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कर्म पथ पर - 38




कर्म पथ पर
Chapter 38


गोमती नदी पर पड़ती सूरज की किरणें इस तरह का प्रभाव पैदा कर रही थीं जैसे नदी पर सुनहरा वर्क चढ़ा हो। तट पर बैठा मदन जय के बोलने की प्रतीक्षा कर रहा था।
जय को संकोच में देखकर मदन ने ही बात आगे बढ़ाई।
"किसी गहरी चिंता में लग रहे हो ? क्या बात है ?"
जय ने दूर दूसरे किनारे पर नज़र टिकाकर कहा,
"मदन मैंने अपने पापा का घर छोड़ दिया। उन्हें मंजूर नहीं था कि मैं उनके घर में रहते हुए उनकी विचारधारा के विपरीत काम करूँ। वो अपनी जगह सही भी हैं।"
"तुम रहने का कोई ठिकाना चाहते हो ?"
जय ने उसी तरह बिना मदन से नज़रें मिलाए कहा,
"सही कहूँ तो इस समय मेरे पास कानी कौड़ी भी नहीं है। जो थोड़े से पैसे थे वो तांगे वाले को दे दिए। इस समय मैं एक मुफलिस बेघर हूँ। तुम अच्छी तरह से लोंच लो। मेरी मदद कर पाओगे।"
मदन भी यही सोंच रहा था। उसके अपने घर में उसकी भी वही दशा थी। परिवार में कोई उसके काम को पसंद नहीं करता था। सबको यही लगता था कि वह सरफिरे लोगों की संगत में अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है। उसका अपने ही घर में सही से ठिकाना नहीं था।
उसने कुछ सकुचाते हुए जवाब दिया,
"जय सही बोलूँ तो मैं भी इस मामले में तुम्हारी सहायता कर सकने की स्थिति में नहीं हूँ। मेरे अपने घर में मेरा कोई आधार नहीं है। लेकिन फिर भी मैं कुछ सोंचकर देखता हूँ।"
जय ने मदन की तरफ देखा। उसके चेहरे पर कुछ ना कर सकने की लाचारी साफ झलक रही थी।
"कोई बात नहीं मदन.... मैं समझता हूँ। मैंने भी एकदम से अपने पापा का घर छोड़ दिया। जब बाहर आया तब समझ आया कि अब जाऊँगा कहाँ। तुम्हारे अलावा कोई नज़र ही नहीं आया जिससे मदद मांग सकूँ।"
मदन ने एक गहरी सांस छोड़कर कहा,
"यही तो समस्या है। हम लोग जो देश के लिए कुछ करना चाहते हैं उन्हें ये समाज नाकारा समझता है। औरों की छोड़ो हमारे परिवार वाले हमें नहीं समझ पाते हैं।"
मदन ने जय के कंधे पर हाथ रखकर कहा,
"पर मैं तुम्हारे इस फैसले की इज्ज़त करता हूँ। तुमने एक कड़ा फैसला लिया है। चाहते तो तुम भी औरों की तरह अपनी दौलत के गुरूर में ज़िंदगी काट सकते थे। पर तुमने ये कठिन राह चुनी। मैं तुम्हारी मदद ज़रूर करूँगा।"
मदन सोंचने लगा कि जय की मदद कैसे करे ? तभी उसे एक खयाल आया। वह जय से बोला,
"अभी पक्का कुछ नहीं कह सकता हूँ। पर एक शख्स है जो शायद तुम्हारी मदद कर दे।"
मदन ने अपनी घड़ी पर नज़र डालते हुए कहा,
"इस समय वो घर पर होंगे। चलो चलते हैं। पर भाई हमें पैदल चलना होगा। तुम्हारे सारे पैसे खर्च हो गए। मैं घर से लेकर नहीं चला था।"
जय हंसते हुए बोला,
"जब अपनी मनचाही राह पर कदम बढ़ा ही दिया है तो फिर छोटे मोटे कष्टों से क्या डरना।"
अमीनाबाद की कई गलियों से गुजरते हुए दोनों एक मकान के सामने जाकर खड़े हो गए। मकान पर एक पत्थर चस्पा था। उस पर लिखा था 'अग्रवाल सदन'। दरवाज़े पर लगी तख्ती बता रही थी कि उस घर का वर्तमान मालिक विष्णु अग्रवाल थे।
मदन ने दरवाज़े पर लगी कड़ी को ज़ोर से खड़खड़ाया। कुछ ही पलों में एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला। उन्हें देखकर मदन ने पूँछा,
"काका... विष्णु दादा हैं क्या ?"
"हाँ हैं....आओ भीतर आओ..."
मदन और जय काका के साथ अंदर चले गए। काका ने उन्हें बैठक में बैठाते हुए कहा,
"बैठो... मैं बाबू को भेजता हूँ।"
काका के जाने के बाद मदन ने जय को बताया कि विष्णु दादा उसके चचेरे भाई के दोस्त हैं। पत्नी बच्चे को जन्म देकर सिधार गई। बच्चा भी कुछ ही महीनों में चल बसा। दादा ने उसके बाद घर नहीं बसाया। अमीनाबाद में कई दुकानें हैं। उनका किराया ही दादा के लिए बहुत है। फिर भी अपने शौक के लिए किताबों की एक दुकान खोल रखी है।
कमरे में प्रवेश करते ही विष्णु ने कहा,
"मदन.... बहुत दिनों के बाद आए। घर में सब ठीक है ?"
मदन ने उठकर उन्हें प्रणाम किया। जय ने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया। बैठते हुए मदन ने कहा,
"घर में सब ठीक है दादा। आप बताइए कैसा चल रहा है ?"
"सब ठीक है। अभी दुकान बंद करके आया था।"
विष्णु ने बात करते हुए जय की तरफ देखा। मदन ने परिचय देते हुए कहा,
"दादा ये जयदेव टंडन है। मेरा दोस्त है। इसे कुछ मदद चाहिए थी। इसलिए ही आया था।"
विष्णु ने गौर से जय की तरफ देखकर कहा,
"तुम श्यामलाल टंडन के बेटे हो। तुमने ही कुछ महीनों पहले वह नाटक किया था। एक अंग्रेजी अखबार में तुम्हारी तस्वीर छपी थी।"
जय ने जवाब दिया,
"जी... सही पहचाना आपने।"
"तुम्हारे पिता तो लखनऊ के माने हुए वकील हैं। रसूखदार इंसान हैं। मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ।"
जय ने मदन की तरफ देखा। मदन ने विष्णु को सारी बात बता दी। सब सुनकर विष्णु ने कहा,
"तो तुमने अपने पिता के घर के ऐशो आराम को छोड़ दिया है।"
जय ने धीरे से सर हिला दिया। विष्णु ने आगे कहा,
"अब तक तुम जिस जीवनशैली के आदी रहे हो उसके बिना रह पाओगे ?"
इस बार जय ने उनके चेहरे की तरफ देखकर पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा,
"मैं अब तक अपने पिता की दौलत और रसूख की बैसाखियों पर चल रहा था। फिर भी मैंने वह सब छोड़ दिया। मुझे अपने फैसले पर पूरा भरोसा है। बस कुछ मदद की ज़रूरत है।"
"तुम्हारे पास इस समय कुछ भी नहीं है। ना रहने को छत और ना ही जीवन यापन करने के लिए पैसे। तुम्हारा उद्देश्य ठीक हो सकता है। पर जीने के लिए कुछ मूलभूत चीज़ें तो चाहिए ही।"
जय कुछ ठहर कर बोला,
"यह सही है कि मैंने घर छोड़ते हुए इन चीजों पर विचार नहीं किया था। पर जो राह मैंने चुनी है अब उस पर आगे ही बढ़ना है। अब अगर सड़क पर भूखा सोना पड़े तो वह भी मंजूर है।"
विष्णु कुछ देर तक जय के चेहरे को ध्यान से निहारते रहे। जय का संकल्प उसके चेहरे पर झलक रहा था। उसके शब्द उसकी वाणी से मेल खा रहे थे। उन्होंने कहा,
"चलो अगर सर छुपाने को छत मिल भी जाए तो बाकी ज़रूरतों का क्या करोगे ?"
जय सोंच में पड़ गया। मदन ने कहा,
"दादा...ये ठीक है कि जय अब तक आराम का जीवन जीता रहा है। पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि इसे अगर कोई काम मिले तो अच्छी तरह से करेगा। अभी कुछ दिनों पहले ही इसने हिंद प्रभात का एक काम आसानी से कर दिया था।"
विष्णु अभी भी जय की तरफ ही देख रहे थे। जय समझ गया कि वह उससे आश्वासन चाहते हैं। वह बोला,
"मैंने आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अपने उद्देश्य के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। अगर आप मुझे कोई ज़िम्मेदारी सौंपेंगे तो मैं आपको निराश नहीं करूँगा।"
विष्णु विचार करने लगे। मदन और जय चुपचाप उनके कुछ कहने की राह देख रहे थे।
कुछ देर के बाद विष्णु बोले,
"मैं एकदम से कोई फैसला नहीं कर सकता हूँ। मुझे दो तीन दिन चाहिए।"
मदन ने कहा,
"दादा...ये तो बहुत वक्त हो जाएगा। इसने तो घर छोड़ दिया है।"
"जानता हूँ। पर मैं इतनी जल्दी फैसला नहीं ले सकता हूँ।"
मदन चुप हो गया। वह जानता था कि विष्णु ने अगर कहा है तो वह बिना सोंच विचार किए निर्णय नहीं लेंगे। वह उठकर खड़ा हो गया। विष्णु को प्रणाम कर बोला,
"ठीक है दादा में तीन दिन बाद आता हूँ। आप सोंच लीजिए।"
विष्णु ने उसे बैठने का इशारा किया। मदन के बैठने पर बोले,
"मदन मेरा तो उसूल है कि ज़िंदगी में कोई भी फैसला जल्दबाजी में या भावुकता में नहीं लेना चाहिए। मैं उस उसूल के खिलाफ नहीं जाऊँगा। हाँ आज तुम लोगों को बिना खाना खाए नहीं जाने दूँगा। तुम बैठो मैं काका से कहकर खाना लगवाता हूँ।"
विष्णु के घर से निकल कर दोनों रंजन के घर गए। उसे पूरी बात बता कर मदन ने कहा,
"जब तक विष्णु दादा कोई फैसला नहीं करते तुम जय को अपने साथ रख लो।"
"मदन भाई मुझे कोई दिक्कत नहीं। जय भाई जब तक चाहें यहाँ रहें।"
जय ने कहा,
"बस कुछ दिन। उसके बाद अगर विष्णु जी नहीं माने तो मैं कोई और इंतज़ाम कर लूँगा।"
जय को रंजन के पास छोड़कर मदन अपने घर चला गया।