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अभिव्यक्ति - काव्य संग्रह पार्ट- 1

"निःशब्द"

शब्द को निःशब्द कर दूं, वाणी को विराम दूँ,,
ह्रदय में है आज कुछ ऐसा करूँ की स्वयं को अभिमान दूँ ।।

संवेदनाएं है मृतप्रायः आज उन्हें जाग्रत करूँ,,
हूँ मैं मानसपुत्र ये स्वयं को ही सिद्ध करूँ।।

कोलाहल बहुत है जग में,
शोर में मैं खो गया,,
जग जाऊं गहरी निद्रा से जीवन को सार्थक करूँ।।

निष्कंटक नहीं है राह मेरी,
पर जग में हर कोई ऐसा,
मैं अकेला तो नहीं,,
जीया पर क्यो निरर्थक जीया ?
आज क्यों न पश्चताप करूँ ?

चल मुस्करा स्वयं से बात कर ये तय किया,
आज की सुबह इक नई सुबह हुई,,
जगा, उठा ओर चला इक नई शुरुआत हुई ।।

आज सुनाई दे रही चिड़ियों की चहचहाट मुझे,,
आज दिखाई दे रही बरसो बाद अम्बर की तरुणाई मुझे ।।

चल अकेला राह पर पथिक,
भीड़ पीछे आएगी,,
बून्द पड़ेगी जब अकेली,
बारिश को पीछे लाएगी ।।

आज इन नन्ही बूंदों ने धरा की प्यास बुझाई है,,
सत्य यही है छोटी छोटी नदियों ने सुमद्र को पहचान दिलाई है ।।

"जज़्बात"

चलो अब फिर कुछ हर्फ (शब्द) ज़िन्दा करें,
रोशन कर कुछ कागज़ात,
अपने जज़्बात ज़िन्दा करें ।।

सो गए हो ए दिल,
आराम कर रहे हो, चलो उठो,
अब जब लग ही गई है आग,
तो महफ़िल में कुछ धुंआ हम भी करें ।।

रफ्ता रफ्ता (धीरे धीरे) कुछ कहना चाहते हो, कह दो,
सजी है महफ़िल, हैं तमाशबीन यहाँ,
चलो कुछ तमाशा हम भी करें ।।

चिराग है, तेल भी, दियासलाई भी,
अब जब जलन सीने में है तो,
चलो कुछ अगन हम भी करें ।।

"केवल और केवल तुम हो"

यादों में मुलाकातों में, वादों में, तन्हाइयों में,
ग़ज़लों में, कहानीयों में, केवल और केवल तुम हो ।।

सवालों में, जवाबो में, जवाबों के सवालों में,
धड़कती हुई धड़कनों में, धड़कनों में धड़कती हुई, केवल और केवल तुम हो ।।

शाम की सिंदूरी आभा में, दोपहर की सुनहरी लड़ियों में,
जीवन को जोड़ती कड़ियों में, केवल और केवल तुम हो ।।

सुबह के उजाले में, रात के अंधियारे में,
हाथ थाम कर स्वप्न में भी, केवल और केवल तुम हो ।।

बातों में मुलाकातों में, भूली बिसरी यादों में,
जीवन की सब राहों में, केवल और केवल तुम हो ।।

बारिश की बूंदों में, धूप में, परछाई में,
जीवन की हर अंगड़ाई में, केवल और केवल तुम हो ।।

"पत्थर"

पत्थरों के शहर में,
पत्थर के इंसानों के बीच,
भगवान भी मेरा पत्थर का,
अजीब लगता है कभी कभी,
पर मैं भी पत्थर सा हो गया ।।

नहीं अब दिल नहीं धड़कता आँसूओं के बीच,
किसी का भूख से बिलबिलाना अब रुलाता नहीं मुझे,
नंगा बदन ठंड में ठिठुरता कोई अहसास नहीं कराता मुझे,
पत्थर सा हो गया हूँ मैं, रह रहा हूँ पत्थरों के बीच ।।

कोई खींच ले उसके बदन से साड़ी, खींच ले मुझे क्या,
कोई तड़पता छोड़ जाए उसे सड़क किनारे, छोड़ जाए मुझे क्या,
कंक्रीट के शहर में मैं भी कंक्रीट सा हो गया,
अब नहीं पड़ता फर्क क्या से क्या ये हो गया,
ईंट रोड़े के शहर में, मैं भी पत्थर का हो गया।।

चाहे जितनी ज़ोर से आवाज़ लगाना,
रोना, तड़पना, कराहना चाहे जितना गिड़गिड़ाना,
आदमी हूं पत्थर का, बताया था न भगवान भी मेरा पत्थर का है,
आदमी था किसी युग मे मैं, अब पाषाण युग में हूँ।।
आदमी था किसी युग मे मैं, अब पाषाण युग में हूँ।।

✒️ ऋषि सचदेवा
📨 हरिद्वार, उत्तराखंड ।
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