Ichchha - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

इच्छा - 10

हादसे के बाद कम्पनी कई दिनो के लिए सील कर दी गई. हादसे की भयानक पीड़ा को वक्त के मरहम ने कुछ हद तक कम कर दिया था | जाँच पड़ताल के पश्चात कंपनी को पुनः खोलने की परमीशन मिल गई | आज बहुत दिनो के बाद फिर से स्टाफ इकट्ठा हुआ, इच्छा तो मानो कैद से छूट कर आई हो | आज खुली हवा मे साँस लेने का अहसास हो रहा था उसे, बहुत दिनो के बाद आज फिर सब इकट्ठा थे| फाइलो पर धूल मिट्टी जम गई थी ,वैसे मेज, कम्प्यूटर व बाहर रखी फाइलो पर तो ,जयशंकर अपने सहयोगी के साथ मिल पहले ही झाड़ पोंछ कर गया था| पर आलमारियो मे लगभग पाँच सौ से ऊपर फाइलें थी | जो केवल उनके अपने केबिन मे थी| उन पर भी धूल, गर्दे ने डेरा जमा लिया था |
समान्यवस्था मे हर दूसरे - तीसरे दिन डी डी शर्माजी जयशंकर को बुला, उसपर कपड़ा मरवाते थे | किन्तु ऑफिस सील होने की वजह से उन पर धूल मिट्टी जम गई | डी डी शर्मा जी के कहने पर इच्छा ने जयशंकर को फोन पर बुला उन फाइलो को साफ करवाया |आज इच्छा को कंपनी मे आये दो साल पूरे हुये| कुछ फाइले बड़े अलग तरीके से रख्खी थी | वैसे तो आलमारी मे जितनी भी फाइले थी उनका कभी न कभी काम पड़ ही जाता था | इच्छा भी आँख मूदकर उन फाइलो को ढूंढ लेती थी | लेकिन इस फाइल के बारे मे इच्छा को भी नही पता था | अचानक डी डी शर्माजी "इच्छा इन फाइलो को अलग रख दे" मौका पाते ही वह उन फाइलो के बारे मे पूँछ बैठती है |" किन्तु दो बार पूँछने पर भी वे कुछ न बोले | इच्छा के मन मे उन फाइलो को लेकर उत्सुकता बढ़ गई , किन्तु वह मौन रही | डी डी शर्माजी के स्वभाव को वह जानती थी | जब उन्हे बताना होगा वे खुद ही उसे अपने पास बुला लेंगे | तीन दिन पश्चात , डी डी शर्मा जी ने इच्छा को अपने पास बुलाया | और उन फाइलो को मँगवाया जिन्हे अलग रखवाया था | "इच्छा !जानती है यह क्या है " " नही सर" इच्छा ने कहा, "यह बहुत महत्वपूर्ण फाइल है ." यह कहाँ रख्खी है, इस कम्पनी के मलिक को भी नही पता | जब वे माँगते है तब इन्हे भिजवाता हूँ| यहाँ केवल तीन लोगो को
पता है ,इन फाइलो के बारे मे | क्या है सर इस फाइल मे इच्छा ने उत्सुकता से पूँछा . डी डी शर्माजी वैसे तो कभी धीरे नही बोलते थे, किन्तु आज वो जैसे कान मे यह बात बताना चाह रहे हो | इच्छा इस स्थिति मे खड़ी थी कि डी डी शर्माजी की साठ प्रतिशत बात ही समझ पा रही थी | इस फाइल मे कम्पनी का भूत, वर्तमान और भविष्य भी है | यह लीज़ एण्ड डीड , ट्रान्सफर पेपर्स ,सबका ब्योरा दिया हुआ है . ये कुछ महत्वपूर्ण टेन्डर से सम्बन्धित फाइले हैं| इच्छा को समझाने के पश्चात उन फाइलो को वही रखवा दी जहाँ से उसे निकाली थी | ऐसा लग रहा था ,इच्छा को बताने के लिए ही ,
वो फाइले निकलवायी थी. कई दिनो तक आफिस बन्द होने के कारण इच्छा के घर की स्थिति पूर्वत हो गई अर्थात रोज घर के क्लेशो मे ही उसका दिन बीते| घड़ी मे साढ़े पाँच बज गये थे यह आफिस से घर जाने का समय था .आधे से ज्यादा स्टाफ घर जा चुका था केवल सीनियर मैनेजरों को छोड़कर .
वैसे ,डी डी शर्माजी बढ़ती उम्र और सीमित जिम्मेदारियों के चलते आमतौर पर रोज इच्छा से पहले घर के लिए निकल जाया करते थे | आज इच्छा का मन घर जाने को नही कर रहा था, दबे मन कम्पयूटर शटडाउन कर सभी दराचे लॉक कर अपना बैग कंधे पर टाँग ,पैरो मे मानो कई सारे पत्थर बँधे हो इस प्रकार चलते हुए |रास्ते पर चलते कभी कोई दम्पती दिखते तो कभी बच्चे और युवा, पक्षियों को उड़ता देखती तो सुकून भरी एक उड़ान उनके साथ कल्पनाओं मे ही भर लेती यही उसके निर्जीव जीवन मे प्राण भर रही थी|
हर दिन परिस्थितियों से प्रेरित मन मे चलते युद्ध ने इच्छा को कमजोर सा कर दिया, जिसने उसकी शहनशीलता को प्रभावित करा, और साथ ही उसमे परिवर्तन के बीज भी बोने लगी थी | यह बदलाव जहाँ एक नये साहस को जन्म दे रहा था ,वहीं कुरीतियो और रूढ़िवादी सामाजिक परम्पराओं के, तिरस्कार के लिए भी उसे प्रेरित कर रहा था | अभी तक उसने अपने अस्तित्व को केवल उन चार दिवारों में बाँट रख्खा था , जिसकी नींव खोखली थी, वह उन्ही दीवारो पर छत डाल एक घर बनाना चाहती थी| जिसमे केवल प्रेम और शान्ति का निवास हो इसी आशा मे उसने अपने विवाह के सोलह वर्ष गुजार दिये | रोज के आत्म मंथन मे परिस्थितियो ने भी इच्छा का खूब साथ निभाया जिसके परिणाम स्वरूप बदलाव की तीव्रता अब जोर मार रही थी बर्दाश्त की सीमाओं को तोड़कर | वैसे तो आये दिन इच्छा शारीरिक व मानसिक प्रतारणाओं से गुजरती थी , किन्तु रोज थोड़ा -
थोड़ा आत्मविश्वास द्वारा दिये गये सम्बल से उसमे एक क्रान्ति सी आ गई थी |एक रात पुनः एक घटना ने उसके अन्दर विचारो का एक तूफान सा ला दिया था , इच्छा सोचने लगी , अपनी दुर्दशा का कारण मै ही हूँ, क्या मै इन्सान नही या मुझे कोई पीड़ा नही होती, मुझे जीने का अधिकार नही है?
आखिर दोष क्या है मेरा , माता पिता ने जिसे मेरे योग्य समझा, मैने स्वीकार कर सहर्ष अपनाया | जहाँ भेजा , आ गई| रिश्तों की खुशी के लिए स्वंय के अस्तित्व तक को समाप्त कर लिया | एक इन्सान के सुधरने की उम्मीद पर ,
अपने जीवन का वह हिस्सा दे दिया, जो मेरे आज को बेहतर बना सकता था| मैने अपने जीवन मे क्या पाया , जिन रिस्तो मे खुशी की तलाश थी , उनमे आज तक घृणा के अलावा कुछ भी तो नही मिला मुझे | किस आस मे बैठी हूँ मै, क्या बदल जायेगा जो अब तक न बदला , या फिर कन्धे पर अन्तिम यात्रा के लिए| अचानक मानो बिजली सी कौंध गई हो विचारो मे , नही! मुझे मरना नही !और मरू भी तो किसके लिए , उन लोगो के लिए जिन्होने कभी एक इन्सान तक का दर्जा न दिया मुझे | उस आदमी के लिए जिसपर मैने अपना मान सम्मान सब कुछ लुटा दिया, सिर्फ उसमे बदलाव की आशा से , जिसके लिए पत्नि और बच्चो का कोई मतलब ही नही|
नही! मुझे मरना नही ! मै इन प्रेतो के बीच नही रहुँगी , मै इस प्रेतालय मे भी नही रहुँगी हाँ! मेरे लिए यह प्रेतालय ही तो है, इन लोगों की प्यास रोज मेरा रक्त चूसकर ही तो बुझती है | देखो तो! मेरे आँखों के काले घेरे ये बताते हैं ,और! और मेरे शरीर पर चोट के निशान यह बताते है , यह सब चिल्लाकर यही तो कह रहे है| पर मुझे मरना नही है भले ही जीवन के अनेको अवसर बीत चुके हो , भले ही मंजिल दूर और पहुँचना मुश्किल , पर अवसर समाप्त तो नही हुए , और जीवित रहना भी किसी अवसर से कम है क्या, मानती हूँ मेरे पास कुछ नही पर साहस तो किसी ने न छीना है ? अपने ही प्रश्नो के उत्तर मन मे तलाशती और अपने जख्मों पर मरहम की तरह रख देती इसी तरह मध्यरात्री का सुबह की नजदीकियों के बीच निद्रा ने इच्छा की पलको पर हलकी सी थपकी दी पर वह भी थोड़ी देर के लिए ही उसे शान्त कर पाई, रोज की तरह नियमित समय वह पुनः अपनी दिनचर्या मे लग गई , इच्छा के मन मे आज भय के साथ अजीब सी उथल -पुथल थी , जो उसके किसी निर्णय की ओर संकेत कर रही थी | आज भी इच्छा रोज की तरह सारा काम खत्म कर पति के लिए भोजन बना कंधे पर साइड बैग टांग घर से आफिस के लिए निकलती है | आफिस पहुँचने ही वाली होती है तभी वह उल्टी दिशा की तरफ चल पड़ती है, कुछ दूर जाने के पश्चात कुछ विचार कर पुनः आफिस के तरफ चल पड़ती है| आज पहली बार बिना किसी को सुबह का अभिवादन किये चुपचाप सीधे अपनी सीट पर जा बैठती है |
कुछ देर सबकुछ शान्त रहा पर इस शान्ति के बीच आसमान को काले बादलो ने घेर लिया हो जैसे इच्छा के आँखो की कुछ ऐसी ही दशा थी , कि डीडी शर्मा जी ने आवज दी इच्छा यहाँ आ इधर बैठ , इच्छा अनसुना कर सिस्टम ओपन कर काम मे अपनी व्यस्तता दिखाने लगी , किन्तु डीडी शर्मा जी कि आवाज ने काले बादलो मे चट्टान का काम किया और उसके आँसू आँखों की सीमायें लाँघ गये जिसे छिपाने का इच्छा ने भरकर प्रयास किया किन्तु बादल बहुत घने थे आँखे उनके बोझ को सम्भाल नही पा रही थी , वह जिस पेपर को हाथ में लेती वही गीला हो जाता | इच्छा स्थिति को शायद डीडी शर्माजी समझ गये थे तो , दो तीन बार आवज लगाई थोड़ा हँसाने की मुद्रा मे , और इच्छा खुद को सम्भालने की कोशिश मे ताकी वह अपने आँसू छिपा सके किन्तु बार -बार बुलाने पर इच्छा मुँह चुराते हुए उनके पास उपस्थित हो जाती है , डीडी शर्मा जी जो कि पहले ही उसकी इस स्थिति को समझ चुके थे उसे अपने सामने बैठने को कहा और सामने टेबल पर रख्खे पानी को ऑफर करते हुये , ले पानी पी | इतना सुनते ही इच्छा ने जिन आँसुओं को बड़ी मुश्किल से बाँध रख्खा था मौका पाते ही बिफर पड़े | "क्या हुआ तुझे", " घर पर मार पीट करके आई है क्या?" थोड़ा मसखरे अन्दाज मे डी डी शर्मा जी ने कहा | इच्छा के आँसू थमने का नाम ही नही ले रहे थे | उन आँसुओ मे इतना शोर था, कि उसे आस पास की कोई खबर न थी | "ओके -ओके पहले थोड़ा पानी पी" , डी डी शर्मा जी ने इच्छा से कहा , अपनी बातो के प्रति कोई प्रतिक्रिया न देख , अपने बाई तरफ रख्खे कुछ बिल्स, सर्टिफिकेट और बिल्टियाँ उठाते हुए, इच्छा को ऐसे थमाते है ,जैसे इच्छा की इस स्थिति से उन्हे कोई फर्क न पड़ा हो | इच्छा पेपर्स ले पुनः अपनी सीट पर जाकर बैठ जाती है | यह भी शायद उनका तरीका था , इच्छा का ध्यान परिवर्तित करने का|
समान्य होने पर डीडी शर्माजी ने इच्छा को पुनः अपने पास बुला "अब बता क्या हुआ क्यों इतनी परेशान रहती है तू" | इच्छा ने कहा "सर मै रिज़ाइन कर रही हूँ जाब से" | क्यों? डी डी शर्मा जी ने पूछा | " सर, शहर से बाहर जा रही हूँ"| "हाँ तो फिर छुट्टी ले -ले न जाब छोड़कर जाने की क्या आवश्यकता है ", मै हमेशा के लिए जा रही हूँ| " तेरा तो यहाँ घर है न फिर क्यो जा रही है | " डी डी शर्माजी ने कहा | "नही सर, मेरा कोई घर नही इसीलिए जा रही हूँ| "इच्छा ने कहा | "अच्छा ले पहले पानी पी फिर बता मुझे पूरी बात |" सामने रख्खे पानी के ग्लास को इच्छा के सामने बढ़ाते हुए डी डी शर्मा जी ने कहा| इच्छा केवल उनका मान रखते हुए होंठो पर लगाते, हल्की धूँट भर ,वापस मेज के किनारे हिस्से पर ,ग्लास रखते ही ,मानो आँखे यही मौका देख रही थी , कि पुनः बरस पड़तीं है| भर्राये गले से आँसुओं के बीच बड़ी कठिनाई से अपनी परिस्थितियाँ डीडी शर्माजी के आगे बयाँ की| कुछ देर सोचने के पश्चात डीडी शर्मा जी ने कहा , "बेटा ,समस्या से भागना हल नही होता ,बल्कि उनसे लड़ना, समधान तलाशना ,ही बेहतर विकल्प है| " लड़ूं ! किससे सर ,अपनो से , अरे हाँ !मै तो भूल ही गई थी , मेरा अपना है ही कौन | और जब अपना कुछ है ही नही ,तो क्यों लड़ूं ? किसके लिए लड़ूं ? और मुझमे हिम्मत भी नही है सर| और अगर होती तो सोलह वर्षो तक सबकुछ सहन क्यों करती | अब हिम्मत टूट चुकी है बर्दाश्त करने की सर, बदलाव की प्रतीक्षा भी जवाब दे चुकी है अब | दो ही विकल्प अब शेष बचे हैं, मेरे पास, सबकुछ बर्दाश्त कर जीवन को तिलांजली दे दूँ ,या फिर जो साँसे बची है , उसपर जिन्दगी की कहानी लिखूँ | मैने दूसरा विकल्प चुना है सर | मुझे मरना नही , इसीलिए यह शहर छोड़कर जाना चाहती हूँ | यह बात भी अपने अलावा केवल आपको बता रही हूँ | फिर एक बार विचार कर ले इच्छा! मर्द तो कैसे भी अपनी जिन्दगी काट लेता है, लेकिन औरत के लिए यह बहुत मुश्किल है | यह समाज उन्हे जीने नही देता डी डी शर्माजी ने कहा | "समाज से डरता कौन है?" अभी तक समाज की ही तो परवाह करके सब कुछ बर्दाश्त कर रही थी |
क्या समाज केवल अत्याचार होते देखने, या फिर खिल्ली उड़ाने के लिए बना है | यदि यह सत्य है तो मुझे ऐसे समाज की परवाह नही | नही मानती मै उस समाज को जो बेटियों की पीड़ा को झांँकने तक नही आता है और उल्टे लाश बनने पर कंधे को ही शान समझता है | मुझे मृत्यु के बात पति के कंधो का गुमान नही चाहिए| मुझे जीवन चाहिए जिसका अधिकारी मुझे ईश्वर ने बनाया है उसके मारने से पहले मुझे नही मरना | इतना कह इच्छा शान्त हो गई | डी डी शर्माजी पुनः दोहराते हुये इच्छा! फिर भी बेटा एक बार विचार जरूर कर लेना तू , अकेली नही दो बच्चे है तेरे साथ | यह कह वे केबिन से बाहर निकल जाते हैं| इच्छा उसी अवस्था मे, शान्त बैठ फिर एक चिन्ता मे डूब जाती है | डीडी शर्मा जी द्वारा उठते समय ,कहे वह आखिरी शब्द ,उसके कानो में गूँजने लगते हैं ,जो उन्होने उसके बच्चो के लिए कहे थे| इच्छा कई दिनो तक उस चीटी की भाँति, जो पूरे प्रयास से अपनी समस्त शक्तियों को इकटठा कर दीवार पर चढ़ने की कोशिश करती है ,और बार - बार अपने ही बोझ से नीचे गिर जाती है| कई दिनो तक इच्छा इसी कशमकश मे आत्ममंथन करती रही | फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने उसे निर्णय तक पहुँचा दिया | क्रमशः...