसी जगह रख दिया जिससे किसी को ये नही पता चले की वहाँ रखा किताब गायब है।

किताब लेकर अपने कुर्ते मे छुपा लिया और सीधे खलिहान के तरफ भागा।खलिहान के बगल मे लगे मटर के खेत मे चुन्नी ने एक छोटा सा घर बनाया था।

बाकी दुनिया से बिल्कुल अलग अपना छोटा सा एक घर।


चुन्नी किताब को उलट पुलटकर देखने लगा, और पन्ने पलटने लगा।

"वेदांत" यही लिखा था उसके उपर।

पन्ने पलटे तो देखा संस्कृत मे लिखा है और उसका अनुवाद भी है हिंदी मे।

संस्कृत उसे समझ मे आने से रहा, उसने हिंदी वाला अनुवाद पढ़ना प्रारंभ कर दिया।


पहला वाक्य था -


"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।"


"अथार्त यहाँ से ब्रह्म कौन है? उसका स्वरूप क्या है? इत्यादि का वर्णन आरंभ किया जाता है। "


"ब्रह्म ज्ञान?"

"बहुत रोचक किताब लग रही, मजा आने वाला है। " चुन्नी किताब पढ़ते हुए बुद्बुदाय।

चेहरे पर बड़ी वाली मुस्कुराहट थी।


फिर चुन्नी रम गया पढ़ने मे।

दुपहर से कब शाम हो गई पता नही चला।

चुन्नी पढ़ने मे मसगुल था तभी दूर से आवाज आने लगी - "चुन्नी, चुन्नी?"


चुन्नी का ध्यान टूटा देखा हल्का अंधेरा हो गया है और ट्रेन किसी स्टेशन पर खड़ी है।


चाय वाले चाय चाय चिल्ला रहे थे जो चुन्नी चुन्नी लगा।


"कौन सा स्टेशन है भैया? " चुन्नी ने चाय वाले से पूछा।


"कानपुर"

"चाय दे दू क्या?" वो बोला।

" दे दो। " चुन्नी बोला।


चाय पीते हुए ठंडी साँस ली। दूर ट्रेन से चलने की सीटी बाजी और धीरे धीरे चलने लगी।